हमारे देश में हरित क्रांति के माध्यम से कृषि उत्पादन को बढ़ाने में भूजल संसाधन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर सिंचित भूमि के 60% से अधिक भू-भाग पर सिंचाई भूजल द्वारा होती है। वर्षा का अधिकतर जल, सतह की सामान्य ढालों से होता हुआ नदियों में जाता है तथा उसके बाद सागर में मिल जाता है। वर्षा के इस बहुमूल्य जल का भूजल के रूप में संचयन अति आवश्यक है। भूजल, कुएँ, नलकूप आदि साधनों द्वारा खेती और जनसामान्य के पीने हेतु काम आता है। भूजल, मृदा (धरती की ऊपरी सतह) की अनेक सतहों के नीचे चट्टानों के छिद्रों या दरारों में पाया जाता है। उपयोगिता कि दृष्टि से भूजल, सतह पर पीने योग्य उपलब्ध जल संसाधनों के मुकाबले अधिक महत्त्वपूर्ण है। अध्ययनों से पता चला है कि भूजल की उत्पादकता, सतही जल से लगभग डेढ़ से दोगुना अधिक होती है।
दुर्भाग्यवश पिछले कुछ दशकों में भूजल के अत्यधिक दोहन और अव्यवस्थित प्रबंधन के कारण देश के अधिकतर हिस्से में भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इन क्षेत्रों में भूजल का दोहन भूजल पुनर्भरण से अधिक है। इसके फलस्वरूप किसानों को अपना सब्मर्सिबिल पम्प हर वर्ष नीचे करना पड़ता है जिसके कारण ऊर्जा की खपत भी बढ़ जाती है। इसलिये भूजल का पुनर्भरण और उचित प्रबंधन करना आवश्यक है। भूजल उपयोग की नीति ऐसी होनी चाहिए जिससे भूजल का वार्षिक दोहन, वार्षिक पुनर्भरण से अधिक न हो।
भूजल पुनर्भरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सतही जल मिट्टी की उपसतह से होते हुए भूजल स्तर तक पहुंचता है। वर्षा जल का एक भाग वाष्पोत्सर्जन द्वारा वातावरण में वापस चला जाता है, एक भाग सतहीय अपवाह के रूप में क्षेत्र से बाहर होते हुए नदी, नालों और समुद्र में मिल जाता है। एक भाग पुनर्भरण प्रक्रिया द्वारा भूजल स्तर तक पहुंचता है। नियमतः भूजल का दोहन वार्षिक पुनर्भरण से अधिक नहीं होना चाहिए। इसके लिए सतहीय अपवाह को विभिन्न संरचनाओं जैसे तालाबों, बंधियों, बड़े व्यास के कुओं इत्यादि में रोककर भूजल पुनर्भरण को त्वरित किया जाता है, इसे कृत्रिम पुनर्भरण कहा जाता है। उन क्षेत्रों में जहां-जहां भूमि की ऊपरी पर्तों की रिसाव दर कम है, पुनर्भरण नलकूप द्वारा भूजल पुनर्भरण को त्वरित करना चाहिए। शुष्क व अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में, जहां वर्षा कम होती है, खेत-क्यारियों के चारों तरफ पर्याप्त ऊंचाई के मेड बनाकर वर्षा जल को रोका जा सकता है।
भूगर्भीय संरचना के आधार पर अलग-अलग क्षेत्रों की भूजल पुनर्भरण की क्षमता अलग-अलग होती है। अतः भूगर्भीय संरचना के गहन अध्ययन करने की आवश्यकता है। अलग-अलग क्षेत्रों में अध्ययन के आधार पर भूजल पुनर्भरण संरचनाओं का चयन करना होगा।
भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण का मुख्य उद्देश्य वर्षा जल को विभिन्न प्रकार की संरचनाओं के माध्यम से होकर भूजल स्तर तक ले जाना होता है। ऐसा करने से सतही अपवाह जो बहकर अन्यत्र चला जाता है उसे कम किया जा सकता है जिससे भूजल स्तर में वृद्धि होती है। कृत्रिम पुनर्भरण द्वारा मृदा के कटाव एवं सूखे के प्रभाव को कम किया जा सकता है। गुजरात के सौराष्ट्र में लगातार तीन वर्षों के सूखे के जवाब में 1980 के दशक के अंत में भूजल पुनर्भरण एक जन आंदोलन के रूप में शुरू हुआ। फसलों को बचाने के लिए कुछ किसानों ने बारिश के पानी और आस-पास की नहरों और नालों के पानी को अपने कुओं में मोड़ना शुरू कर दिया। कुछ ही समय में सौराष्ट्र के सात जिलों के हजारों किसानों ने अपने कुओं को पुनर्भरण संरचनाओं में परिवर्तित कर दिया।
दिल्ली सरकार, एक परियोजना के अंतर्गत मानसून के मौसम में यमुना के बाढ़ के पानी को संग्रहित कर भूजल पुनर्भरण का कार्य कर रही है। बाढ़ के पानी के संचयन के लिए यमुना के किनारे 26 एकड़ का एक तालाब बनाया गया है। इसके आसपास भूजल स्तर की निगरानी के लिए 33 पीजोमीटर भी लगाए गए हैं। यह देखा गया है कि वर्ष 2020 और 2021 में क्रमशः 2.9 मिलियन घन मीटर और 4.6 मिलियन घन मीटर भूजल पुनर्भरण किया गया। साथ ही भूजल स्तर में आधा मीटर से ढ़ाई मीटर तक वृद्धि देखी गयी।
उप सतही तकनीकों का उद्देश्य उन गहरे जलभृतों का पुनर्भरण करना है जो अपारगम्य / अल्पपारगम्य संरचनाओं से ढके होते हैं एवं जिनसे साधारण अवस्था में सतही जल का रिसाव नहीं हो पाता है।
पुनर्भरण कूप साधारण बोरवेल या नलकूप के ही समान संरचनायें हैं जिनका निर्माण गहरे जलभृतों के पुनर्भरण के लिए होता है। इनमें जल की आपूर्ति गुरूत्व द्वारा या दबाव के अन्तर्गत की जाती है। इस विधि से उन जलभृतों का पुनर्भरण करते हैं जो अति दोहन से असंतृप्त हो गये हों। तटीय क्षेत्रों में भी ताजे जल के जलभृत को समुद्री जल अतिक्रमण से बचाने या रोकने एवं भूधंसाव की समस्या से निजात पाने के लिए इस विधि से पुनर्भरण किया जा सकता है।
विशेष रुप से डिजाइन किये गये इंजेक्शन कूपों के अलावा उपलब्ध कुओं एवं बोरवेल / ट्यूबवेल को भी वैकल्पिक रूप से पुनर्भरण कुओं के रुप में उपयोग में लाया जा सकता है विशेषकर जब जल स्रोत उपलब्ध हो। उन क्षेत्रों में जहाँ भूजल संसाधनों के अति दोहन से उथले कुएँ सूख जाएं या बोरवेल में पिजोमिट्रीक स्तर गहरे हो जाएं अर्थात् जलभृत पर्याप्त रुप से असंतृप्त हो जाएं, मौजूदा भूजल निकास संरचनाएँ उथले या गहरे जलभृत क्षेत्रों के पुनर्भरण के लिए एक लागत प्रभावी तंत्र उपलब्ध कराते हैं।
पुनर्भरण खड्ड एवं शाफ्ट जैसे कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं का उपयोग सामान्यतः उथले जलभृत जिनका अपारगम्य परतों की वजह से भूजल स्तर एवं सतही जल से कोई संपर्क नहीं होता वहाँ पुनर्भरण हेतु किया जाता है।
प्रेरित पुनर्भरण में उस जलभृत में जिसकी सतही जल से जलीय संबंध है, पंपिंग द्वारा स्थान रिक्त किया जाता है, ताकि पुनर्भरण संभव हो सके। जैसे ही भूजल में उत्पन्न हुये अवसाद शंकु एवं नदी रिचार्ज सीमा के मध्य संबंध स्थापित होता है नदी का सतही जल जलभृत की दिशा में बहने लगता है और जलभृत का पुनर्भरण करता है। ऐसा होने से जल की गुणवत्ता में सुधार हो जाता है। संचयन कूप एवं रिसाव गैलरी जिनका उपयोग नदी तल, झील तल एवं जल प्लावित क्षेत्रों से अधिक मात्रा में जलापूर्ति प्राप्त करने के लिए किया जाता है, भी प्रेरित पुनर्भरण के सिद्धांत पर कार्य करते हैं।
अनुकूल भूजल वैज्ञानिक परिस्थितियों में जलभृत के पुनर्भरण हेतु विभिन्न सतही एवं उप सतही पुनर्भरण विधियों को संयुक्त रुप से उपयोग में लाया जाता है। आमतौर पर अपनाई जाने वाली संयुक्त विधियों के अंतर्गत, शाफ्ट के साथ पुनर्भरण बेसिन, पुनर्भरण खड्ड या शाफ्ट के साथ रिसाव तालाब एवं एक से ज्यादा जलभृतों में बनाये गये प्रेरित पुनर्भरण कूप, जिनसे ऊपरी जलभृत का पानी केसिंग पाइप के छिद्रों से प्रवाहित होकर निचले जलभृत का भी पुनर्भरण करता है।
भूजल की संभावित क्षमता और सिंचाई के लिए उसकी उपलब्धता का आंकलन हमेशा से एक चर्चा का विषय रहा है जिसके लिए समय-समय पर कई प्रयास किए गए हैं। कई प्रयासों के बाद केंद्रीय भूजल बोर्ड ने भूजल आंकलन के लिए प्रणाली विकसित की है। इसको केन्द्रीय जल आयोग से प्राप्त किया जा सकता है। अतः उचित होगा कि इस प्रणाली को प्रयोग करके ग्राम पंचायत, विकासखंड और जिला स्तर पर नियमित रूप से आंकलन हो और उसी के आधार पर भूजल विकास और प्रबंधन किया जाए। वैसे तो भूजल स्तर नापने की दिशा में काफी प्रगति हुई है, परंतु भूगर्भीय संरचना व भूदृश्य की परिवर्तनशीलता को देखते हुए गांव स्तर पर भूजल स्तर नापने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना के अंतर्गत देशभर में भूजल स्तर निरीक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर स्वचालित निरीक्षण यंत्र लगाए जा रहे हैं। आने वाले दिनों में भूजल स्तर निरीक्षण, भूजल का आंकलन और भूजल उपलब्धता के आंकलन में सुधार होगा जो निश्चित रूप से भूजल प्रबंधन और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करेगा।
वर्तमान में भूजल सिंचाई की दक्षता 50% से 60% के आसपास है। किसानों के खेतों में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि भूजल सिंचाई दक्षता को 65% से 75% तक बड़ी आसानी से बढ़ाया जा सकता है। ऐसा करने के लिए यह आवश्यक है कि देश में भूजल आधारित क्षेत्रों में सिंचाई हेतु जल की आपूर्ति पाइप द्वारा की जाए, जिसमें जल को मापने और नियंत्रित करने के लिए आवश्यक उपकरण लगे हाँ। यह भी प्रयास होना चाहिए कि ऐसी फसलें जिसमें सूक्ष्म सिंचाई पद्धति द्वारा सिंचाई हो सकती है, उन फसलों में इसे अनिवार्य किया जाए। ऐसा होने पर सिंचाई दक्षता को 85% से 90% तक बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त लेजर लेवलिंग द्वारा भी सतही सिंचाई की दक्षता को बढ़ाया जा सकता है।
भूजल निरंतर उच्च स्तर से निचले स्तर की ओर बहता रहता है। भूजल पर भूमि के मालिक का वास्तविक अधिकार नहीं होता है। भूजल उपयोग की कोई ठोस नीति नहीं होने के कारण जो जितना चाहे उतना भूजल का उपयोग कर सकता है। इस कारण से भूजल का न्यायसंगत वितरण नहीं हो पाता है। ऐसा देखा गया है कि भूजल का उपयोग धनी किसान अधिक करते हैं। धनी किसान अपने पंप को गिरते जल स्तर के साथ नीचे करते रहते हैं। इसके कारण गरीब किसानों के ट्यूबवेल में पानी नीचे चला जाता है और संसाधन ना होने के कारण वह अपना पम्प नीचे नहीं कर पाता है और उसे भूजल उपलब्ध नहीं हो पाता है। यह एक गंभीर समस्या है। इसके लिए एक ठोस नीति की आवश्यकता है।
अत्यधिक दोहन के कारण देश के कई भागों में भूजल की गुणवत्ता में निरंतर ह्रास हो रहा है। सघन खेती वाले क्षेत्रों में खाद और अन्य रसायनों के विवेकहीन उपयोग के कारण भूजल में हानिकारक रसायनों जैसे: नत्रजन और विभिन्न प्रकार के कीटनाशक अवशेषों की मात्रा बढ़ रही है। इस कारण कई प्रकार की बीमारियां भी बढ़ रही हैं। जिन क्षेत्रों में एक निश्चित स्तर पर खारा पानी है या समुद्र के किनारे वाले क्षेत्रों में खारे जल के अंतर्वेधन की गंभीर समस्या है, ऐसे क्षेत्रों में मीठे पानी वाले भूजल में खारे पानी के रिसाव को रोकने के लिए ठोस उपाय जैसेः भूजल पुनर्भरण, भूजल का सीमित दोहन व सतही अपवाह को तालाबों में रोकने जैसी तकनीकों को बढ़ावा देना चाहिए। देश के औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक प्रतिष्ठानों एवं कल कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित जल को बिना साफ किए हुए जल स्रोतों में छोड़ा जाता है। इससे सतही व भूजल दोनों ही प्रदूषित हो रहे हैं। इसके लिए सरकार ने समय-समय पर नियामक बनाए हैं। इसको गंभीरता से अपनाने की आवश्यकता है। नियम पालन करना सभी उपभोक्ताओं की जिम्मेदारी है, निर्वहन करने से उनका ही लाभ होगा ।
कृषि या घरेलू या औद्योगिक क्षेत्रों में निरंतर जल की मांग बढ़ रही है। अतः अब जल की मांग को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। नई सिंचाई पद्धति, फसल चक्र में सुधार, जनसंख्या नियंत्रण इत्यादि से जल की मांग को नियंत्रित करना पड़ेगा। कल-कारखानों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषित जल को साफ करके पुनः उपयोग में लाना पड़ेगा। अध्ययनों से पता चला है कि उचित प्रबंधन से जल के बढ़ती हुई मांग को भी नियंत्रित किया जा सकता है।
देश के कई नहर कमांड क्षेत्रों में जलभराव और मृदा लवणता बढ़ रही है। ऐसे क्षेत्रों में सतही और भूजल के समेकित उपयोग की योजना को वैज्ञानिक तरीके से करने की आवश्यकता है। ऐसे क्षेत्रों में जहां भूजल खारा है, उसे उचित मात्रा में नहर जल के साथ सिंचाई के लिए उपयोग किया जा सकता है। सतही और भूजल के समेकित प्रयोग से जल उपयोग की दक्षता एवं फसल उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।
जल को संग्रहित करने का एक तरीका छत पर से बहने वाले वर्षाजल का संचयन है। घरों और स्कूलों आदि भवनों की छतों से बहने वाले वर्षा जल को भूमि के अन्दर या टंकियों में एकत्रित किया जा सकता है, ताकि बाद में इसका प्रयोग किया जा सके। छत से जल संग्रहण प्रणाली (रूफ टॉप रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम) के प्रमुख घटक हैंः छत जलग्रहण, नालियां और निस्पंदन प्रणाली तथा भूजल पुनर्भरण शाफ्ट / खाइयां ।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली का परिसर लगभग 475 हेक्टेयर में फैला हुआ है। जिसमें कृषि भूमि उपयोग के अंतर्गत पर्याप्त क्षेत्र (75%) आता है, जहां के क्षेत्र पर विभिन्न प्रकार के प्रयोग और परीक्षण किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त संस्थान के परिसर में कार्यालय, छात्रावास, खेल के मैदान और संकाय के आवासीय भवन भी हैं। संस्थान के कार्यालयों, छात्रावासों एवं अन्य उपयुक्त जगहों पर कृत्रिम पुनर्भरण के लिए पुनर्भरण कुओं का निर्माण किया गया है। कुछ कुओं द्वारा छत से बहने वाले वर्षा जल को भी पुनर्भरण के लिए उपयोग किया जाता है। जल प्रौद्योगिकी केंद्र, नाभिकीय अनुसंधान केंद्र, जैव प्रौद्योगिकी केंद्र, निदेशालय जैसे प्रमुख भवनों की छत से रूफ टॉप रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली, शीर्ष जल संचयन प्रणाली के माध्यम से भूजल पुनर्भरण किया जा रहा है।