धार। जिले के ग्रामीण क्षेत्र में फ्लोराइड को लेकर जिस तरह की जागरुकता की आवश्यकता है, वह मैदानी स्तर पर नहीं दिख रही है।
दरअसल कुपोषण और फ्लोराइड दोनों का आपस में सम्बन्ध है। जिले में कुपोषण के कारण कई बच्चे इसका शिकार होते जा रहे हैं। वहीं अभी भी लड़के और लड़कियों में खानपान में भेदभाव किया जा रहा है। इसी वजह से फ्लोराइड प्रभावित क्षेत्रों में जहाँ कुपोषण है, वहाँ पर बच्चों की स्थिति चिन्ताजनक है। माना जा रहा है कि कैल्शियम, विटामिन सी से लेकर अन्य कई जरूरी पोषक तत्व नहीं मिल पा रहे हैं इसीलिये इस तरह की स्थिति बनी है।
फ्लोराइड की मात्रा पानी में अधिक होने के कारण बच्चे दन्तीय फ्लोरोसिस से प्रभावित हो रहे हैं। इस तरह के हालात में कहीं-न-कहीं बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है।
जब तक ग्रामीण क्षेत्र के लोग खुद जागरूक नहीं होंगे तब तक इस तरह की स्थिति में सुधार के लिये किये गए प्रयास शत-प्रतिशत सफल नहीं हो सकते।
वर्तमान में पीने के पानी को शुद्ध करने के मामले में कई बार ऐसे खनिजों का पानी से नुकसान हो जाता है जो कि मानव शरीर के लिये जरूरी है। उन्होंने कहा कि खासकर आरओ या अन्य माध्यम से उपयोग होने वाले पानी में कभी-कभी जरूरी खनिज तत्व नहीं होने के कारण भी ठीक से पोषण नहीं हो पाता है और समस्या उत्पन्न होती रहती है।
इधर स्थिति यह है कि जिले के किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में यदि समस्या को देखें तो वहाँ पर फ्लोराइड प्रभावित बच्चों की संख्या बड़ी तादाद में सामने आ जाती है। जिले के ग्राम सीतापाट में 8 साल का एक बच्चा इस परेशानी के चलते दिव्यांग हो गया है। यह बच्चा सामान्य रूप से स्कूल जा रहा है लेकिन कई तरह की परेशानी से जुझना पड़ता है। गाँव में ऐसे और भी कई बच्चे हैं जिनको फ्लोरोसिस बीमारी की समस्या होने की आशंका है जिसके कारण दन्तीय फ्लोरोसिस बच्चों में दिक्कत बनी हुई है।
ग्राम सीतापाट व करौंदिया में यह बात सामने आई कि एक गाँव में एक ही हैण्डपम्प से सभी गाँव वाले पानी पीते हैं बावजूद उसके परिणाम अलग-अलग हो रहे हैं। ग्राम करौंदिया में उर्मिला नामक बच्ची फ्लोरोसिस से प्रभावित है जबकि वहीं उसका भाई प्रभावित नहीं है। ऐसी स्थिति सामने आने पर यह माना जा रहा है कि मुख्य रूप से खान-पान एक बड़ा फैक्टर है। कुपोषण जैसी स्थिति बन रही है। खासकर लड़के-लड़कियों में भेद करने के कारण भी इस तरह की स्थिति बनती हैै।
विटामिन सी एवं कैल्शियम की गोलियाँ भी उपलब्ध करवाई गईं। इसके माध्यम से सलाह दी गई है कि इन चीजों को खाने के साथ-साथ अपनी जीवनशैली में पोषक तत्वों को भी अपनाएँ। कुपोषण से बचकर भी इस बीमारी से लड़ा जा सकता है।
फ्लोराइड जैसे मसले पर मैदानी स्तर पर देखें तो एक बात यह स्पष्ट हो गई है कि अभी भी आदिवासी अंचल के लोगों में अशिक्षा जैसी स्थिति बनी हुई है। यह बात तब देखने को मिलती है जब विविध संस्थाएँ या सरकारी तंत्र ग्रामीणों को स्वस्थ रहने के लिये शुद्ध पानी उपयोग करने की सलाह देता है तो उस सलाह को वह नहीं मानते हैं।
ग्रामीण क्षेत्र में पीने के पानी के जो सोर्स हैं, वह खराब हो चुके हैं। ऐसे में उन सोर्स का उपयोग केवल खेती के काम में इस्तेमाल होना चाहिए। जबकि अशिक्षा के कारण अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र के लोग इसका उपयोग पीने के तौर पर कर लेते हैं। एक तरफ यह कहा जाता है कि सरकार द्वारा प्रयास नहीं किये जा रहे हैं जबकि सरकारी एजेंसी से लेकर विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा जागरुक करने के बावजूद भी लोग यह ध्यान नहीं देते हैं कि आखिर में कौन से पानी का इस्तेमाल कब और कैसे किया जाये।
ग्रामीण क्षेत्र में यह बात सामने आती है कि गर्मी के दिनों में ग्रामीण फ्लोराइड युक्त पानी पीने को मजबूर हैं। गर्मी में अधिकांश हैण्डपम्प से पानी आना बन्द हो जाता है। जिन हैण्डपम्प से पानी की आवक बनी रहती है उसी का पानी पीना उनकी मजबूरी होती। इन परिस्थितियों में सबसे बड़ी चुनौती रहती है कि वह आखिर किस सेफ सोर्स या सही विकल्प की ओर जाएँ। परिणामस्वरूप इन ग्रामीणों को आदिवासी अंचल के लोगों को पीने का पानी दूषित यानी फ्लोराइड की अधिक मात्रा वाला पानी हैण्डपम्प से लेना पड़ता है। इस तरह की स्थिति में लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
वहीं बारिश के दिनों में भी लोग लापरवाही कर जाते हैं। जागरुकता का अभाव होने के कारण स्थिति बनती है लगातार कई दिनों और कई माह तक अध्ययन करने में यह पाया गया है कि ग्रामीण क्षेत्र के लोग बारिश के दिनों में हैण्डपम्प में पानी की आवक बढ़ जाती है तब भी वह अपने घर के नजदीकी हैण्डपम्प से ही पानी लेने की स्थिति में रहते हैं।
यह मानवीय स्वभाव है कि कोई भी व्यक्ति अपने पास में आसानी से चीज उपलब्ध हो तो पहले उसे प्राथमिकता देता है। लेकिन जब स्वास्थ्य की भयावह स्थिति बन रही हो और तमाम लोग इस बात को बता रहे हो कि वह शुद्ध पानी अपने घर से कुछ दूर जाकर ले सकता है तो उस दिशा में भी ध्यान देने की आवश्यकता है। ऐसी कई कमियों से मैदानी स्तर पर परेशानियाँ बनी हुई हैं। जब तक ग्रामीण क्षेत्र में सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ विभिन्न स्तर पर जागरुकता के प्रयास नहीं होंगे तब तक दिक्कत होती रहेगी।