ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तो सर्वप्रथम जल तत्व को बनाया। वेद के अनुसार जल दो शब्द 'ज' और 'ल' के मेल से बना है। 'ज' से जन्म और 'ल' से लय हो जाना अर्थात जन्म और मरण दोनों जल में सन्निहित हैं। जल ही जीवन है, जल के बिना जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल है।
मनुष्य के शरीर का 3/4 भाग पानी है। पृथ्वी का भी 3/4 भाग पानी है, लेकिन फिर भी पानी की क्यों परेशानी है? आओ, इस पर विचार करें ।
सृष्टि ने जल तत्व को अत्यधिक मात्रा में बनाया है। पृथ्वी के 3/4 भाग पर जल ही जल है। संसार में जल की मात्रा को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रायथ् 1992 में अपनी पुस्तक में जल से संबंधित कुछ आंकड़े दिये, जो निम्न प्रकार से हैं:-
इसमें भी कुछ जल सतह पर होता है, कुछ भूजल के रूप में धरती के अन्दर रहता है। भूजल का 50 प्रतिशत तो हम निकाल सकते हैं, 50 प्रतिशत इतना नीचे है कि मनुष्य की पहुंच से परे है। इस प्रकार जल की मात्रा अत्यधिक होते हुए भी पीने योग्य जल का प्रतिशत बहुत कम है।
वायुमण्डल में रहने वाले जल को वायुमण्डलीय जल कहते हैं। यह जल की कुल मात्रा का 0.001 प्रतिशत होता है और वर्षा के रूप में यही जल मिलता है। इन तीनों ही प्रकार की जल की भारत में अधिकता है लेकिन इनका समय एवं जगह के हिसाब से ही वितरण ठीक नहीं है। एक ही समय में कहीं बाढ़ आ रही है तो कहीं सूखा पड़ रहा है। उदाहरण के लिए पिछले वर्ष मानसून में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड बाढ़ की विभीषिका झेल रहे थे और बिहार में सूखा पड़ रहा था। इसका सीधा मतलब है कि जल की उपलब्धता के साथ-साथ इसका यदि वितरण भी ठीक हो जाये तो जल की कमी से निपटा जा सकता है। लेकिन इसके लिए जल के उचित प्रबंधन की आवश्यकता होगी। जिसमें डैम बनाकर जल रोकना इससे जल एवं विद्युत दोनों मिलेगी और बाढ़ भी रुकेगी। नदियों को आपस में जोड़ना यह भी एक महत्वपूर्ण कदम है और सरकार इस पर गंभीरता से विचार कर रही है। कई देशों में नदियों को जोड़कर बाढ़ एवं सूखा पर विजय प्राप्त की गयी है। चीन इसका एक उदाहरण है।
रेन वाटर हार्वेस्टिंग भी एक महत्वपूर्ण जल संरक्षण का कदम है इसमें वर्षा के जल को बेकार नहीं बहने दिया जाता उसको टैंकों या भूजल में स्टोर कर दिया जाता है और सूखे मौसम में इसका उपयोग किया जाता है।
प्रकृति ने जल का एक चक्र बनाया है, इसमें जल बिना खर्च हुए घूमता रहता है, समुद्र से जल वाष्पीकरण, वर्षा फिर नदियों में बहना धरती में भूजल के रूप में इकट्ठा होना फिर बहकर समुद्र में मिलना ये चक्र चलता रहता है लेकिन यदि मानव इसमें अपना हस्तक्षेप करेगा तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। दिल्ली इसका एक उदाहरण है। दिल्ली वालों ने शान में आकर सब कुछ पक्का कर दिया, छत पक्की, सड़क पक्की नाली पक्की वर्षा का पूरा जल बहकर यमुना में चलता जाता और धरती के अन्दर एक बूंद भी नहीं जाती । परिणाम यह हुआ पहले हैंडपंप सूखे, फिर ट्यूबवेल सूख गये और लोग पानी को तरसने लगे। वैज्ञानिकों को अपनी भूल का एहसास हुआ फिर दिल्ली में कच्ची जमीन छोड़ी गयी, छोटे तालाब खोदे गये, रेन वाटर हार्वेस्टिंग की गयी तब जाकर कुछ भूजल में सुधार होने लगा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में जल की कमी नहीं है केवल उचित प्रबंधन की कमी है इसे अपनाकर हम इस पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
जल में उपलब्ध भौतिक, रासायनिक एवं जीवाणवीय तत्वों के आधार पर जल की गुणवत्ता निर्धारित की जाती है। जैसे-जैसे आदमी की प्रकृति पर बढ़ी सत्ता, बिगड़ गयी उतनी ही जल की गुणवत्ता।जी हाँ यह बिल्कुल अक्षरशः सत्य है। प्रकृति ने हमें निर्मल जल दिया था और उसके शुद्धीकरण के तरीके भी प्रकृति ने स्वतः ही दिये थे लेकिन दुखद पहलू यह है कि मानव ने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर प्रकृति के चक्र को बिगाड़ दिया जल में जहर घोल दिया जो आज मानव तो क्या जानवर के लिए भी पीने योग्य नहीं रहा।
भारतवर्ष में पानी की गुणवत्ता दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। पीलिया, हैजा, टाइफाइड इसके मुख्य रोग हैं। हमें जल की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान देना है। सरकार भी इस दिशा में कार्य कर रही है लेकिन सब कुछ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। हमारे भी कुछ कर्तव्य हैं, जो निम्न प्रकार हैं:-
इस प्रकार जल गुणवत्ता को सुधार कर हम अपना व अपने समाज का स्वास्थ्य सुधार सकते हैं। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) की गाइडलाइन अपनाकर शुद्ध जल पीएं, स्वस्थ रहें। जान है तो जहान है। धन के लिए स्वास्थ्य से समझौता न करें।
और अंत में
इस प्रकार जल की उपलब्धता एवं जल की गुणवत्ता दोनों में तालमेल बैठाकर हम स्वस्थ जीवन जी सकते हैं " अति सर्वत्र वर्जयेत" बीच का रास्ता निकालें। प्रकृति के स्वास्थ्य का हम ध्यान रखें और प्रकृति हमारे स्वास्थ्य का ध्यान स्वतः ही रखने लगेगी, अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब सोना, चाँदी, रुपया, डॉलर, सब होंगे पर सांस लेने को हवा नहीं होगी, पीने को पानी नहीं होगा।