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प्रदूषण और जलगुणवत्ता

शहरी तालाबों की लड़ाई

Author : इंडिया वाटर पोर्टल

शहरों में

प्राकृतिक संसाधनों के प्रति नजरिया ही इस बड़े स्तर पर हो रही लड़ाई का मूल कारण है। औपनिवेशक नजरिए के असर के प्रभावित सरकारी अधिकारी ‘विकास’ के नाम पर पश्चिमी तौर-तरीकों को फिर से शुरू करने में विश्वास रखते हैं। इन लोगों को कुछ क्षेत्रों में विजय मिली है, पर अभी और बहुत कुछ होना बाकी है।

हैदराबाद

बागवानी पेशे वाले रवीन्द्र रेड्डी और अस्मानिया विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर उनके भाई पुरुषोत्तम का हैदराबाद के उपनगर सरूरनगर में 30,000 पौधों वाला गुलाब का बगीचा था। यह एक आदर्श नर्सरी थी। अचानक इसमें लगाए गए पौधों में से 10,000 सूख गए। खोजबीन करने से पता लगा कि पास में स्थित एक रासायनिक फैक्टरी ने अपने कचरे को जमीन में बहाना शुरू किया था, जिससे भूमिगत जल के स्रोतों में जमा पानी संदूषित हो गया था।

पुरुषोत्तम रेड्डी ने आस-पास के फार्म वालों से सम्पर्क किया। इसके फलस्वरूप सिटिजन्स अगेंस्ट पॉल्यूशन (कैप) नाम के संगठन की शुरुआत हुई। पानी का निरीक्षण करवाने के बाद इस संगठन के सदस्य सरकारी दफ्तरों में एक अर्जी लेकर गए। इसका विवरण प्रेस में भी दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि फैक्टरी ने कचरे का परिशोधन प्लांट लगा दिया। इसके साथ-साथ सरकार ने भी इस क्षेत्र में स्थित 13 कॉलोनियों में पीने का पानी उपलब्ध कराया। और तो और, इस क्षेत्र में 50 एकड़ जमीन पर वृक्षारोपण से सम्बन्धित योजना भी शुरू की गई। इसके दो वर्ष बाद कैप ने हैदराबाद के एक सांस्थानिक क्षेत्र नाचरम में भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया। यहां स्थित फैक्टरियों से निकलने वाले कचरों और जहरीली गैसों से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा था। कैप ने इसमें प्रभावित सभी निवासियों को एक सप्ताह तक चली भूख हड़ताल के लिए तैयार किया। इसके बाद प्रदूषण बोर्ड के दफ्तर के सामने धरना भी दिया गया था।

कैप के अलावा सोसाइटी फॉर प्रिजर्वेशन ऑफ एनवायरमेंट एंड क्वालिटी ऑफ लाइफ एक अन्य महत्त्वपूर्ण संगठन है जो हैदराबाद में स्थित तालाबों को बचाने के काम में लगा है। इस संस्था ने सितम्बर, 1993 में एक आन्दोलन शुरू किया, जिसे हैदराबाद के तालाब बचाओ का नाम दिया गया। इसके सदस्यों में एक केएल व्यास भी हैं, जो सरूनगर झील के पास रहते हैं। यह ताजे पानी की हैदराबाद की सबसे बड़ी झील है। इसका निर्माण पूर्वी हैदराबाद की सबसे बड़ी झील है। इसका निर्माण पूर्वी हैदराबाद में सन 1624 में किया गया था।

व्यास इस आन्दोलन से उस समय जुड़े जब उन्होंने पाया कि उनकी कॉलोनी में भूमिगत जल का स्तर झील में जमा पानी के साथ-साथ घट रहा था। व्यास कहते हैं, वर्षा के जल को झील में पहुँचाने के लिए बनाए गए नालों को पास की कॉलोनी के कचरे को निकालने के काम में लाया जा रहा था (शुरुआत में इस तालाब के पास अधिकृत 69 एकड़ जमीन थी जो अब अतिक्रमण की वजह से घटकर सिर्फ 40 हेक्टेयर रह गई है)। करीब 200 मछुआरे अपनी आजीविका चलाने के लिए इस तालाब पर निर्भर हैं। जब कुछ मछलियां मरने लगीं, तो मछुआरों ने आन्ध्रप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से सम्पर्क किया। इस बोर्ड ने इन मरी हुई मछलियों की जाँच करने के बाद एक रिपोर्ट हैदराबाद के नगरपालिका काउंसिल के पास भेजी, जिसमें कचरे को कहीं और फेंकने का अनुरोध किया गया था। पर इस तरफ कोई भी कदम नहीं उठाया गया। सोसाइटी ने राज्य सरकार से अनुरोध किया है कि शहर के तालाबों के संरक्षण और रखरखाव से सम्बन्धित कार्यों के लिए एक सेल तैयार किया जाए। अगर तालाबों का विकास अच्छी तरह से किया जाए तो हैदराबाद और सिकंदराबाद के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध कराने में काफी मदद मिलेगी।

स्थानीय मछुआरों की समिति के सचिव जी प्रभाकर रेड्डी के अनुसार, ‘एक समय में हम एक ही दिन में 500 किलो तक मछलियां पकड़ लेते थे, पर आज हम सिर्फ 50 किलो ही पकड़ पाते हैं।’ व्यास के अनुसार, मत्स्य पालन विभाग ने जो भी उपाय अपनाए हैं, वे सभी पानी में अत्यधिक प्रदूषण से सफल नहीं हो पाए। इसके अतिरिक्त जब भी वर्षा जल की वजह से झील में पानी जमा होता है। तो सिंचाई विभाग उन्हें बाहर निकाल देता है, क्योंकि अतिक्रमण वाले घर इसमें डूबने लगते हैं। सिंचाई विभाग ने तो मछुआरों के खिलाफ एक मुकदमा भी शुरू किया था, क्योंकि उन्होंने 1994 में पानी को निकालने का विरोध किया था। आज भी पानी को निकाला जा रहा है।

बंगलुरु

वर्ष 1994 में पर्यावरण को बचाने के लिए बंगलुरु में एक बहुत बड़ी रैली का आयोजन किया गया था जिसमें सभी उम्र, जाति के स्त्री-पुरुषों में भाग लिया था. इसका मुख्य उद्देश्य दक्षिण बंगलुरु स्थित 112 हेक्टेयर के माडीवाला तालाब को सत्ता के दलालों से बचाना था। बंगलुरु में कर्नाटक वन विभाग ने तालाब बचाओ अभियान शुरू किया था, जिसके अन्तर्गत 25 तालाबों के लिए 50 लाख रुपए की एक परियोजना शुरू की गई थी। इसके अतिरिक्त विभाग ने कई पदयात्राओं और नुक्कड़ नाटकों का आयोजन करवाया है और तालाबों को बचाने के लिए कमेटियों की स्थापना भी की। इससे तालाब के पास रहने वाले लोगों को सम्मिलित करने में सहायता मिली। बंगलुरु में काम कर रहे स्वयंसेवी संगठन, सिटिजन वालंटरी इनिशिएटिव फॉर द सिटी, कर्नाटक सरकार के कोरमंगला तालाब पर 270 करोड़ रुपए खर्च करके 5,000 फ्लैटों का निर्माण कराने के आदेश के विरुद्ध संघर्ष कर रही है। इन फ्लैटों का निर्माण 1996 में आयोजित होने वाले राष्ट्रीय खेलों में भाग लेने वाले करीब 6,000 खिलाड़ियों को जगह देने के लिए किया जा रहा था। संगठन ने आदेश के खिलाफ जनहित याचिका भी दायर की थी।

चेन्नई

चेन्नई में कंज्यूमर एक्शन ग्रुप (कैग) ने तालाबों को बचाने के लिए एक जनहित याचिका दायर की है। तालाबों के आस-पास के क्षेत्रों में तमिलनाडु आवास बोर्ड और आवास एवं नगर विकास निगम द्वारा विभिन्न परियोजनाएं शुरू करने के विरुद्ध कैग संघर्ष कर रही है। यह एक आश्चर्य जनक बात है कि शहर के विकास के लिए बने विभ्ग ही उसके अहित के कार्यक्रम चलवा रहे हैं। इन योजनाओं से सम्बन्धित दस्तावेजों में तालाबों की एक पोरामबोक या उजाड़ जमीनों का दर्जा दिया गया है। कैग ने विश्व बैंक को एक पत्र भेजा, जिससे उसके द्वारा इन योजनाओं के कार्यन्वयन के लिए जरूरी धन उपलब्ध कराने से सम्बन्धित निर्णय पर आपत्ति की गई है। विश्व बैंक के अवसंरचना परिचनालन विभाग के प्रमुख रोबर्ट, एन, केनपिल ने उत्तर दिया, तमिलनाडु राज्य में निवास स्थानों को विकसित करने की आज की बहुत जरूरत है। राज्य सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में करीब 70,000 जगहों और प्लाटों को उपलब्ध कराया है। इनमें चेन्नई के कुछ तालाब भी शामिल हैं, जिसमें अंबाट्टूर आदि प्रमुख हैं। इनसमें जुडी योजनाओं को कार्यान्वित करने का काम तमिलनडु आवास बोर्डके पास है इस काम में चेन्नई क्षेत्रीय विकास प्राधिककरण जैसे संस्थाए भी हुई हैं।

इस तरह इनमें से अधिकतर आन्दोलन की शुरुआत एक छोटे ग्रुप के द्वारा हती है, जो जन समूहों को इन चीजों से अवगत कराते हैं। इन आन्दोलनों के फलस्वरूप सरकार भी कदम उठाने में विवश है। फैक्टरियों को अपना कचरा साफ करने के लिए विशेष पलाटों को स्थापित करने पर विवश किया गया है। पर इन सबके बावजूद शहरी इलाकों में स्थित जलाशुयों की हालत सरकारी उपेक्षा की वजह से बिगड़ती ही जा रही है। भविष्य में ऐसे और भी कई आन्दोलनों और संगठनों को चलाने और संरक्षण अच्छी तर ह किया जा सके।

(‘बूँदों की संस्कृति’ पुस्तक से साभार)

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