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स्वच्छ ऊर्जा का मुख्य स्रोत क्या हैं (What are the main sources of Clean Energy in Hindi)

भावी पीढ़ियों के लिए इस ग्रह को बेहतर बनाए रखने के लिए हमें प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर जलवायु परिवर्तन की समस्या का सामना करना होगा। इसके लिए कार्बन की कम मात्रा उत्सर्जन करने वाले ईंधनों के राष्ट्रीय मानक तय करने के साथ नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके जीवाश्म ईंधन की खपत में कमी करनी होगी।

Author : नवनीत कुमार गुप्ता

किसी भी कार्य को करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। पृथ्वी पर जीवाश्म ईंधन ऊर्जा के मुख्य स्रोत रहे हैं। इसीलिए काफी मात्रा में जीवाश्म ईंधन का उपयोग होता रहा है। विश्व स्तर पर अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा की खपत होने से जीवाश्म ईंधनों का उपयोग बढ़ा है। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर ऊर्जा के उत्पादन में जीवाश्म ईंधनों का योगदान 90 प्रतिशत है। जीवाश्म ईंधन के दहन से उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य ग्रीन हाउस गैसों के कारण वायुमंडल का संतुलन गड़बड़ा रहा है और प्रदूषण की गंभीर स्थिति उत्पन्न होती है। इसलिए प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए हमें ऊर्जा क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम उठाने की आवश्यकता है।

जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कमी लाने के साथ ही आज विश्व में इस बात पर ध्यान दिया जा रहा है कि कम कार्बन ऊर्जा संसाधनों और नई प्रणालियों का प्रयोग करते हुए ऊर्जा का उत्पादन किया जाए। इसके तहत नवीकरणीय एवं वैकल्पिक ऊर्जा को बढ़ावा दिया जा रहा है। नवीकरणीय ऊर्जा के अंतर्गत जैव ईंधन, सौर ऊर्जा, ज्वारीय एवं महासागरीय ऊर्जा, पवन ऊर्जा एवं भूतापीय ऊर्जा, आदि स्वच्छ ऊर्जा स्रोत शामिल हैं। नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा प्रदूषण मुक्त होने के कारण पर्यावरण सम्मत हैं और यही कारण है कि आज इस ओर विश्व का ध्यान आकर्षित हो रहा है।

सौर ऊर्जा, ऊर्जा संकट को दूर करने का सबसे अहम विकल्प साबित हो सकती है। सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा को सौर ऊर्जा कहा जाता है। सूर्य पिछले साढ़े चार अरब वर्षों से चमक रहा है और अगले साढ़े पांच अरब वर्षों तक चमकने के लिए अब भी उसमें पर्याप्त हाइड्रोजन शेष है। इसके केंद्र का तापमान 1.40 करोड़ डिग्री सेंटीग्रेड है। संलयन प्रक्रिया पर महारथ हासिल करके ऊर्जा समस्या का स्थाई हल निकाला जा सकता है।

सौर ऊर्जा कई मायनों में फायदेमंद है। मसलन यह ऊर्जा मुफ्त होने के साथ ही किसी भी प्रकार के प्रदूषण से मुक्त है। छोटे और दुर्गम इलाकों में सौर ऊर्जा, ऊर्जा का महत्वपूर्ण विकल्प है। सोलर तकनीक का उपयोग हम दैनिक कार्यों में सोलर कुकर और वाटर हीटर के रूप में कर सकते हैं।

सूर्य की ऊर्जा को मानव जरूरत के लिए इस्तेमाल करने के अनेक उपाय हैं। सौर ऊर्जा की सहायता से घरेलू तथा औद्योगिक उद्देश्यों के लिए गर्म पानी की आपूर्ति कर पाना अब व्यावसायिक तौर पर संभव हो चुका है। छत पर लगे सौर तापक का उपयोग होटलों, अस्पतालों, औद्योगिक इकाइयों और आवासीय मकानों में व्यापक तौर पर किया जा रहा है।

खाना पकाने, सुखाने और ऊर्जा को परिष्कृत करने के लिए विभिन्न सौर संस्थाओं में सौर एयर हीटिंग को बढ़ावा दिया जा रहा है। परंपरागत बिजली के संरक्षण के साथ सर्दियों और गर्मियों में आरामदायक और बेहतर जीवन स्तर के लिए ऐसे भवनों के निर्माण को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसमें सौर ऊर्जा से जुड़ी प्रणालियों का उपयोग किया जा सके। पर्यावरण सम्मत इन प्रणालियों का उपयोग ग्लोबल वार्मिंग में कमी ला सकता है।

हमारे देश का भौगोलिक क्षेत्र ऐसा है कि यहां के अधिकांश क्षेत्रों में सौर ऊर्जा उपलब्ध है। भारत में प्रतिवर्ष 50,000 खरब किलोवाट सौर ऊर्जा प्राप्त होती है। इस तरह देश में प्रति वर्ष प्रति वर्ग मीटर में 1.2 बैरल पेट्रोल तुल्यांक सौर ऊर्जा उपलब्ध है। देश में प्रति वर्ग किलोमीटर 20 मेगावाट सौर विद्युत उत्पन्न की जा सकती है। इस प्रकार उत्पन्न की जाने वाली ऊर्जा की मात्रा भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है। भारत में सौर ऊर्जा का उत्पादन दो माध्यमों से किया जा रहा है। पहला सौर-तापीय दूसरा सौर फोटोवोल्टिक।

सौर तापीय ऊर्जा के अंतर्गत सौर ऊर्जा को सौर संग्रहकों एवं रिसीवरों के माध्यम से ताप ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। इस ऊर्जा का उपयोग पानी गर्म करने, स्थान गर्म करने, सुखाने, पानी को लवणों से मुक्त करने, उद्योगों में ताप उपलब्ध कराने, विद्युत उत्पादन करने हेतु एवं वाष्प उत्पन्न करने हेतु किया जा सकता है।

सौर फोटोवोल्टिक तकनीक द्वारा सौर विकिरण को विद्युत में परिवर्तित किया जाता है। इस प्रकार उत्पादित विद्युत से गांवों, अस्पतालों, सड़कों, जल पम्पिंग केंद्रों, दूर संचार केंद्रों आदि में विद्युत आपूर्ति की जा सकती है।

भारत नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी प्रयासों के मामलों में काफी सक्रिय है। भारत पवन ऊर्जा के मामले में विश्व का चौथा सबसे बड़ा बाजार है और दूसरा सबसे तेजी से बढ़ने वाला बाजार। नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं का हिस्सा भारत के स्वच्छ विकास तंत्र में सबसे बड़ा है।

वर्तमान समय में देश में 57 मेगावाट की 75,000 से अधिक सौर फोटोवोल्टिक प्रणालियां स्थापित की जा चुकी है। सौर ऊर्जा से 3,88,000 घरों में बिजली एवं पंप से पानी की सुविधा प्रदान की जा रही है। लगभग 20,000 रेडियो तथा टेलीफोन सौर ऊर्जा से चल रहे हैं। वर्तमान में 2,78,000 सौर लालटेन, 1,10,000 घरों में बिजली, सड़कों पर 39,000 लाइटें व 3,400 पानी के पम्प स्थापित किए जा चुकी हैं। भारत सिंगल क्रिस्टल सिलिकॉन सोलर सेल का उत्पादन करने वाला विश्व का तीसरा देश बन गया है। सौर ऊर्जा प्रणाली दुनिया की सबसे तेज बढ़त वाली ऊर्जा तकनीक है। हमारे देश में सौर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए सौर वाटर हीटर और सौर कुकर जैसे छोटे-छोटे तापीय यंत्रों का विकास किया गया है। वर्तमान समय तक लगभग 60,000 से अधिक घरों में 50 से 100 लीटर क्षमता के घरेलू वाटर हीटर से लेकर प्रतिदिन 2,40,000 लीटर तक की गरम पानी की क्षमता वाली औद्योगिक एवं व्यवसायिक प्रणालियां विकसित की गई हैं। अब भारत में 6 लाख से भी अधिक सौर कुकर का प्रयोग किया जा रहा है।

देश में विश्व की सबसे बड़ी सौर वाष्प प्रणाली का विकास राजस्थान से माउंट आबू में किया गया है। इससे प्रतिदिन 10,000 लोगों का भोजन पकाया जा सकता है। राजस्थान के जोधपुर जिले के मझडियां गांव में 140 मेगावाट की एक सौर संयुक्त चक्र बिजली सहित 35 मेगावाट की सौर ताप प्रणाली स्थापित की जा रही है। भारत एशिया का एकमात्र देश है जहां सौर तालाब का निर्माण किया गया है। इसी तरह की योजना द्वारा रेगिस्तान एवं अन्य दूरदराज के क्षेत्रों में सौर ऊर्जा विकास हेतु परियोजना तैयार की जा रही है।

देश में सौर ऊर्जा पर किया जाने वाला अधिकतर अनुसंधान दिल्ली स्थित नवीन और नवीकरण ऊर्जा मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाले सौर ऊर्जा केंद्र में किया जाता है। सौर ऊर्जा के विकास एवं अनुसंधान हेतु दिल्ली के निकट गुड़गांव-फरीदाबाद मार्ग पर ग्वाल पहाड़ी में एक केन्द्र की स्थापना की गई है।

हमारे देश में पवन ऊर्जा का उपयोग प्राचीनकाल से ही नाविकों द्वारा व्यापारिक नौकाओं को चलाने के लिए किया जाता रहा है। इतिहासकारों के अनुसार पवन चक्कियों का प्रयोग लगभग 1220 वर्ष पहले सर्वप्रथम चीन में हुआ था। आधुनिक युग में व्यावसायिक स्तर पर पवन ऊर्जा का उपयोग सर्वप्रथम डेनमार्क में हुआ, जहां आज 5000 पवन चक्कियां गांवों में विद्युत आपूर्ति का काम करती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका एवं ब्रिटेन में भी पवन ऊर्जा का पर्याप्त विकास हुआ है। पवन चक्की का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह बिना किसी विशेष देखभाल के दिन रात चल सकती है और इससे प्राप्त ऊर्जा प्रदूषण मुक्त और सस्ती भी होती है।

भारत में पवन ऊर्जा के उपयोग पर संगठित अनुसंधान कार्य सन् 1952 में प्रारम्भ किया गया। भारत में पवन ऊर्जा प्रौद्योगिकी विकास के लिए अपारम्परिक स्रोत ऊर्जा मंत्रालय 1983-84 से योजनाबद्ध तरीके से कार्य कर रहा है। भारत में पवन ऊर्जा प्राप्त करने की अनुमानित क्षमता 45,000 मेगावाट है और वर्तमान में 2483 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है। भारत में अब तक 2,000 से अधिक पवन पम्प लगाए जा चुके हैं, जिनसे खेतों की सिंचाई तथा जल आपूर्ति की जाती है। उत्तर प्रदेश के एक गांव अछैया में 853 एकड़ भूमि की सिंचाई पवन चक्कियों से ही हो रही है। गुजरात, तमिलनाडु, उड़ीसा एवं महाराष्ट्र में छः मेगावाट क्षमता की पवन फार्म योजनाएं लगभग पूरी की जा चुकी हैं, जिनसे 5,00,000 यूनिट बिजली का उत्पादन किया जा रहा है। देश में बड़ी-बड़ी बहुउद्देशीय जलविद्युत् परियोजनाओं के लाभहानि के मूल्यांकन एवं उसके पर्यावरणीय तथा पारिस्थितिकीय दुष्प्रभाव को देखते हुए अब कम क्षमता वाली पनविद्युत् परियोजनाओं पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। भारत में पवनविद्युत् लघु योजनाओं से लगभग 10,000 मेगावाट विद्युत् उत्पादन का अनुमान लगाया गया है और मार्च 2000 के अन्त तक देश में कुल 21 7 मेगावाट की लघु पवनविद्युत् परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है तथा अनेक परियोजनाएं प्रस्तावित है।

हमारी पृथ्वी एक ऊष्मा स्रोत है। इसके आंतरिक भाग में पर्याप्त ऊष्मा पाई जाती है जिसे भू-तापीय ऊर्जा कहते हैं। पृथ्वी की सतह का प्रति वर्गमीटर लगभग 0.06 वॉट ऊर्जा निरंतर विकरित करता रहता है। इस प्रकार पूरी पृथ्वी से निरंतर लगभग 2.2x10 किलोवॉट घंटा ऊर्जा नष्ट होती रहती है।

भू-तापीय ऊर्जा की उत्पत्ति पृथ्वी की आंतरिक ऊष्मा से होती है। ज्वालामुखी क्षेत्रों से निकलने वाले गर्म पानी और वाष्प के फव्वारे भूतापीय ऊर्जा के स्रोत हैं। इस ऊष्मा के कारण भू-गर्भ जल गर्म यानी तप्त हो जाता है जो अनेक स्थानों पर झरना, फौव्वारा आदि के रूप में बाहर निकल आता है। भौतिकशास्त्र के नियम ऊष्मा सदैव अधिक ताप वाली वस्तु से कम ताप वाली वस्तु की ओर बहती है" के अनुसार भूगर्भ में संचित ऊष्मा भू-सतह पर आती है। पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों की ताप प्रवणता में भिन्नता के समान भूगर्भ से सतह पर आने वाली ऊष्मा की दर भी विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होती है। प्राकृतिक गर्म जल के स्रोतों का जीवन काल सामान्यतया 10,000 वर्षों तक का हो सकता है।

पवन ऊर्जा के समान भू-तापीय ऊर्जा भी ऊर्जा का चिरस्थायी स्रोत है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2010 तक भूतापीय ऊर्जा विद्युत् उत्पादन में 50 प्रतिशत की वृद्धि होगी। वर्तमान में भू-तापीय ऊर्जा की भूमंडलीय क्षमता 8500 मेगावॉट है। वर्ष 2006 में इंटरनेशनल जियोथर्मल एसोसिएशन ने अनुमान लगाया था कि वर्ष 2010 तक भूतापीय ऊर्जा 10,700 मेगावॉट तक बढ़ जाएगी।

इन दोनों स्रोतों भू–ताप तथा तप्त-जल से ऊर्जा प्राप्त करने की तकनीक विकसित कर ली गई है। रूस के दागेस्तान में बर्फीले क्षेत्र में भू-गर्भीय ऊर्जा से जल को गर्म करने की विधि उपयोग में लाई जा रही है। इससे प्रतिवर्ष 2 करोड़ 20 लाख घन मीटर तप्त जल की आपूर्ति होती है जिससे आइजरवाश नामक छोटे से कस्बे को ऊर्जा व ऊष्मा मिलती है और अनेक फार्मों के ऊष्म गृहों को भी वांछित तापमान पर रखा जाता है। भू-तापीय ऊर्जा के क्षेत्र में अमेरिका सबसे आगे है। फिलीपीन्स में कुल ऊर्जा उत्पादन में भू-तापीय ऊष्मा से प्राप्त ऊर्जा का योगदान लगभग 20 प्रतिशत है।

घाटी, भारत में भूतापीय ऊर्जा प्रायः गर्म स्रोतों या चश्मों (गीजर्स) के रूप में मिलती है। इन गर्मधाराओं का उपयोग कर लघु बिजली उत्पादन इकाई लगाई जा सकती है। देश में अब तक 340 भू-तापीय गर्म झरनों की खोज की जा चुकी है। जिनमें से करीब 70 हिमालय पर्वत श्रेणी में विभिन्न स्थानों पर स्थित हैं। भारत में अनेक क्षेत्रों से भू-तापीय एवं तप्त-जल ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। भारत में इस तरह के क्षेत्र जम्मू - कश्मीर घाटी, लद्दाख एवं पूगा हिमाचल प्रदेश में कुवल, कांगड़ा, सतलुज नदी की घाटी, हरियाणा में गुडगांव जिला, सिक्किम में रंगीन नदी का पूर्वी एवं पश्चिमी क्षेत्र, लंचुग नदी का पूर्वी किनारा, कंचनजंगा हिमनद का निचला भाग, झारखंड में हजारीबाग, संथाल परगना आदि जिले, मध्य प्रदेश में होशंगाबाद, छिंदवाडा, ग्वालियर जिला, गुजरात में पंचमहल, वड़ोदरा जिला, महाराष्ट्र में थाना, उत्तराखंड में देहरादून, गंगोत्री व यमुनोत्री, राजस्थान में जामपुर जिला मुख्य हैं। जहां भू-तापीय एवं तप्त जल स्रोत से पर्याप्त ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। इन क्षेत्रों के अतिरिक्त असम, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल एवं केरल आदि राज्यों में भी भू-तापीय एवं तप्त - जल स्रोत हैं। इन सभी क्षेत्रों से सीधे विद्युत ऊर्जा प्राप्त करने हेतु भू-ताप एवं तप्त-जल की क्षमताओं का अनुमान लगाया जा रहा है।

समुद्री लहरों, समुद्री ताप ऊर्जा परिवर्तन एवं ज्वारीय भाटों से समुद्री ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। भारत में अभी ज्वारीय ऊर्जा को ही मध्यावधि तौर पर विकसित किया जा रहा है। सूर्य और चंद्रमा के गुरुत्वीय खिंचाव से महासागरीय ज्वार उत्पन्न होता हैं। जिसका इस्तेमाल विद्युत उत्पादन के लिए किया जा सकता है। देश में तकनीकी जानकारी एवं मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव के कारण मात्र ज्वारीय ऊर्जा के उत्पादन के लिए ही प्रयास किए जा रहे हैं। इन स्थानों में गुजरात में कच्छ की खाड़ी, कैम्बे की खाड़ी तथा पश्चिम बंगाल में सुंदरवन क्षेत्र के गंगा का डेल्टा वन है। पश्चिम बंगाल के सुन्दरवन क्षेत्र में दुर्गादुआनी क्रीक में छोटी ज्वार परियोजनाओं का विकास किया जा रहा है। गुजरात राज्य में भी ज्वारीय ऊर्जा संयंत्र की स्थापना की गई है। देश का पहला समुद्री तरंग संयंत्र भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) चेन्नई द्वारा विजिंगन में स्थापित किया जा रहा है।

हाइड्रोजन ऊर्जा को ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने, उसके उत्पादन एवं भंडारण हेतु विभिन्न पहलुओं पर शोध एवं विकास परियोजनाएं संचालित की जा रही हैं। भारत में हाइड्रोजन ऊर्जा संबंधी कार्यक्रम के क्रियान्वयन के लिए एक 'हाइड्रोजन ऊर्जा बोर्ड' का गठन किया गया है ताकि इसके द्वारा हाइड्रोजन ऊर्जा पर राष्ट्रीय हाइड्रोजन ऊर्जा मैप तैयार किया जा सके। नवम्बर 2004 में राष्ट्रीय हाइड्रोजन ऊर्जा रोड मैप तैयार किया गया, जिसमें 2020 तक हाइड्रोजन ईंधन पर आधारित 1,000 मेगावाट क्षमता वाला विद्युत् प्रोजेक्ट को पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। ऊर्जा की यह मात्रा हाइड्रोजन पर आधारित दस लाख वाहनों को चलाने के लिए पर्याप्त होगी।

जैव ईंधन ऐसे द्रव या गैसीय ईंधन हैं जिनका निर्माण बायोमास संसाधनों से किया जाता है। भारत की राष्ट्रीय जैव-ईंधन नीति में गैर-खाद्य तिलहन फसलों के गैर-कृषि योग्य भूमि पर उत्पादन से जैव ईंधन प्राप्त करने पर बल दिया गया है। जैव-ईंधन एवं जैव-इथेनॉल इन दोनों जैव ईंधनों के 20 प्रतिशत सम्मिश्रण का निर्देशक लक्ष्य वर्ष 2017 तक प्राप्त करने का प्रस्ताव रखा गया है।

ये एथेनाल विभिन्न प्रकार के बायोमास यथा शर्करा युक्त पदार्थों (जैसे गन्ना, चुकंदर, मीठे, चारे आदि) स्टार्च युक्त पदार्थों (जैसे मक्का, अनाजों, शैवाल आदि) तथा सेलुलोज पदार्थों (जैसे गन्ने की खोई, लकड़ी के कचरे, कृषि एवं वन्य अपशिष्ट आदि) से निर्मित किया जाता है। भारत में यह मुख्यतः गन्ने की शीरे से बनाया जाता है।

ये वसीय अम्लों के मेथिल या एथिल एस्टर हैं जिनका निर्माण वनस्पति तेलों (खाद्य एवं गैर खाद्य दोनों) अथवा डीजल गुणवत्ता की पशु वसा से किया जाता है।

विभित्र प्रकार के अखाद्य वनस्पति तेलों को जैव डीजल के रूप में परिवर्तित करने हेतु हमारे देश में अनेक शोध कार्य एवं विकास परियोजनाओं के साथ परिवहन के क्षेत्र में जैव ईंधनों के प्रयोग के बारे में संरचनात्मक कार्यक्रम प्रारम्भ किए गए हैं। अनेक योजनाओं के तहत पेट्रोल एवं डीजल में इथेनॉल मिलाकर उसके परीक्षण का कार्य भी चल रहा है।

वैकल्पिक ईंधन के रूप में बायोडीजल की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसको पेट्रोलियम पदार्थों के साथ मिलाकर प्रयोग किया जा सकता है। इसके अलावा बायोडीजल को मिश्रित ईंधन के रूप में प्रयोग करने के लिए डीजल इंजन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं करना पड़ता है। बायोडीजल के निर्माण के लिए सोयाबीन, रतनजोत (जैट्रोफा), अरंडी, महुआ और अलसी आदि कृषि उत्पादों से प्राप्त वसा को वनस्पति तेल या जीव-जंतुओं से प्राप्त वसा को एक विशेष रासायनिक प्रक्रिया (ट्रांस एस्टरीफिकेशन) द्वारा गुजारा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप बायोडीजल प्राप्त होता है।

दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में ऊर्जा की उपलब्धता को सुनिश्चित करने में परमाणु ऊर्जा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। परमाणु ऊर्जा के अंतर्गत नाभिकीय स्रोतों जैसे यूरेनियम एवं थोरियम आदि से ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है। एक किलोग्राम यूरेनियम के सभी परमाणुओं के विखंडित होने पर 3,000 टन कोयले के दहन से प्राप्त ऊर्जा के बराबर ऊर्जा प्राप्त होती है। परमाणु ऊर्जा का उपयोग स्वास्थ्य, कृषि, खाद्य संरक्षण, जल विज्ञान एवं उद्योगों आदि अनेक क्षेत्रों में किया जा सकता है। आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट में परमाण्विक शक्ति का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि 2005 में बिजली आपूर्ति के दूसरे विकल्पों की तुलना में परमाणु ऊर्जा का योगदान 16 प्रतिशत है, जिसे 2030 तक 18 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है।

आज विश्व के अनेक विकसित देशों ने परमाणु ऊर्जा के द्वारा ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली हैं। फ्रांस अपनी ऊर्जा आवश्यकता का लगभग 70 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से प्राप्त करता है। हमारे देश में भी सन् 2020 तक परमाणु ऊर्जा द्वारा 20,000 मेगावाट की बिजली प्राप्ति की संभावना है। परमाणु ऊर्जा का उपयोग भारत को सन् 2050 तक ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना देगा।

बायोगैस एक पर्यावरण सम्मत सस्ता व स्वच्छ ईंधन है। इससे गांवों की आत्मनिर्भरता के साथ-साथ उनके समग्र विकास का मार्ग भी प्रशस्त हो सकेगा। ग्रामीण क्षेत्र में गोबर, मूत्र, कृषि अपशिष्ट आदि बहुतायत में उपलब्ध होता है। अब तो घोड़ों की लीद, मुर्गियों की बीट, कृषि अपशिष्ट, केले के तनों, शहरी व जैविक कचरे आदि को भी बायोगैस संयंत्रों में इस्तेमाल करने के तरीके खोजे जा रहे हैं। धान की खोई एवं गन्ने की खोई से भी बायोगैस प्राप्त करने की विधियां ढूंढ निकाली गई हैं। इनकी मदद से बायोगैस का उत्पादन कर गांवों की ऊर्जा जरूरत को पूरा किया जा सकता है। चीन में पशुओं के गोबर और कूड़े-करकट से किसानों की काया पलट हो चुकी है। उनके घरों में रोशनी, चूल्हा तथा जनरेटर आदि बायोगैस से चल रहे हैं। चीन में इस समय 80 लाख से ज्यादा घरेलू गैस प्लांट सफलता से कार्य कर रहे हैं।

भारत में मवेशियों से प्रतिवर्ष लगभग 98 करोड़ टन गोबर उत्पन्न होता है जिससे सालाना 6.38×1010 घन 10 मीटर बायोगैस का उत्पादन किया जा सकता है। इसके उपयोग से जलावन लकड़ी की बचत होने के साथ कार्बनिक खाद का उत्पादन भी होगा। बायोगैस संयंत्र से प्राप्त अपशिष्ट या स्लरी नाइट्रोजन एवं फास्फोरस के यौगिकों की मौजूदगी के कारण एक उत्तम खाद है। कम्पोस्ट खाद की तुलना में यह खाद दो से चार गुनी अधिक उर्वरता युक्त होती है। बायोगैस से प्राप्त होने वाली ऊर्जा जलावन लकड़ी तथा उपलों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा से अधिक होती है, बायोगैस एक ज्वलनशील गैस है जो नीली ज्वाला के साथ जलती है। इसका कैलोरी मान 4,800 किलोकैलोरी प्रति घन मीटर है। जबकि सीएनजी का कैलोरी मान 8,600 किलो कैलोरी प्रति घन मीटर है। अब सीएनजी की तरह बायोगैस से वाहन चलाने के बारे में सोचा जा रहा है।

भारत सरकार के नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार 1.01 लाख पारिवारिक किस्म के बायोगैस संयंत्र लगाने से लगभग 14 लाख टन जलावन लकड़ी की बचत होने के साथ लगभग 14 लाख टन कार्बनिक खाद का उत्पादन होने की संभावना है। वर्तमान में हमारे देश में लगे पारिवारिक किस्म के बायोगैस संयंत्रों से प्रतिवर्ष लगभग 39.6 लाख टन जलावन लकड़ी की बचत होती है। इन संयंत्रों से प्रतिवर्ष 9.2 लाख टन कार्बनिक खाद का उत्पादन भी होता है। 31 मार्च 2006 तक देश में पारिवारिक किस्म के कुल 38,37,379 बायोगैस संयंत्र स्थापित किए जा चुके हैं।

1- भारत में अभी तक 38 हजार बायोगैस प्लांट लगाये गये हैं। 
2 - गोबर के उपलों के बजाये बायो गैस से दोगुना ईंधन बनता है।
3 - बायो गैस से रोशनी तथा पानी खीचने वाला जनरेटर को भी चलाया जा सकता है।
4 - बायोगैसे बनने के बाद बची खाद में आम गोबर खाद की तुलना में तीन सौ गुना नाइट्रोजन होती है।
5 - खुले गोबर से जो पोषक तत्व हवा व पानी में बरबाद चले जाते हैं। बायो गैस प्लांट से वे सुरक्षित रहते हैं । जो जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
6 - गोबर से मिथेन गैस पर्यावरण को प्रदूषित करती है। गैस बनकर जब वह जलती है तो उससे निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड पर्यावरण को कम प्रदूषित करती हैं।

विश्व के अनेक देशों ने वैश्विक गर्मी को बढ़ाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा की कम खपत करने वाले प्रकाश बल्बों को अपनाने के लिए कानून बनाने पर विचार किया जा रहा है। बाजार में उपलब्ध कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप का कुंडलीकृत रूप 'सीएफएल' तथा प्रकाश उत्सर्जन डायोड (लाइट एमिटिंग डायोड - एलईडी) अपने आकार की तुलना में बहुत अधिक प्रकाश पैदा करने के साथ परंपरागत बल्बों की तुलना में बहुत कम विद्युत् ऊर्जा का उपयोग करते हैं। 

विकसित देशों में एलईडी पर आधारित बल्ब तथा लाइटों का उपयोग किया जाने लगा है। विद्युत ऊर्जा खपत का करीब 15 से 20 प्रतिशत भाग प्रकाश पैदा करने के काम आता है। एक अनुमान के अनुसार अगर दिल्ली में सभी लोग सीएफएल का उपयोग करने लगें तो दिल्ली में 500 मेगावाट से अधिक बिजली की बचत हो सकती है। तापदीप्त बल्ब जितनी ऊर्जा का उपयोग करते हैं, सीएफएल उसके केवल पांचवे भाग में ही उतना प्रकाश पैदा करते हैं। आज हमें बिजली का कुशलतापूर्वक उपयोग करने वाली सीएफएल जैसी प्रौद्योगिकियों को अपनाना होगा तभी प्रदूषण और ऊर्जा संकट को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।

दुनिया भर में ग्रीन टेक्नोलॉजी यानी पर्यावरण मित्र तकनीक ही विकास का अगला आधार साबित होगी। पर्यावरण मित्र तकनीक की सबसे ज्यादा जरूरत ऊर्जा के क्षेत्र में ही है। इसके तहत वैकल्पिक ईंधनों के विकास से लेकर कम से कम ईंधन में ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा पैदा करने की नई तकनीकों का विकास शामिल है। 

आज कुछ कंपनियां स्वचालित घरों का निर्माण करने की दिशा में कार्य करने के साथ ऐसी तकनीकों के आविष्कार में लगी है जो घर में मौजूद बिजली के उपकरणों को कम से कम ऊर्जा से चलाएं।

इसके अलावा अधिक ईंधन दक्ष वाहन, विद्युत, हाइब्रिड एवं प्लग-इन हाइब्रिड वाहन, ईंधन सेल, बड़े पैमाने पर कार्बन प्रग्रहण एवं भंडारण तथा शून्य ऊर्जा भवन के नए डिजाइन एवं विकास संबंधी नई प्रौद्योगिकियों की ऊर्जा संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। 

ऐसी प्रौद्योगिकियों को अपनाने की आवश्यकता पर जोर दिया जा रहा है, जिनसे जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने वाले विद्युत संयंत्रों में बिजली के उत्पादन में कटौती होने के साथ ईंधन का उपयोग कम हो। नई प्रौद्योगिकियों का उपयोग करने के अलावा कार्बन के उत्सर्जन को कम करने की दिशा में अनेक देशों में महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण नवाचार ग्रीन हाउस उत्सर्जन ट्रेडिंग (कार्बन ट्रेडिंग) का विकास होना है। कई देशों में कार्बन उत्सर्जन करने वालों पर प्रति यूनिट के हिसाब से टैक्स लगाने पर भी विचार किया जा रहा है।

निम्न कार्बन अर्थव्यवस्था पर विचार करते हुए कृषि, पशुधन एवं वानिकी क्षेत्र से संबंधित कुछ विशेष कदम उठाने पर जोर दिया जा रहा है। कृषि क्षेत्र के लिए यह विचार व्यक्त किया जा रहा है कि खाद्यान्न का उत्पादन उपभोक्ताओं के निकटतम क्षेत्रों में किया जाए, ताकि परिवहन में होने वाली ईंधन की खपत में कमी के साथ प्रदूषण से भी बचा जा सके। इसी प्रकार विभिन्न फसलों की ऊर्जा आवश्कताओं में अंतर को ध्यान में रखते हुए ग्रीनहाउस गैसों के कम उत्सर्जन वाली फसलों को बढ़ावा देने की बात की जा रही है।

विश्व के अनेक देशों में जल विद्युत् का ऊर्जा आपूर्ति में महत्वपूर्ण योगदान है इस तथ्य को ध्यान में रखने हुए जल संरक्षण के लिए पारंपरिक तरीकों को अपनाने की ओर जनमानस का ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। वानिकी क्षेत्र प्रबंधन से यह अपेक्षा की जा रही है कि वह मिट्टी आधारित कार्बन रिजर्व को नुकसान न पहुंचाए। इसी प्रकार औद्योगिक क्षेत्रों को सौर पैनल को बढ़ावा देने के साथ ऊर्जा का न्यूनतम उपयोग करने की सलाह दी जा रही है। ऐसा माना जा रहा है कि नवीनीकरण ऊर्जा कार्बन रहित अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार बन सकती है।

विश्व के कुछ देशों में कम कार्बन उत्सर्जन, हाइड्रोजन चालित वाहन, स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों तथा जैव-ईंधन का उपयोग करने के साथ औद्योगिक और आवासीय दोनों ही क्षेत्रों में ऊर्जा का कुशलता से इस्तेमाल करने पर ध्यान दिया जा रहा है। जर्मनी इस समय समूचे विश्व में उत्पादित पवन ऊर्जा का 40 प्रतिशत भाग उत्पादित करता है और वह पवन टरबाइन बनाने में सबसे आगे है। इसी प्रकार ब्राजील को इथेनॉल उत्पादन में सफलता मिली है जिससे जीवाश्म ईंधनों पर उसकी निर्भरता कम हो गई है।

आज किसी भी देश के विकास की क्षमता को वहां विद्युत ऊर्जा की खपत द्वारा समझा जा सकता है। भारत की विद्युत ऊर्जा की वार्षिक खपत लगभग 480 किलोवाट घंटा है। जबकि अमेरिका में प्रति व्यक्ति विद्युत् ऊर्जा की वार्षिक खपत लगभग 13,680 किलोवाट घंटा है। वर्तमान में भारत की 65 प्रतिशत विद्युत का उत्पादन तापीय या जीवाश्म ईंधन के द्वारा किया जाता है। लेकिन जीवाश्म ईंधनों की सीमित मात्रा को देखते हुए हमें नवीकरणीय या अपरंपरागत ऊर्जा की ओर ध्यान देना होगा। अभी भारत की 7 प्रतिशत विद्युत ऊर्जा अपरंपरागत ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त होती है। भारत जैसे विकासशील देश को ऊर्जा की अधिक उपलब्धता की आवश्यकता है। इस दिशा में भारत में नवीकरणीय ऊर्जा के विकास की असीमित संभावनाएं हैं। भारत में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, भूगर्भ ऊर्जा, तप्त जल ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा, गोबर ऊर्जा, पन ऊर्जा, बायोमास ऊर्जा, बायोगैस ऊर्जा एवं कूड़ा-करकट से प्राप्त ऊर्जा आदि वैकल्पिक ऊर्जा के अनेक स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है।

ऊर्जा की दीर्घकालीन पूर्ति में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की अहम भूमिका होगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए भारत में नवीकरणीय ऊर्जा की ओर पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। भारत में गैस परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के विकास की पर्याप्त संभावनाएं हैं। अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् 2050 तक भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकता का 50 प्रतिशत भाग वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों से पूरी कर लेगा। पश्चिम बंगाल में भारत के सबसे पहले सौर फोटोवोल्टिक संयंत्र की आधारशिला रखी गई है। यह एशिया का दूसरा सबसे बड़ा सौर संयंत्र होगा।

भावी पीढ़ियों के लिए इस ग्रह को बेहतर बनाए रखने के लिए हमें प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर जलवायु परिवर्तन की समस्या का सामना करना होगा। इसके लिए कार्बन की कम मात्रा उत्सर्जन करने वाले ईंधनों के राष्ट्रीय मानक तय करने के साथ नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके जीवाश्म ईंधन की खपत में कमी करनी होगी। इस दिशा में स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश कर वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना होगा। तेजी से बढ़ती विश्वव्यापी ऊर्जा खपत को देखते हुए भारी मात्रा में पूरक सहायता और प्रोत्साहन देकर वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल का संकल्प लेना होगा। वृक्षारोपण और चरागाहों का विकास करने वाले किसानों और पशुपालकों को प्रोत्साहित करने संबंधी नीतियों के क्रियान्वयन पर जोर देकर सभी को धरती की हरियाली को बरकरार रखने का प्रयास करना चाहिए। ऊर्जा सेवाओं का आधुनिकीकरण कर गरीबी दूर करना और आर्थिक विकास को गति देना भी आवश्यक है। इसके तहत विकासशील देशों को भी ऐसी प्रौद्योगिकी का उपयोग करना होगा जो उनकी जलवायु पर दुष्प्रभाव न डाले ताकि पृथ्वी का वातावरण सदा जीवन के लिए अनुकूल बना रहे।

स्रोत:- प्रदूषण और बदलती आबोहवाः पृथ्वी पर मंडराता संकट, श्री जे.एस. कम्योत्रा, सदस्य सचिव, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, दिल्ली द्वारा प्रकाशित मुद्रण पर्यवेक्षण और डिजाइन : श्रीमती अनामिका सागर एवं सतीश कुमार

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