अपने फ़ार्मास्यूटिकल और आईटी उद्योग के लिए देशभर में मशहूर हैदराबाद अब अपनी झीलों के लिए भी जाना जाएगा। चारमीनार जैसी ऐतिहासिक इमारत और हुसैन सागर झील की खूबसूरती से पर्यटकों को आकर्षित करने वाली तेलंगाना राज्य की राजधानी के नज़ारों को तकरीबन दो दर्ज़न पुनर्जीवित झीलें और भी बेहतर बनाएंगी। शहर की इन झीलों के जीर्णोद्धार का बीड़ा उठाया है हाइड्रा के नाम से जानी जाने वाली हैदराबाद डिजास्टर मैनेजमेंट एंड ऐसेट प्रोटेक्शन एजेंसी ने।
टीओआई की रिपोर्ट के मुताबिक, हाल ही में हैदराबाद में बथुकम्मा झील को पुनर्जीवित करने वाली सरकारी एजेंसी हाइड्रा ने शहर की छह झीलों के जीर्णोद्धार का कार्य शुरू किया है। दी हिन्दू की रिपोर्ट बताती है, कि एजेंसी ने 14 और झीलों के जीर्णोद्धार के लिए सरकार को प्रस्ताव भेजा है।
हाइड्रा का यह कदम न केवल जल संसाधन को बचाने की पहल है, बल्कि शहरी पारिस्थितिकी, बाढ़ नियंत्रण, पर्यावरण-संरक्षण और हैदराबाद वासियों के जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाने का भी मिशन है।
पिछले कुछ वर्षों में बढ़ते अवैध अतिक्रमण, गंदगी, तलछट भराव और ड्रेनेज के गंदे पानी के प्रदूषण ने शहर की ज़्यादातर झीलों को बर्बाद कर दिया। अतिक्रमण ने जहां झीलों के दायरे को समेट दिया, वहीं प्रदूषण ने पानी में सड़ांध पैदा करके झील के पूरे इको सिस्टम को तहस-नहस कर दिया।
इस सबके चलते हैदराबाद की ये झीलें किसी नाले या गंदे तालाब सी दिखने लगीं। इसे देखते हुए साल 2024 में स्थापित हाइड्रा ने इस दिशा में ठोस कार्रवाई शुरू करते हुए पहले छह झीलों के पुनरुद्धार पर काम शुरू किया। उसके बाद अब उसने 14 और झीलों को बहाल करने का प्लान मंज़ूरी के लिए सरकार के पास भेजा है।
हाइड्रा यानी हैदराबाद डिज़ास्टर मैनेजमेंट एंड ऐसेट प्रोटेक्शन एजेंसी, तेलंगाना का एक सरकारी निकाय है। यह ग्रेटर हैदराबाद म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (जीएचएमसी) के अधीन काम करती है। जुलाई 2024 में तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने सरकार के प्रवर्तन, सतर्कता और आपदा प्रबंधन (ईवीडीएम) विंग की जगह हाइड्रा का गठन किया।
इसे ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम (जीएचएमसी) की सीमा और आसपास के इलाकों में जल निकायों पर अवैध अतिक्रमण से निपटने के लिए अधिकृत निकाय के रूप में शुरू किया गया। इसके कर्मचारियों की संख्या लगभग 800 से बढ़ाकर 2,200 कर दी गई और इसके अधिकारी सीधे नगर प्रशासन और शहरी विकास के प्रमुख सचिव या स्वयं मुख्यमंत्री के अधीन आ गए।
इस एजेंसी को शहर की सार्वजनिक संपत्तियों, झीलों, नालों, सड़कों और आपदा प्रबंधन से जुड़ी परिसंपत्तियों की सुरक्षा और पुनरुद्धार के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। हाइड्रा की कमान इसके महानिदेशक यानी डायरेक्टर जनरल के हाथों में होती है। वर्तमान में आईपीएस अधिकारी ए वी रघुनाथ इसके महानिदेशक हैं। हाइड्रा की फंडिंग और कार्यप्रणाली पूरी तरह सरकारी है। इसको झीलों की निगरानी, अतिक्रमण हटाने और उनके जीर्णोद्धार जैसे कामों के लिए राज्य सरकार से ही बजट मिलता है।
हाइड्रा ने अपनी स्थापना के बाद से अब तक हैदराबाद की विभिन्न झीलों व जलाशयों के इर्दगिर्द 166 अतिक्रमणों को हटाकर करीब 43.54 एकड़ ज़मीन को अतिक्रमण मुक्त किया है। सबसे ज़्यादा 54 अतिक्रमण गजुलारामरम इलाके में चिंतल चेरुवु (झील) के किनारे से हटाए गए। उसके बाद राजेंद्र नगर में भुमरुक दौला झील के किनारे 45 अतिक्रमण हटाए गए।
हैदराबाद में पेयजल के प्रमुख स्रोतों में से शामिल गांधीपेट झील के आसपास से कुल 24 अतिक्रमणों को ध्वस्त किया गया। हाल ही में हाइड्रा के ज़रिये हैदराबाद में पुनर्जीवित बथुकम्मा झील पर बथुकम्मा का उत्सव बड़े पैमाने पर मनाया गया है। इसके बाद एजेंसी ने शहर की छह झीलों के जीर्णोद्धार का कार्य शुरू करने की घोषणा की और 14 और झीलों के जीर्णोद्धार के लिए प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करके सरकार को भेजी है।
झीलों और तालाबों जैसे प्राकृतिक जलाशयों के बदहाल होने का असर आसपास के इलाकों में भूजल के स्तर में गिरावट के रूप में भी देखने को मिलता है। हैदराबाद में भी ऐसा देखने को मिला है। न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक हैदराबाद और उसके आसपास की झीलों के सिमटने की वजह से इनके निकटवर्ती क्षेत्रों में भूमिगत जल (ग्राउंड वाटर) का स्तर भी बहुत तेजी से गिरा है।
उदाहरण के लिए हाल के वर्षों में आरके पुरम झील के लगभग सूख जाने के कारण इसके आस-पास के इलाकों में बोरवेल सूखने लगे हैं। इससे करीब 40,000 परिवारों को पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है। भूमिगत जल में इस तरह की कमी से उत्पन्न होने वाला जल संकट सिर्फ घरेलू इस्तेमाल तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे किसानों की खेतीबारी और अन्य जलापूर्ति आधारित गतिविधियों में भी बाधा पहुंचती है।
हैदराबाद जैसे कई शहरों में भूजल पुनर्भरण की प्रक्रिया मुख्यत: झीलों के माध्यम से ही होती है। झीलों में पर्याप्त पानी होने पर ग्राउंड वाटर का एक बफर ज़ोन बनता है और भूमिगत जल का प्रवाह भी सुचारु रहता है। इसके उलट, अतिक्रमण के कारण झीलों का दायरा सिमटने और इनके भर न पाने से भूजल के रिचार्ज की प्रक्रिया भी बाधित हो जाती है।
इससे आपपास के इलाकों में जल संकट उत्पन्न हो जाता है। इसलिए ग्राउंड वाटर लेवल को सही स्तर पर बनाए रखने के लिए झीलों का पानी से भरा रहना ज़रूरी है।
हैदराबाद और उसके आसपास का क्षेत्र, विशेष रूप से पाटनचेरु और मेडक ज़िले, भारत में फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग के केंद्रों में शुमार हैं। यह उद्योग बड़ी मात्रा में दवाओं और रसायनों का उत्पादन करते हैं, जिसमें उपयोग होने वाले कई एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इंग्रीडिएंट्स (एपीआई) अस्थिर, विषाक्त और कैंसरकारी (कार्सिनोजेनिक) घटक होते हैं।
विशेषज्ञ एवं शोध रिपोर्टों के अनुसार, इन कारखानों से निकलने वाला अनट्रीटेड या अधूरे ढंग से ट्रीट किए गए सीवेज में भारी धातुएं और ज़हरीले रासायनिक यौगिक होते हैं। यह सीवेज नालों के ज़रिये आसपास की कई झीलों में बहाया जा रहा है। इस प्रदूषण की वजह से झीलों का पारिस्थितिक तंत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
उदाहरण के लिए, सखी झील (पाटनचेरु क्षेत्र) के पानी में घुलित ऑक्सीजन (डी.ओ.) का मान 2.9 मिलीग्राम प्रति लीटर तक गिर गया, जो जलीय जीवन के लिए खतरनाक स्तर है। इसी प्रकार, चेंजिंग मार्केट्स की एक रिपोर्ट बताती है कि हैदराबाद के औद्योगिक सीवेज में एंटीबायोटिक अवशेष भी पाए गए।
कुछ मामलों में इनका स्तर काफ़ी ज़्यादा मिला। एनडीटीवी की रिपोर्ट में ऐसी ही एक और चौंकाने वाली घटना वर्ष 2017 में सामने आई जब गंडिगुडेम झील (काज़ीपल्ली के पास) में लगभग 23 लाख मछलियां मरी हुई पाई गईं। इसका कारण उस इलाके की दवा कंपनियों द्वारा अपना रासायनिक सीवेज झील में छोड़ा जाना बताया गया, जिससे ऑक्सीजन स्तर गिर गया और जलीय जीव मर गए।
एक रिपोर्ट के मुताबिक दवा कंपनियों के इस प्रदूषण ने एंटीमाइक्रोबियल रेज़िस्टेंस (एएमआर) यानी रोगाणुओं की दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने की समस्या को भी बढ़ावा दिया है। क्योंकि झीलों में अत्यधिक मात्रा में एंटीबायोटिक अवशेष मौजूद रहने से जीवाणुओं में इनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर दी है।
अपने प्रस्ताव में हाइड्रा ने झीलों को अतिक्रमण और प्रदूषण मुक्त कर उनका जीर्णोद्धार करने के साथ ही, झीलों के आसपास पेड़ लगाकर हरियाली भरा माहौल तैयार करने की भी सिफारिश की है। ऐसा इन झीलों के ईको सिस्टम में जैव विविधता को बढ़ावा देने के लिए किया गया है।
हाइड्रा ने वनस्पतिशास्त्रियों और अन्य लोगों के सुझावों के आधार पर झीलों के आसपास देशी प्रजातियों के वृक्षों की एक सूची तैयार की है। ऐसे वृक्षों का चुनाव किया गया है जो स्थानीय माहौल में आसानी से पनप सकें और जिससे पक्षियों और अन्य जीवों को भी भोजन और आश्रय मिल सके।
इस बारे में उस्मानिया विश्वविद्यालय में प्राणी विज्ञान की प्रोफ़ेसर चेमेला श्रीनिवास का कहना है कि पक्षियों के अलावा, तितलियां, ड्रैगनफ़्लाई और टेरापिन जैसे अन्य जीव भी झीलों जैसे स्थानीय जलस्रोतों के पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर होते हैं। इसलिए, झीलों के इर्दगिर्द पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए व्यापक योजना की आवश्यकता है। इसमें पेड़ों और जीवों की देशी प्रजातियों को शामिल करना आवश्यक है। अगर ईको सिस्टम को मज़बूत बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया, तो झीलों का पुनरुद्धार लंबे समय तक टिकाऊ नहीं रहेगा।
प्रो. श्रीनिवास की इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि हैदराबाद बर्ड एटलस तैयार कर रही टीम में शामिल पक्षी विज्ञानियोंने पाया कि शहर की सीमा के भीतर के जल निकाय प्लास्टिक और कचरे के ढेर से बुरी तरह प्रदूषित थे। झीलें जलकुंभी से भरी पड़ी थीं और उनके चारों ओर चल रही मानवीय गतिविधियां इनके ईको सिस्टम को बाधित कर रही थीं। इसे देखते हुए ही पक्षीविज्ञानियों ने पक्षियों की संख्या बढ़ाने के लिए स्थानीय वनस्पतियों को बढ़ाने का सुझाव दिया था। इस एटलस को हैदराबाद बर्डिंग पाल्स, डेक्कन बर्डर्स और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया जैसे संगठन मिलकर तैयार कर रहे हैं।
पुनर्जीवित की जा रही झीलों को टिकाऊ और ईको फ़्रेंडली बनाने के लिए पर्यावरणविदों और पक्षीविज्ञानियों ने कई उपयोगी सुझाव दिए हैं। इसकी मुख्य बातें इस प्रकार हैं -
झीलों और उनके किनारों का निर्माण करते वक्त इस बात का खास खयाल रखा जाए कि इन्हें कंक्रीट से न बनाया जाए। पक्के निर्माण के लिए पत्थर जैसी प्राकृतिक सामग्री का उपयोग किया जाए।
झीलों के पास बनाए जाने वाले पैदल पथों (पाथवे) और पानी के किनारों के बीच देशी प्रजाति के पेड़-पौधों की हरित पट्टी (ग्रीन बेल्ट) बनाई जाए।
जल की गुणवत्ता की निरंतर निगरानी की व्यवस्था हो और ज़रूरत पड़ने पर इसमें तत्काल सुधार के भी पुख्ता इंतज़ाम किए जाएं।
झीलों के आसपास कचरे के प्रबंधन में सुधार किया जाए, इसके लिए अपशिष्ट निपटान का बुनियादी ढांचा तैयार करना ज़रूरी है।
झीलों में जलकुंभी और मॉर्निंग ग्लोरी जैसे आक्रामक जलीय खरपतवारों के नियंत्रण के इंतज़ाम ज़रूर किए जाएं।
झीलों के पुनरुद्धार के साथ ही, उनमें रहने वाले जीवों के प्राकृतिक आवास की सुविधाओं को पुनर्स्थापित किया जाए। इसके लिए झीलों के आसपास देशी जलीय पौधे और नदी तटों पर उगने वाली वनस्पतियां लगाई जाएं।
लोगों को झीलों के प्राकृतिक वातावरण का आनंद लेने की सुविधा देने के लिए किनारों पर पक्षी-दर्शन स्थलों के साथ ही पानी के बीच में सुरक्षित तैरते हुए प्लेटफार्म या छोटे द्वीप बनाए जाएं।
एक रिपोर्ट के मुताबिक डेक्कन क्षेत्रीय केंद्र के भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण के वैज्ञानिक डॉ. एल. रसिंगम ने एक सूची तैयार करके झीलों के किनारे लगाए जाने के लिए कुछ देशी पेड़ों के नाम सुझाए हैं। यह पेड़ पक्षियों और अन्य प्राणियों को आकर्षित करके झीलों की जैव विविधता को बनाए करने में मदद करते हैं:
साइज़ियम क्यूमिनी (एल.) स्कील (जामुन)
मैंगिफेरा इंडिका एल. (आम)
फिलैंथस एम्बेलिका एल. (आंवला)
फ़िकस सैप (अंजीर)
ज़िज़िफ़स मॉरिटिआना लैम। (भारतीय बेर)
बॉम्बैक्स सीबा एल. (सिल्क कॉटन)
थेस्पेसिया पॉपुल्निया एल.(सोल)
लिमोनिया एसिडिसिमा एल. (लकड़ी का सेब)
प्रोसोपिस सिनेरिया एल. ड्रूस (जम्मी चेट्टू)
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया के हैदराबाद कार्यालय की राज्य निदेशक फरीदा तंपाल के मुताबिक, झीलों के आसपास जलीय आर्द्रभूमि पर पाए जाने वाले पौधों की प्रजातियों जैसे साइपरस (तुंगा गद्दी) या टायफा (जम्मू गद्दी या एनुगाजामू) आदि को बढ़ावा देना आवश्यक है। जलीय पौधों की ऐसी लगभग 110 प्रजातियां हैं, जिन्हें झीलों के आसपास लगाया जा सकता है।
उन्होंने बताया कि जामुन, बबूल, बांस आदि जलस्रोतों के पास अच्छी तरह उगते हैं। जलीय आर्द्रभूमि के पौधे भी अच्छा आवास प्रदान करते हैं और उन्हें भी झीलों के आसपास मौजूद होना चाहिए। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि झीलों के बांधों पर बड़े पेड़ न लगाने का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि वे झील के तटबंधों को तोड़ सकते हैं।
हैदराबाद की झीलों के बारे में कुछ दिलचस्प बातें
झीलों का शहर: हैदराबाद को पहले “झीलों का शहर” कहा जाता था। बीसवीं सदी की शुरुआत तक शहर में 300 से अधिक प्राकृतिक और कृत्रिम झीलें थीं। इनमें से कई को निज़ामों के शासनकाल में सिंचाई, पेयजल और बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाया गया था।
सबसे पुरानी झील (हुसैन सागर): साल 1563 में इब्राहिम क़ुतुब शाह ने हुसैन सागर झील को बनवाया था। यह झील मूसी नदी से जुड़ी है और कभी पेयजल का प्रमुख स्रोत थी। यह झील शहर की पहचान है। इसके बीच में लगी विशालकाय बुद्ध प्रतिमा को साल 1992 में स्थापित किया गया था।
नैकनपुर झील की हरी क्रांति: एक समय में प्लास्टिक और कचरे से ढकी रहने वाली नैकनपुर झील को स्थानीय नागरिकों और ग्रेटर हैदराबाद म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन (जीएचएमसी) के प्रयासों से पुनर्जीवित किया गया। द हंस की रिपोर्ट के मुताबिक यह झील अब देश की सबसे बड़ी तैरती उपचारित आर्द्रभूमि (फ्लोटिंग ट्रीटमेंट वेटलैंड) का घर है, जिसे गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी जगह मिली है।
मूसी नदी से कई झीलों को मिला जीवन: हैदराबाद के आसपास की कई झीलों को मूसी नदी से पानी मिलता है। इस नदी से दुर्गम चेरुवु, सरूरनगर, कपरा झील जैसी कई छोटी झीलें जुड़ी हुई हैं। इन झीलों को कभी मूसी नदी की बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए ही बनाया गया था। मूसी नदी में बाढ़ आने पर उसके पानी को इन झीलों में भेजा जाता था। इस तरह यह झीलें न सिर्फ बाढ़ को को रोकती थीं, बल्कि शहर के “नेचुरल वाटर रिज़र्व” के रूप में भी काम करती थीं।
टेक हब के बीच वॉटर हब: हैदराबाद का हाईटेक सिटी इलाका, जहां कई टेक व आईटी कंपनियां स्थित हैं, उसी क्षेत्र में दुर्गम चेरुवु स्थित है, जिसे सीक्रेट लेक भी कहा जाता है। झील के किनारे बना स्काई वॉक अब शहर का नया आकर्षण बन चुका है।
अतिक्रमण की भेंट चढ़ीं आधी से ज़्यादा झीलें : 1990 के दशक से अब तक हैदराबाद की आधी से ज़्यादा झीलें खत्म हो गई हैं या सिमट चुकी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक शहर की तकरीबन 61% झीलें पिछले 44 सालों में सूख चुकी हैं। साल 1996 में जहां तीन सौ से ज़्यादा झीलें दस्तावेंजों में दर्ज़ थीं, साल 2020 तक उनमें से केवल 185 ही बचीं।
जलकुंभी की ‘हरी चुनौती’ : शहर की कई झीलें, खासतौर पर कपरा, मीर आलम और सरूरनगर झील समय-समय पर जलकुंभी से पूरी तरह ढक जाती हैं। नगर निगम हर साल लाखों रुपये खर्च कर इनकी सफाई कराता है, क्योंकि जलकुंभी झील की ऑक्सीजन को घटा देती है, जिससे मछलियां मरने लगती हैं।
झीलों के नामों से झलकता इतिहास : शहर की कई झीलों के नाम जैसे मीर आलम टैंक, सरूरनगर झील, येलम्मा चेरुवु, कपरा चेरुवु आदि स्थानीय राजाओं, देवी-देवताओं या इलाकों के नाम पर रखे गए हैं। तेलुगु भाषा में “चेरुवु” का अर्थ होता है झील या तालाब।
निज़ामों की जलनीति की गवाह : हैदराबाद की ज़्यादातर झीलें निज़ामों के शासनकाल में बनाई गई हैं। इस तरह, ये निज़ामों की जलनीति भी जानकारी देती हैं। निज़ामों के शासन में झीलों की देखरेख के लिए अलग विभाग हुआ करता था। यह विभाग कैस्केड प्रणाली की मदद से बारिश के पानी का प्रवाह झीलों की ओर मोड़ कर इन्हें पानी से भरापूरा रखने के प्रबंध करता था। यह प्रणाली ऐसी थी कि जब एक झील भरती, तो उसका अतिरिक्त पानी अगली झील में चला जाता था।
झीलों के लिए हुए कई आंदोलन: पिछले एक दशक में सेव द लेक्स, हैदराबाद राइजिंग और हुडा सिटिज़न्स फोरम जैसी नागरिक संस्थाओं ने झीलों के पुनर्जीवन के लिए कई जन-अभियान और आंदोलन चलाए हैं। इन अभियानों की वजह से कई झीलें फिर से नगर निगम की संरक्षण सूची में शामिल की गईं।