सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद के काल से जल को पंच महाभूतों में सम्मिलित किया गया है। अर्थात् मानव जीवन का सृजन करने वाले पंच महाभूतों में से एक जल को माना गया। देवताओं ने जिस अमृत पेय की कल्पना की थी. सम्भवतः वह जल ही है क्योंकि इसके बिना जीवन सम्भव नहीं है। इसलिए कहा गया है कि जल है तो जीवन है।" इत्यादि उपमाओं का श्रृंगार किया गया है। ऐसे अमृत पेय का, जो प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है परन्तु सीमित मात्रा में हैं, हम निर्ममता से जल दोहन कर रहे हैं। बिना विचारे अपव्यय कर रहे हैं। जड़ व्यक्ति की भांति उसमें तरह-तरह के रसायन तथा गन्दगी मिला रहे हैं। यद्यपि जल में एक सीमित मात्रा तक अपना परिशोधन करने की शक्ति है। इसके पश्चात् जल पूर्णतः मानव एवं समस्त जगत के लिए विष के समान हो जाता है। परन्तु जल में हमारे असीमित दुर्व्यवहार को झेलने की शक्ति नहीं है। फलस्वरूप ये नदियाँ जिनकी कल-कल धारायें सृष्टि की अनंतता की परिचायक थी।
वर्तमान में अपने स्वरूप व शुद्धता को खोकर अस्तित्व का संघर्ष कर रही हैं। हमारे अत्याचारों व अंधविश्वासों ने उनमें इतना अधिक विष घोल दिया है कि उन नदियों के आस-पास के क्षेत्र का भूमिगत जल भी प्रदूषित हो रहा है। यदि शीघ्र ही हम नहीं चेते तो अपनी भावी पीढ़ी को सती अनुसुइया की भांति यह आशीर्वाद नहीं दे सकेंगें-
अर्थात् यह सृष्टि तब तक ही है, जब तक गंगा व जमुना में जल धारा हैं
प्रस्तुत शोध एक छोटा सा प्रयास हैं जो कलयुग में गंगा व अन्य नदियों तथा जल को पृथ्वी पर बचा सके। जिसमें विभिन्न स्त्रोतों से विचारों का एक संग्रह है जिसमें सभी क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया है। जल के बिना भविष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जल ना केवल महत्वपूर्ण तत्व है, बल्कि प्राणी जगत के लिए जीवन दाता भी है। यहीं शोध में प्रस्तुत किया गया है जिसमें परम्परागत स्त्रोतों से लेकर वर्तमान की परिस्थितियों का विस्तार पूर्वक उल्लेख है।
जल को बचाना, उसका उचित उपयोग तथा उपलब्ध जल को शुद्ध बनाये रखने के प्रयासों का वर्णन किया गया है एवं इसी का शोधार्थी के शोध कार्य में प्रस्तुतीकरण है।
राजस्थान एक ऐसा क्षेत्र है जहां वर्ष भर बहने वाली नदियों का उद्भव नहीं होता है। यहाँ पानी से सम्बन्धित समस्याएँ बहुत ही बड़े पैमाने पर हैं जो कि अनियमित वर्षा और नदियों में अपर्याप्त पानी को लेकर उत्पन्न होती हैं। राजस्थान भारत का संकट ग्रस्त प्रदेश है, जहां पर पीने का पानी लाने के कई मीलों तक महिलाओं को यात्रा करनी पड़ती है। यहाँ केवल 1 प्रतिशत पानी ही उपलब्ध है।
यहां प्रकृति और संस्कृति एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। सन् 1979 और 1990 में राजस्थान के कुछ इलाकों में भारी बारिश हुई थी, जिससे लूनी नदी में बाढ़ आने से राज्य को काफी हानि पहुंची थी परन्तु 1979 में क्षति और भी हो सकती थी। अगर स्थानीय लोगों ने संदेश देने की प्राचीन पद्धति, जिसमें कोलों का प्रयोग किया जाता था, का सहारा न लिया होता। जिन क्षेत्रों में यह व्यवस्था लुप्त हो चुकी थी वहां काफी हानि पहुंची थी इसलिए प्रदेश को आज परम्परागत विधियों से जल स्त्रोतों का संरक्षण करने की सख्त आवश्यकता है।
राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में लोकथाएँ और पौराणिक गाथाएँ काफी महत्वपूर्ण हुआ करती है। राजस्थान में पानी के लगभग सभी प्राकृतिक स्त्रोतों जैसे झरने, बावड़ियों, जोहड़, टांका इत्यादि की उत्पत्ति के बारे में पौराणिक किस्से हैं बाणगंगा नदी की उत्पत्ति उस स्थान से मानी गई है, जहां पर पांडव किसी न किसी समय रहा करते थे। हमारे प्रदेश में जल स्त्रोतों का बहुत ही धार्मिक महत्व है जिसको शोध कार्य में वर्णित किया गया है।
ऐसा कहा गया है कि अर्जुन ने धरती में तीर मारकर पानी बाहर निकाला था जिस जगह पर भीम ने अपना पैर जमीन पर धंसाकर पानी के फव्वारे को बाहर निकाला था उसे भीम गदा के नाम से जाना जाता है। यह स्थान राजस्थान राज्य के अलवर जिले के विराटनगर करने में स्थित है। शुष्क क्षेत्रों में पानी इतनी कम मात्रा में उपलब्ध होता है कि किसी भी प्राकृतिक स्त्रोत की पूजा वहाँ शुरू हो जाती है। कई जगहों पर तो पानी के प्राकृतिक स्त्रोत तीर्थ स्थल भी बन गए हैं। जो शेष बचे हुए है, वहां पर संरक्षण की आवश्यकता है। जिससे भावी पीढ़ी को प्राचीन जल स्त्रोतों के दर्शन हो सकें।
स्थानीय लोगों ने पानी के कई कृत्रिम स्त्रोतों का निर्माण किया है। राजस्थान में पानी के कई पारम्परिक स्त्रोत हैं, जैसे- नाडी, तालाब, जोहड बंधा सागर और सरोवर इत्यादि प्रमुख है। गांव का कोई व्यक्ति जब नाड़ी की बात करता है, तो जल संरक्षण का छोटा सा प्रयास हमारे लिए होता है। जल संरक्षण द्वारा किये गये प्रयास से उसके बारे में स्पष्ट जानकारी होती है जैसे नाडी में पानी कैसे जमा होता है, किस 1 तरह इसका आगोर तैयार किया जाता है। ग्रामवासी यह भी जानता है कि नाड़ी का निर्माण किस मृदा से किया जाता है। नाड़ी के निर्माण के लिए खुदाई एक विशेष तरीके से की जाती हैं जो कि लम्बे समय तक सुरक्षित रहती है। राजधानी क्षेत्र जयपुर इसका एक उत्तम उदाहरण है।
'सिंधी पाकिस्तान सीमा के निकट स्थित एक गांव है। यहां पिछले कई वर्षो से वर्षा नहीं हुई है। इस गांव में भेड़ों की कुल संख्या 30,000 से भी ज्यादा है। चूंकि इस गांव में पार की व्यवस्था काफी अच्छी है. इसलिए इन भेड़ों को घास एवं पानी के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता जीवनयापन की दशाओं में जल एक महत्वपूर्ण स्त्रोत है जो कि किसी भी स्थिति में पारिस्थितिकी संतुलन का कार्य करता है।
राजस्थान के लोग पारम्परिक तौर पर राज्य को दो हिस्सों में बांटते हैं। एक जिसमें पालर पानी मिलता है और दूसरा, जहां बाकर पानी प्राप्त होता है वर्षा से प्राप्त जल ही पालर जल है जो प्राकृतिक पानी का सबसे शुद्ध रूप है और जिसे टांके में तीन से पांच वर्ष तक के लिए जमा किया जा सकता है। टांका राजस्थान में प्रत्येक घर में हुआ करता था। जिससे जल की स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति की जाती है। बाकर भूजल को कहते हैं। इसमें कई प्रकार के तत्व मिले होते हैं। पालर पानी में उगने वाली फसलें बाकर पानी में उगने वाली फसलों से बिल्कुल भिन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त इनको रोकने का समय और सिंचाई की व्यवस्था भी एक-दूसरे से अलग होती है। राजस्थान में यह दोनों ही विधियाँ प्राचीनकाल से ही प्रचलन में हैं।
पानी के उचित प्रबन्ध हेतु पश्चिमी राजस्थान में आज भी पराती (लोहे का बड़ा बर्तन) में चौकी रखकर उस पर बैठकर स्नान करते हैं ताकि शेष बचा पानी अन्य घरेलू उपयोग में आ सके जयपुर जिले में निम्नलिखित जल संरक्षण स्त्रोत हैं।
जयपुर जिले में कुआं व सरोवर की भांति बावड़ी निर्माण की परम्परा अति प्राचीन है। यहाँ पर हडप्पा युग की संस्कृति में बावड़ियाँ बनाई जाती थी। प्राचीन शिलालेखों में बावड़ी निर्माण का उल्लेख प्रथम शताब्दी से मिलता है। जो कि प्राचीन से भी पुराना माना गया है। विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र से बावड़ी निर्माण की जानकारी मिलती है। अपराजित पृच्छा के 74वें अध्याय में बावड़ियों के चार प्रकार बताये गये हैं। प्राचीन काल में अधिकांश बावड़ियों मन्दिरों के सहारे बनी है जिससे सभी धार्मिक श्रदालु स्नानकर पूजा-पाठ करते थे तथा अपने सुखद एवं मंगलमय जीवन की कामना करते थे इसका उदाहरण आभानेरी (दौसा) में हर्षत माता मन्दिर के साथ बनी चांद बावडी है।
बावड़ियों और सरोवर प्राचीनकाल से ही पीने के पानी एवं सिंचाई के महत्त्वपूर्ण जलस्त्रोत रहे हैं। आज की तरह जब घरों में नल अथवा सार्वजनिक हैंडपम्प नहीं थे तो गृहणियाँ प्रातःकाल एवं सायंकाल कुएं, बावड़ी अथवा सरोवर से ही पीने का पानी लेने जाया करती थीं।
आज भी कई गांवों में जहां जलप्रदाय योजनाऐं नहीं हैं, वहाँ पनघट पर नजारा देखा जा सकता है। ये गृहणियों अपने सिर पर रखी कलात्मक इंडियों पर दो-तीन घड़े रखकर पानी भरने जाया करती हैं। इस दौरान वे आपस में घर-गृहस्थी की बातचीत भी कर लिया करती हैं और जब मन तरंगित हुआ तो सुरीले गीतों की स्वर लहरियाँ भी उनके कंठ से कूट पड़ती है।
यही राजस्थान की संस्कृति का असली अहसास है। इन लोकगीतों में एक ओर जहाँ श्रृंगारिक वर्णन, मनोदशा और तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण होता है। वहीं पानी भरकर लाने में उत्पन्न व्यवधानों का वर्णन होता है जो आपसी सुख-दुख का परिचायक है।
राजस्थान में बावडी निर्माण का मुख्य उद्देश्य वर्षा जल का संचय रहा है। आरम्भ में ऐसी बावड़ियाँ हुआ करती थी जिनमें आवासीय व्यवस्था भी थी राजकाज में सारे कार्य इनके जल द्वारा ही संभव हो पाते हैं।
कालिदास ने रघुवंश में शातकर्णि ऋषि के एक क्रीड़ा बावड़ी का मनोहारी उल्लेख किया है। मेघदूत में भी कालिदास ने यक्ष द्वारा अपने घर बावडी निर्माण का सुन्दर वर्णन किया है। राजस्थान में इन प्राचीन बावड़ियों की वर्तमान में दशा अच्छी नहीं है। यदि समय रहते इनका जीर्णोद्वार कर दिया जाये तो ये बावड़ियाँ भयंकर जल संकट का समाधान बन सकती हैं। हालांकि राजस्थान सरकार का पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग इनके संरक्षण का कार्य करता है।
जयपुर जिले में आगरा रोड पर भंडारो ग्राम में बड़ी बावडी स्थित है, जिसका निर्माण ठाकुर दिलीप सिंह दौलतिया ने एक रात में करवाया था। इसके अलावा जग्गा बावडी एवं पन्ना मीना की बावडी, आमेर प्रमुख हैं। पन्ना मीना की बावड़ी में एक और जयगढ दुर्ग व दूसरी ओर पहाड़ों की नैसर्गिक सुन्दरता है। कुआं
कुआं राजस्थान के लोगों के कौशल का एक और उदाहरण है। कुआं जिन्हें कहीं-कहीं गहरी बेरी भी कहा जाता है, इसमें पानी की बर्बादी कम से कम हो पाती है। आमतौर पर ये 40 से 50 मीटर गहरे होते हैं और पक्के होते हैं। इनका मुंह अक्सर लकड़ी के पट्टों से ढका होता है जिससे लोग या पशु गिर न जाऐं क्योंकि राजस्थान में आवारा पशु अक्सर विचरण करते रहते हैं। कुएं आज भी जयपुर जिले में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं एवं वर्षा के पानी का उपयोग करने का सबसे अच्छा संसाधन है। जिले में कई स्थानों पर आज भी जल स्तर ऊपर ही है।
जल संसाधनों के अधिकतम प्रयोग का स्थानीय ज्ञान एक व्यवस्था डाकेरियान में झलकता है। जिन खेतों में खरीफ की फसल लेनी होती है. वहाँ बरसाती पानी को घेरे रखने के लिए खेत की मेड़ें ऊँची कर दी जाती है। यह पानी जमीन में समा जाता है। फसल कटने के बाद खेत के बीच में एक अस्थाई कुआं खोद देते हैं। जहाँ इस पानी का कुछ हिस्सा रिसकर जमा हो जाता है फिर आसानी से इस पानी को काम में लिया जाता है।
बरसाती पानी को संचित करने का तालाब प्रमुख स्त्रोत रहा है। प्राचीन समय में बने इन तालाबों में अनेक प्रकार की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इन्हें हर प्रकार से रमणीक एवं दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाता था। इनकी जड़ों में अनेक प्रकार के भित्ति कुआं बनाते थे जिन्हें वेरी कहते हैं। तालाबों को उचित देखभाल की जरूरत होती है। आवारा पशु तथा अपरदन अक्सर तालाब को क्षति पहुंचाते हैं, जिसकी जिम्मेदारी समाज पर होती थी। जोधपुर के रानीसर एवं पद्मसर तालाबों का अस्तित्व उचित रखरखाव का ही परिणाम है अन्यथा वे भी दूसरे तालाबों की तरह शहरीकरण की भेंट चढ़ जाते जयपुर जिले में राज्य में स्थित तालाबों पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि इनसे अनेक कुओं एवं बावड़ियों को पानी मिलता है। धार्मिक भावना से बने तालाबों का रख-रखाव अच्छा हुआ है जो कि हमारी संस्कृति के परिचायक हैं।
रणथम्भौर के जंगली तालाब, सुखसागर तालाब, काला सागर तालाब प्रसिद्ध हैं। इन सभी तालाबों का प्राकृतिक आगोर है। रानी पद्मिनी द्वारा बनाया गया पद्मला तालाब इतिहास में प्रसिद्ध है जिसके तीन ओर का आगोर प्राकृतिक है, जबकि एक और पक्की दीवार है जिसमें रानियाँ अपनी सहेलियों के साथ स्नान किया करती थी।
जयपुर जिले में जल का परम्परागत ढंग से सर्वाधिक संचय एनिकटों के माध्यम से भी किया जा सकता है। यहाँ पर विश्व प्रसिद्ध एनिकट स्थित हैं। जिनके निर्माण में राजा-महाराजाओं, बनजारों एवं आम जनता का सम्मिलित योगदान रहा है एनिकट की विशाल क्षमता का अनुमान जोधपुर की लालसागर (सन्
1800) कैलाना (सन् 1872) तख्तसागर (सन् 1932) और उम्मेदसागर (सन् 1931) एनिकट की विशालता से लगाया जा सकता है जिनमें 70 करोड़ घन फिट जल संचय रहता है। जिससे 8 लाख लोगों के लिए वर्ष भर पानी पर्याप्त रहता है। मंडोर पहाड़ियों का जल संचय करने के लिए राजस्थान सरकार ने एनिकट बनवाया है। जयपुर जिले में नाहरगढ़, जयगढ तथा आमेर में जल संचय करने के लिए एनिकट बनाए गए हैं जिनसे जलस्तर भी ऊपर उठा है।
इसी प्रकार उदयपुर में विश्व प्रसिद्ध एनिकट जयसमन्द में काफी मात्रा में जल संचय होता रहता है। नाहरगढ़ का आगोर प्राकृतिक है जिसमें नदियों को जोड़ा गया है। जयपुर में नाहरगढ़ के आसपास का पानी जल महल में संचित होता है। विश्व प्रसिद्ध आमेर मावटा एनिकट का अस्तित्व धार्मिक भावना से ओतप्रोत है। इन तालाबों से सिंचाई के लिए भी जल का उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त इनका पानी रिसकर बावड़ियों में पहुंचता है जहां से इसका उपयोग पेयजल के रूप में करते हैं। जिससे स्थानीय लोगों की पेयजल की आपूर्ति होती है।
टांका राजस्थान के रेतीले इलाकों के ग्रामीण क्षेत्रों में बरसात के जल को संग्रहित करने की महत्वपूर्ण परम्परागत प्रणाली है। इसमें संग्रहित जल का मुख्य उपयोग पेयजल के लिए करते हैं। यह एक प्रकार का सूक्ष्म भूमिगत सरोवर होता है जिसको ऊपर से ढंक दिया जाता है। यह राजस्थान के रेतीले इलाकों के प्रत्येक गांव के हर घर में अक्सर बनाया जाता है। इसका निर्माण अधिकांश जगह मिट्टी व कहीं-कहीं सीमेंट से किया जाता है। टांके का निर्माण सम्पूर्ण मरूभूमि में किया जाता है, क्योंकि यहां का भूजल लवणीय हैं जो उपयोग के अयोग्य है। इसलिए वर्षा जल का संग्रह इस माध्यम से सार्थक होता है।
टांका 40 से 50 फीट तक गहरा होता है इनके ऊपर गुम्बद बनाया जाता है। टांका पानी संरक्षण की सर्वोत्तम विधि है। जिससे पानी निकलाने के लिए तीन-चार सीढ़ियाँ बनाकर ऊपर भीनारनुमा ढेकली बनाई जाती है जिससे पानी खींचकर निकाला जाता जाता है। गांवों में खेत के पास थोड़ी-थोड़ी दूर पर भी कुंडियाँ बनाई जाती हैं। इनका निर्माण सार्वजनिक रूप में स्थानीय लोगों एवं सरकार द्वारा निजी स्वयं व्यक्ति या परिवार विशेष द्वारा करवाया जाता है।
निजी टांका घर के आंगन या चबूतरों में भी बनाया जाता है जिनका उपयोग एक या दो गांव के लोग करते हैं। आज के प्रचलन में टांके सर्वाधिक बनाए जाते हैं। टांका राजस्थान में ही नहीं सम्पूर्ण क्षेत्र में बनाए जाते हैं। टांकों में जल संग्रह करना एक परम्परा रही है घरों की छतों से संचित बारिश का पानी इन टाकों में ही आता है।
टांका एक बड़े कमरेनुमा संरचना होती है। वर्षा कम होने पर कुँओं, तालाबों से पानी लाकर भी इन टॉकों में संग्रहित किया जाता है। टांके प्रायः जमीन के भीतर बने होते हैं। राजस्थान सरकार अक्सर प्रयास करके जल स्तर ऊपर लाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करती है।
वर्षा जल संचय करने का यह एक प्रमुख स्त्रोत है। यहाँ बांधों की उचित देखभाल की जाती है जिसकी जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य सरकार की होती है यहाँ के प्रमुख बाधों में जयपुर जिले में जमवारामगढ़, जोधपुर में रानी बांध, टॉक में बीसलपुर बांध प्रमुख हैं। बांध वर्तमान में केन्द्र एवं राज्य सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना है जिससे सिंचाई, कृषि एवं पेयजल आपूर्ति की जाती है।
बांध में बड़े स्तर पर पानी की जल राशि का संचय किया जाता है। बाधों में साल भर पानी का स्टॉक रहता है जो उस क्षेत्र की स्थानीय जरूरतों को पूरा करता रहता है।
मानसून आगमन के साथ ही लोग सामूहिक रूप से कुण्ड के पास ढाणी (झोपड़ी बनाकर रहने लगते हैं। सामान्यतया इन कुण्डों में सात-आठ माह तक पानी ठहरता है पानी की समस्या वाले इलाकों में कुण्ड में पानी कम होने या खत्म होने पर लोग पास वाले दूसरे कुण्ड के जल का उपयोग आपसी समझौते के आधार पर करते हैं। इन कुण्डों की देखभाल भी आपसी सहयोग से की जाती है।
समय-समय पर कुण्ड की खुदाई करके गहरा किया जाता है जिससे इनका अस्तित्व बना रहे। साथ ही पानी का वाष्पीकरण कम हो तथा जल संग्रहण अधिक होता रहे प्रत्येक गांव में जाति समुदाय विशेष द्वारा पशुओं एवं जनसंख्या के हिसाब से कुण्ड बनाये जाते हैं जो आपसी भाईचारे का भी प्रतीक भी होता है जैसे गलताजी में कुल 7 कुंड हैं। राजस्थान में यह भी एक प्राचीन जलीय स्त्रोत है।
जल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है जो कि सभी संसाधनों का प्रमुख आधार है। जल की उपस्थिति के कारण ही अन्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन व संरक्षण संभव है। यह एक नव्यकरणीय संसाधन है जिसको एक बार उपयोग के बाद पुनः शोधन कर उपयोग के योग्य बनाया जा सकता है जल ही एक ऐसा संसाधन है जिसकी हमें नियमित आपूर्ति अत्यधिक आवश्यक है। जिसे हमें नदियों, झीलों, तालाबों, भूजल तथा अन्य पारम्परिक जल संग्रह क्षेत्रों से प्राप्त करते हैं। सागरीय जल का भी उपयोग किया जा सकता है लेकिन इसका अलवणीकरण करना आवश्यक है। वर्तमान समय में अनेक देश लीबिया, कतर, सउदी अरब इजराइल यमन आदि सागरीय जल को शोधित करके उपयोग में ले रहे हैं।
जल का सर्वाधिक उपयोग सिंचाई के क्षेत्र में लगभग 70 किया जा रहा है जबकि द्वितीय स्थान उद्योगों का 23 प्रतिशत तथा घरेलू व अन्य उपयोग में केवल 7 प्रतिशत जल ही उपयोग किया जाता है। लोगों द्वारा पृथ्वी पर विद्यमान कुल शुद्ध जल का 10 प्रतिशत से कम उपयोग किया जा रहा है। लेकिन जल संसाधन के स्त्रोत समान रूप से वितरित नहीं है जिससे सर्वत्र समान रूप से जलापूर्ति भी नहीं हो पाती है। वर्तमान में अध्ययन क्षेत्र की कई ग्राम पंचायतों में जल संकट उत्पन्न हो गया है क्योंकि वहाँ विद्यमान जल स्त्रोतों में गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है।
तालिका 1: देश एवं विश्व के प्रमुख देशों में जल की उपलब्धता
देश |
उपलब्ध जल (घन किमी में) |
प्रति व्यक्ति उपलब्ध जल (घन मीटर में) |
विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग (जल घन मीटर में) |
|||
प्रति व्यक्ति |
घरेलु |
उद्योग |
कृषि |
|||
भारत |
1850 |
2350 |
610 |
3 |
4 |
93 |
आस्ट्रेलिया |
343 |
21300 |
1310 |
16 |
6 |
77 |
इन्गलैंड |
120 |
2140 |
510 |
21 |
79 |
1 |
जर्मनी |
96 |
1100 |
600 |
14 |
71 |
14 |
फ्रांस |
170 |
3090 |
960 |
16 |
71 |
13 |
चीन |
2800 |
2580 |
460 |
6 |
7 |
87 |
जापान |
547 |
4480 |
920 |
17 |
33 |
50 |
अर्जेन्टिना |
694 |
2203 |
1060 |
9 |
18 |
73 |
अमेरिका |
2478 |
10230 |
2190 |
10 |
49 |
41 |
कनाडा |
2901 |
111740 |
1500 |
18 |
70 |
11 |
दक्षिण अफ्रिका |
50 |
1470 |
400 |
15 |
0 |
83 |
स्रोत - हैंडबुक आफ एग्रीकल्चर 2020, भा. कृ. अनु. परि. नई दिल्ली |
क्रम |
मात्रा |
जल पीना |
0.35 गैलन प्रति व्यक्ति |
भोजन पकाना |
0.65 गैलन प्रति व्यक्ति |
स्नान करना |
8.00 गैलन प्रति व्यक्ति |
घर तथा बर्तन साफ करना |
3.00 गैलन प्रति व्यक्ति |
वस्त्र धोना |
3.00 गैलन प्रति व्यक्ति |
अन्य कार्य |
3.00 गैलन प्रति व्यक्ति |
रोजगार उत्पादन |
5.00 गैलन प्रति व्यक्ति |
सार्वजनिक स्वच्छता |
5.00 गैलन प्रति व्यक्ति |
स्रोत - हैंडबुक आफ एग्रीकल्चर 2020, भा. कृ. अनु. परि. नई दिल्ली |
महासागरों में है जो कि कुल जल का 97.02 प्रतिशत है एवं यह जल अत्यधिक लवणीय होने के कारण पीने के बिल्कुल भी योग्य नहीं है। इसके पश्चात् 2.15 प्रतिशत जल ग्लेशियरों में स्थित है बाकि 1 प्रतिशत से भी कम जल भूमिगत, नदियों, झीलों, तालाबों आदि में स्थित है।
तालिका में विभिन्न उपयोगों हेतु प्रति व्यक्ति जल की आवश्यक मात्रा प्रदर्शित की गई है। जिसमें स्पष्ट है कि प्रति व्यक्ति जल की आवश्यकता स्नान में सर्वाधिक होती है। पेय जल के रूप में यह 0.35 गैलन प्रति व्यक्ति है।
जयपुर जिले में लगभग सभी तहसीलों में जल स्तर में गिरावट की वजह से ग्रीष्म ऋतु में जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे वहाँ जलापूर्ति टेंकरो के माध्यम से की जाती है।
वर्तमान समय में जयपुर जिले में उपलब्ध जल का उपयोग निम्नलिखित क्षेत्रों में किया जाता है।
वर्तमान समय में जल की महत्ता पूर्व की अपेक्षा अधिक बढ़ गयी है जिसका मुख्य कारण तीव्र जनसंख्या वृद्धि एवं जल के विभिन्न क्षेत्रों में विविध उपयोग है। घरेलू जल उपयोग के दो पक्ष होते हैं जिनमें प्रथम घरेलू कार्यों में आवश्यक जल की मात्रा का अनुमान लगाना व द्वितीय उपलब्ध जल का समुचित उपयोग
करना है अध्ययन क्षेत्र में ग्रामीण जनसंख्या अपने घरेलू जल की आवश्यकता पूर्ती के लिए मुख्यत्तया परम्परागत स्त्रोतों जैसे नदियों, तालाबों, कुओं व हैण्डपम्प एवं क्षेत्रीय जल परियोजनाओं पर निर्भर रहती हैं।
नगरीय क्षेत्रों में जल उपयोग के वर्गीकरण में सबसे अधिक जल का उपभोग बागवानी में करते है जो कि लगभग 35 प्रतिशत है। इसके बाद मल-मूत्र त्याग में किया जाता है जो कि 26 प्रतिशत है। इसके पश्चात नहाने धोने में 23 प्रतिशत जल का उपयोग किया जाता है कपड़े धोने में लगभग कुल जल उपभोग का 9 प्रतिशत जल उपयोग में लिया जाता है। रसोई के कार्यों में 5 प्रतिशत जल का उपयोग किया जाता है तथा घर की साफ सफाई में लगभग 2 प्रतिशत जल का उपयोग किया जाता है।
जल का सर्वाधिक उपयोग सिचाई कार्य में किया जाता है। सिचाई कार्य में सतही व भूजल दोनों का उपयोग किया जाता है। सतही जल का उपयोग नहरों व तालाबों द्वारा किया जाता है जबकि भूमिगत जल का | उपयोग कुओं व नलकूपों के द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों के अतिरिक्त शेष क्षेत्र सिंचाई पर निर्भर हैं जो कि खाद्यान्न उत्पादन के महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। इसी प्रकार ग्रीष्मकालीन फसले लेने के लिए भी सिंचाई की अत्यन्त आवश्यकता होती है।
वर्तमान में जयपुर जिले में सिंचाई के लिए भूमि व जल का अंधाधुंध उपयोग किया जा रहा है। जबकि सतही जल का अधिकांश भाग बिना उपयोग किये व्यर्थ ही वह जाता है। वर्तमान में जयपुर जिले में कुल सिंचित क्षेत्रफल 342458 हेक्टेयर है जो विभिन्न साधनों के माध्यम से की जाती है। तालिका द्वारा स्पष्ट है।
जयपुर जिले में सर्वाधिक सिचाई कुञ्जों व नलकूपों के माध्यम से होती है। जिसका क्षेत्रफल 341166 हेक्टेयर है। कुओं व नलकूपों के माध्यम से सर्वाधिक सिंचाई चौमू तहसील में 54076 हैक्टेयर क्षेत्र में होती है और सबसे कम सांगानेर तहसील में 10342 हैक्टेयर में होती है। नहरा से सिंचाई सांगानेर तहसील में 607 हेक्टेयर एवं तालाबों से सिंचाई चाकसू तहसील में 685 हैक्टेयर क्षेत्रफल में होती है इसी कारण सिचाई के उपयोगी साधनों का जिले के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है।
उद्योग किसी भी क्षेत्र के तीर्थ विकास के लिए आवश्यक होते हैं कुल शुद्ध जल संसाधन का 23 प्रतिशत भाग उद्योगों में उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि अधिकांश उद्योग जल स्त्रोतों के निकट स्थापित किये जाते हैं। अनेक औद्योगिक इकाईयों में स्वयं के जल शोधक संयंत्र भी होते हैं जिनसे जलापूर्ति नियमित बनी रहती है।
उद्योगों में जल का उपयोग भाप बनाने भाप के संघनन रसायनों के विलयन, वस्त्रों की धुलाई, रंगाई, छपाई, लोह इस्पात उद्योग, चमड़ा उद्योग, कागज की लुगदी बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। जयपुर जिला उद्योगों की दृष्टि से अधिक महत्व रखता है, अतः जिला उद्योग धन्वा की दृष्टि से अच्छी स्थिति में है। जहाँ उद्योगों को और अधिक प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है जिससे जिले का आर्थिक विकास उच्च हो सके । जयपुर जिले में कुल उद्योगों की संख्या 19822 है जिनमें रोजगार की संख्या 87481 है जिनमें खाद्य पदार्थ उद्योग, सूती कपडा उद्योग, खनिज उद्योग, चमडा उद्योग, लकड़ी उद्योग, कागज उद्योग, आदि महत्वपूर्ण हैं।
विभिन्न प्रकार के संसाधनों में जल संसाधन एक ऐसा संसाधन है जो कि नवीनीकरण योग्य है अर्थात् यह कभी समाप्त नहीं होगा। अतः समाप्त हो रहे ऊर्जा संसाधनों के विकल्प के रूप में जल से विभिन्न रूपों में शक्ति का उत्पादन किया जा रहा है। राजस्थान जल विद्युत उत्पादन को दृष्टि से मध्यम श्रेणी का राज्य है। कुछ विद्युत तो स्वयं ही उत्पादित करता है और कुछ अन्य राज्यों से प्राप्त करता है। लेकिन जयपुर जिले में एक भी जल विद्युत गृह नहीं है एवं यहाँ विद्युत आपूर्ति पड़ौसी जिलों से होती है।
नू सतह असमतल होने पर नदियों के सहारे नहरों का निर्माण किया जाता है। नहरों का निर्माण जल के बहुउद्देश्यी उपयोग के लिए किया जाता है जिनमे सिचाई, परिवहन, जल विद्युत, बाढ़ नियंत्रण आदि प्रमुख हैं. लेकिन जयपुर जिले में नहरों के जल का उपयोग मात्र सिंचाई के लिए किया जाता है जो कि रबी की फसल के लिए लाभदायक है।