भूजल, पृथ्वी पर मीठे पानी का सबसे बड़ा संसाधन है। आमतौर पर इसके भण्डार जमीन के नीचे और भूगर्भीय संरचनाओं में पाए जाते हैं, जिन्हें जलभृत कहा जाता है तथा ये पूरी तरह से संतृप्त होते हैं। भूजल, सतत विकास, उद्योग, कृषि, पारिस्थितिक तंत्र, मानव जीवन एवं आजीविका बनाये रखने के लिए आवश्यक है। सतही जल प्रणालियों, नदी के किनारों और अन्य प्रकार की वनस्पतियों को बनाए रखने में भी भूजल की महत्वपूर्ण भूमिका है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार, भारत में भूजल, पेयजल और सिंचाई का प्रमुख स्रोत है, और अनुमान लगाया गया है कि जमीन से निकाले गए भूजल के 70-90% का उपयोग कृषि के लिए किया जा रहा है जो कि देश की खाद्य सुरक्षा में बड़े पैमाने पर योगदान देता है। पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में भूजल की महत्वपूर्ण भूमिका है और यह शुष्क मौसम और सूखे के दौरान नदियों में प्रवाह को बनाए रखने और आर्द्रभूमि के संरक्षण हेतु एक विश्वसनीय प्रवाह प्रदान करता है। आर्द्र क्षेत्रों में, भूजल आमतौर पर नदियों में बह जाता है, जिससे उनके जलीय पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखा जाता है। शुष्क क्षेत्रों में यह संबंध और अधिक जटिल हो जाते हैं तथा प्रायः नदियाँ जल रिसाव, अंतःस्पदंन और बाढ़ की घटनाओं के माध्यम से भूजल प्रणाली को बढ़ाने में योगदान देती हैं। हाल के वर्षों में, भूजल का उपयोग अव्यवहार्य हो गया है और इसके अत्यधिक उपयोग के कारण कुछ क्षेत्रों में भूजल द्वारा आपूर्ति कम होती जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप, दुनिया के 20% जलभृतों को अतिशोषित के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भूजल के अत्यधिक दोहन को एक ऐसी स्थिति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें समय के साथ, जलभृतों से औसत निकासी दर औसत पुनर्भरण दर से अधिक होती है। अकेले भारत में ही किसानों ने बहुत सारे भूजल निकालने वाले ट्यूबवेल लगाए हुए हैं। खाद्यान्न की बढ़ती मांग के कारण भूजल संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। भूजल के अधिक दोहन से भूजल संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
भूजल का मानव द्वारा उपयोग और पारिस्थितिक उपयोग उपलब्ध जल की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। कृषि और घरेलू उद्देश्यों के लिए भूजल की उपयुक्तता काफी हद तक जलवायु विविधताओं के साथ-साथ जल के जलभृत में ठहरने के समय और मानवजनित गतिविधियों पर निर्भर करती है। खराब गुणवत्ता वाले पानी के उपयोग से जुड़ी समस्याओं में कुछ आयनों और अत्यधिक पोषक तत्वों की उपस्थिति के कारण अंतःस्पदंन दर में कमी और मिट्टी की विषाक्तता शामिल है। भूजल की भौतिक रासायनिक संरचना कृषि (सिचाई), औद्योगिक और घरेलू उद्देश्यों के लिए इसकी उपयुक्तता का एक पैमाना है। अतः किसी भी क्षेत्र में उपयोग करने से पहले भूजल की जल-रासायनिक विशेषताओं का मूल्यांकन करना आवश्यक है। कृषि प्रयोजनों के लिए पानी की उपयुक्तता को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण रासायनिक घटकों में से एक लवणता है। भूजल लवणता मुख्य रूप से खनिज अपक्षय के दौरान नमक युक्त परतों के विघटन के कारण मिट्टी और पानी में घुले हुए लवणों की बढ़ी हुई सांद्रता के परिणामस्वरूप उच्च विद्युत चालकता के कारण होती है: बेसिन में वाष्पीकरणीय सांद्रता; बेसिन में समुद्री एरोसोल के जमाव और मिट्टी, सिल्टस्टोन, मडस्टोन और शेल्स के झिल्ली निस्पंदन द्वारा भी आ सकती है। कम गहराई वाला भूजल अवशिष्ट लवण जल के रिसने, भूजल वाष्पित तलछट के संपर्क में आने तथा भूजल स्तर में वृद्धि के बाद लवणों के निक्षालन के कारण खारा हो जाता है।
भूजल में उच्च मात्रा में लवण होते हैं जो विद्युत संचालन करने में सक्षम होते हैं। जल की अधिक विद्युत चालकता अधिक लवणता को दर्शाती है। लवणता को विद्युत चालकता (ईसी) यंत्र और जल में घुले ठोस पदार्थों के कुल खनिज अवयव की माप के द्वारा मापा जाता है। चालकता की मानक इकाई mho/cm है, लेकिन इसे µS/cm द्वारा भी दर्शाया जाता है। विद्युत चालकता का उपयोग आमतौर पर प्राकृतिक जल के आयनित घटकों की कुल सांद्रता को इंगित करने के लिए किया जाता है। यदि भूजल का ईसी अधिक है, तो यह मिट्टी, पौधों और मनुष्यों को प्रभावित करेगा। पौधों में, ई.सी का मान जितना अधिक होगा, पौधों को उतना ही कम पानी उपलब्ध होगा क्योंकि पौधे केवल शुद्ध पानी का संचार कर सकते हैं। इसे विभिन्न उपयोगों के लिए पानी की उपयुक्तता का एक अच्छा संकेतक माना जाता है। ईसी वर्गीकरण को तालिका 1 में दर्शाया गया है।
तालिका 1 भूजल का गुणवत्ता मानदंड, ई.सी (µS/cm) के आधार पर
जल का वर्गीकरण |
ई.सी (µS/cm) |
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1 |
उत्तम (C1) |
<250 |
2 |
अच्छा (C2) |
250-750 |
3 |
अनुमत (C3) |
750-2000 |
4 |
संदिग्ध (C4) |
2000-3000 |
5 |
अनुपयुक्त (C5) |
<3000 |
जनसंख्या वृद्धि, बेहतर जीवन स्तर और पानी के लिए विभिन्न क्षेत्रो में प्रतियोगिता के कारण भविष्य में एशियाई देशों में कृषि क्षेत्र के लिए उपलब्ध ताजे पानी की आपूर्ति में कमी आ सकती है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के आंकडों के अनुसार, भारत के लिए वर्ष 2025 तक इस कमी के 10 से 12% तक होने का अनुमान है। भारत में भूजल सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि अधिकांश राज्यों में, जहां कुल भूजल विकास 32 से 84% के बीच है, खराब गुणवत्ता वाले पानी का उपयोग किया जा रहा है। भारत के कई राज्यों में अच्छी गुणवत्ता के जलभृत हैं, लेकिन अधिक निकासी के कारण ये जलभृत भी अब संकट में हैं। शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्र का भूजल मुख्यतः खारी प्रकृति का है। भारत में अब तक खारे भूजल के अनुमान के लिए कोई व्यवस्थित प्रयास नहीं किया गया है। हालांकि, विभिन्न राज्यों में भूजल लवणता के बारे में कुछ भविष्यवाणी नीचे दिए गए चित्र में दर्शाई गई हैं। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अनुमान के अनुसार, खारे भूजल वाला (ईसी > 4000 µS/cm) 193,438 वर्ग कि.मी वाला क्षेत्र, जिसकी वार्षिक पुनर्भरण योग्य मात्रा 11,765 एम.सी.एम प्रति वर्ष है, मामूली क्षेत्र को छोड़कर, पुनर्भरण योग्य है।
भारत के मध्य जलोढ़ मैदानों में, नहर नेटवर्क के विस्तार और शुष्क जलवायु परिस्थितियों के कारण अंतःस्थलीय लवणता लगातार बढ़ रही है। इन कारकों से इन क्षेत्र में वाष्पीकरण-वाष्पोत्सर्जन दर अधिक है और मिट्टी पर नमक के जमाव के कारण भूजल लवणता में बढ़ोतरी हुई है। गहरे और उथले जलभृतों में लवणता लगातार बढ़ रही है। गहरे जलभृत (बोरवेल), उथले जलभृत (डगवेल) की तुलना में अधिक खारे पाए जाते हैं। इन क्षेत्रों में अंतःस्थलीय लवणता में के प्रमुख प्रभावों में से एक खारा भूजल भी है, जो भूमि की सतह तक पहुंच रहा है और मिट्टी के लवणीकरण और जल भराव का कारण बन रहा है।
यह अनुमान लगाया गया है कि भारत के गंगा बेसिन में लगभग 25% क्षेत्र में 1000 मिलीग्राम/लीटर से अधिक कुल घुलित ठोस वाला खारा पानी है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पेयजल की चालकता 1000 मिलीग्राम/लीटर या इससे कम तथा सिंचाई के लिए चालकता 2000 मिलीग्राम/लीटर से कम होनी चाहिए हालांकि, सिंचाई के लिए कोई सख्त सीमा नहीं है। भूजल लवणता की प्रमुख समस्या भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान राज्यों में होती है जहाँ लवणता स्थलीय मूल की बताई जाती है। लवणता प्रभावित राज्य का क्रम इस प्रकार है: राजस्थान हरियाणा पंजाब दिल्ली।
चित्र 1 में राजस्थान, हरियाणा, गुजरात राज्यों के 40 वर्ग किमी से अधिक वाले पीले से भूरे और गुलाबी क्षेत्रों को दर्शाया गया है जहाँ पर उच्च लवणीय क्षेत्रों का संकेत मिलता है तथा जो जल भराव और परिणामस्वरूप मिट्टी की लवणता की गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इन राज्यों को विभिन्न नहरों द्वारा सिंचित किया जाता है और इसके भूजल संसाधनों के प्रबंधन के लिए दोहरी रणनीति के परिणामस्वरूप जल जमाव और मिट्टी का लवणीकरण हुआ है। जलभराव से फसलों के जड़ क्षेत्र में ऑक्सीजन की कमी और कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि होती है जिससे पौधों के पोषक तत्वों की हानि होती है और हानिकारक सूक्ष्मजीवों की वृद्धि की कीमत पर उपयोगी सूक्ष्मजीवों की हानि होती है। यह मिट्टी की सतह पर लवणों के संचय के कारण एक पारिस्थितिक असंतुलन के कारण रासायनिक क्षरण का कारण बनता है।
भूजल का लवणीकरण भूगर्भीय स्रोतों जैसे तटीय जलभृतों में समुद्री जल का अंतर्वेधन, जमा नमक के साथ संपर्क, और गहरे प्राकृतिक खारे पानी के ऊपर आने और मानवजनित गतिविधियों के परिणामस्वरूप होता है। यह स्थानीय या क्षेत्रीय रूप में हो सकता है। चित्र 2 में एक जलभृत प्रणाली में सामान्यीकृत भूजल लवणीकरण प्रक्रियाओं को दर्शाया गया है। भूजल लवणता का एक प्रमुख कारण भूजल का अंधाधुंध और अनियोजित निष्कर्षण है। अर्ध-शुष्क क्षेत्र में, भूजल लवणीकरण आमतौर पर विघटित आयन की लीचिंग, खनिज अपक्षय के दौरान घुले हुए आयनों के वाष्पीकरण और गहरे जलभृतों से खारे पानी के एकत्रीकरण के कारण होता है। अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में अधिक वाष्पीकरण से मिट्टी पर लवणों का अधिक संचय हो सकता है और यह मिट्टी और भूजल की लवणता का एक प्रमुख कारण बन सकता है। खराब जल निकासी वाले बेसिनों में मिट्टी के ऊपर जमा नमक के रिसने के कारण लवणीकरण हो सकता है। अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में अत्यधिक सिंचाई के कारण भी लवण का संचय शुरू हो सकता है। ऐसे स्थानों पर जहाँ खारा पानी परिवर्तनशीन गहराई पर मीठे पानी के जलभृतों के नीचे है, वहां पर प्राकृतिक भूजल लवणीकरण क्षेत्रीय पैमानों पर हो रहा है। जल लवणीकरण की घटनायें विभिन्न कारकों द्वारा नियंत्रित होती हैं, जिनमें भूजल पुनर्भरण का वितरण और दर, जलीय जलभृत विशेषतायें, निवास समय, प्रवाह वेग और निर्वहन क्षेत्रों की प्रकृति शामिल हैं। खनिज नमक के वाष्पीकृत घोल के अवक्षेपण के कारण खारे पानी की रासायनिक संरचना अक्सर विषम होती है। मीठे पानी का प्राकृतिक लवणीकरण तब होता है जब खारे जलभृतों का खारा पानी भूमि की सतह पर बह जाता है या उपसतह में मीठे पानी के साथ मिल जाता है। प्रायः मीठे पानी और खारे पानी को परिवर्तनशील मोटाई वाला पारगमन क्षेत्र अलग करता है।
मानव गतिविधियों का नमक की सान्द्रता के परिमाण और स्थानिक वितरण पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। स्रोत के प्रकार और अवधि के आधार पर सांद्रता काफी भिन्न हो सकती है।
बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए भूजल संसाधन प्रबंधन के द्वारा भूजल और सतही जल के उपयोग को संतुलित किया जा सकता है। शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्र में ताजे भूजल का दोहन और पुनर्स्थापन एकीकृत जल प्रबंधन का हिस्सा होना चाहिए तथा इसमें सतही जल और भूजल दोनों शामिल होने चाहिएं। इसके लिए सहयोग, सूचना, अध्ययन, योजना और कानून की आवश्यकता है। भूजल प्रबंधन योजनाओं में निम्नलिखित तीन सामान्य सिद्धांत शामिल हैं, (i) प्रौद्योगिकियों का विकास जो भूजल जलाशयों की भंडारण क्षमता को बढ़ाएंगे, (ii) भूजल गुणवत्ता का संरक्षण, और (iii) समाज के लिए भूजल संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग। विभिन्न स्तरों पर सभी अधिकारियों के बीच सहयोग से ही एकीकृत जल प्रबंधन प्राप्त किया जा सकता है। उचित भूजल प्रबंधन के लिए आवश्यक उपायों का वर्णन नीचे दिया गया है।
देश के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में वर्षा जल संचयन के माध्यम से कृत्रिम पुनर्भरण किया जा रहा है। यह देखा गया है कि कई बार स्थलों का चयन और पुनर्भरण संरचनाओं का प्रकार जलविज्ञानीय और जल-भूवैज्ञानिक स्थितियों के अनुकूल नहीं होते हैं। नतीजतन, वांछित लाभ प्राप्त नहीं होता है। कृत्रिम पुनर्भरण की प्रमुख चिंता, पानी की उपलब्धता के लिए क्षेत्र में पाए जाने वाले स्रोतो और वर्षा पर निर्भरता है, जिसमे एक रूपता नहीं है। अच्छे भूभौतिकीय गुणों वाले जलोढ़ क्षेत्रों में परकोलेशन टैंक, चेक डैम, रिचार्ज शाफ्ट और उप-सतह अवरोधों का निर्माण अधिक उपयुक्त संरचनाएं हैं।
खारे पानी के सफल उपयोग के लिए सरसों, गेहूं और कपास जैसी अर्ध सहिष्णु फसलों के साथ-साथ कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों की सिफारिश की जाती है। चावल, गन्ना जैसी फसलों को अधिक पानी की आवश्यकता होती है, उन्हें प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। कम वर्षा वाले क्षेत्र अर्थात भारत के पश्चिमी क्षेत्र में नमक संतुलन बनाए रखने के लिए मोनो फसल की सिफारिश की जाती है। मिट्टी की लवणीय स्थितियों को कम करने के लिए फसल क्रम एक महत्वपूर्ण कदम है। लवणीय स्थितियों के लिए अनुशंसित फसल क्रम में बाजरा जौ, मोती बाजरा-गेहूं, मोती बाजरा-सरसों, ज्वार-गेहूं, जौ-चारा-सरसों आदि शामिल हैं। ये फसल प्रणालियां लवणीय मिट्टी में अधिक लाभकारी हैं। अर्ध-शुष्क क्षेत्र में, फसल क्रम में गेहूं के स्थान पर सरसों को उगाया जा सकता है क्योंकि इसकी पानी की आवश्यकता गेहूं की तुलना में कम होती है। भूजल में क्लोराइड आयन की उच्च सांद्रता के कारण फसल की सहनशीलता सीमा अत्यधिक सिमित होती है। उच्च लवण अधिशोषण अनुपात (एसएआर) के पानी से सिंचाई करने पर अधिक लवण मिट्टी में जमा हो जाते हैं और इस प्रकार फसल की सहनशीलता की सीमा को कम कर देते हैं। सभी फसलें अपने विकास के विभिन्न चरणों में लवणता को समान रूप से सहन नहीं करती हैं। नमक प्रभावित मिट्टी में फलों की फसल उगाने को मोटे तौर पर चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है, जैसे नमक सहिष्णु फसलें और खेती, जड़ क्षेत्र की स्थिति में सुधार, फसल वाष्पीकरण-वाष्पोत्सर्जन नुकसान को कम करना और नमक के खतरे को कम करने के लिए सिंचाई प्रबंधन। ऐसी लवणता प्रबंधन तकनीकों और प्रथाओं की ताकत और कमजोरियों पर चर्चा की जानी चाहिए। फसल प्रजातियों, जलवायु और लवणता स्तर जैसे कारकों के आधार पर, तकनीकों का एक संयोजन लंबे समय में एकल हस्तक्षेप से बेहतर परिणाम दे सकता है।
मिट्टी में पानी और लवण का वितरण सिंचाई की विधि के अनुसार बदलता रहता है। मिट्टी में लवणता को नियंत्रित करने के लिए सूक्ष्म सिंचाई पद्धतियों जैसे ड्रिप और स्प्रिंकलर का उपयोग किया जा सकता है। सीमित जल आपूर्ति के साथ बढ़ती आबादी को भोजन उपलब्ध कराने हेतु गैर-पारंपरिक जल संसाधनों के उपयोग पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। ड्रिप सिंचाई में लवणीय स्थिति में फसल की उपज बढ़ाने की क्षमता है और यह फ्रो सिंचाई और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणालियों से बेहतर है।
विश्व बैंक से अनुदान प्राप्त हाल ही में शुरू किये गए जल शक्ति मंत्रालय के जल शक्ति अभियान (JSA) में सामुदायिक भागीदारी पर जोर दिया गया है। एक अन्य प्रस्तावित योजना "अटल भूजल योजना" का उद्देश्य सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से देश में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में भूजल प्रबंधन में सुधार करना है। हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्यों में इस योजना के तहत प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की पहचान की गई है। भारत में भूजल के मामले में अति-शोषित, संकटमय और अर्ध-संकटमय ब्लॉकों की कुल संख्या का लगभग 25% इन्ही राज्यों में है। यह योजना भूजल प्रबंधन में समुदायों की सक्रिय भागीदारी पर जोर देती है जैसे कि जल उपयोगकर्ता संघों का गठन, भूजल आंकड़ों की निगरानी और प्रसार, जल बजट, ग्राम पंचायतवार जल सुरक्षा योजनाओं की तैयारी और कार्यान्वयन तथा स्थायी भूजल प्रबंधन से संबंधित आई.ई.सी गतिविधियां ।
उत्तर-पश्चिम राज्यों में, भूजल सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक सद्भाव के लिए महत्वपूर्ण है, जल-भूविज्ञानीय ज्ञान तथा जलभूत प्रणाली की नियमित जांच द्वारा इसका सतत विकास और उचित उपयोग किया जा सकता है। राज्यों में भूजल उपयोग का सबसे बड़ा घटक सिंचाई है। शुष्क और अर्ध-शुष्क जलवायु वाले उत्तर-पश्चिम राज्यों में बड़े पैमाने पर निकासी के कारण मिट्टी की सतह पर नमक का फैलाव है। यहाँ पर भूजल में लवणता अधिक मात्रा (>3000 µS/cm) में पाई गई है। प्रभावी उपाय भूजल प्रबंधन योजना को अधिक सटीक, समग्र और टिकाऊ बनाने में मदद कर सकते हैं। सरकार को अति दोहन पर प्रतिबंध लगाने के बजाय नए कुओं के पुनर्निर्माण, पुनर्भरण संरचनाओं और ऊर्जा बचत उपकरणों के साथ सूक्ष्म सिंचाई प्रौद्योगिकी के उपयोग को प्रोत्साहन देना चाहिए। एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM) लंबे समय तक चल सकने वाले जल कार्यक्रम विकसित करने में मदद कर सकता है। "जल शक्ति अभियान (जेएसए)" और भारत सरकार की प्रस्तावित "अटल भूजल योजना", जो सार्वजनिक भागीदारी के साथ-साथ भूजल संसाधनों के कुशल उपयोग पर जोर देती हैं, एक समावेशी भूजल विकास कार्यक्रम प्राप्त करने की दिशा में एक आशाजनक तरीका हो सकते हैं।