मेघालय के दक्षिण गारो हिल्स ज़िले के तोलेग्रे गांव के पास स्थित गोंगडाप कोल सिंकहोल की गुफ़ाओं में मिले व्हेल के पूर्वज एम्बुलोसेटस के 5 करोड़ साल पुराने जीवाश्‍म।  स्रोत : मोंगाबे
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मेघालय की गुफ़ा में मिले व्हेल के पूर्वज एम्बुलोसेटस के 5 करोड़ साल पुराने जीवाश्‍म

एक बार फिर प्रमाणित हुआ कि ऊंचे हिमालय की जगह कभी हुआ करता था गहरा टेथिस सागर। नए अवशेषों के अध्‍ययन से जैविक उद्विकास को समझने में वैज्ञानिकों को मिलेगी मदद।

Author : कौस्‍तुभ उपाध्‍याय

दुनिया की सबसे बड़ी मछली के बारे में पूछने पर ज्‍़यादातर लोग व्‍हेल का नाम लेते हैं। आमतौर पर लागों को पता नहीं कि गहरे सागर-महासागरों में रहने वाली व्‍हेल दरअसल कोई मछली नहीं है। यह हम मनुष्‍यों की तरह एक स्‍तनधारी जीव (मैमेलियन) है। व्‍हेल के शरीर में पाई जाने वाली स्‍तन ग्रंथियों के अलावा उसका अंडे की जगह बच्‍चे देना भी उसे मछलियों से अलग करके मैमेलियन वर्ग से जोड़ता है। 

व्‍हेल का मैमेलियन होकर भी मछलियों की तरह गहरे समुद्र में रहना बताता है कि मनुष्‍यों के पूर्वज भी जलीय जीव ही थे। व्‍हेल के उद्विकास को लेकर वैज्ञानिकों में दो परस्‍पर विरोधी अवधारणाएं प्रचलित हैं। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जैविक विकास के क्रम में करोड़ों साल पहले कुछ जलीय जीव विकसित होकर धरती पर आ गए, जिनसे उभयचर जीवों का वर्ग बना। उभयचरों से ही सांप, मगरमच्‍छ जैसे सरीसृप, पक्षी और स्‍तनधारी जीवों का विकास हुआ। 

इसके विपरीत वैज्ञानिकों के एक वर्ग का मानना है कि व्हेल लगभग 5 करोड़ साल पहले स्थलीय स्तनधारियों से विकसित हुई थीं। आईआईटी-रुड़की में पृथ्वी विज्ञान विभाग के प्रमुख, जीवाश्म विज्ञानी सुनील बाजपेयी का मानना है कि व्हेल के पूर्वज आज के दरियाई घोड़े के समान ही स्‍तनधारी समूह से संबंधित थे। ये प्रागैतिहासिक व्हेल शाकाहारी हुआ करते थे, लेकिन बाद में समुद्री स्तनधारी के रूप में विकसित होकर वे मांसाहारी हो गए।

इस तरह व्‍हेल से मनुष्‍यों के उद्विकास का क्रम सदियों से वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय रहा है। सौभाग्‍य से इसके कुछ अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण प्रमाण हाल ही में जीवाश्‍मों के रूप में हमारे भारत में मिले हैं। व्‍हेल के पूर्वज यानी  प्रागैतिहासिक व्हेल के ये जीवाश्म पूर्वोत्‍तर राज्‍य मेघालय में मिले हैं। 

इन जीवाश्‍मों के मिलने से भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के जीव विज्ञानियों में एक उम्‍मीद जगी थी कि इनके अध्‍ययन से अब उन्‍हें पता चल सकेगा कि क‍ि किस प्रकार जल में रहने वाली व्‍हेल से धरती पर रहने वाले जीवों और मनुष्‍यों का विकास हुआ। पर, अफ़सोस की बात यह है कि मेघालय की दुर्गम गुफ़ाओं में मिले इन जीवाश्‍मों का एक बड़ा हिस्‍सा चोरी हो गया है।

पूर्व में मिले जीवाश्‍मों के आधार पर तैयार किया गया व्हेल के पूर्वज एम्बुलोसेटस का चित्र।

कब और कैसे हुई खोज

पर्यावरण से जुड़े पोर्टल मोंगाबे की एक रिपोर्ट के मुताबिक गुफ़ाओं का अध्‍ययन करने वाले रोमानिया के वैज्ञानिक (स्पेलोलॉजिस्ट) ट्यूडर एल. टॉमस भारतीय गाइड मिल्टन एम. संगमा और सालबन एम. संगमा के साथ मार्च 2024 में मेघालय के दक्षिण गारो हिल्स ज़िले के तोलेग्रे गांव के पास स्थित गोंगडाप कोल सिंकहोल की गुफ़ाओं का अध्ययन रहे थे। इन्हीं में से एक गुफ़ा के भीतर जाने पर टीम को चूना पत्थर में उभरे काले नुकीले दांतो वाली एक बड़े जबड़े जैसी आकृति दिखाई दी। 

टीम ने इस खोज के बारे में तुरंत स्‍थानीय प्रशासनिक अधिकारियों को सूचित किया। इसके बाद भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) ने इस गुफ़ा का निरीक्षण किया। निरीक्षण में पाया गया कि यह 3.9-4.7 करोड़ वर्ष पुराना मध्य इओसीन काल का एक प्रागैतिहासिक व्हेल यानी व्‍हेल के पूर्वज का जीवाश्म है। इसके बाद जीवाश्‍म की सुरक्षा के लिए गुफ़ा के मुख पर जाली का दरवाज़ा लगा लगाकर तालाबंदी कर दी गई।

लेकिन इस बेहद महत्‍वपूर्ण खोज को महज दस महीने बाद ही एक ज़ोर का झटका लग गया। 27 जनवरी 2025 को खबर आई कि इस प्रागैतिहासिक जीवाश्म के कुछ हिस्से गुफा से चोरी हो गए हैं। पुलिस के अनुसार चोरों ने गुफा के प्रवेश द्वार पर लगी लोहे की जाली काटकर अंदर घुसपैठ की और जीवाश्म को नुकसान पहुंचाया और उसका एक हिस्‍सा काटकर ले गए। 

साउथ गारो हिल्स ज़िले के पुलिस अधीक्षक शैलेन्द्र बामनिया ने घटना की पुष्टि करते हुए बताया कि 28 जनवरी को सिजू थाने में एफआईआर दर्ज़ की गई है। हम मामले की जांच कर अपराधियों की धर-पकड़ करने की कोशिश कर रहे हैं। न्‍यू इंडियन एक्‍सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार स्‍थानीय विधायक और मेघालय के शिक्षा मंत्री, राक्कम ए. संगमा ने कहा, “यह राज्य और देश दोनों के लिए एक गंभीर नुकसान है। सरकार जीवाश्म को प्रदर्शित करने के लिए साइट पर एक संग्रहालय बनाने पर विचार कर रही थी। लेकिन चोरी के बाद योजना पर फिलहाल विराम लग गया है।'’

इस चोरी को एक बड़ा वैज्ञानिक नुकसान माना जा रहा है, क्योंकि जीवाश्‍म गहन अध्ययन और विश्लेषण से पहले चोरी हो गया। हालांकि, जीवाश्‍म का एक हिस्‍सा, जिसे चोर काटकर ले नहीं जा पाए, वह अब भी गुफ़ा में मौजूद है। इसे देखकर वैज्ञानिकों का कहना है कि यह जीवाश्म करोड़ों साल पहले विलुप्त हो चुके वंश रोडोसेटस या एम्बुलोसेटस का है, जो आधुनिक व्हेल के पूर्वज थे। इससे पहले कच्छ, गुजरात और कालाकोट, जम्मू और कश्मीर जैसे देश के अन्य स्थानों में भी आदिम व्हेल के पूर्वजों के जीवाश्म पाए गए हैं। 

हिमालय की जगह कभी था गहरा महासागर

जम्मू और कश्मीर के बाद मेघालय की हिमालयी गुफ़ा में व्‍हेल के पूर्वज के जीवाश्‍म मिलने से यह वैज्ञानिक अवधारणा और भी पुख्‍ता हो गई है कि आज जिस जगह हिमालय के ऊंचे पर्वत सिर उठाए खड़े हैं, वहां किसी ज़माने में गहरा सागर हिलोरें मारता था। 

वैज्ञानिकों का मानना है कि लगभग 2 से 5 करोड़ वर्ष पहले तक हिमालय क्षेत्र टेथिस सागर (Tethys Sea) का हिस्सा था। साइंस जर्नल रिसर्च गेट पर प्रकाशित एक रिसर्च पेपर के मुताबिक जब भारतीय टेक्‍टॉनिक प्लेट उत्तर की ओर बढ़कर यूरेशियन प्लेट से टकराई, तो इस महासागर की तलछटी परतें धीरे-धीरे ऊपर उठकर पर्वत शृंखलाओं में बदल गईं। यही कारण है कि आज हिमालय और उससे लगे क्षेत्रों की चट्टानों में हमें समुद्री जीवों और पौधों के जीवाश्म देखने को मिलते हैं। 

इन जीवाश्मों में प्राचीन व्हेल और अन्य समुद्री जीवों के अवशेष शामिल हैं, जो यह दर्शाते हैं कि कभी यहां गहरा और विशाल महासागर फैला हुआ था। इस अध्ययन में टेथिस सागर के स्‍थान पर हिमालय के भूगर्भीय विकास क्रम को विस्तार से समझाया गया है। लद्दाख घाटी और हिमाचल प्रदेश की शिलाखंडों से समुद्री जीवाश्म मिलने के बाद अब मेघालय की गुफ़ा में व्हेल के पूर्वज का जीवाश्म मिलना इस अवधारणा को और भी मजबूत करता है। 

यह खोज इस बात का ठोस प्रमाण है कि हिमालय का महत्‍वव सिर्फ भूगर्भीय दृष्टि से ही नहीं, बल्कि जैविक उद्विकास और पारिस्थितिक इतिहास की दृष्टि से काफ़ी अहम है। इसके अलावा 2006 में प्रकाशितएकशोध पत्र बताता है कि टेथिस सागर का विस्तार लद्दाख से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक था। यही कारण है कि इन क्षेत्रों में प्राचीन समुद्री जीवों के जीवाश्म मिलते हैं।

वैज्ञानिकों के मुताबिक उभयचर दरियाई घोड़े से कुछ इस तरह हुआ जलचर व्‍हेल का विकास।

क्या व्हेल मनुष्यों का पूर्वज है?

वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार व्हेल और मनुष्य का प्रत्यक्ष पूर्वज या वंश संबंध नहीं है। हालांकि दोनों ही स्तनधारी वर्ग के प्राणी हैं, पर उनके जैविक उद्विकास के रास्ते अलग-अलग हैं। व्हेल का विकास लगभग 5 करोड़ साल पहले ज़मीन पर रहने वाले खुरदार स्तनधारियों (आर्टियोडेक्‍टाइल्‍स) वर्ग के प्राणी पाकिसीतस से हुआ, जो बाद में पूरी तरह पानी में रहने के लिए अनुकूलित हो गए। 

दूसरी ओर, मनुष्य का विकास लगभग 60–70 लाख वर्ष पहले प्राचीन कपि (होमोनिड्स) से हुआ, जिनकी उत्पत्ति अफ्रीका में मानी जाती है। इस तरह, मनुष्य और व्हेल का एक बहुत पुराना साझा पूर्वज अवश्य रहा है, लेकिन वह लगभग 10 करोड़ वर्ष पहले का आदिम स्तनपायी था, जिससे सभी आधुनिक स्तनधारी निकले। 

इसका मतलब है कि मनुष्य और व्हेल को एक ही परिवार की दूर की शाखाएं तो कहा जा सकता है, पर इसे प्रत्यक्ष पूर्वज संबंध नहीं कहा जा सकता। दोनों के उद्विकास का क्रम लगभग 10 करोड़ साल पहले कुछ इस प्रकार अलग हो गया था-

वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य और व्हेल दोनों का साझा स्तनधारी पूर्वज लगभग 10 करोड़ वर्ष पहले क्रिटेशियस काल में मौजूद था। उस आदिम स्तनपायी को वैज्ञानिकों ने बोरियोयूथेरियन का नाम दिया है। यह कोई एक अलग प्रजाति नहीं, बल्कि एक आदिम स्तनधारी समूह था। आगे चलकर इससे दो बड़ी शाखाएं बनीं -

  1. लॉरेसियाथेरिया : इसमें खुरदार स्तनधारी और उनसे विकसित हुई व्हेल शामिल हैं।

  2. यूरकॉन्टोग्लायर्स : इसमें बंदर, कपि जैसे प्राइमेट और अंततः उनसे विकसित हुए मनुष्य शामिल हैं।

इन प्राचीन आदिम स्तनधारियों में से एक उदाहरण जुरामाइया का है, जिसके लगभग 16 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्‍म चीन के इलाकों में पाए गए हैं। इसे अबतक ज्ञात सबसे पुराना प्लैसेंटल यानी गर्भनाल वाला स्तनधारी माना जाता है। इस तरह मनुष्य और व्हेल का प्रत्‍यक्ष तौर पर कोई सीधा पूर्वज नहीं था, बल्कि दोनों के विकास की कडि़यां शुरुआती प्लैसेंटल स्तनधारियों के तौर पर जुड़ी हुई हैं।

धरती के इतिहास को समझने की नई खिड़की

व्हेल या अन्य समुद्री जीवों के प्रागैतिहासिक जीवाश्म वैज्ञानिकों के लिए समय की एक खिड़की की तरह होते हैं। इनके अध्ययन से पता चलता है कि करोड़ों वर्षों में पृथ्वी के वातावरण, समुद्री जीवन और जलवायु में किस तरह के बदलाव हुए हैं। विशेष रूप से व्हेल जैसे जीवों के जीवाश्म हमें यह समझने में मदद करते हैं कि स्थलीय स्तनधारी किस प्रकार समुद्र में लौटे और धीरे-धीरे आधुनिक समुद्री व्हेल की प्रजातियों में विकसित हुए। 

इन खोजों का महत्व सिर्फ अतीत को जानने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वर्तमान में हो रहे भूगर्भीय बदलावों को समझने में भी मदद करती हैं। पृथ्‍वी के गर्भ में चल रही गतिविधियों को जान-समझ कर हम भूकंप, भूस्‍खलन और ज्‍वालामुखी विस्‍फोट जैसी तबाही मचाने वाली प्राकृतिक घटनाओं से होने वाली जन-धन की हानि को कम कर सकते हैं। साथ ही हमारे ग्रह पर भविष्‍य में होने वाले बदलावों का अंदाज़ा भी लगा सकते हैं। 

वैज्ञानिक जब चट्टानों और इस प्रकार के प्राचीन जीवाश्मों का अध्ययन करते हैं, तो उन्हें यह समझने में आसानी होती है कि पृथ्वी की भूगर्भीय प्लेटों की गति और टकराव या बिखराव किस तरह होता है और इन भूगर्भीय घटनाओं का हमारी जलवायु, पारिस्थितिकी और जैव विविधता पर किस प्रकार का असर पड़ता है। 

करीब डेढ़ दशक पहले 2009 में हुए ऐसे ही एक वैज्ञानिक अध्ययन में दिखाया है कि भारत को उत्‍तर की ओर सरका रही टेक्‍टॉनिक प्‍लेट की गति लगभग 20 मिलियन वर्ष पहले धीमी हुई थी। इसने हिमालय-तिब्बत क्षेत्र के एक बड़े भूभाग को इसका वर्तमान पर्वतीय और पठारी आकार दिया। इसी कड़ी को 2022 में हुए एक शोध ने भी आगे बढ़ाते हुए इस इलाके में हुए मेटामॉर्फिक बदलावों को समझने में मदद की। 

इस प्रकार के अध्‍ययन खासकर, हिमालय के विकास की जटिलताओं को समझने में अहम योगदान दे रहे हैं। यह अध्‍ययन हमें बताते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में भूगर्भीय प्रक्रियाएं अब भी चल रही हैं और आने वाले समय में धरती की भूगर्भीय सतहों यानी टेक्‍टॉनिकल प्‍लेट की टकराहटों से हिमालय की ऊंचाई और बढ़ सकती है या इसके क्षेत्र में और विस्‍तार देखने को मिल सकता है। हालांकि यह भूगर्भीय घटनाएं काफी धीमी गति से होती हैं, जिसके कारण ऐसे बदलावों में लाखों-करोड़ों साल का समय लग जाता है। 

जीवाश्‍मों का महत्‍व और उनकी चोरी व तस्‍करी

मेघालय में हाल ही में मिला, व्हेल के पूर्वज का जीवाश्म केवल वैज्ञानिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह जीवाश्‍मों की बिक्री के अवैध  व्यापार की ओर भी ध्यान खींचता है, जो हाल के दशकों में बड़ी ही तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। पुरावशेषों और जीवाश्‍मों की दुनियाभर में हो रही बिक्री वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और भूगर्भीय अध्‍ययनों के लिए एक बढ़ता हुआ खतरा है। 

इन दुर्लभ पुरा-अवशेषों की कीमतें अंतरराष्‍ट्रीय बाज़ार में कई बार करोड़ों में जाती हैं, इसके चलते दुनिया भर में कई गिरोह इनकी चोरी और तस्‍कररी के काले धंधे में सक्रिय हैं। ये गिरोह अपने नेटवर्क या सूचनाओं के आधार पर स्‍थानीय लोगों को बरगला कर इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं। मेघालय में हुई जीवाश्‍म की चोरी भी इसी प्रकार की एक घटना लगती है। 

संभव है कि गुफ़ा में बहुमूल्‍य जीवाश्‍म मिलने की खबर पर किसी बड़े अंतरराष्‍ट्रीय गिरोह ने स्‍थानीय लोगों की मदद से चोरी की इस घटना को अंजाम दिया हो। इसके अलावा कई बार पत्‍थर, खनिजों या कोयले का अवैध खनन करके जीविका चलाने वाले लोग ऐसे बहुमूल्‍य जीवाश्मों और पुरावशेषों साधारण पत्थर समझकर बेच देते हैं, क्‍योंकि उन्‍हें इनके महत्‍व का पता ही नहीं होता। 

जीवाश्‍मों और अवशेषों की इस बिक्री और तस्‍करी को रोकने के लिए विभिन्‍न देशों की सरकारें, यूनेस्‍को और इंटरपोल जैसी अंतरराष्‍ट्रीय संस्‍थाएं सक्रिय रहती हैं। समय-समय पर इससे जुड़ी चेतावनियां भी जारी की जाती हैं और अभियान चलाए जाते हैं। इसके बावज़ूद यह अवैध व्‍यापार न केवल वैज्ञानिक अनुसंधान को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि स्थानीय प्राकृतिक व ऐतिहासिक धरोहरों को भी नष्‍ट कर रहा है। 

दुनिया भर में मौज़ूद संग्रहकर्ताओं (कलेक्‍टर्स) और म्‍यूजियम में ऐसे पुरावशेषों की खरीद के लिए मिलने वाली ऊंची कीमतों के चलते इस अवैध व्‍यापार पर लगाम कसना या इसे पूरी तरह से रोक पाना आज भी एक टेढ़ी खीर बना हुआ है। 

भारत में जीवाश्म संरक्षण कानून और उसकी चुनौतियां

भारत में जीवाश्मों और प्राचीन धरोहरों को संरक्षित करने के लिए प्राचीन वस्तुएं एवं कलात्मक निधि अधिनियम - 1972 लागू है। इस कानून के तहत बिना अनुमति जीवाश्मों की खुदाई, संग्रहण, खरीद-बिक्री या निर्यात अपराध की श्रेणी में आता है। 

इस कानून के तहत यदि कोई व्यक्ति सरकार की अनुमति के बिना प्राचीन वस्तु/जीवाश्म की खुदाई, संग्रह, बिक्री या निर्यात करता है, तो उसे अधिकतम 3 साल तक के कारावास की सज़ा हो सकती है। उस पर 50,000 रुपये तक का ज़ुर्माना लगाया जा सकता है। कुछ मामलों में ज़ुर्माना और कारावास दोनों भी हो सकते हैं। हालांकि, इस अधिनियम में सज़ा और ज़ुर्माना कम होने के कारण यह ऐसे अपराधों को रोक पाने में ज्‍़यादा कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। 

इसके अलावा, इसके प्रवर्तनमें कमज़ोरी और जटिलताओं के चलते भी जीवाश्‍मों की चोरी और तस्करी की घटनाओं पर लगाम नहीं लग पा रही है। अंतरराष्ट्रीय तस्करी गिरोहों के ऐसी वारदातों को अंजाम देने के शातिर तौर-तरीकों और प्रशासनिक साठ-गांठ व रिश्‍वतखोरी के चलते भी ऐसी वारदातें होती रहती हैं। कई बार सुरक्षा इंतज़ामों की कमी भी इसका कारण बनती है। मेघालय की टना भी इसी कमजोरी को उजागर करती है, जहां करोड़ों साल पुराने जीवाश्म की सुरक्षा के ठोस उपाय करने के बजाय महज़ एक जाली का दरवाज़ा लगाकर छोड़ दिया गया, जिसे बड़ी ही आसानी से काटकर जीवाश्‍मों की चोरी कर ली गई।

रोमानिया के वैज्ञानिक (स्पेलोलॉजिस्ट) ट्यूडर एल. टॉमस भारतीय गाइड मिल्टन एम. संगमा और सालबन एम. संगमा को इसी गुफ़ा के भीतर मिले व्हेल के पूर्वज एम्बुलोसेटस के करीब 5 करोड़ साल पुराने जीवाश्‍म

अतीत में हुई जीवाश्म चोरी की घटनाएं

भारत में इससे पहले भी जीवाश्म चोरी और तस्करी की घटनाएं सामने आती रही हैं। इसके कुछ प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं : 

  • मध्य प्रदेश (नर्मदा घाटी – 2002–2003) : धार और शाजापुर ज़िलों में पाए गए डायनासोर के अंडों और हड्डियों की चोरी की कई घटनाएं  2002–2003 के आसपास हुईं। मीडिया रिपोर्टों में बताया गया कि कई जीवाश्मों को स्थानीय स्तर पर बेच दिया गया, जबकि कुछ अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में करोड़ों रुपये में बेचे गए।

  • गुजरात (कच्छ क्षेत्र – 2013) : कच्छ की पायलेसेंटिक और ज़ुरासिक यानी प्रागैतिहासिक काल की  चट्टानों में मिले समुद्री जीवों और पौधों के करोड़ों साल पुराने जीवाश्मों की चोरी हुई। इसमें से कुछ जीवाश्‍मों को तस्करी के दौरान बरामद भी किया गया। उस समय गुजरात फॉरेस्ट विभाग ने विदेशी रिसर्चर्स और कलेक्टर्स की संलिप्तता पर भी संदेह जताया था।

  • तमिलनाडु (अरियालुर जिला – 2018) : यहां समुद्री जीवों के करीब 6.5 करोड़ साल पुराने जीवाश्मों की चोरी हो गई। यह इलाका भूगर्भीय धरोहरों के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है। इसके बावजूद, जीवाश्म स्थलों की सुरक्षा व्‍यवस्‍था में कमी के कारण स्थानीय स्तर पर अवैध खुदाई होती रहती है।

  • आंध्र प्रदेश (गुंटूर और प्रकाशम क्षेत्र – 2015) : यहां पेलियोलिथिक यानी पुरापाषाण काल के पत्थर के औजारों और जीवाश्मों की चोरी हुई थी। हालांकि कुछ मामलों में पुलिस ने इन्हें ज़ब्त किया, लेकिन तस्‍कर बड़ी मात्रा में इन्‍हें बेचने में कामयाब रहे। इन घटनाओं से यह भी स्पष्ट हुआ कि यहां जीवाश्‍मों की सुरक्षा व्‍यवस्‍था बहुत ढीली है।

रोकथाम और संरक्षण के प्रयास

बीते कुछ वर्षों में इस तरह की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए सरकार की ओर से कुछ कदम उठाए गए हैं:

  • जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (GSI): जीवाश्म स्थलों की मैपिंग और उनके दस्तावेज़ीकरण पर ज़ोर दिया गया है, ताकि चोरी होने पर वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद रहें और इंटरपोल जैसी अंतरराष्‍ट्रीय एजेंसियों को अलर्ट जारी किया जा सके।

  • राज्य सरकारों की पहल: मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में कुछ जीवाश्म स्थलों को संरक्षित क्षेत्र या “जियोलॉजिकल हेरिटेज साइट” घोषित किया गया है। एमपी के धार ज़िले के और गुजरात के कच्छ क्षेत्र में स्थित जीवाश्म स्थलों को “डायनासोर फॉसिल नेशनल पार्क” घोषित किया गया है। अरियालुर और पेरम्बलूर ज़िलों के जीवाश्म स्थलों को राज्य सरकार ने “जियोलॉजिकल मोन्यूमेंट” घोषित किया है। मेघालय के सोहपेटब्नेंग और गारो हिल्स क्षेत्र में जीवाश्म स्थलों की पहचान कर उन्हें वैज्ञानिक शोध और संरक्षण के लिए अधिसूचित किया गया है। इसी तरह, राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर ज़िलों में भी ज़ुरासिक और क्रिटेशियस काल के जीवाश्म स्थलों कोभारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) और राज्य सरकार ने मिलकर “राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक धरोहर”के रूप में सूचीबद्ध किया है।

  • स्थानीय समुदाय की भागीदारी: जीवाश्‍मों और पुरावशेषों की चोरी को रोकने का सबसे प्रभावी स्थानीय समुदाय को इसकी सुरक्षा से जोड़ना है। इसके लिए लोगों को जागरूक करना और जीवाश्मों का सांस्कृतिक और वैज्ञानिक महत्व समझाना ज़रूरी। देश के कई इलाकों में यह प्रयोग सफलतापूर्वक किया भी गया है। उदाहरण के लिए, गुजरात और मध्य प्रदेश के कुछ गांवों में ग्रामीणों ने स्वयं जीवाश्म स्थलों की रक्षा के लिए समितियां बनाई हैं। इससे वहां जीवाश्‍मों की चोरी और तस्‍करी की घटनाओं पर काफ़ी हद तक लगाम लगी है।

  • डिजिटल ट्रैकिंग और म्यूज़ियम : हाल के वर्षों में शोध संस्थानों ने जीवाश्मों का डिजिटल रिकॉर्ड तैयार करना शुरू किया है और उन्हें क्षेत्रीय संग्रहालयों में प्रदर्शित करने की योजना बनाई है, ताकि वे स्थानीय लोगों की पहुँच में रहें और सुरक्षित भी रहें। इस दिशा में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई), बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान (लखनऊ) और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) जैसी संस्थाओं ने पहल की है। जीएसआई ने कई “जियो-हेरिटेज साइट” को ऑनलाइन सूचीबद्ध किया है, वहीं बीरबल साहनी संस्थान ने पौधों और डायनासोर जीवाश्मों के डिजिटाइजेशन का प्रोजेक्ट शुरू किया है। इसके अलावा मद्रास विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे कई विश्वविद्यालयों ने भी अपने संग्रहालयों में डिजिटल कैटलॉग तैयार करना शुरू कर दिया है। इस प्रक्रिया से न केवल चोरी और तस्करी पर रोक लगेगी, बल्कि शोधकर्ताओं और छात्रों को भी आसानी से इन धरोहरों के बारे में जानकारी मिल सकेगी।

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