एक विशाल नदी के बनने में कई हजार छोटी नदियां का होता है योगदान, Pc-vivacepanorama 
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एक विशाल नदी के बनने में कई हजार छोटी नदियों का होता है योगदान

बड़ी एवं विशाल नदियों मे आने वाले जल कि मात्रा समय के साथ घटती गई है, कावेरी, कृष्णा एवं नर्मदा जैसी देश की कुछ प्रमुख नदियों में विगत शताब्दी में जल की मात्रा बहुत प्रभावित हुई है। इस सब के पीछे बेसिन क्षेत्र एवं इन नदियों मे जल लाने वाली छोटी नदियों मे हुए मानव जनित परिवर्तन प्रमुख कारण माना जा सकता है। नदी संरक्षण के प्रारंम्भिक प्रयासों में भी छोटी नदियों की अपेक्षा बड़ी  एवं विशाल नदियों की मुख्य धारा को ही अधिक महत्व दिया गया।

Author : इंडिया वाटर पोर्टल

विगत कुछ वर्षों को छोड़कर नदी संरक्षण पर देश विदेश में किये जा रहे प्रयासों की समीक्षा से ज्ञात होता है कि यह प्रयास मुख्यतः बड़ी नदियों पर समग्र रूप से केंद्रित रहे है जो कि अनेक विविध कारणों से संभवतः बहुत अधिक प्रभावी एवं सफल नहीं हो पाए।गंगा नदी के उदाहरण से ही समझा जा सकता है कि जो प्रयास मुख्य धारा  (गंगा) को संरक्षित करने के लिए आवश्यक है उनको फलीभूत करने के लिए केंद्र सरकार से धन एवं ससाधनों को निरंतर आपूर्ति आवश्यक है। GRBMI तथा अन्य माध्यम से सुझाए गए उपयुक्त कार्यों को संपादित करने के लिए सभी आयामों को अल्प समय में पूर्ण रूप से एकीकृत करना एवं समझना अत्यंत जटिल कार्य है।

इसके अतिरिक्त नदी को प्रभावित करने वाले मानव जनित कारक प्रायः विविध और असमान रूप से वितरित हैं जोकि एक विशाल नदी एवं इसके जल ग्रहण क्षेत्र (बेसिन) की व्यापक रूप से देखरेख एवं निगरानी के कार्य को और जटिल बना देते है नदियों की देखरेख,निगरानी एवं संरक्षण के कार्य को सरलीकृत करने के लिए वर्तमान प्रयासों को छोटे- शहरी और अर्ध-शहरी सहायक नदियाँ / नालों पर केंद्रित करना होगा, विशेष रूप से यह वह बारहमासी (perennial) है या आसानी से बारहमासी हो सकती है। उपरोक्त में से दूसरे प्रकार में मुख्यतया वह नाले जो प्रकृतिक बहाव (बारिश के दौरान) के लिए होते है परन्तु वर्तमान में शहरों में अपशिष्ट जल बहाव से गंदे नालों के रूप में परिवर्तित हो गए हैं या दिखते हैं। इन्हें आसानी से वर्ष पर्यंत उपचारित अपशिष्ट जल की आपूर्ति करके बारहमासी जल निकायों में परिवर्तित किया जा सकता है। इस तरह के कायाकल्प से आर्थिक, पर्यावरणीय, सौंदर्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में कई  तत्कालिक लाभ है, और वे बड़े आबादी समूहों को प्रभावित करते हैं जो बेसिन के बाकी हिस्सों में नदी के कायाकल्प की पहल पर एक व्यापक प्रभाव डाल सकते है।

टॉप-डाउन प्रक्रिया किसी भी नदी घाटी क्षेत्र के अध्ययन के लिए कुछ हद तक उपयुक्त हो सकती है जो कि विभिन्न पहलुओं पर एक अगाड़ रणनीति तैयार करने में सहायक हो सकती है परंतु जिस प्रकार यह कहा जाता है कि किसी देश को स्वच्छ रखने के लिए शुरुआत अपने घर से फिर मोहल्ले से होते हुए शहर के स्तर पर की जाती है तभी देश में स्वच्छता संभव  है उसी प्रकार बड़ी नदियों का पुनरुद्धार भी तभी संभव है जब छोटी छोटी नदियाँ एवं नाले जो उस बड़ी नदी से जुड़ी हो उनका पहले पुनरुद्धार हो इसके लिए आवश्यक है बॉटम-अप अप्रोच को सही प्रकार समझ कर नदियों के पुनरुद्धार कार्य में उपयोग लिया जाए।

चित्र-1 छोटी नदी बेसिन का बड़ी नदियों के निर्माण में योगदान

चित्र 2 -गंगा नदी के आरराष्ट्रीय बेसिन में विभिन्न स्थानों के उद्गम होने वाली नदियों को दर्शने का प्रयास किया गया है

चित्र 1

में भारत देश में विभिन्न मुख्य नदी बेसिन एवं इन मुख्य नदी बेसिन के निर्माण में छोटी छोटी नदियों के बेसिन द्वारा योगदान को दर्शाया गया है। चित्र 2 मे गंगा नदी के आरराष्ट्रीय बेसिन में विभिन्न स्थानों के उद्गम होने वाली नदियों को दर्शने का प्रयास किया गया है। यह स्वरूप गंगा नदी के सहस्त्रधारा रूप को उल्लेखित करता है। इन दोनो ही चित्रों के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया हैं कि बड़ी एवं विशाल नदियों तथा उनके बेसिन क्षेत्र से मिलने वाले लाभों के मूल ने अनेक छोटी नदियों एवं धाराओं का योगदान है। अगर बड़ी नदियों को संरक्षित रखना है तो इनकी मूल धाराओं को संरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक है।

नदियाँ जिस क्षेत्र मे प्रवाहित होती हैं प्राकृतिक रूप से उस क्षेत्र एवं पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अपने कार्यों को एवं अबाध रूप से अंजाम देती है जब तक कि उसने कोई प्राकृतिक आपदा अथवा अप्राकृतिक या मानव जनित हस्तक्षेप ना हो। हालांकि नदियों के सरक्षण की महत्वता को समझने से पहले अभियंता एवं इस विषय के वैज्ञानिक नदियों को जल आपूर्ति एवं अन्य लाभ लेने का एक साधन मात्र ही समझते आए है इस प्रकार ये सभी नदियाँ चाहे वो किसी भी क्षेत्र में प्रवाहित होती हो केवल जल स्रोत के रूप में ही देखी गई हैं। वास्तविकता मे नदियाँ अपने उदगम स्थल प्रवाह क्षेत्र इत्यादि के आधार पर अनेक विविधतायें रखती है। इन विविधताओं को समझाने हेतु प्राचीन धर्मग्रंथ में अलग-अलग नदियों के महत्त्व को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है,

<p>त्रिभिः सारस्वतं तोयं सप्ताहेन तु यामुनम् ।</p> <p>सद्यः पुनाति गांगेय दर्शनादेव नामर्दन</p>

 (सरस्वती नदी में तीन दिन स्नान करने से यमुना में सात दिन स्नान करके एवं गंगा में केवल एक स्नान से पवित्रता प्राप्त होती है  होती है परन्तु नर्मदा के दर्शन मात्र से मनुष्य पवित्र हो जाता है। Bathing for there days in  River  Sarswati, seven days in River  Yamuna and only one day in River Ganga Bestows Sacredness, but humans become sacred merely by the sight of River Narmada.)

उपरोक्त श्लोक से यह जाना जा सकता है कि यदपि सभी नदियों मानवों के लिए महत्वपूर्ण और पवित्र हो सकती हैं लेकिन अलग-अलग नदियों से संपर्क का प्रकार और प्रत्येक नदी के लिए मानव व्यवहार उनकी स्थलाकृति, जलग्रहण गुण, भू-आकृति विज्ञान, जल विज्ञान, पानी की गुणवत्ता और पारिस्थितिकी के आधार पर आंकलन कर भिन्न प्रकार से होना चाहिए। ठीक इसी प्रकार गंगा नदी के जीर्णोद्वार और संरक्षण को अलग-अलग घटकों के लिए समान विनेदीकरण के साथ संबोधित करना चाहिए

क्योंकि निम्न-क्रम वाली छोटी नदियों अपनी सहायक नदियों / स्रोतों द्वारा अधिक प्रभावित नहीं रहती है अतः एक बड़ी नदी बेसिन के पुनरुद्धार के कार्य में प्राथमिकता के आधार पर चुनी जाने वाली अग्रणी नदियों में निम्न क्रम की (छोटी) धाराएं अधिक ध्यान देने योग्य होनी चाहिए। इसी के साथ ऐसी चयनित नदी का बहाव क्षेत्र (इसमें बहाव एवं जल संग्रहण क्षेत्र) बहुत छोटे एवं महत्वहीन नहीं होने चाहिए तथा यथासंभव यह ऐतिहासिक रूप से एक बारहमासी नदी या कम से कम ऐसी नदी होनी चाहिए जिसे एक बारहमासी धारा में बदला जा सकता है केवल बारहमासी नदियों में ही वर्षापर्यत न्यूनतम जल उपलब्धता के उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता है। यदि चयनित धाराएं शहरी केंद्रों में या उसके आसपास स्थित हैं तो नगरीय अपशिष्ट जल, औद्योगिक अपशिष्ट और / या कृषि रिटर्न प्रवाह आवश्यक उपचार के बाद नदी में प्रवाहित करके उसमे पानी की पूर्ती कर सकती है। इस प्रकार शहरों में निम्न क्रम वाली शहरी धाराओं या प्राकृतिक नालों का पुनरुद्धार हेतु चयन न केवल इस चयनित नदी को संरक्षित करता है अपितु शहर में उत्पन्न अपशिष्ट जल को उपचार के बाद एक स्वच्छ और सौदर्यपूर्ण तरीके से शहरों से बाहर प्रवाहित कर पुनः उपयोग में लिया जा सकता है।

चित्र 3 - नदियों के चयन की प्रक्रिया

नदियों की भौगोलिक स्थिति एवं अन्य मानदंडों के आधार पर ही मानव द्वारा उपयुक्त व्यवहार किया जाना चाहिए। संभवतः यह भी देखना होगा कि कोई नदी जो प्राकृतिक रूप से बारहमासी नहीं हैं, तो पुनरुद्धार के कार्य में उसको बारहमासी बनाने का प्रयास क्या उचित होगा? क्या उसके पारिस्थिकी तंत्र  पर इसका कोई विपरीत प्रभाव होगा? बारहमासी बनाए जाने से उसके प्रवाह एवं बेसिन क्षेत्र पर दीर्घकालीन विपरीत प्रभाव तो नहीं होगा? इन सभी प्रश्नों के उचित जवाब तलाश कर उनके अनुसार समाधान हेतु निर्णय लिए जाने पर ही संभवतःनदी संरक्षण एवं पुनरुद्धार के कार्य को सतत बनाया जा सकता है।

जब नदी संरक्षण एवं पुनरुद्धार पर वर्चा की जाये तो यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिये किं प्रयासों का विस्तार उसके सम्पूर्ण बेसिन क्षेत्र एवं उससे प्राप्त सभी लाभों तक भी है। इस प्रकार बेसिन में सभी छोटे बड़े जल स्रोतों वन क्षेत्रों एवं अन्य पारिस्थितिकी तंत्रों पर भी इन प्रयासों का सकारात्मक प्रभाव होना चाहिए। पुनरुद्धार एवं संरक्षण के प्रयासों मे न केवल नदी के लिए बल्कि बाढ़ बहाव क्षेत्र एवं पूरे जलग्रहण क्षेत्र के लिए व्यापक उपाय शामिल किया जाना आवश्यक हैं। इस क्रम में, निम्नलिखित सभी पहलुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए-

स्थानीय जल स्रोत में आने वाला जल न केवल पारिस्थितिक और सौंदर्य रूप से संतोषजनक हो बल्कि मानव उपयोग के लिए यह पानी का एक विश्वसनीय स्रोत भी हो इस हेतु cGanga द्वारा एक चार स्तरीय जल गुणवत्ता सुधार चक्र प्रस्तावित है जो कि नगरीय औद्योगिक, वाणिज्यिक और कृषि प्रवाह से आने वाले जल के प्रबंधन में सहायक सिद्ध हो सकता है। इस प्रकार, जबकि प्राथमिक (और जहा संभव हो, द्वितीयक) नगरीय सीवेज का उपचार कार्बनिक और अकार्बनिक कचरे के विपरित प्रभाव को कम करने में सहायता करता है, वेटलैंड्स में आगामी अपशिष्ट जल के फाइटो-रिमेडियेशन से बचे हुए कार्बनिक पोषक तत्वों और अन्य प्रदूषकों को नियंत्रित किया जा सकता है जिसके पश्चात्  यह जल किसी भी प्रकार से ग्राहक जल स्रोत एवं उसके पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान नहीं पहुंचाता है साथ ही मानव जरूरतों के लिए मीठे पानी की उपयोगिता को भी पूरा कर सकता है।

सामान्यतः पुनरुद्धार के लक्ष्य को तुरंत पूर्ण रूप से प्राप्त करना संभव नहीं होता है। पुनरुद्धार के लक्ष्य एवं महत्वपूर्ण उपलब्धियों (स्तर) का निर्धारण निम्न चरणों में किया जा सकता है

नदी तल और किनारों को मानव क्रियाओं जैसे रेत खनन निर्माण और अन्य हस्तक्षेपों से सुरक्षा की आवश्यकता है। इसके साथ ही, बाद के मैदान (जल बहाव क्षेत्र), सहायक जल स्त्रोत (नालियाँ) और वास्तव में पूरे जलग्रहण या जलक्षेत्र को प्राकृतिक जल निकासी मार्गों  के अतिक्रमण, संरचनात्मक हानि, अवनति और रुकावट के खिलाफ  सुरक्षा उपायों की आवश्यकता है।

जलीय और स्थलीय वनस्पति और जीव दोनों स्वस्थ नदियों और उनके अपवाह क्षेत्र के लिए आवश्यक हैं। प्राकृतिक वनस्पति विशेष रूप से जल के मिट्टी और भूजल दोनों में रिचार्ज करने तथा साथ ही अपवाह क्षेत्र शुद्धि में मदद करता है। इसलिए बेसिन में प्राकृतिक वनस्पति कवर के पर्याप्त स्तर को बढ़ाना और बनाए रखने के लिए वांछनीय प्रयास करना आवश्यक है। ठीक इसी तरह, जलीय जैविक सम्पदा का दोहन की रोकथाम एवं उपयुक्त जैविक प्रजाति को बढ़ाने की प्रक्रिया के द्वारा ही जलीय जीव एवं पादपो की संख्या बनाये रखी जा सकती है एवं बढ़ाई जा सकती हैं।

एक संपूर्ण इन्वेंट्री में पुनस्थापना - संरक्षण अवधि के दौरान नदी और उसके बेसिन (प्रमुख निगरानी संकेतक सहित ) में किए गए और / या अवलोकन किए गए सभी परिवर्तनों को अंकित किया जाना चाहिए। ये रिकॉर्ड न केवल प्रयासों की प्रगति और सफलता का आकलन करने में मदद करेंगे बल्कि प्रगति में अप्रत्याशित बाधाओं को पार करने के साथ-साथ अन्य नदी घाटियों में भी इसी तरह के कार्यक्रमों को लागू करने में मदद कर सकते हैं।

स्वच्छ जल (मीठा पानी) के प्राथमिक स्रोत के रूप में नदी तंत्र ही मुख्यतया ध्यान के केंद्र है। परंतु क्षेत्र में उपस्थित छोटे बरसाती नाले तालाब एवं अन्य जल स्रोत जो कार्यात्मक एवं भौतिक रूप से भले ही अलगावित प्रतीत होते हो वास्तविकता मे आस पास के अन्य स्रोतों से हाइड्रॉलिक और हाइड्रोलॉजिकल रूप से जुड़े रहते हैं। अतः यह आवश्यक है कि जल स्त्रोत आपस में जुड़े रहे (भूजल सहित ) ताकि इनका सतत रूप से चिरायु उपयोग होता रहे।

स्थलीय गतिविधियों को बाधित किए बिना नदी के कामकाज को एक सुरक्षित बारहमासी नदी के रूप में सुनिश्चित करने के लिए कुछ संरचनात्मक हस्तक्षेप आवश्यक हो सकते हैं। इस प्रकार, उदाहरण के लिए नदी में जलीय जीव जन्तुओ के लिए तीव्र ढलान या क्षेत्र में आवश्यक जल कि गहराई एवं जल का बहाव (गति) बनाये रखने हेतु वीयर (मेड़ या छोटा बांध बनाना अथवा बाढ़ ग्रषित क्षेत्रों में तटबंधी करना अथवामानव एवं स्थलीय जन्तुओं के लिए नदी पार करने हेतु पुल का निर्माण करना।

भारत में नदियों एवं संस्कृति में उनके योगदान को विशेष महत्त्व दिया जाता है। विभिन्न धर्म ग्रंथों में नदियों को उनकी विशेषताओं के आधार पर वर्गीकृत किया है। जल ग्रहण क्षेत्र के आकार के आधार पर के अल राव (1977) ने नदियों को बड़ी / मुख्य नदियों (जिनका जल ग्रहण क्षेत्र 20000 वर्ग किलोमीटर अथवा उससे बड़ा होता है), मध्यम नदियों (जिनका जल ग्रहण क्षेत्र 2000 से 20000 वर्ग किलोमीटर होता है) तथा छोटी नदियों (जिनका जल ग्रहण क्षेत्र 2000 वर्ग किलोमीटर अथवा उससे छोटा होता है) में बाँटा है। बड़ी एवं विशाल नदियों मे आने वाले जल कि मात्रा समय के साथ घटती गई है, कावेरी, कृष्णा एवं नर्मदा जैसी देश की कुछ प्रमुख नदियों में विगत शताब्दी में जल की मात्रा बहुत प्रभावित हुई है। इस सब के पीछे बेसिन क्षेत्र एवं इन नदियों मे जल लाने वाली छोटी नदियों मे हुए मानव जनित परिवर्तन प्रमुख कारण माना जा सकता है। नदी संरक्षण के प्रारंम्भिक प्रयासों में भी छोटी नदियों की अपेक्षा बड़ी  एवं विशाल नदियों की मुख्य धारा को ही अधिक महत्व दिया गया। परिणाम स्वरूप छोटी नदियों कि स्थिति बिगड़ती गई और बड़ी नदियों में भी सुधार नहीं हो पाया। उपेक्षा का शिकार कुछ छोटी नदियाँ जो प्राकृतिक रूप से बारहमासी हुआ करती थी वह केवल मौसमी रह गई तथा जो मौसमी नदियाँ थी वो अधिकांशतः लुप्त होती चली गई राजस्थान हरियाणा एवं दिल्ली में बहने वाली शाहिर / साहिब नदी, रामगंगा नदी की सहायक ढ़ेला नदी इत्यादि ऐसे ही कुछ उदाहरण है। इसके उलट कुछ मौसमी नदियों आंशिक अथवा पूर्ण बहाव क्षेत्र में बारहमासी मे भी परिवर्तित हुई है, परंतु इनमें प्रवाहित होने वाला अशोधित अपशिष्ट जल न केवल पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है बल्कि भू- एवं सतही जल स्रोतों को भी हानि पहुँचा रहा है। इंदौर की कान्ह नदी एवं जोधपुर में प्रवाहित होने वाली जोजरी नदी इनका उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त इन क्षेत्रों में जल सबंधित अन्य स्थानीय समस्याएं भी उत्पन्न हुई हैं। इन छोटी नदियों के संरक्षण एवं पुनरुद्धार के कार्य में सर्वप्रथम आवश्यकता है कि इन नदियाँ  कि पहचान की जाये ताकि ऐसी नदियों कि संख्या एवं प्रभावित क्षेत्र का सही आंकलन कर उचित कदम उठाए जा सकें।


 

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