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पर्यावरण प्रदूषण : एक वैश्विक चुनौती

पेंटागन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वातावरण में अचानक आने वाले परिवर्तनों से पूरे विश्व में अफरा-तफरी मच सकती है। रिपोर्ट के प्रमुख लेखकों डा० रेडाल व पीटर स्क्वार्ट्ज़ ने आगाह किया था कि इन बदलावों पर तत्काल प्रभाव से विचार नहीं किया गया तो विश्व के देशों के बीच पेयजल और बिजली की कमी से संघर्षों एवं युद्धों का सिलसिला भी प्रारम्भ हो सकता है। A Pentagon report says that sudden changes in the environment can cause chaos in the entire world. The lead authors of the report, Dr. Redal and Peter Schwartz, had warned that if these changes are not considered with immediate effect, then the lack of drinking water and electricity could lead to conflicts and wars among the countries of the world.

Author : प्रतिभा तिवारी, अवनीन्द्र कुमार तिवारी

पर्यावरण प्रदूषण एक वैश्विक चुनौती है, क्योंकि पेंटागन की एक रिपोर्ट में 2004 में ही चेतावनी दी गयी थी कि इससे जान-माल दोनों के नुकसान होने की संभावना है। एन्ड्रयू मार्शल द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में कहा गया था कि वातावरण में अचानक आने वाले परिवर्तनों से पूरे विश्व में अफरा-तफरी मच सकती है। रिपोर्ट के प्रमुख लेखकों डा० रेडाल व पीटर स्क्वार्ट्ज़ ने आगाह किया था कि इन बदलावों पर तत्काल प्रभाव से विचार नहीं किया गया तो विश्व के देशों के बीच पेयजल और बिजली की कमी से संघर्षों एवं युद्धों का सिलसिला भी प्रारम्भ हो सकता है। लेखकों का मानना है कि ऐसा कभी भी किसी भी समय शुरू हो सकता है।

प्रस्तावना

उपर्युक्त रिपोर्ट के अलावा पर्यावरण से संबंधित अन्य मुद्दे भी विचारणीय हैं:

1. विश्व के कृषि योग्य भूमि में अब कोई वृद्धि नहीं हो रही है। उपजाऊ भूमि के एक बड़े भाग की उर्वरता कम हो रही है। चारागहों के चारे समाप्त हो रहे हैं। जलाशयों की जल राशि बड़ी तेजी से घट रही है।
2. संयुक्त राष्ट्र के विश्व विकास प्रतिवेदन (2006) के अनुसार विश्व के विकासशील देशों के एक अरब करोड़ लोगों के पीने के लिए साफ पानी उपलब्ध नहीं होता। 2018 की रिपोर्ट में चेतावनी दी गयी है कि पानी की किल्लत झेल रहे लोगों की संख्या 2050 तक 57 अरब तक पहुंच जायेगी।'
3. वन, जलवायु एवं जल वक्र को संतुलित रखने में सहयोग करते हैं। वनों की हर रोज कटाई से लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं।
4. भूमि के ऊपरी वायुमंडल में ओजोन परत में छेद हो जाने के कारण पारिस्थितिक तंत्र के साथ-साथ व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी खतरा मंडरा रहा है।
5. समुद्र तटीय इलाकों में बढ़ रही लोगों की सघन आबादी से समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता के काफी गिरावट आ रही है।
6. 19वीं सदी में धरती का औसत तापमान लगभग 0.1 डिग्री की तुलना में 20वीं सदी में लगभग 0.7 डिग्री बढ़ चुका है। वर्ष 2100 तक धरती का औसत तापमान लगभग दो से छह तक बढ़ सकता है।

अंटाकर्टिका की पिघलती बर्फ इंसानी वजूद के लिए खतरे की घंटी

अंटाकर्टिका के पानी के अन्दर ही बर्फ पिघलने की दर प्रत्येक 20 वर्ष में दोगुनी हो रही है। नेवर जियो साइस में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बताया है कि समुद्री जल का तापमान बढ़ने के चलते वर्ष 2010 से 2016 तक के बौच दक्षिणी ध्रुव के निकट बर्फ की सतह प्रभावित होने से इस क्षेत्र में करीब 1463 वर्ग कि०मी० बर्फ का आधार सिकुड़ गया है।

प्रो० एन्ड्रयू शेफर्ड का कहना है कि अंटार्कटिका में आधारतल पिघल रहा है। हम इसे देख नहीं सकते क्योंकि यह समुद्र की सतह से काफी भीतर हो रहा है। इस अध्ययन में करीब 16000 किमी० समुद्र तट को शामिल किया गया है। यूरोपीय स्पेस एजेंसी के क्रायोसेट-2 से प्राप्त आंकड़ों द्वारा आर्कमिडीज के सिद्धान्त के आधार पर बत्ताया गया है कि इस तरह बर्फ पिघलने से समुद्र स्तर में बड़ा बदलाव होने ही आशंका है। इनमें सबसे अधिक गिरावट पश्चिम अंटार्कटिका में देखी गयी है। जहाँ मौजूदा 65 ग्लेशियरों में आठ के पिघलने की दर बीते आखिरी हिम युग के बाद पाँच गुना अधिक तेजी से बढ़ी है।

भारत पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

भारत में ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव स्पष्ट नजर आने लगा है। वर्ष 2015 में हुई बेमौसम वर्षा, बर्फबारी एवं अनेक संक्रामक बीमारियों ने मौसम वैज्ञानिकों को चिंतित कर दिया है। 2015 में उत्तरी और मध्य भारत में मौसम का मिजाज तमाम पूर्वानुमानों के विपरीत एक नई दिशा में जा रहा है। कहीं बेमौसम बरसात हो रही है तो कहीं भारी बर्फबारी। उदाहरण के तौर पर बेमौसम बरसात और बर्फबारी से खड़ी फसलें तबाह हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव भारत के सुन्दरवन क्षेत्र में बहुत पहले ही दिखायी देने लगा था। इसने सुन्दर वन के मैंग्रोव बनों पर भी अपना प्रभाव डाला है। इसके चलते बंगाल की खाड़ी का जलस्तर बढ़ने लगा है, जिसके कारण इस क्षेत्र के कई द्वीप जल समाधि ले चुके हैं और अन्य दूसरे क्षेत्रों पर भी इसका खतरा मंडराने से पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बदलते मौसम की इस प्रवृत्ति ने देश की कृषि अर्थव्यवस्था को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। इससे सिर्फ फसल और फसल चक्र के ही नुकसान होने का खतरा नहीं है, बल्कि इसका दूरगामी प्रभाव संपत्ति के नुकसान के रूप में भी पड़ेगा।

सर्दी में गर्मी, गर्मी में बरसात, एक ही दिन में महीनों सालों की बरसात, सर्दी में अधिक सर्दी, गर्मी में अधिक गर्मी, सूखाग्रस्त इलाकों में बाढ़ या सामान्य स्थितियों में अत्यधिक कम या ज्यादा तापमान हो जाना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि न सिर्फ मौसम बदल रही है बल्कि हम मौसम की अतिवादी स्थितियों से घिरते जा रहे है। मौसम विज्ञानी इसे ग्लोबल वार्मिंग की नतीजा मान रहे हैं। इसी वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है और ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इसी कारण समुद्र का जल स्तर उठ रहा है। कुल मिलाकर मौसम और जलवायु का बक्र बदलाव के दौर से गुजर रहा है और दुनिया भर के लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसका खामियाजा भुगत रहे हैं।

मौसम का यह बदलाव आज दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए 171 देशों ने मिलकर पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर किया ताकि मौसमी बदलाव के कहर से किसी हद तक बचा जा सके। इस समझौते का सबसे बड़ा और जटिल लक्ष्य यही है कि ग्रीन हाउस गैसों और उन मानवीय गतिविधियों पर नियंत्रण किया जाए, जिनसे धरती का तापमान बढ़ रहा है और मौसम बदल रहा है। संयुक्त राष्ट्र आईपीसीसी की रिपोर्ट भी इस बात में कोई संदेह नहीं छोड़ती कि जो ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, वह इसानों की वजह से हो रही है और उसके खतरनाक नतीजे होंगे और विश्व भर में तापमान बढ़ने की प्रक्रिया को उलटना समय नहीं है। रिपोर्ट यह भी साफ करती है कि पृथ्वी के गर्म होने को दो डिग्री से कम रखने के लिये जहरीली गैसों के उत्सर्जन की बहुत जल्द काफी कम करना होगा। जलवायु परिवर्तन में मौसम में भारी उतार चढ़ाव समुद्र के जलस्तर में वृद्धि तपती गर्मी के दिनों में बढ़ोत्तरी, बाढ़ और सूखे जैसे परिणाम होते हैं।

जलवायु परिवर्तन हिसंक विवादों और शरणर्थी समस्याओं की ओर ले जा सकता है और इसका खाद्य सामग्रियों के उत्पादन पर नकारात्मक असर होगा। इसके एक और खतरनाक नतीजे की जोर ध्यान दिया गया है और वह भी समुद्र का बढ़ता अम्लीकरण, जिसे ज्यादा कार्बन डाइआक्साइड सोखना पड़ रहा है। यह समुद्री जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा है। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों में कमी नहीं होती है तो 21वीं सदी के अन्त तक मौसम के बदलाव के जोखिम बहुत ज्यादा होंगे।

यदि कुछ नहीं किया गया तो सदी के अन्त तक पृथ्वी का तापमान करीब चार डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा। कुछ अध्ययनों में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पादन में वृद्धि की जगह पर फसलों के उत्पादन में कमी आयेगी। यह कमी विभिन्न फसलों में इस प्रकार हो मक्का 20-45 प्रतिशत, गेहूँ 5-50 प्रतिशत, धान 20-30 प्रतिशत, सोयाबीन 30-60 प्रतिशत। अनाज के उत्पादन में यह कमी महंगाई एवं भुखमरी को बढ़ाने वाली साबित होगी। इसलिए मौसम के बदलाव को गंभीरता से समझना होगा।

स्रोत - ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑव पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन’  लोक प्रशासन, खंड-11, अंक-1, जनवरी-जून 2021

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