दुनिया भर में संस्कृतियों का विकास नदियों के किनारे हुआ। इन संस्कृतियों पर प्रहार एवं नदियों का प्रदूषण एक साथ हुआ। औद्योगिक सभ्यता का विकास एवं उस विकास का प्रतिनिधित्व करने वाले नगर, ये दोनों नदियों के प्रदूषण का कारण बने। वस्तुत: नदी ही नहीं, भूमंडल पर सभी तरह के प्रदूषणों एवं इकाेलॉजी को जो खतरा है, उसका कारण वर्तमान औद्योगिक विकास है। इसीलिए कहा जाता है कि नदियों को शुद्ध करने की जरूरत नहीं है। बस उन्हें प्रदूषित न करें, वे अपने को स्वयं शुद्ध करती जाती हैं। नदियों के फेफड़े, उनके बगल के कछार होते हैं। कछारों पर बस्ती बसाना बंद करें, क्योंकि कछार सारे प्रदूषण को अवशोषित कर लेते हैं। कछार नदियों का हिस्सा हैं, उनसे अलग नहीं। इसलिए उच्च बाढ़ विन्दु जैसे शब्दों का प्रयोग बंद करें, क्योंकि वहां तक नदियों का फैलाव उनका सहज स्वरूप है, उनकी आक्रामकता नहीं।उसी तरह नदी एवं नदी के बगल में विकसित संस्कृतियों व समुदायों को अलग करके न देखें। ऐसा करके, नदियों के प्रदूषण की समस्या को महज तकनीकी दृष्टि से देखा जाने लगता है। नदियां संस्कृतियों एवं समुदायों का हिस्सा हैं।
गंगा नदी एवं उसकी सहायक नदियों से निर्मित बेसिन ने दुनिया के सबसे बड़े आबादी वाले क्षेत्र को विकसित किया। यहां की जमीन सबसे उपजाऊ रही तथा इसी कारण इस क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व सबसे ज्यादा रहा है। इस क्षेत्र में बसने वालों की संख्या 40 करोड़ से अधिक है। गंगा के प्रति एक धार्मिक आस्था भी रही है। कहा जाता है कि गंगा का पानी कभी अशुद्ध नहीं होता था। वर्तमान प्रदूषण के दौर के पहले तक लोग गंगा का पानी भर-भर कर ले जाते थे और सालों साल उसमें कोई विकार नहीं आता था। इतना ही नहीं, गंगा की एक विशेषता यह भी थी कि जो सहायक नदियां और जलधाराएं गंगा में मिलती हैं, गंगा से मिलकर वे भी गंगा के इस गुण को ग्रहण कर लेती थीं।
गंगा के आसपास का क्षेत्र सैकड़ों प्रजातियों के वृक्षों (जिनमें फलदार वृक्ष भी शामिल हैं) से आच्छादित एवं तमाम प्रकार के जीवों का जीवनदायी क्षेत्र रहा है। नदी के जीवों, उसके आसपास के लघु वनों तथा जनजीवों को भी संरक्षित करने की आवश्यकता है। अत: नदी को केवल प्रदूषण मुक्त करने की बात पर्याप्त नहीं है, बल्कि प्राकृतिक हक सबका है। नदी व उसके आसपास के क्षेत्र में उन हकों को भी संरक्षित करना होगा। इन संदर्भों में विकास पर पनुर्विचार की जरूरत है।
गंगा को निर्मल ही नहीं करना है, उससे जुड़े सभी का अधिकार ही नहीं संरक्षित करना है, बल्कि उसकी अविरल धारा को भी बनाये रखने की जरूरत है। विकास के नाम पर गंगा पर बने 900 से अधिक बांध एवं बैराज गंगा के प्रवाह को बाधित कर रहे हैं। बिना प्रवाह में सुधार लाये, गंगा का पुनर्जीवन संभव नहीं है। इतना ही नहीं, सीवेज व मल, ठोस कचरा, औद्योगिक कचरा एवं उद्योगों से निकले रसायन, गंगा की जीवनदायीनी क्षमता को निरंतर कम करते जा रहे हैं। गंगा में सबसे ज्यादा कचरा उत्तर प्रदेश में छोड़ा जाता है।
एक और खतरा है, जिससे सावधान रहने की जरूरत है। दुनिया भर में एक नये चलन की शुरुआत हो चुकी है और वह है जल स्रोतों के प्रबंधन एवं जल के वितरण पर पूंजीवादी कारपोरेट जगत का बढ़ता नियंत्रण। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के दो निजी और एक सरकारी बांध संचालक ने गंगा का प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए बनी गाइडलाइन (दिशा निर्देश) मानने से इनकार कर दिया है। पर्यावरणीय प्रवाह के नियम सितंबर 2018 में गंगा की सफाई और पुनरोद्धार के लिए बने नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा द्वारा अधिसूचित किये गये थे एवं 15 दिसंबर 2019 से लागू हो गये हैं। बांधों का संचालन निजी हाथों में सौंपे जाने पर उनका क्या रूख होगा, यह स्पष्ट है।
आने वाले समय में गंगा नदी पर परिवहन की बड़ी परियोजनाएं लागू करने का निर्णय हो चुका है। ये नदी परिवहन व्यवस्था भी कारपोरेट इकाइयों के हाथों सौंप दी जायेगी। उन्हें परिवहन को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए कई अधिकार भी दे दिये जायेंगे और गंगा पर कारपोरेट कंट्रोल का विस्तार होता जायेगा।
नदियाें का ही नहीं, निजी इकाइयों द्वारा झीलों, तालाबों, भूगर्भ-जल एवं अन्य जल स्रोतों का भी एकमुश्त वृहद मात्रा में उपयोग बढ़ता गया है, जिससे हम पानी के निजीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। शहरी जल आपूर्ति के निजीकरण के अनुभव कटु रहे हैं। प्रकृति प्रदत्त जल की शुद्धता को बनाये रखने के लिए जरूरी है कि जल प्रबंधन एवं वितरण को निजी हाथों में सौंपे जाने के सभी प्रयसों का सशक्त विरोध हो।