भारत में पारिस्थितिकीय संतुलन कायम रखने और वनों के अस्तित्व को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए वन प्रबंध में प्रणालीगत दृष्टिकोण अपनाया जाता है। वनाच्छादित क्षेत्र के विस्तार और जलवायु संवर्धन के लिए वन लगाने के नए-नए तरीकों का पता लगाया जाता है। भारत में विविधतापूर्ण जलवायु और मिट्टी के अनेक प्रकारों की वजह से अब तक प्राकृतिक वनों के उद्धार के लिए कोई महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन नहीं कराया जा सका है।
पौधे लगाने की बजाय समूचा वन विकसित करने के तेलंगाना सरकार के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम ‘तेलंगानाकु हरित हारम’ से वृक्षारोपण और रोपे गए पौधों के संरक्षण के प्रति समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों में उत्साह जगा है। इस बात पर भी विचार किया जा रहा है कि जिन जगहों पर वन भूमि का उपयोग अन्य कार्यों में करने के लिए वनों को काटा जा चुका है उनमें काटे गए पेड़ों के एवज में पौधे रोपने की बजाय समूचा जंगल विकसित किया जाना चाहिए। इसमें जाने माने जापानी वनस्पति वैज्ञानिक, पादप पारिस्थितिकीयविद और बंजर भूमि पर प्राकृतिक वनस्पतियां उगाने के विशेषज्ञ अकीरा मियावाकी के सिद्धान्तों को आधार बनाया गया है। उन्होंने सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए निचले इलाकों के मियावाकी पुनर्स्थापना तकनीक का अविष्कार किया। मियावकी का सिद्धान्त मूलतः यह है कि जमीन के छोटे से टुकड़े पर स्थानीय पेड़-पौधों की ऐसी प्रजातियों का सघन रोपण किया जाए जो इस तरह के इलाकों का प्राकृतिक आपदाओं से बचाव कर सके।
उजड़े हुए वन क्षेत्र में प्राकृतिक वन के विकास की एक किफायती विधि को यदाद्री प्राकृतिक वन स्थापना (वाइ.एन.एफ) मॉडल के नाम से जाना जाता है। इस मॉडल के विकास में मियायकी विधि के सिद्धान्तों के साथ स्थानीय तौर-तरीकों व सामग्री का उपयोग किया जाता है।
प्राकृतिक वनों के विकास के मियावाकी सिद्धान्त
- पेड़-पौधों के बीच कोई निश्चित दूरी नही रखनी चाहिए।
- वनीकरण करने से पहले जमीन को उपजाऊ बनाने के प्रयास करने चाहिए।
- बंजर जमीन में पेड़-पौधों, वनस्पतियों, झाड़ियों और वृक्षों का सघन रोपण किया जाना चाहिए। एक हैक्टेयर में 10,000 पौधे लगाए जा सकते हैं।
- स्थानीय प्रजाति की वनस्पतियों के बीज रोपकर वनों को और घना बनाया जा सकता है।
- पौधों को रोपने के बाद कम-से-कम अगला बरसाती मौसम आने तक उनकी सिंचाई की जानी चाहिए।
- खरपतवार की रोकथाम और मिट्टी में वाष्पन से नमी की कमी को दूर करने के लिए पलवार बिछानी चाहिए।
- जमीन को उपजाऊ बनाने के प्रयास में क्षेत्र में किसी भी पेड़ को काटा नहीं जाना चाहिए।
- नालियों में पानी बहाकर सिंचाई करने की बजाए पाइपों के जरिए स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई की जानी चाहिए।
- पौधारोपण के बाद अगले बरसाती मौसम के आने तक समय-समय पर निराई करनी चाहिए।
- बरगद जैसे पेड़ों जिनका वितान बहुत बड़ा होता है, नहीं लगाना चाहिए।
- वनीकरण के लिए सभी आकार-प्रकार के पेड़-पौधों की पौध या पौधे उपलब्ध कराए जाने चाहिए ताकि लगाया गया वन तीन स्तरीय प्राकृतिक वनों की तरह दिखे।
- मिट्टी के गुणों का विश्लेषण पहले ही करवा लेना चाहिए ताकि जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाने के लिए बेहतरीन तौर-तरीकों का चुनाव किया जा सके।
- खरपतवार को छोड़कर प्राकृतिक रूप से उगे किसी प्रकार के पेड़ पौधों को क्षेत्र से उखाड़ना नहीं चाहिए।
इस मॉडल में मानव निर्मित वन लगाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मियावाकी सिद्धान्त का उपयोग किया जाता है। इसके लिए अपनायी जाने वाली प्रविधि को पिछले साल हुए वनरोपण के व्यवस्थित रूप से प्रलेखित रिकॉर्ड और नतीजों के आधार पर बताया जा रहा है। शीर्ष सरकारी अधिकारियों और विभिन्न संस्थानों के वैज्ञानिकों ने भी इसका निरीक्षण किया था। इसलिए हरियाली बढ़ाने, जलवायु में सुधार लाने और परती भूमि के विकास में सफल रहा। वाइ.एन.एफ. मॉडल एक क्रान्तिकारी अवधारणा सिद्ध हो सकताहै। वाइ.एन.एफ.मॉडल की स्थापना लागत 2 लाख रुपए प्रति एकड़ या 5 लाख रुपए प्रति हैक्टेयर आंकी गई है।
प्रविधि
यदाद्री प्राकृतिक वन स्थापना (वाइ.एन.एफ) मॉडल के पीछे बुनियादी सिद्धान्त छोटे से क्षेत्र में उच्च घनत्व वृक्षारोपण की अवधारणा काम करती है। इसमें पौधों के बीच कोई निश्चित दूरी नहीं रखी जाती और प्रति एकड़ रोपे जाने वाले पौधों की संख्या 10,000 तक हो सकती है। इस मॉडल की सफलता विभिन्न घटनाओं के अनुक्रम जैसे, स्थान का चयन और विकास, मिट्टी की उर्वराशक्ति का विकास, रोपे जाने वाली प्रजातियों के पौधों का चयन, गड्ढे का आकार, रोपण का तरीका, जैव उर्वरकों (आर्गेनिक बायो-फर्टिलाइजर) का उपयोग, पौधारोपण के बाद प्रबंधन तथा सिंचाई कार्यक्रम पर निर्भर करती है।
स्थान का सीमांकन और सफाई
इलाके की हदबंदी और उसमें उगे वृक्षों को छोड़कर उसे वहाँ उगी सभी अवांछित वनस्पतियों से मुक्त कराना बहुत जरूरी है। सीमांकन के बाद बायोमास का मात्रात्मक आकलन और वनीकरण वाले क्षेत्र के लिए पौधों की आवश्यकता का आकलन किया जाता है।
मृदा परीक्षा और जमीन को उपजाऊ बनाना
- दीर्घावधि सतत विकास सुनिश्चित करने के लिए मृदा परीक्षण और जमीन का उर्वरा शक्ति बढ़ाना तथा मृदा सुधार बहुत जरूरी है, खास तौर पर शुरू के वर्षों के दौरान उच्च घनत्व वाले पौधरोपण में सहायता के लिए तो ऐसा करना और भी आवश्यक हो जाता है। स्थल को उपजाऊ बनाने का कार्य निम्नलिखित कदम उठाकर किया जाता हैः
- कुल एक एकड़ क्षेत्र की 30 सें.मी. की गहराई तक खुदाई की जाती है और इस तरह से जो मिट्टी निकलती है उसे बाड़ के साथ-साथ चारों ओर रख दिया जाता है।
- खुदे हुए क्षेत्र में दस सेंटीमीटर की गहराई में आड़े और तिरछे जुताई की जानी चाहिए।
- जुते हुए क्षेत्र को करीब चार टन सूखी/ या हरी घास की पांच सेंटीमीटर मोटी परत से ढक दिया जाना चाहिए।
- खुदाई से निकली मिट्टी को दस से.मी. मोटी परत के रूप में पूरे क्षेत्र में बिछा दिया जाना चाहिए। इसके बाद तीन दिन तक इसकी लगातार सिंचाई होनी चाहिए ताकि घास और पत्तियाँ सड़कर खाद में बदलने में मदद मिले।
- इसके बाद केंचुओं वाली करीब पाँच टन वर्मीकम्पोस्ट और चार टन गोबर की खाद का इस क्षेत्र में छिड़काव कर दिया जाना चाहिए।
- अब किनारे रखी खुदाई की मिट्टी से समूचे क्षेत्र को ढक दिया जाना चाहिए।
- बची हुई मिट्टी से भूखंड के चारों ओर मेड बना देनी चाहिए ताकि उसके अन्दर पानी को जमी किया जा सके।
- समूचे क्षेत्र में मिट्टी की परत बिछाकर उसमें तीन दिन तक लगातार पानी भरना चाहिए।
- तीन सप्ताह बाद इस एक एकड़ के क्षेत्र की पूरी तरह जुताई की जानी चाहिए।
- पौधे लगाने के लिए 30 घन से.मी. के गड्ढे बनाए जाने चाहिए और छोटे पौधों को मिट्टी समेत निकालकर गड्ढों में रोप दिया जाना चाहिए।
मिट्टी को उपजाऊ बनाने की अन्य विधियाँ
पहली विधिः सामुदायिक भूमि
- गर्मियों में (मार्च से मई तक) गाय-भैंसों/बकरियों/ भेड़ों को तीन महीने तक रात के वक्त इस जमीन पर रखा जाता है ताकि उनके मल-मूत्र से मिट्टी उपजाऊ बने। स्थानीय पशुपालकों को अपने मवेशी इस स्थान पर रखने और जमीन को उपजाऊ बनाने के एवज में वित्तीय सहायता दी जाती है।
- जून के महीने में पहली बरसात के दौरान भूखंडों की जुताई की जाती है और उसमें हरी खाद वाली फसलों के बीज बो दिए जाते हैं। दो महीने बाद भूखंड की फिर से जुताई की जाती है।
- भूखंड में 30 घन सेंमी के गड्ढों में पौधे रोप दिए जाते हैं।
- पलवार लगाने के लिए पराली के बजाय नीम/ग्लिरिसीडिया (ग्लिरिसीडिएसेपियम) की मुलायम टहनियों को काट कर बिछा दिया जाता है।
दूसरी विधिः आरक्षित वन क्षेत्रों/संरक्षित क्षेत्रों के लिए
- उजड़े हुए वन क्षेत्र/ सुधारे जाने वाले वन क्षेत्र की पहचान करना और सॉयल प्लग बनाना।
- कृषि/फसल अपशिष्ट को घरेलू मवेशियों के गोबर के साथ मिलाकर सड़ाने से मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ेगी।
- पहली बरसात के दौरान इस क्षेत्र में हरी खाद की फसल बोकर दो महीने में पलटा चला देना चाहिए।
- वृक्षों के पौधों को 30 घन सें.मी. के गड्ढों में लगाया जाना चाहिए।
- पलवार के लिए पराली की बजाय नीम/ ग्लिरिसीडिएसेपियम) की कोमल पत्तीदार टहनियों का उपयोग किया जा सकता है।
तीसरी विधिः शहरी इलाकों में वनों का विकास
- उजडे हुए इलाकों/वन लगाने योग्य क्षेत्रों की पहचान कर जमीन की जुताई।
- संस्थाओं से बड़ी मात्रा में इकट्ठा की गई पेड़ों की पत्तियों, साप्ताहिक हाट/ बाजारों और मंडियों से अवशिष्ट सब्जियों और लॉन से काटी गई घास का उपयोग मिट्टी को उपजाऊ बनाने में किया जाना चाहिए। इसके लिए अपशिष्ट को सड़ाने में केंचुओं का उपयोग किया जा सकता है। इस तरह अपशिष्ट पदार्थों को जलाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
- एक बार फिर से जमीन की जुताई के बाद 30 घन सें.मी. के गड्ढों में पौधारोपण किया जाना चाहिए।
- नीम/ग्लिरिसीडिया (ग्लिरिसीडिएसेपियम) की कोमल पत्तीदार टहनियों की पलवार का उपयोग करके मिट्टी में नमी का संरक्षण किया जाना चाहिए।
स्थानीय देशी प्रजातियों का चयन
जिन पौदों को लगाया जाना है उनकी गुणवत्ता और प्रजातियों का चयन भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। रोपे गए पौधों में से जीवित रहने वालों का प्रतिशत बढ़ाने के लिए विस्तृत अध्ययन के बाद स्थानीय देशी प्रजातियों का चयन किया जाना चाहिए। सीधे तने और मध्यम वितान यानी छत्र वाली प्रजातियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। एक एकड़ जमीन में रोपने के लिए पौधों की आवश्यकता और रोपण का तरीका नीचे बताया गया हैः
- सभी प्रकार के पेड़ों की पौध का रोपण किया जाना चाहिए ताकि लगाया गया वन प्राकृतिक जंगल की तरह ही तीन स्तरीय लगे।
- एक एकड़ में विभिन्न आकार वाली 20 अलग-अलग वृक्ष प्रजातियों के 4,000 पौधे लगाए जाने चाहिए।
- विशाल वितान या आच्छादन वाले बरगद जैसे वृक्षों के पौधे नहीं लगाए जाने चाहिए।
- वृक्षारोपण वाले इलाके में पतझड़ वाले और सदाबहार पेड़ों के पौधों को निश्चित दूरी पर रोपा जाना चाहिए।
- पौधारोपण का कार्य पूरा हो जाने पर सूखी घास का पलवार डाल दी जानी चाहिए।
सिंचाई कार्यक्रम
वृक्षारोपण के बाद पौधों की सिंचाई टैंकरों और पाइप वाले स्प्रिकलरों के जरिए की जानी चाहिए और नालियों से पानी बहाकर सिंचाई नहीं की जानी चाहिए।
रोपण के पश्चात प्रबंधन
इसके अन्तर्गत बरसात के अगले मौसम तक समय-समय पर खरपतवार की निराई और पौधों को चरम वाले जानवरों से बचाव की आवश्यकता होती है। इसके लिए बाड़ बनाई जा सकती है या पहरेदारी की व्यवस्था की जा सकती है । लेकिन इसके लिए खाई नहीं खोदी जानी चाहिए क्योंकि इससे मिट्टी के पोषक तत्व रिस कर खाई में पहुँच जाते हैं।
निष्कर्ष
- प्रति इकाई क्षेत्र में बागान के मुकाबले मानव निर्मित वन में अधिक जैव-विविधता होती है।
- से वन केवल एक साल में तितली, गिलहरी, चिड़ियों और सरीसृपों जैसे वन्य जीवों के रहने के ठिकाने बन सकते हैं।
- बहुस्तरीय सदाबहार पेड़ों वाले जंगल प्राकृतिक वन जैसे लगते हैं।
- इनके प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिक मात्रा में कार्बन फिक्सिंग होती है और।
- ऐसे वन अपना रखरखाव खुद करने में सक्षम होते हैं।
क्रियान्वयन के सम्भावित क्षेत्र
- 0.1 से कम सघनता वाली श्रेणी के प्राकृतिक वन क्षेत्र।
- पेड़-पौधों और वनस्पतियों और उनकी मोटी जड़ों की सघनता मिट्टी और पानी के संरक्षण का वानस्पतिक उपाय भी है।
- जंगल जल संचय का किफायती और स्थायी समाधान हैं जबकि चैक डैम और परकोलेशन टैंक जैसे सीमेंट-कंक्रीट ढांचों की समय-समय पर रखरखाव की जरूरत होती है।
- हर साल प्रत्येक गाँव में एक लाख पेड़-पौधों वाले 10 हैक्टेयर प्राकृतिक वन लगाए जा सकते हैं। हर गाँव में पाँच साल में 50 हैक्टेयर इलाके में 5 लाख पेड़-पौधों वाले वन क्षेत्र पर प्राकृतिक सम्पदा का विकास करने का यह बड़ा अच्छा अवसर है।