भारत जैसे देश में जहाँ तेजी से बढ़ती जनसंख्या और शहरीकरण जल संसाधनों पर भारी दबाव डाल रहे हैं। ऐसे में पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता सुनिश्चित करना सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। जल का अपशिष्ट होना और उसका प्रदूषण न केवल प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावित करता है, बल्कि स्वास्थ्य, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर भी गम्भीर प्रभाव डालता है.
अपशिष्ट अथवा गन्दे जल का अनुचित प्रबन्धन भारत की प्रमुख समस्याओं में से एक है। 'वेस्ट टू वर्थः मैनेजिंग इंडियाज अर्बन वाटर क्राइसिस थू वेस्टवाटर रीयूज' नामक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले केवल 28 प्रतिशत गन्दे पानी और सीवेज का ही उपचार किया जाता है, बाकी 72 प्रतिशत अनुपचारित रह जाता है, जो नदियों, झीलों और भूमि में सीधे प्रवाहित हो जाता है, जिससे व्यापक जल प्रदूषण होता है। भारत में लगभग 20 प्रतिशत भूजल क्षेत्र अत्यधिक दोहन या गम्भीर स्थिति में हैं। इसके अलावा 55 प्रतिशत घरों में या तो खुले नाले हैं या नालों की व्यवस्था ही नहीं है। 302 नदी खण्डों में से 91 प्रतिशत प्रदूषित हैं। जल संकट को कम करने के लिए अगर इस अपशिष्ट जल को उपचारित और पुनः उपयोग किया जाए, तो स्थिति में सुधार आ सकता है।
उल्लेखनीय है कि जल शक्ति मंत्रालय के निर्देशानुसार सभी शहरों को उनके उपभोग किए गए पानी का कम-से-कम 20 प्रतिशत पुनर्चक्रित और पुनः उपयोग करना अनिवार्य है। नमामि गंगे कार्यक्रम, अटल मिशन फॉर रिजूवनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन, स्वच्छ भारत मिशन और राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना जैसी योजनाएं देश में गन्दे जल के प्रबन्धन और पुनः उपयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लागू की गई हैं। इसके अलावा राज्यों को प्रेरित करने के लिए नेशनल फ्रेमवर्क फॉर सेफ रियूज ऑफ ट्रीटेड वाटर जैसी नीतियाँ भी पेश की गई हैं। इन योजनाओं के माध्यम से गन्दे जल के उपचार हेतु संयन्त्रों की स्थापना, सीवेज नेटवर्क का विस्तार और पुनः उपयोग के लिए मार्गदर्शिका तैयार की गई है, लेकिन विडम्बना है कि इन सब के बावजूद भी समस्या जस की तस बनी हुई है। इसका मुख्य कारण योजनाओं का अपर्याप्त कार्यान्वयन और जागरूकता की कमी है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे की कमी के कारण बड़ी मात्रा में गन्दा पानी उपचारित किए बिना ही जल स्रोतों में प्रवाहित हो रहा है। औद्योगिक क्षेत्रों में नियमों का उल्लंघन और प्रदूषण नियन्त्रण के लिए प्रभावी निगरानी का अभाव भी इस समस्या को और गम्भीर बना देता है।
भारत में अपशिष्ट जल प्रबन्धन की स्थिति का आकलन करने के लिए हमें उन क्षेत्रों पर भी ध्यान देना चाहिए, जहाँ इस दिशा में सफल प्रयास किए गए हैं। उदाहरण के लिए, कर्नाटक के कोलार जिले में एक प्रभावशाली मॉडल देखने को मिला है। बेंगलुरु से उपचारित गन्दा पानी पाइपलाइनों के माध्यम से कोलार पहुँचाया गया, जहाँ इसे भूजल पुनर्भरण के लिए इस्तेमाल किया गया। इस प्रयास से न केवल भूजल स्तर में सुधार हुआ, बल्कि स्थानीय किसानों को सिंचाई के लिए अतिरिक्त जलस्रोत भी उपलब्ध हुए। इससे कृषि उत्पादन बढ़ा और लोगों की आय में सुधार हुआ। इसी तरह महाराष्ट्र के कुछ औद्योगिक क्षेत्रों में अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग औद्योगिक प्रक्रियाओं, जैसे कि कूलिंग और सफाई के लिए किया जा रहा है। इसने ताजे पानी की माँग को कम करने में मदद की है। गुजरात के कुछ हिस्सों में गन्दे जल को शहरी हरियाली और बगीचों की सिंचाई के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है। इन सफल प्रयासों से स्पष्ट होता है कि अपशिष्ट जल का प्रबन्धन सम्भव है, बशर्ते इसे प्राथमिकता दी जाए।
अपशिष्ट जल का अनुचित प्रबन्धन और बिना उपचार के इसका जल स्रोतों में मिल जाना स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रभाव डालता है। भारत में जल जनित बीमारियाँ एक बड़ी समस्या हैं और अपशिष्ट जल का प्रदूषण इसका मुख्य कारण है। प्रतिवर्ष लाखों लोग जल जनित बीमारियों के कारण प्रभावित होते हैं और यह स्थिति विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी झुग्गी बस्तियों में अधिक गंभीर है, जहाँ स्वच्छता सुविधाओं की कमी है। आँकड़ों के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष लगभग 70 प्रतिशत बीमारियां जल जनित कारणों से होती हैं, जिनमें दस्त, हैजा, टाइफॉयड, पेचिश, हेपेटाइटिस और डायरिया जैसी बीमारियां शामिल हैं। अपशिष्ट जल में पाया जाने वाला बैक्टीरिया, वायरस और अन्य पैथोजन सीधे मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। जब यह जल बिना उपचार के नदियों, तालाबों और जलाशयों में मिल जाता है, तो ये जल स्रोत पीने योग्य नहीं रहते। दूषित पानी का सेवन करने से पेट सम्बन्धी बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, प्रति वर्ष जल जनित बीमारियों के कारण लगभग 20 लाख लोगों की मौत होती है और इनमें से अधिकांश मौतें विकासशील देशों में होती हैं, जहाँ स्वच्छ जल की उपलब्धता सीमित है।
भारत में विशेष रूप से ग्रामीण और शहरी बस्तियों में अपशिष्ट जल के अनुचित प्रबन्धन के कारण हैजा, डायरिया और पेचिश जैसी बीमारियों के प्रकोप में वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए, भारत में प्रति वर्ष लगभग 20 लाख लोग दस्त और डायरिया जैसी बीमारियों के कारण प्रभावित होते हैं, जो मुख्य रूप से गन्दे जल के सेवन से होती हैं। इंडियास्पेंड की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में जल जनित बीमारियों से होने वाली मौतों में से 60 प्रतिशत से अधिक मौतें डायरिया की वजह से हुई थीं और इनमें से अधिकांश मामलों में अपशिष्ट जल की भूमिका होती है। इसके अलावा अपशिष्ट जल में मौजूद विषाक्त रसायन और भारी धातुएं भी स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकती हैं। लम्बे समय तक दूषित जल पीने से किडनी और लिवर की बीमारियाँ, पेट के कैंसर और पाचन तंत्र सम्बन्धी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। जल में उपस्थित भारी धातुएं जैसे कि पारा और सीसा बच्चों के लिए विशेष रूप से हानिकारक होती हैं, क्योंकि ये उनके विकास और तंत्रिका तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती हैं। दूषित जल का उपयोग कृषि में भी होता है, जिससे खाद्य सुरक्षा और पोषण पर भी असर पड़ता है। गंदे पानी से सिंचित फसलें भी जहरीली हो सकती हैं और इनमें रासायनिक तत्व और रोगाणु हो सकते हैं, जो मानव स्वास्थ्य के लिए खतरे का कारण बन सकते हैं.
अपशिष्ट जल के सही तरीके से प्रबन्धन और उपचार की आवश्यकता है, ताकि जल जनित बीमारियों से बचा जा सके और सार्वजनिक स्वास्थ्य सुनिश्चित किया जा सके। महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि उपचारित गन्दे जल का उपयोग पानी की कमी को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। भारत के कई हिस्सों में जहाँ भूजल स्तर खतरनाक रूप से नीचे जा चुका है, उपचारित पानी का उपयोग सिंचाई, औद्योगिक प्रक्रियाओं और गैर-पीने के घरेलू उपयोगों के लिए किया जा सकता है। इससे ताजे पानी की बचत होगी और जल संकट को कम करने में मदद मिलेगी। सरकार और स्थानीय प्रशासन को चाहिए कि वे गन्दे जल के उपचार और पुनः उपयोग को बढ़ावा देने के लिए ठोस कदम उठाएं। इसके लिए अपशिष्ट जल प्रबन्धन के लिए मजबूत बुनियादी ढाँचा तैयार करना, तकनीकी समाधान अपनाना और वित्तीय सहायता प्रदान करना आवश्यक है। इसके अलावा जन जागरूकता अभियानों के माध्यम से लोगों को जल संरक्षण और अपशिष्ट जल के पुनः उपयोग के महत्व के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए.
जल प्रबन्धन के क्षेत्र में सफल मॉडलों को अपनाया जाना, तकनीकी नवाचार और निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित कर सरकारी नीतियों में परिणात्मक दृष्टिकोण को अपनाते हुए स्थानीय समुदायों की भागीदारी इस दिशा में एक सकारात्मक प्रयास सिद्ध हो सकता है.