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बस्तर जिले की भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geography of Bastar district)

Author : कु. प्रीति चन्द्राकर

भौतिक पृष्ठभूमि :

सांस्कृतिक पृष्ठभूमि :

जनसंख्या


जनसंख्या का वितरण, घनत्व, जनसंख्या का विकास, आयु एवं लिंग संरचना, व्यावसायिक संरचना, अर्थव्यवस्था, भूमि उपयोग, कृषि तथा पशुपालन, खनिज परिवहन तथा व्यापार।

भौगोलिक पृष्ठभूमि

स्थिति एवं विस्तार :


बस्तर जिला भारत के मध्य प्रदेश राज्य के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। बस्तर जिला पूर्व में उड़ीसा, पश्चिम में महाराष्ट्र, दक्षिण में आंध्र प्रदेश एवं उत्तर में रायपुर तथा दुर्ग जिले द्वारा सीमांकित है।

बस्तर जिला दण्डकारण्य पठार का उत्तरी हिस्सा है। इस जिले से पूर्वी समुद्र तट की दूरी लगभग 200 किमी है। बस्तर का अधिकांश क्षेत्र पठारी है। इसका विस्तार 170-46’ उत्तरी अक्षांश से 20 0-35’ उत्तरी अक्षांश तक तथा 800-15’ पूर्वी देशांतर से 820-15’ पूर्वी देशांतर तक है। बस्तर जिले की उत्तर दक्षिण लंबाई लगभग 288 किमी तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ाई 200 किमी है। इसका क्षेत्रफल 39,144 वर्ग किमी है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह जिला भारत के केरल, मणिपुर, मेघालय, जैसे राज्यों से तथा बेल्जियम, फिलीपींस और इजराइल जैसे देशों से भी बड़ा है।

जिले की समुद्र सतह से सबसे कम ऊँचाई कोंटा (278.37 मीटर) तथा अधिक ऊँचाई बैलाडीला (848 मीटर) की है। बस्तर जिला प्रशासनिक दृष्टि से 13 तहसीलों और 32 विकासखंडों में विभाजित है। बस्तर जिले में कुल 3,715 ग्राम 4 नगर और 3 नगरपालिका क्षेत्र है। जगदलपुर बस्तर जिले का सबसे बड़ा नगर है, जो जिला मुख्यालय है। इसके अतिरिक्त कांकेर, किरंदुल और कोण्डागाँव अन्य नगर हैं। जगदलपुर, कांकेर और कोण्डागाँव नगरपालिका क्षेत्र है। बस्तर जिले में सात एकीकृत आदिवासी विकास परियोजनाएँ -

1. कांकेर तथा भानुप्रतापपुर
2. कोंडागाँव
3. जगदलपुर
4. दंतेवाड़ा
5. सुकमा
6. नारायणपुर
7. बीजापुर

भूगर्भिक संरचना


बस्तर जिले का भू-पृष्ठ प्राचीन शैलों से निर्मित है। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के अनुसार बस्तर जिले के शैलों को निम्नांकित समूहों में बाँटा गया है (अग्रवाल, 1956, 21-24) : -

(1) विंधयन शैल समूह :


यह केशकाल के पूर्व एवं पश्चिमी भाग में कांकेर एवं कोण्डागाँव की सीमा के बीच तथा उत्तर-पूर्वी पठार (कोण्डागाँव) पर विस्तृत है। यहाँ क्वार्टजाइट एवं बलुआ पत्थर की क्षैतिजिक तहें हैं।

(2) कड़प्पा शैल :


कड़प्पा-युगीन शैल बस्तर के एक चौथाई भाग में पाए जाते हैं। ये चट्टानें मर्दापाल (कोंडागाँव) से तीरथगढ़ (जगदलपुर तहसील) तक एवं चित्रकूट में भी पायी जाती हैं। यहाँ क्वार्टजाइट बलुआ पत्थर, चूना पत्थर आदि चट्टानें मिलती हैं।

कड़प्पा शैलों का दूसरा बड़ा क्षेत्र दक्षिण-पश्चिमी सीमा पर है। यह भोपालपटनम से उत्तर-पश्चिम की ओर कोंटापाली में दक्षिण-पूर्व की ओर तक है। इसके अलावा यह शैल अबुझमाड़ की पहाड़ियों में परालकोट और सोनपुर के बीच (नारायणपुर तहसील) में भी पाया जाता है।

(3) प्राचीन ट्रेप :

इसे दकनट्रेप के नाम से भी जाना जाता है। यह विंधयन और कड़प्पा से भी प्राचीन है। इसके दो क्षेत्र हैं :-

(1) अबुझमाड़ का पहाड़ी क्षेत्र जो ओरछा के पश्चिम में है तथा
(2) परलापुर एवं कोयलीबेड़ा के बीच का क्षेत्र

ये दोनों क्षेत्र नारायणपुर तहसील में हैं।

(4) आर्केनियन ग्रेनाइट और नाइस चट्टानें :

ये चट्टानें बस्तर जिले के लगभग तीन-चौथाई क्षेत्र में दृष्टिगोचर होती हैं। जो प्राचीन ट्रेप से भी पुरानी हैं। अबूझमाड़ के पहाड़ी प्रदेश, भानुप्रतापपुर तथा कोयलीबेड़ा क्षेत्र में ये चट्टानें पायी जाती हैं।

(5) धारवाड़ क्रम :

धारवाड़ शैल कायांतरित, अवसादी शैल है। ये भू-गर्भ में बहुत ही भ्रशित एवं वलित रूप में पाये जाते हैं। ये शैल बस्तर के मध्य में उत्तर-दक्षिण दिशा में पाये जाते हैं।

बस्तर में धारवाड़ शैल समूह नारायणपुर तहसील में मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन क्षेत्रों में पाए जाते हैं :-

(1) बैलाडीला पहाड़ी का उत्तरी किनारा
(2) रावघाट पहाड़ी का उत्तरी किनारा
(3) भानुप्रतापपुर के मध्य में पहाड़ी क्षेत्र और कोयलीबेड़ा क्षेत्र।

इस प्रकार भू-गर्भिक बनावट के फलस्वरूप बस्तर में पृथ्वी के प्राचीन शैल से लेकर आधुनिकतम नवीन चट्टानें पायी जाती हैं। जिले में विन्धयन, कड़प्पा शैल क्षेत्र में जल की सरंध्रता क्वार्टजाइट में 0.5-8 प्रतिशत, बलुआ पत्थर में 4-30 प्रतिशत, चूना पत्थर में 0.5-17 प्रतिशत है। प्राचीन ट्रेप के बलुकाशम क्षारीय चट्टानों में जल सरंध्रता 4-30 प्रतिशत तक है। जिले के तीन चौथाई क्षेत्र में ग्रेनाइट, नाइस चट्टान की जल सरंध्रता 0.02-2 प्रतिशत तथा धारवाड़ की चट्टान (बैलाडीला समूह) में जल सरंध्रता 0.5-15 प्रतिशत तक है।

बस्तर जिले में मुख्यत: ग्रेनाइट, नाइस, शिस्ट एवं अन्य बलुआ पत्थर, चूना पत्थर, चट्टानें पाई जाती हैं। ये सभी चट्टानें ठोस तथा कठोर होती हैं। इन चट्टानों में भूमिगत जल को इकट्ठा करने के गुणों की कमी रहती है। इन चट्टानों के विभिन्न कणों के बीच खाली स्थानों में ठोस पदार्थ भर जाने के कारण जल रिसने की क्रिया का अभाव रहता है। अत: जिले में भूमिगत जल संचयन एवं दोहन की दृष्टि से अधिक उपयुक्त नहीं है।

उच्चावच

(1) उत्तर का निम्न या मैदानी भाग :

यह छत्तीसगढ़ बेसिन से लगा हुआ है। इस भाग की ऊँचाई समुद्र सतह से 300 से 430 मीटर के मध्य है। इसका विस्तार उत्तर बस्तर में परालकोट, भानुप्रतापपुर, कोयलीबेड़ा, अंतागढ़ और कांकेर क्षेत्र में है। इस क्षेत्र में ग्रेनाइट और नाइस चट्टानें पायी जाती हैं।

(2) केशकाल की घाटी :

यह घाटी कांकेर तथा भानुप्रतापपुर के दक्षिण में स्थित है। इसकी ऊँचाई समुद्र सतह से 752 मीटर है। केशकाल की घाटी उत्तर में तेलीनसत्ती घाटी से प्रारम्भ होकर जगदलपुर के दक्षिण में स्थित तुलसी डोंगरी तक लगभग 160 वर्ग किमी के क्षेत्र में विस्तृत है। केशकाल घाटी से होकर रायपुर विशाखापट्टनम राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. 43 गुजरती है। यहाँ ग्रेनाइट, नाइस चट्टानें पायी जाती हैं।

(3) अबुझमाड़ की पहाड़ी :

यह पहाड़ी क्षेत्र बस्तर जिले के लगभग मध्य भाग में स्थित है। समुद्र सतह से इसकी ऊँचाई 600 मीटर से 750 मीटर के मध्य है। इसके उत्तर पूर्व में रावघाट पहाड़ी घोड़े के नाल के सदृश्य फैला है, जहाँ कच्चे लोहे का विशाल भंडार है। इस क्षेत्र में लगभग 14 चोटियाँ हैं, जिनमें सबसे ऊँची चोटी टहनार गाँव के समीप 999.6 मीटर ऊँची है। यह दंतेवाड़ा, बीजापुर एवं कोंटा तहसीलों के उत्तरी भाग से घिरा हुआ है।

जिस प्रकार इंद्रावती के उत्तरी भाग को तीन भागों में विभक्त किया गया है, उसी प्रकार दक्षिणी भाग को भी तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है :

(1) उत्तर-पूर्वी पठार :

यह पठार कोंडागाँव एवं जगदलपुर में फैला हुआ है, जिसका ढाल तीव्र है। इस पठार की ऊँचाई उत्तर से दक्षिण की ओर घटती जाती है। यह पठार उत्तर में केशकाल के पास 750 मीटर तथा दक्षिण में तुलसी डोंगरी के पास 600 मीटर ऊँची है। यह पठार मुख्यत: ग्रेनाइट और नाइस चट्टानों से निर्मित है।

(2) दक्षिण का पहाड़ी क्षेत्र :

इस भाग में दंतेवाड़ा एवं कोंटा तहसील के उत्तरी भाग आते हैं। जिसकी ऊँचाई समुद्र सतह से 300 मीटर से 848 मीटर के मध्य है। बैलाडीला की पहाड़ी 848 मीटर तक ऊँची है, यहाँ उच्च कोटि के लौह अयस्क के विशाल भंडार हैं। बैलाडीला, पहाड़ी के पश्चिम में कुटरू (बीजापुर) पठार है। जिसकी ऊँचाई समुद्र-सतह से 297 मीटर से 330 मीटर के मध्य है।

(3) दक्षिण निम्न भूमि :

इसके अंतर्गत कोंटा तहसील का संपूर्ण भाग एवं बीजापुर तहसील का दक्षिणी भाग आते हैं। इसे सुकमा, भोपालपटनम निम्न भूमि भी कहते हैं, जिसकी ऊँचाई समुद्र सतह से 150 मीटर तक है। यह क्षेत्र गोदावरी नदी के बहाव क्षेत्र में स्थित है। अत: इसे दक्षिण का बेसिन प्रदेश भी कहा जाता है। यहाँ मुख्य रूप से कड़प्पा युगीन चट्टानें पायी जाती हैं।

जिले का उच्चावच सतही एवं भू-गर्भिक जल के वितरण को प्रभावित करता है। जिले का अधिकांश क्षेत्र उबड़-खाबड़ होने से इन भागों में जल संग्रहण की क्षमता कहीं अधिक कहीं कम है। वहीं जिले का दक्षिणी भाग अपेक्षाकृत मैदानी या कम उबड़ खाबड़ है। जिससे स्थायी और बड़ी सरिताओं का विकास हुआ है।

मिट्टी


प्रकृति प्रदत्त संसाधनों में मिट्टी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मिट्टी के प्रकार से जल संसाधन की क्षमता का अनुमान लगाया जा सकता है। बस्तर जिले के अधिकांश भाग में ग्रेनाइट एवं नाइस चट्टानों का विस्तार है, जिसने अब रूपांतरित होकर लाल मिट्टी का रूप ले लिया है। यहाँ की मिट्टियों का क्रमबद्ध वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है।

बस्तर जिले की मिट्टियों को स्थानीय वर्गीकरण के अनुसार निम्नलिखित प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है :

(1) कन्हार मिट्टी (2) मटासी मिट्टी (3) डोरसा मिट्टी तथा (4) भाठा मिट्टी।

(1) कन्हार मिट्टी :

बस्तर जिले में काली चिकनी मिट्टी को स्थानीय रूप से कन्हार मिट्टी के नाम से जाना जाता है। यह सामान्य भारी मिट्टी है, जिसमें 50 से 55 प्रतिशत तक चीका का मिश्रण होता है। इसमें मैगनीज, एल्युमिनियम, तांबा तथा लोहे की अधिकता होती है। अत: मिट्टी का रंग गहरा भूरा काला होता है। इस मिट्टी में चूने की प्रधानता रहती है। कन्हार मिट्टी का सबसे विलक्षण गुण इसकी अद्भुत जल धारण क्षमता है। अत: इसमें सामान्य सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। जिले में इस मिट्टी का विस्तार कांकेर, नरहरपुर, जगदलपुर, बस्तर, तोकापाल तथा बकावंड विकासखंड में है।

(2) मटासी मिट्टी :

यह उष्ण कटिबंधीय रेतीली दोमट मिट्टी है। इसका निर्माण क्वार्टजाइट, शिस्ट तथा नाइस चट्टानों के अपक्षय से हुआ है। इस मिट्टी का रंग पीला या सफेद से हल्का और मध्यम पीला भूरा होता है। इसकी औसत गहराई 0.5 मीटर होती है तथा निचली परत कम उपजाऊ होती है। मटासी मिट्टी में कन्हार की अपेक्षा नमी धारण करने की क्षमता कम होती है। इसमें जल निकास अच्छा होता है। जिले में इस मिट्टी का विस्तार भानुप्रतापपुर, अंतागढ़, दुर्गकोंदल, कोयलीबेड़ा, बीजापुर, दंतेवाड़ा तथा कुआकोंडा विकासखंड में है।

(3) डोरसा मिट्टी : यह गहरी चीका (कन्हार) और पीली भूरी दोमट (मटासी) के मिश्रण से बनी है। यह मिट्टी बड़ेराजपुर, फरसगाँव, माकड़ी, नारायणपुर तथा कोंडागाँव विकासखंडों में मिलता है। इसमें 40 से 49 प्रतिशत तक चीका पाया जाता है। रंग में यह मिट्टी भूरी-पीली, मिश्रित काली-भूरी अथवा गहरी भूरी होती है। इसकी गहराई 0.5 मीटर से अधिक होती है। इसमें चूने की मात्रा 0.5 से 1.5 प्रतिशत तक होती है तथा कार्बन और नत्रजन कम होता है।

(4) भाठा मिट्टी :

यह पहाड़ी एवं पठारी भागों में पाई जाने वाली लाल रंग की, मोटे कणों वाली कंकड़युक्त अनुपजाऊ मिट्टी है। इसे लेटेराइट भी कहते हैं। इसमें चूना, पोटाश एवं फास्फोरिक अम्ल की कमी होती है। इसमें जल धारण की क्षमता कम होती है। यह मिट्टी कृषि के लिये अनुपयोगी है।

‘‘भारत के कृषि मानचित्रावली के अनुसार’’

बस्तर जिले में दो प्रकार की मिट्टी पायी जाती है :

(1) लाल बुलई मिट्टी तथा (2) लाल दोमट मिट्टी

(1) लाल बुलई मिट्टी :

यह जिले के तीन चौथाई भाग में फैला हुआ है। इसका विस्तार भानुप्रतापपुर, अंतागढ़, सुकमा, केशकाल, नारायणपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा, कोण्डागाँव क्षेत्र में पायी जाती है। इस मिट्टी की जल धारण क्षमता 200 मिमी है। जिले के इस क्षेत्र में ग्रेनाइट, नाइस चट्टान पायी जाती है।

(2) लाल दोमट मिट्टी :

यह इंद्रावती नदी महानदी के आस-पास के क्षेत्रों में फैला हुआ है। इसका विस्तार कांकेर, भोपालपटनम, कोंटा, जगदलपुर क्षेत्र में पाया जाता है। इस मिट्टी की जल धारणा क्षमता 250 मिमी है। इस क्षेत्र में कड़प्पा क्रम की बलुआ पत्थर, चूना पत्थर पाया जाता है।

अपवाह तंत्र

‘‘प्रवाह प्रणाली एक विशेष प्रकार की व्यवस्था होती है, जिसका निर्माण एक नदी की धाराओं के सम्मिलित रूप से होता है।’’



प्रवाह प्रणाली पर भू-संरचना, भूमि की ढाल, चट्टानों की प्रकृति, जल प्रवाह का वेग एवं आकार का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। बस्तर जिले में भू-गर्भिक संरचना एवं उच्चावच के कारण नदी बेसिन का महत्त्व अधिक बढ़ गया है। गोदावरी नदी के अलावा जिले की अधिकतर नदियाँ मौसमी हैं। मध्य जून से अक्टूबर तक वर्षा के कारण नदियों में पानी की मात्रा बहुत अधिक रहती है। शीत ऋतु में नदियों के पानी के आयतन में कमी होने लगती है, जिसके कारण प्रवाह धीमी गति से होता है। ग्रीष्म ऋतु में आयतन इतना कम हो जाता है कि नदियाँ लगभग सूख जाती हैं। गोदावरी तथा इसकी सहायक इंद्रावती नदी के अतिरिक्त जिले की सभी नदियाँ सामान्य तथा छोटी हैं। नदियों की घाटियाँ लगभग 50 मीटर चौड़ी तथा 10 मीटर गहरी है।

भू-गर्भिक संरचना के आधार पर बस्तर जिले को दो प्रवाह बेसिनों में विभक्त किया जा सकता है :

(1) गोदावरी बेसिन, तथा (2) महानदी बेसिन।

(1) गोदावरी बेसिन :

बस्तर जिले में गोदावरी बेसिन का निर्माण गोदावरी एवं उसकी सहायक इंद्रावती, सबरी, नारंगी, नयभारत, कोटरी, दंतेवाड़ा आदि नदियों द्वारा होता है। यह बेसिन बस्तर जिले के लगभग 75 प्रतिशत भाग में विस्तृत है।

(1) गोदावरी नदी :

गोदावरी नदी बस्तर जिले में भद्रकाली के पास आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा बनाते हुए केवल 16 किमी में प्रवाहित होती है।

(2) इंद्रावती नदी :

यह बस्तर जिले की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह नदी जिले को उत्तरी एवं दक्षिणी दो खंडों में विभाजित करती है। यह उड़ीसा के कालाहांडी जिलांतर्गत भू-आमूल से निकलकर बस्तर में 386 किमी में पूर्व से पश्चिम में प्रवाहित होती है। जिले की पश्चिमी सीमा में यह नदी दक्षिण की ओर मुड़कर भोपालपट्टनम के पास गोदावरी में मिलती है। इंद्रावती नदी जगदलपुर एवं बारसूर होकर बस्तर के पठार में प्राय: मध्य में प्रवाहित होती है। यह नदी जगदलपुर से लगभग 40 किमी दूर पश्चिम में चित्रकूट नामक एक प्रसिद्ध जल प्रताप बनाती है। यह बस्तर जिले की बारहमासी नदी है। इसका निम्नतम जल प्रवाह जगदलपुर के पास 350 क्यूसेक है, जबकि चित्रकूट के निकट जल प्रवाह की मात्रा 700 क्यूसेक है। बेंद्री के पास इंद्रावती की घाटी लगभग 90 मीटर गहरा है, क्योंकि चित्रकूट (जलप्रपात) से नीचे की ओर तीव्र गति से प्रवाहित होती है। आगे चलकर इंद्रावती नदी पश्चिम की ओर अबुझमाड़ की पहाड़ियों की दक्षिणी सीमा बनाती हैं तथा दक्षिण की ओर मुड़ जाती है।

इंद्रावती नदी के दोनों तटों पर कई सहायक नदियाँ मिलती हैं। उत्तर में नारंगी, बोरथिग, उत्तर-पूर्व पठार की ओर, गुडरा नदी अबुझमाड़ के पूर्वी कगार का जल लाती है। निबरा नदी उत्तर अबुझमाड़ को पारकर तथा पश्चिम की ओर प्रवाहित होकर अंत में दक्षिण की ओर मुड़कर इंद्रावती में मिलती है। इंद्रावती की सहायक कोंटरी नदी, अबुझमाड़ पहाड़ी, भानुप्रतापपुर, अंतागढ़ मैदान में प्रवाहित होती है। दक्षिण तट की सहायक नदियाँ दंतेवाड़ा, बरूदी, और चित्तावगु छोटी नदियाँ हैं। इंद्रावती को बस्तर (दण्डकारण्य) की जीवन रेखा कहा जाता है।

(3) सबरी नदी :

यह नदी जिले की दक्षिणी निम्न भूमि में प्रवाहित होती है। यह नदी टिकनापल्ली, गोलापल्ली की पहाड़ियों द्वारा दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। दूसरी शाखा पश्चिम में प्रवाहित होती हुई गोदावरी में मिल जाती है, जिसे गुब्बल नदी कहा जाता है। कांगेर एवं मलेएंग इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। यह नदी पूर्वी घाट में कोरापुट पठार (900 मी.) से निकलकर बस्तर में जैपोर पठार (60 मीटर) की ओर प्रवाहित होते हुए 28.8 किमी तक बस्तर जिला एवं उड़ीसा की सीमा-रेखा बनाती है। कांगेर नदी तीरथगढ़ में कड़प्पा शैल समूह में 45.5 मीटर ऊँचा दर्शनीय जल प्रपात बनाती है। सबरी नदी को खोलाब भी कहते हैं। यह नदी अनेक पहाड़ों को फोड़ती हुई बही है और अन्य नदियों से गहरी है, इसलिए इसे खोलाब अर्थात खोह या गहरी नदी कहते हैं।

(2) महानदी बेसिन :

यह बस्तर जिले की ऊपरी निम्न भूमि में प्रवाहित होती है। यह नदी रायपुर जिले में सिहावा के निकट श्रृंगीऋषि पर्वत से निकलकर बस्तर जिले में कांकेर तहसील में प्रवाहित होती है। यह उत्तर बस्तर की मुख्य नदी है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ टूरी, हटकूल, दूध एवं सेंदूर है। ये सभी नदियाँ मौसमी हैं। बस्तर जिले में इसकी लंबाई मात्र 64 किमी है।

जलवायु

वर्षा :

तापमान :

0
0
0
0

दबाव :

सापेक्षिक आर्द्रता :

जगदलपुर में सापेक्षिक आर्द्रता वर्षा ऋतु में 86 प्रतिशत, शीत ऋतु में 76 प्रतिशत और ग्रीष्म ऋतु में 53 प्रतिशत होती है।

ऋतुएँ :

(1) वर्षा ऋतु :

बस्तर में वर्षा की मात्रा मानसून पर निर्भर है। यहाँ अरब सागर से चलने वाली दक्षिणी पश्चिम मानसून से वर्षा होती है। जिले में 90 प्रतिशत वर्षा, वर्षाऋतु में होती है। जिले की सामान्य वार्षिक वर्षा 50 सेमी से 100 सेमी तक आंकी गई है। यहाँ वर्षा का वितरण असमान है। अधिक वर्षा उत्तरी-पश्चिमी कोटरी नदी के बेसिन क्षेत्र में तथा अबुझमाड़ के पहाड़ी क्षेत्र में होती है। कम वर्षा के क्षेत्र कोंटा, कांकेर, सुकमा में है।

(2) शीत ऋतु :

बस्तर में शीतऋतु का विस्तार नवंबर से फरवरी के मध्य होता है। यह ऋतु शुष्क होती है। नवंबर से फरवी के बीच 5 मिमी वर्षा होती है।

(3) ग्रीष्म ऋतु :

जिले में मार्च से मध्य जून तक 10 मिमी से 50 मिमी वर्षा होती है। जिले में इस ऋतु में तापमान अधिक हो जाता है। जो 350से. से 450से. तक होता है।

(जलवायु सम्बन्धी विस्तृत अध्ययन अध्याय 2 में है)

वनस्पति

वनों का क्षेत्रीय वितरण एवं प्रशासनिक अवस्था :

वनों का क्षेत्रीय वितरण :

बस्तर जिला वन संसाधन की दृष्टि से केवल मध्य-प्रदेश में ही नहीं, अपितु पूरे भारत में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। जिले में वन क्षेत्र कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 38.49 प्रतिशत है। इस जिले के वनाच्छादित भागों में केवल कुछ ही ऐसी उपजाऊ भूमि है, जिनमें कृषि तथा जनसंख्या केंद्रित है। सर्वाधिक वन क्षेत्र भैरमगढ़ विकासखंड में तथा सबसे कम केंद्र कांकेर विकासखंड में है।

वन संसाधन प्रबंध की प्रशासनिक व्यवस्था :

संरक्षण तथा प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से बस्तर जिले के वन क्षेत्रों को दो भागों में बाँटा गया है :

(1) उत्तर बस्तर वन वृत्त
(2) दक्षिण बस्तर वन वृत्त

इन वन वृत्तों को 7 वन मंडलों तथा 43 परिक्षेत्रों में विभक्त किया गया है।

वनों का प्रशासनिक वर्गीकरण :

स्वतंत्र संविधान लागू होने के पश्चात योजना आयोग के द्वारा वनों का राष्ट्रीय करण कर लिया गया तथा प्रशासनिक नियंत्रण तथा प्रबंधन की सुविधा के लिये वनों को आरक्षित एवं संरक्षित वनों में वर्गीकृत कर दिया गया।

आरक्षित वन :

आरक्षित वनों का सर्वाधिक महत्त्व होता है। व्यापारिक महत्त्व के वनों को आरक्षित घोषित किया जाता है। राज्य शासन शासकीय राजपत्र की अधिघोषणा के साथ किसी भी जंगल, अनुपयोगी, भूमि संपूर्ण वनोत्पाद या कुछ अंश को आरक्षित वन में सम्मिलित कर सकता है। नियमानुसार इन वनों में वृक्षों की कटाई, पशुचारण तथा शिकार आदि निषिद्ध होता है। बस्तर जिले के 9,834.16 वर्ग किमी में आरक्षित वनों का विस्तार है। संपूर्ण वन क्षेत्र का उत्तर वन वृत्त में 17.16 प्रतिशत तथा दक्षिण वन वृत्त में 25.62 प्रतिशत आरक्षित वन है।

संरक्षित वन :

संरक्षित वन शासन के अधीन रहता है, ताकि उसकी रक्षा हो सके। इन वनों में स्थानीय निवासियों को पशुचारण तथा लकड़ी काटने की नियमानुसार सुविधा प्राप्त होती है। बस्तर जिले में 8,543.25 वर्ग किमी क्षेत्र में संरक्षित वन है। संपूर्ण वन क्षेत्र का उत्तर वन वृत्त में 26.75 तथा दक्षिण वन वृत्त में 10.74 प्रतिशत संरक्षित वन है।

अवर्गीकृत वन :

आरक्षित तथा संरक्षित वनों के अतिरिक्त शेष वन अवर्गीकृत या असीमांकित वन है। इसमें पशु चराने, लकड़ी काटने की स्वतंत्रता निश्चित समय के लिये उपलब्ध होती है। बस्तर जिले में 4,607.31 वर्ग किमी में अवर्गीकृत वन है। कुल वन क्षेत्र का उत्तर वन वृत्त में 10.75 प्रतिशत है तथा दक्षिण वन वृत्त में 9.30 प्रतिशत अवर्गीकृत वन है।

वनों का भौगोलिक वर्गीकरण :

जिले के वनों को वानस्पातिक क्षेत्र के अनुसार भी विभाजित किया जा सकता है। प्राकृतिक वनस्पति आवरण भू-वैज्ञानिक, संरचना, उच्चावच, मिट्टी, तापमान, आर्द्रता एवं अपवाह तंत्र आदि भौगोलिक तत्व, प्रभावित करते हैं। भारतीय वनों का सबसे महत्त्वपूर्ण भौगोलिक वर्गीकरण 1934 ई. में चैंपियन ने प्रस्तुत किया था। सन 1968 में सेठ के साथ मिलकर इस वर्गीकरण में कुछ संशोधन किया गया।

चैंपियन और सेठ (1968, 1) के अनुसार बस्तर जिले में निम्नलिखित पाँच प्रकार के वन पाये जाते हैं :

(1) आर्द्र प्रायद्वीपीय साल के वन,
(2) दक्षिणी आर्द्र मिश्रित पतझड़ वाले वन
(3) आर्द्र सागौन के वन
(4) शुष्क सागौन के वन तथा
(5) दक्षिणी शुष्क मिश्रित पतझड़ के वन।

(1) आर्द्र प्रायद्वीपीय साल के वन :

बस्तर जिले के केशकाल और कोंडागाँव क्षेत्र के उत्तरी पूर्वी भाग में साल के वन दूर-दूर तक फैले हैं। इस क्षेत्र की जलवायु शुष्क और उपार्द है। इस क्षेत्र के 61.1 प्रतिशत भाग में साल के वन पाये जाते हैं। यहाँ साल के वृक्ष 18 से 24 मीटर तक ऊँचे हैं।

(2) दक्षिणी आर्द्र मिश्रित पतझड़ वाले वन :

इस प्रकार के वन जलाशयों, नदियों, घाटियों, पहाड़ी, ढलानों तथा आर्द्र और उपार्द्र क्षेत्रों पर जिले के दक्षिण-पूर्वी भाग में पाये जाते हैं। इन वनों में परिपक्व और पूर्ण परिपक्व वृक्षों का प्रतिशत अधिक है।

(3) आर्द्र सागौन के वन :

इस प्रकार के वन कोंटा तहसील के दक्षिणी पश्चिमी पहाड़ियों में तथा भोपालपटनम के आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्र में पाये जाते हैं। यहाँ उपजाऊ मिट्टी और भू-गर्भिक स्थिति अच्छी होने से सागौन का तीव्र विकास होता है।

(4) शुष्क सागौन के वन :

इस प्रकार के वन शुष्क और उपार्द्र जलवायु में पाये जाते हैं। इस क्षेत्र में बांस के वन नहीं पाये जाते, जो आर्द्र सागौन वनों का मुख्य लक्षण है।

(5) दक्षिणी शुष्क मिश्रित पतझड़ वन :

इस प्रकार के वन दक्षिणी और उत्तरी उष्ण कटिबंधीय, शुष्क पतझड़ वन सागौन तथा साल के साथ अन्य प्रजातियों के वृक्षों के साथ पाये जाते हैं। जिले के उत्तरी भाग में शुष्क और नम उपार्द्र जलवायु वाले क्षेत्र में इस प्रकार के वनों का विस्तार मिलता है।

वनोपज :

(1) प्रमुख वनोपज : इसके अंतर्गत इमारती एवं जलाऊ लकड़ी आती है।

(2) लघु वनोपज : इसके अंतर्गत तेंदूपत्ता, बांस, गोंद, हर्रा, चिरौंजी, महुआ, फल, फूल-बहारी, लाख, कत्या, तिखूर, कोसा, ईमली, आंवला, पलास बीज, तथा अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियाँ प्रमुख रूप से आनी है।

सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

जनसंख्या का घनत्व :

ग्रामीण जनसंख्या :

बस्तर जिले की 93 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है। सन 1991 की जनगणना के अनुसार बस्तर जिले की कुल जनसंख्या 22,71,314 है, जिसमें से 21,09,431 व्यक्ति गाँवों में रहते हैं।

बस्तर जिले में गावों का वितरण सभी विकासखंडों में समान नहीं है। बस्तर जिले का धरातलीय स्वरूप, यातायात के साधन तथा जीवन निर्वाह के साधनों की कमी जिले में गांवों के असमान वितरण के प्रमुख कारण हैं। बस्तर, जगदलपुर, कोण्डागाँव विकासखंडों में अधिक ग्रामीण जनसंख्या है, जबकि कम ग्रामीण जनसंख्या, ओरछा, कुवाकोंडा, बास्तानार, भोपालपटनम विकासखंडों में है।

नगरीय जनसंख्या :

बस्तर में नगरीय जनसंख्या का वर्णन 1901 की जनगणना रिपोर्ट से ही प्रारंभ होता है। वर्तमान में जिले में चार नगर हैं। 1901-1961 तक जिले में मात्र दो (जगदलपुर, कांकेर) नगर थे तथा 1961 में नगरीय जनसंख्या 25899 थी। 1971 में किरंदुल की स्थापना हुई तथा 1981 में कोंडागाँव को नगर का दर्जा मिला।

बस्तर जिले में नगरीय जनसंख्या 1991 की जनगणना के अनुसार 1,61,883 है। चार विकासखंडों (जगदलपुर, दंतेवाड़ा, कोंडागाँव, कांकेर) में नगरीय जनसंख्या है।

जनसंख्या की वृद्धि (1901-1991) :

व्यावसायिक संरचना :

कार्यशील एवं गैर-कार्यशील जनसंख्या :

साक्षरता :

अनुसूचित जाति एवं जनजाति :

भूमि उपयोग प्रतिरूप

1) वन :

बस्तर जिले की लगभग 934319 हेक्टेयर भूमि पर वन है। जो कुल क्षेत्रफल का लगभग 38.49 प्रतिशत है। जिले के विभिन्न विकासखंडों में वनों के विस्तार में भिन्नता मिलती है। सबसे अधिक वन क्षेत्र भैरमगढ़ विकासखंड में है। जहाँ समस्त क्षेत्रफल का 64.93 प्रतिशत वन है तथा सबसे कम वन क्षेत्र कांकेर विकासखंड में 7.39 प्रतिशत है।

(2) कृषि के लिये जो भूमि उपलब्ध नहीं है :

इस वर्ग की भूमि जिले में 217132 हेक्टेयर है, जो कुल क्षेत्रफल का 8.94 प्रतिशत है। इस प्रकार की सर्वाधिक भूमि कांकेर विकासखंड में 24.09 प्रतिशत तथा सबसे कम भूमि बड़ेराजपुर विकासखंड में 1.92 प्रतिशत है। इस संवर्ग को दो उपविभागों में बाँटा गया है।

(अ) अकृषिगत कार्यों में प्रयुक्त भूमि :

इसके अंतर्गत अधिवास, जलाशय, परिवहन के मार्ग, उद्योग एवं खनन के अंतर्गत भूमि को सम्मिलित किया जाता है।

(ब) उसूर एवं अकृषि योग्य भूमि :

इस संवर्ग की भूमि को कृषि योग्य नहीं बनाया जा सकता। इसके अंतर्गत अनुपजाऊ, पथरीली, दलदल एवं उबड़ खाबड़, चट्टानी भूमि सम्मिलित की जाती है।

(3) अन्य अकृषि भूमि जिसमें पड़ती भूमि सम्मिलित नहीं है :

इस वर्ग की भूमि बस्तर जिले में 150637 हेक्टेयर है, जो कुल क्षेत्रफल का 6.20 प्रतिशत है। इस प्रकार की सर्वाधिक भूमि दुर्गकोंदल विकासखंड में 16.56 प्रतिशत तथा सबसे कम कटेकल्याण विकासखंड में 0.54 प्रतिशत है। इस संवर्ग को दो उपविभागों में बाँटा गया है :

(अ) स्थायी चारागाह एवं अन्य घास के क्षेत्र एवं
(ब) झाड़ियों के झुंड तथा बाग।

(4) कृषि योग्य बेकार भूमि :

इसमें ऐसे भूमि शामिल की जाती है, जो कृषि के योग्य तो हैं, लेकिन अनेक भौतिक-सामाजिक एवं आर्थिक बाधाओं के कारण यहाँ फसलें नहीं उगायी जाती। जिले में इस प्रकार की भूमि 172623 हेक्टेयर है, जो कुल क्षेत्रफल का 7.11 प्रतिशत है। इस प्रकार की अधिक भूमि वाला क्षेत्र सुकमा विकासखंड में (14.03 प्रतिशत) तथा सबसे कम केशकाल विकासखंड में (0.67 प्रतिशत) है।

(5) पड़ती भूमि :

पड़ती भूमि वह भूमि है, जिस पर पहले कृषि की जाती रही है, लेकिन अस्थायी रूप से, जिसे कम से कम एक वर्ष और अधिक से अधिक पाँच वर्ष के लिये खाली छोड़ दिया जाता है। जिले की 96.768 हेक्टेयर भूमि पड़ती है। जो कुल क्षेत्रफल का 3.98 प्रतिशत है। पड़ती भूमि का सबसे अधिक विस्तार भानुप्रतापपुर विकासखंड में 7.55 प्रतिशत तथा सबसे कम माकड़ी विकासखंड में 1.09 प्रतिशत है।

(6) निरा बोया गया क्षेत्र :

फसलों तथा बागों के क्षेत्र का योग निरा फसली क्षेत्र कहलाता है। इस वर्ग की भूमि में केवल एक ही फसली क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है। जिले में इस प्रकार की भूमि 856500 हेक्टेयर है, जो कुल क्षेत्रफल का 35.28 प्रतिशत है, निरा फसल क्षेत्र सबसे अधिक बास्तानार विकासखंड में 58.12 प्रतिशत तथा सबसे कम भोपालपटनम विकासखंड में 11.68 प्रतिशत है।

कृषि

फसल प्रतिरूप :

(1) अनाज की फसलें :

जिले में अनाज की फसलों में चावल (धान), गेहूँ, मक्का, ज्वार, कोदो, कुटकी का उत्पादन किया जाता है। अनाज की फसलों में धान का विशेष महत्त्व है। क्योंकि जिले में इसकी कृषि अधिक क्षेत्र में की जाती है। इसके बाद कोदो-कुटकी का स्थान आता है। जिले में गेहूँ, मक्का, ज्वार का क्षेत्र कम है, क्योंकि यहाँ सिंचाई के साधनों की कमी है तथा मिट्टी में आर्द्रता धारण करने की शक्ति कम है। जिले में कुल अनाज का क्षेत्र पृष्ठ के कुल फसली क्षेत्र का सबसे अधिक 94.64 प्रतिशत कुवाकोंडा में है तथा सबसे कम बास्तानार विकासखंड में 75.31 प्रतिशत है।

धान :

बस्तर जिले में धान का क्षेत्रफल बहुत अधिक है (कुल फसली क्षेत्र का 66.04 प्रतिशत) है। जिले के विभिन्न क्षेत्रों में धान के क्षेत्र में अंतर मिलता है। सबसे अधिक क्षेत्र उसूर विकासखंड में (90.43 प्रतिशत) है एवं सबसे कम क्षेत्र वास्तानार विकासखंड में (34.24 प्रतिशत) है।

कोदो-कुटकी :

जिले में खाद्यान्न फसलों में धान के बाद मोटे अनाज में कोदो-कुटकी का विशेष महत्त्व है। जो कुल फसली क्षेत्र के 15.43 प्रतिशत क्षेत्र में बोयी जाती है। सबसे अधिक क्षेत्र कुवाकोंडा विकासखंड में (52.97 प्रतिशत) तथा सबसे कम क्षेत्र भोपालपटनम विकासखंड में (.06 प्रतिशत) है।

दलहन :

बस्तर जिले में दालों की कृषि रबी एवं खरीफ मौसम में की जाती है। जिले में दालों के अंतर्गत चना, तुअर, मूंग एवं उड़द का उत्पादन किया जाता है। यहाँ की मिट्टी में आर्द्रता की कमी के कारण दालों का क्षेत्र कम है। जिले के कुल फसली क्षेत्र के 6.62 प्रतिशत क्षेत्र में दालें बोयी जाती है। जिले में सबसे अधिक दलहन क्षेत्र अंतागढ़ विकासखंड में 14.34 प्रतिशत है। सबसे कम क्षेत्र बकावंड विकासखंड में 1.95 प्रतिशत।

तिलहन :

जिले में कुल फसली क्षेत्र के 4.72 प्रतिशत पर तिलहन का उत्पादन किया जाता है। जिले में तिलहन के अंतर्गत तिल, अलसी एवं सरसों का उत्पादन किया जाता है। तिलहन फसलों के अंतर्गत सबसे अधिक क्षेत्र तोकापाल विकासखंड में (15.85 प्रतिशत) है तथा सबसे कम चारामा विकासखंड में (0.30 प्रतिशत) है।

पशुपालन

खनिज

(1) लोहा :

लोहा आधुनिक यांत्रिक सभ्यता की आधारशिला है। बस्तर जिले में लौह अयस्क के उत्पादन में बैलाडीला को एकाधिकार है। यहाँ कुल हेमेटाइट प्रकार के लौह अयस्क का अनुमानित भंडार 30,000 लाख टन है। इसके अतिरिक्त लौह अयस्क रावघाट की पहाड़ी में भी पाया जाता है। इस प्रकार संपूर्ण बेलाडीला में लौह अयस्क भंडार को 14 निक्षेपों में बाँटा गया है। इसमें से निक्षेप क्रमांक 10 एवं 11 में 1974 से उत्खनन प्रारंभ किया गया है।

बस्तर जिले में लौह अयस्क के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार गौण खनिज पदार्थ थोड़ी-बहुत मात्रा में पाये जाते हैं। इनमें प्रमुख खनिज निम्नानुसार है :-

(2) चूना पत्थर :

बस्तर जिले में कांगेर नदी, गारेली नदी, सुकमा क्षेत्र एवं तेतोनार में सबरी नदी में दोनों किनारों पर और देवरापाल (कागेर घाटी) में चूना पत्थर प्राप्त होता है। इन क्षेत्रों में भूमिगत गुफाओं की प्राकृतिक रचना दर्शनीय है।

(3) बॉक्साइट :

बस्तर जिले में उच्च कोटि के बॉक्साइट केशकाल घाटी के बंधन पारा, सुंदरवाही, पटडोंगरी इत्यादि क्षेत्रों में पाया जाता है।

(4) टिन अयस्क :

जिले में टिन के भंडार तोंगपाल, गोविंदपाल और चितलनार क्षेत्र में है तथा गोदावाड़ा, कुदरीपाल, मुरगेल क्षेत्र में पाया गया है।

(5) कोरण्डम :

बस्तर जिले में कोरण्डम, भोपालपटनम तहसील के मुचनूर तथा चिलामकी क्षेत्र में पाये जाने वाले कोरण्डम का पूर्वक्षण खनिज विभाग द्वारा किया जा रहा है।

(6) डोलोमाइट :

बस्तर जिले में इसका प्रमुख क्षेत्र जगदलपुर के पास मचकोट, टीरिया, कुमली, कापल, शेरबदा, पुलसा इत्यादि क्षेत्र में पाया जाता है।

(7) क्वार्टजाइट :

जिले में ये खनिज क्वार्टजाइट, बलुआ पत्थर, कड़प्पा और विंधयन समूह में मिलता है। जिले में जगदलपुर, कोंडागाँव, कांकेर, नारायणपुर एवं बीजापुर तहसील में पाया जाता है।

(8) लेपिडोलाइट : जिले में इसका भंडार मंदवाल, चित्तलनार और कच्छीरस क्षेत्र में है।

परिवहन

रेल परिवहन :

बस्तर जिले में रेल मार्गों का अत्यंत अभाव है। केवल लौह अयस्क परिवहन के लिये ही किरंदुल से वाल्टेयर तक रेलमार्ग बनाया गया है। यह रेलमार्ग मुख्यत: लौह अयस्क की ढुलाई करने के लिये बनाया गया है। बस्तर के यात्रियों के लिये एक रेलमार्ग दल्लीराजहरा तक बनायी जायेगी। इसका प्रारंभिक सर्वेक्षण कार्य पूरा कर लिया गया है। किरंदुल-वाल्टेयर रेलमार्ग पर यात्री रेलगाड़ी भी चलती है।

सड़क परिवहन :

बस्तर जिले की यातायात व्यवस्था लगभग पूर्ण रूपेण सड़क परिवहन पर ही निर्भर है। यहाँ सड़क परिवहन का थोड़ा ही विकास हो पाया है, जिसमें यातायात मुख्यत: बैलगाड़ी, साइकल, मोटर व अन्य वाहनों द्वारा किया जाता है। इनके द्वारा जिले के आंतरिक भाग से अनाज वनोपज को मंडियों तक लाया ले जाया जाता है। अत: बस्तर में आर्थिक विकास को गतिशील बनाने के लिये यातायात को उन्नत बनाना आवश्यक होगा। यहाँ की मुख्य सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग 43 है, जो रायपुर से जगदलपुर तक गई है। यहाँ सड़कों की कुल लंबाई 5,288.95 किमी है, जिसमें 2385.86 किमी पक्की सड़कें एवं 2903.09 किमी कच्ची सड़कें सम्मिलित हैं।

बस्तर जिले में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास एक भौगोलिक विश्लेषण, शोध-प्रबंध 1997


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

प्रस्तावना : बस्तर जिले में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास एक भौगोलिक विश्लेषण (An Assessment and Development of Water Resources in Bastar District - A Geographical Analysis)

2

बस्तर जिले की भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geography of Bastar district)

3

बस्तर जिले की जल संसाधन का मूल्यांकन (Water resources evaluation of Bastar)

4

बस्तर जिले का धरातलीय जल (Ground Water of Bastar District)

5

बस्तर जिले का अंतर्भौम जल (Subsurface Water of Bastar District)

6

बस्तर जिले का जल संसाधन उपयोग (Water Resources Utilization of Bastar District)

7

बस्तर जिले के जल का घरेलू और औद्योगिक उपयोग (Domestic and Industrial uses of water in Bastar district)

8

बस्तर जिले के जल का अन्य उपयोग (Other uses of water in Bastar District)

9

बस्तर जिले के जल संसाधन समस्याएँ एवं समाधान (Water Resources Problems & Solutions of Bastar District)

10

बस्तर जिले के औद्योगिक और घरेलू जल का पुन: चक्रण (Recycling of industrial and domestic water in Bastar district)

11

बस्तर जिले के जल संसाधन विकास एवं नियोजन (Water Resources Development & Planning of Bastar District)

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