अनुपम मिश्र ने अपनी किताब आज भी खरे है तालाब में लिखा था कि सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रगट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई दहाई मिलकर सैंकड़ा हजार बनती थी।
अनुपमजी के उक्त वक्तव्य का सीधा सच्चा आशय यह है कि भारत की मानसूनी जलवायु में जहाँ साल के आठ माह अमूनन सूखे रहते हैं वहाँ तालाबों ने साल भर पानी उपलब्ध करा कर, अपनी उपयोगिता सिद्ध की थी। उनके निर्माण का मतलब था समाज के लिए भरोसेमन्द सर्वकालिक और सर्वभौमिक जल उपलब्धता की गैरन्टी और बरसात पर आधारित खरीफ तथा रबी की फसलों के लिए किसी हद तक नमी का संम्बल। यह खासियत तालाब खोदने मात्र से हासिल नही हुई थी। यह खासियत हासिल हुई थी तत्कालीन जल मनीषियों के लम्बे अवलोकनों तथा स्थानीय घटकों के असर को समझने के बाद। तत्कालीन जल विज्ञानियों ने इलाकों की विविधता को ध्यान में रख, तालाबों के पीछे के अद्यतन विज्ञान को ध्यान में रखकर ही तालाब निर्माण किया जाता होगा एवं डिजायन को मान्यता दी होगी। उन्हें कालजयी बनाने का प्रयास किया होगा। इसी कारण राजस्थान के थार मरूस्थल से लेकर मेघालय तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, सभी क्षेत्रों में उनको निर्विवादित मान्यता मिली। खूब निर्माण हुआ। हर जगह अलग अलग नामों से उनका वजूद मिलता है। जुदा-जुदा परिस्थितियों के बावजूद, उनका एक ही लक्ष्य था - खेती को सम्बल और पानी की आवश्यक मात्रा की भरोसेमन्द आपूर्ति। इन्ही विशिष्टताओं के आधार पर माना जा सकता है कि भारत के परम्परागत जल विज्ञान पर आधारित तालाबों का विकास इन्हीं मूलभूत आवश्यकताओं अर्थात खेती और निस्तार को केन्द्र में रख हुआ होगा।
अब कुछ बात परम्परागत तालाबों के चरित्र और लक्षणों की। यही लक्षण उन्हें प्रथक पहचान प्रदान करते है। स्थानीय भूविज्ञान के आधार पर पुराने तालाबों को स्टोरेज तालाब और परकोलेशन तालाबों की श्रेणियों में बांटा जा सकता है। स्टोरेज तालाब वह तालाब है जिसकी तली और पानी के सम्पर्क में आने वाली परतों से पानी का रिसाव बहुत कम होता हो और उसमें संचित जल की मात्रा उसके आयतन के बराबर हो। समाज ने इन तालाबों की गहराई पर्याप्त रखी थी ताकि वाष्पीकरण के बाद बचे पानी से आवश्यकताओं को साल भर पूरा किया जा सके। कई बार वर्ण व्यवस्था के कारण अतिरिक्त तालाब भी खोदा जाता था।
दूसरी श्रेणी परकोलेशन तालाब की है। परकोलेशन तालाब वह तालाब है जिसकी तली और पानी के सम्पर्क में आने वाली सरन्ध्र परतों से पर्याप्त मात्रा में पानी का रिसाव होता हो और उसमें संचित जल की मात्रा उसके आयतन से काफी अधिक हो। परम्परागत समाज के जल वैज्ञानिकों द्वारा इन तालाबों की गहराई रिसाव वाली परत तक रखी जाती थी ताकि एक्वीफर का पेट भर सके। बुन्देलखंड में इस श्रेणी के तालाब बहुतायत से मिलते हैं। परकोलेशन तालाबों ने वाष्पीकरण के बाद बचे पानी की मदद ने पेय जल, निस्तार और नमी को सम्बल प्रदान किया था। यही उनकी मान्यता का आधार था। यही उनकी खासियत थी।
परम्परागत तालाबों की एक और विशेषता है। उनमें बहुत कम मात्रा में गाद जमा होती है। यह गुण उस विशिष्ठ या खास तकनीकी सम्बन्ध के कारण संभव हुआ है जिसके कारण रन-आफ के साथ आने वाली गाद का अधिकांश हिस्सा, तालाब से बरसाती पानी के साथ निकल जाता है और तालाब में लगभग साफ पानी ही जमा होता है। अर्थात रन-आफ, जल संचय तथा जल निकासी की विलक्षण व्यवस्था के कारण उनका गाद निपटान काबिलेतारीफ है। यह खासियत आधुनिक तालाबों में नहीं पाई जाती। आधुनिक तालाबों का निर्माण पाश्चात्य विज्ञान के आधार पर किया जाता है इसलिए उनमें परम्रागत तालाबों की उपर्युक्त खासियत नहीं मिलती।
निर्माण के उपरान्त प्राचीन तालाबों को बदलाव के किस-किस दौर से गुजरना पडा होगा, कहना बहुत कठिन है क्योंकि बदलावों का कोई लिखित दस्तावेज या इतिहास उपलब्ध नहीं है। पटवारी रिकार्ड में कहीं कहीं कुछ विवरण मिलते हैं पर सभी तालाबों के मामले में यह सही नहीं है। इसके अतिरिक्त, उनमें किए सुधार या स्वरुप बदलाव का लेखा-जोखा अनुपलब्ध है। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्र भारत में अनेक पुराने तालाबों की क्षमता बढाने का काम हुआ है। यह काम 60 साल पहले तत्कालीन सेन्ट्रल वाटर एन्ड पावर कमीशन की पहल पर हुआ था। ज्ञातव्य है कि वेस्टवियर की ऊँचाई में किए बदलाव के प्रमाण तो आसानी से उपलब्ध हैं पर सभी तालाबों के मामले में समग्र विवरणों का मिलना थोडा कठिन है। उल्लेखनीय है कि जब कोई व्यक्ति परम्परागत तालाब पर काम करता है तो सामान्यतः वेस्टवियर की ऊँचाई में किए बदलाव का संज्ञान नहीं लेता। वह, अनजाने में मौजूदा ऊँचाई को मूल ऊँचाई मान लेता है। इस गलती के कारण तालाब के परम्परागत विज्ञान को समझने में चूक हो जाती है। इस चूक से बचने के लिए परम्परागत तालाब के मूल वेस्टवियर का सभी दृष्टि से अध्ययन आवश्यक है।
परम्परागत तालाब के वेस्टवियर के अध्ययन में उनके निर्माण में प्रयुक्त सीमेंन्टिंग मेटेरियल का अध्ययन आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि प्राचीन तालाब जिनका निर्माण सीमेंट के भारत में उपयोग के पहले हुआ है, की जुडाई चूने से की गई थी। अर्थात जुडाई के आधार पर प्राचीन तालाबों को आसानी से पहचाना जा सकता है। यदि वेस्टवियर की मूल सतह पर सीमेंट का प्रयोग दिखता है तो माना जा सकता है कि उसकी मूल डिजायन को बदला गया है। ऐसी हालत में वेस्टवियर की मूल सतह की ऊँचाई को संज्ञान में लेकर आवश्यक गणना की जा सकती है। कुछ पुराने तालाबों के वेस्टवियर चट्टानों को काटकर बनाए गये थे। ऐसे तालाबों की पाल पर वाटर मार्क मिलते हैं पर यदि वेस्टवियर की मूल सतह की ऊँचाई को बढ़ाया गया है तो मौजूदा वाटर मार्क हालिया हैं। उनका उपयोग नहीं किया जा सकता।
अन्त में, आधुनिक तालाब और परम्परागत तालाब, प्रयुक्त विज्ञान के अन्तर के कारण पूरी तरह जुदा हैं। उल्लेखनीय है कि भारत में परम्परागत तालाबों के शिक्षण की व्यवस्था का पूरी तरह अभाव है। अर्थात जब तक शिक्षा की व्यवस्था नहीं होगी तो काम करने के लिए प्रशिक्षित अमला अनुपलब्ध होगा। उस समय यदि पुराने तालाबों के पुनरोद्धार पर काम किया जाता है तो वह समग्र प्रयास नहीं होगा। वह काम करने वाले की समझ पर आधारित होगा। यह बहुत बडी कमी है। इस कमी के कारण परम्परागत तालाबों की खासियत को न तो पूरी तरह समझा गया है और न सही काम हो पा रहा है। इस कमी को यथाशीघ्र दूर किया जाना चाहिए।