Table 1: Geographic Coverage of the Ganga-Karnali-Ghaghara River Basin across the Countries | ||||||
बेसिन / उप- बेसिन | क्षेत्रफल (किमी2)) | बेसिन में मुख्य देश | बेसिन में देश का क्षेत्र (किमी2) | % बेसिन का क्षेत्रफल | % देश का क्षेत्रफल | औसत वार्षिक अपवाह |
गंगा | 1,087,300 | भारत | 860,000 | 79 | 26.00 | ~ 525 बीसीएम ~16,640 m3/sec |
चीन | 33,500 | 3 | 0.35 | |||
नेपाल | 147,500 | 14 | 100.00 | |||
करनाली घाघरा |
127,950 | बांगलादेश | 46,300 | 4 | 32.00 | ~ 113 बीसीएम ~3,581 m3/sec |
नेपाल | 68,000 | 53 | 46.10 | |||
भारत | 57,500 | 45 | 1.75 | |||
चीन (तिब्बत) | 24,50 | 2 | 0.01 | |||
बीसीएम= बिलियन क्यूबिक मीटर; स्रोत: AQUASTAT FAO, 2011; इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर मॉडलिंग, 2010 | ||||||
• नेपाल, भारत और बांग्लादेश के बेसिन क्षेत्र की जनसंख्या अनुमानतः 34 करोड़ (पूरे गंगा बेसिन में करीब आधा अरब लोगों का घर है) है।
• बेसिन मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्र है, यहाँ बहुत अधिक गरीबी और मूलभूत सुविधाओं की कमी है; इनमें से कुछ इलाके सभी मानव विकास सूचकों में काफी नीचे हैं।
• इन नदियों पर जल-विद्युत उत्पादन और सिंचाई के लिये बाँध और बैराज जैसी प्रमुख संरचनाएँ हैं। ऊर्जा के मामले में एक कमजोर देश होने की वजह से नेपाल का जोर प्रमुखतः बिजली उत्पादन पर है (उदाहरण के लिये, नियोजित करनाली हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजना), जबकि बांग्लादेश और भारत का फोकस सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण पर है।
• ऊपरी नेपाल बेसिन की प्रमुख समस्या सुखाड़ है और नेपाल, भारत एवं बांग्लादेश के निचले हिस्सों में बाढ़। अपनी जलोढ़ विशेषता के कारण इस बात की आशंका रहती है कि भारत में घाघरा अपनी धारा को बदल सकती है।
• गंगा की सहायक नदियाँ जैसे यमुना आदि इस क्षेत्र की अत्यधिक प्रदूषित नदियों में से एक है। इसके प्रमुख प्रदूषणकारी स्रोत हैं, औद्योगिक कचरा, शहरी सीवेज आदि।
• सूखा, बाढ़, बिगड़ती जल गुणवत्ता (जैसे आर्सेनिक और लवणता में बढ़ोत्तरी) और ऊपरी इलाकों में वनों की कटाई और क्षरण के कारण नदी के निचले इलाके में भारी मात्रा में गाद जमा होता है, जो इस इलाके के निवासियों के बीच जल असुरक्षा को जन्म देता है। इन सभी कारणों ने मत्स्य पालन को प्रभावित किया है, नौकायन को बाधित किया है, और पानी की गुणवत्ता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये खतरा पैदा कर दिया है।
अन्तरराष्ट्रीय नदियों के जल उपयोग पर 1966 का हेलसिंकी नियम:'प्रत्येक बेसिन राज्य अपने क्षेत्र में,एक अंतरराष्ट्रीय जल निकासी के जल के फायदेमंद उपयोगों में उचित हिस्सेदारी का हकदार है.' उचित हिस्सेदारी निर्धारित करने वाले कारकों में शामिल हैं: | |
• प्रत्येक राज्य/राष्ट्र बेसिन का भूगोल और जल निकासी क्षेत्र • बेसिन का जल विज्ञान • बेसिन क्षेत्र को प्रभावित करने वाली जलवायु • पूर्व उपयोग • प्रत्येक बेसिन राज्य की आर्थिक और सामाजिक आवश्यकताएं • इस जल पर निर्भर जनसंख्या • जल उपयोग में अनावश्यक अपशिष्ट का बचाव | • अन्य संसाधनों की उपलब्धता • प्रत्येक बेसिन राज्य की आर्थिक और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के वैकल्पिक साधनों की तुलनात्मक लागत • उपयोगकर्ताओं के बीच संघर्ष के समाधान के साधन के रूप में एक या अधिक सह-बेसिन राज्यों को मुआवजे की व्यवहारिकता • एक बेसिन राज्य की जरूरतों के लिये एक सह-बेसिन राज्य को पर्याप्त आघात किये बिना राज्य को संतुष्ट किया जाना |
स्टॉकहोम घोषणा 1972राज्यों को अपनी की पर्यावरण नीतियों के अनुसार अपने खुद के संसाधनों का फायदा उठाने का अधिकार है; लेकिन इसके साथ ही यह सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी भी है कि उनके अधिकार क्षेत्र की गतिविधियों से अन्य राज्यों के पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुँचे. | |
पर्यावरण और विकास पर रियो सम्मेलन, 1992 का एजेंडा 21 (विशेषकर 18.4 और 18.5 खंड): साझा जल का उपयोग करने वाले जल साझीदार देशों के बीच सहयोग, जल संसाधन रणनीतियों को विकसित करने और सामंजस्य बनाने की आवश्यकता. यह एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (आईडब्ल्यूआरएम) के ढांचे को विशेष महत्व देता है. | |
अधिकार और दायित्व (अन्तरराष्ट्रीय जल संसाधनों के गैर-नौवहन उपयोग के कानून पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, 1997): | |
• बेसिन राज्यों द्वारा समुचित उपयोग और सहभागिता • अन्य बेसिन राज्यों के लिये अपेक्षाकृत नुकसान की रोकथाम • अन्य तटीय राज्यों पर पड़ने वाले संभावित प्रतिकूल प्रभावों के साथ अधिसूचित करना • पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा और संरक्षण | • आंकड़े और सूचनाओं का नियमित आदान-प्रदान • किसी एक उपयोग को दूसरे पर वरीयता देने की कोई अंतर्निहित प्राथमिकता नहीं • प्रदूषण की रोकथाम, कमी और नियंत्रण • आपात स्थितियां से संबंधित अधिसूचना और सहयोग |
यद्यपि इन अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों और घोषणाओं में नदी प्रबंधन से संबंधित भागीदारी को बढ़ावा देने की पर्याप्त संभावनाएं हैं, लेकिन वे कानूनी नियम नहीं बंधे हैं और इसलिये ये राष्ट्रों पर बाध्यकारी नहीं हैं। यद्यपि इन सभी सिद्धांतों को अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों और घोषणाओं में जोड़ा गया है, जो तटीय समुदायों के लिये काफी प्रासंगिक हैं, मगर यहाँ समुदायों के लिये कोई संस्थागत स्थान नहीं है, जहाँ वे अन्तरराष्ट्रीय नदियों के प्रबंधन में भागीदारी कर सकें, साथ ही अन्तरराष्ट्रीय नदियों के संबंध में समुदाय के दृष्टिकोण को समझने के लिये कोई प्रयास किये जा रहे हों।
‘शारदा बैराज लेटर ऑफ एक्सचेंज’
के नाम से हुआ था। शारदा, घाघरा की एक सहायक नदी है, जो करनाली का भारतीय भाग है। यह समझौता भारत और नेपाल के बीच के बाद के सभी समझौतों, संधियों और परियोजनाओं के लिये ऐतिहासिक अग्रदूत था और इसे महाकाली संधि, 1996 के एक भाग के रूप में शामिल किया गया है।
2 - महाकाली संधि, 1996 :
इस संधि के दायरे में शारदा बैराज, टनकपुर बैराज और प्रस्तावित पंचेश्वर परियोजना शामिल हैं। इस व्यवस्था के मुताबिक, नेपाल सूखे के मौसम (16 अक्टूबर से 14 मई) के दौरान 4.25 एमक्यूब/सेकेंड पानी और आर्द्र मौसम में (15 मई से 15 अक्टूबर) 28.34 एमक्यूब/ सेकेंड पानी इस्तेमाल कर सकता है। टनकपुर में, इस संधि के मुताबिक नेपाल को पूर्वी एफ्लक्स बाँध से आर्द्र मौसम में 28.3 एमक्यूब/सेकेंड पानी और शुष्क मौसम में 8.5 एमक्यूब/सेकेंड लेने का अधिकार होगा। जब पंचेश्वर परियोजना अस्तित्व में आएगी और टनकपुर में शुष्क मौसम में पानी की उपलब्धता बढ़ने लगेगी तो नेपाल को अतिरिक्त पानी प्रदान किया जाएगा। इस बारे में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है कि भारत को क्या वापस किया जाएगा। संधि के बाद, शारदा बैराज के निकट नदी के बाएँ और दाएँ किनारे भारत के नियंत्रण में आ गए। इसे नेपाल के प्रति अनुचित व्यवहार माना गया और बाद के सभी समझौतों में यह असन्तोष उभर कर सामने आया।
3 - जीएमआर-नेपाल संधि 2014:
नेपाल सरकार और एक भारतीय निजी कॉरपोरेट एजेंसी, जीएमआर (ग्रांदी मल्लिकार्जुन राव) द्वारा करनाली ट्रांसमिशन कम्पनी प्राइवेट के साथ 2014 में एक और संधि की गई। जीएमआर अपर करनाली हाइड्रोपॉवर लिमिटेड 900 मेगावाट अपर करनाली हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजना (यूकेएचईपी) को विकसित कर रहा है, जो नेपाल के दाइलेख, सुरखेट और अछम जिलों में स्थित है। करनाली नदी पर स्थित इस समझौते के अनुसार, नेपाल की बिजली का हिस्सा स्थापित क्षमता का केवल 12 प्रतिशत (मानसून के मौसम में 108 मेगावाट और सर्दियों के मौसम में 36 मेगावाट) रखा गया है और यह भी वाणिज्यिक दर पर है। नेपाल में कई लोग इस समझौते को भारतीय कम्पनी को मिली छूट मानते हैं। इस क्षेत्र में 'करनाली बचाओ' के नाम से एक स्थानीय आन्दोलन भी संचालित हो रहा है।
ऊपरी करनाली परियोजना का एक लम्बा इतिहास रहा है और जैसा कि कई अध्ययनों का सुझाव है, इसे बहुत कम लागत पर (4180 मेगावाट की) एक बड़ी परियोजना माना जाता था और मुख्य रूप से घरेलू बिजली की जरूरतों को पूरा करने वाली। नेपाल में बड़ी संख्या में घरों में बिजली की सुविधा नहीं है और यह देश गम्भीर बिजली संकट को झेल रहा है। यही कारण है कि नेपाल में इस परियोजना के खिलाफ भारी आक्रोश है।
• ये दोनों समझौते विवाद में फंस गए हैं और काफी हद तक नेपाल के एक बड़े हिस्से की वास्तविक जरूरतों और आवश्यकताओं के प्रति असंवेदनशील हैं. • तटीय समुदायों के कई महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे, जल और ऊर्जा सुरक्षा, खतरे(जैसे बाढ़), प्रदूषण इत्यादि, भारत और नेपाल के बीच अन्तरराष्ट्रीय जल साझेदारी की समझ का हिस्सा नहीं हैं. • चूंकि इसमें स्थानीय समुदायों की भागीदारी नहीं हैं, स्थानीय ज्ञान और अनुभव, मुद्दों, धारणाओं और आकांक्षाओं, अंतरराष्ट्रीय जल साझाकरण व्यवस्था में कभी नहीं दर्ज होते हैं. |
इस प्रकार, नेपाल और भारत के बीच करनाली-घाघरा बेसिन से संबंधित मौजूद समझौतों ने तटीय समुदायों के सामने पेश किसी भी ठोस मुद्दे का समाधान नहीं किया है। इसके बदले, इसने दोनों देशों के बीच तनाव और प्रतिस्पर्धा को ही बढ़ावा दिया है।
गंगा संधि 1996:
आखिरकार एक तीस साल की संधि पर 1996 में हस्ताक्षर किया गया, जो बांग्लादेश को न्यूनतम हिस्सेदारी की गारंटी देती है: यदि उपलब्ध पानी 70,000 क्यूसेक कम है तो आधा पानी और अगर अनुमानित पानी 70,000 क्यूसेक से अधिक है तो कम-से-कम 35,000 क्यूसेक पानी। यदि प्रवाह 75,000 क्यूसेक से अधिक है, तो भारत को 40,000 क्यूसेक सुनिश्चित किया जाता है।
पिछले समझौतों में गंगा में असाधारण रूप से कम प्रवाह के मामलों से निपटने के प्रावधान शामिल थे। 1996 की संधि में ऐसी कोई भी धारा शामिल नहीं की गई है। इसके बजाय, संधि ने उस परिस्थिति को सम्बोधित किया कि अगर फरक्का में किसी भी दस दिनों की अवधि में 50,000 क्यूसेक से नीचे का प्रवाह हो और कहा गया है कि ऐसी स्थिति में,
'दोनों सरकारें तत्काल परामर्श करेगी ताकि आपातकाल के आधार पर इसे समायोजन किया जा सके, ताकि समता के सिद्धान्तों के साथ, निष्पक्ष काम हो और किसी भी पक्ष को कोई नुकसान नहीं हो।'
संधि पर हस्ताक्षर करने के दो महीने के अन्दर ऐसी स्थिति पैदा हुई, क्योंकि गंगा नदी में प्रवाह मार्च 1997 में दस दिन की अवधि के लिये निर्धारित स्तर से नीचे चला गया। अगस्त में संयुक्त नदी आयोग (जेआरसी) की एक आपात बैठक की योजना बनाई गई थी; हालांकि स्थिति सुधर गई और बैठक को स्थगित कर दिया गया।
विभिन्न अध्ययनों से यह पता चलता है कि बैराज ने पारिस्थितिकी, कृषि और अन्य आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव डाला है, खासकर बांग्लादेश के उपजाऊ और अत्यधिक आबादी वाले डेल्टा क्षेत्र में। बांग्लादेश में यह धारणा तेजी से बनी है कि भारत सूखे के महीनों में गंगा नदी के प्रवाह के एक हिस्से को गुप्त रूप से अलग कर लेता है, जिससे सूखे के मौसम में प्रवाह कम होने पर बांग्लादेश में गम्भीर जल संकट और पर्यावरणीय क्षति हो रही है। इस आरोप को भारत द्वारा खारिज कर दिया गया है और वह कहता है कि बांग्लादेश को उपयोग से अधिक पानी मिलता है और बहुत पानी 'व्यर्थ' चला जाता है।
खराब मौसम के दौरान पानी को मोड़ना बांग्लादेश के लिये विनाशकारी हो सकता है और गम्भीर सूखे का कारण बन सकता है।
इस संधि की प्रमुख कमियाँ ये हैं: 1. दूसरे अधिकांश द्विपक्षीय, बहुपक्षीय समझौतों के विपरीत इसमें मध्यस्थता के लिये कोई अन्य प्रावधान शामिल नहीं है 2. इसमें पानी की गुणवत्ता या प्रदूषण से निपटने का समाधान नहीं है। 3. इसमें किसी भी तरह की सामुदायिक भागीदारी की कमी है और स्थानीय सन्दर्भो को ध्यान में नहीं रखा गया है। गंगा पर एक बैराज बनाने की बांग्लादेश की कथित योजना एक और विवादित मुद्दा बन रही है। जाहिर है, इस परियोजना को 2027 तक पूरा किया जाना है और विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार है। भारत की चिन्ता यह है कि यह उसके इलाके में बाढ़ के खतरे को बढ़ाएगा। |
अन्तरराष्ट्रीय जल वार्ता की उच्च राजनीति में, स्थानीय लोगों की चिन्ताओं और बेसिन प्रबन्धन रणनीतियों और समझौतों पर पहुँचने की प्रक्रिया में जनता को शामिल करने की आवश्यकता की अक्सर अनदेखी की जाती है। विश्व के अन्तरराष्ट्रीय बेसिनों में संघर्षों का समाधान और सहयोग की उपलब्धि, स्थिरता और सुरक्षा, लोकतंत्र और मानव अधिकारों को मजबूत बनाने, वातावरण-मानसिक गिरावट में कमी, और पीने के पानी और स्वच्छता तक पहुँच में सुधार सहित प्रमुख लाभ लाएगी। लेकिन नागरिकों की भागीदारी और सभी स्तरों पर नागरिक समाज के लोगों की भागीदारी के बिना, इनमें से कोई भी लाभ जमीन पर सुरक्षित नहीं होगा'
इस प्रकार, यह पानी के बँटवारे को व्यवस्थित करने और उनके संचालन में विभिन्न तटीय समुदायों की चिन्ताओं और दृष्टिकोणों को शामिल करने का एक स्पष्ट मामला है।
i. जीवन के लिये पानी :
बेसिन में सभी लोगों के लिये पीने, खाना-पकाने और स्वच्छता की जरूरतों को पूरा करने के लिये स्वीकार्य गुणवत्ता वाला पर्याप्त पानी उपलब्ध कराएँ और जानवरों के लिये अलग से।
ii. पारिस्थितिक तंत्र के लिये जल :
जलीय जीवन और अन्य पारिस्थितिकीय कार्यों के लिये नदी प्रणाली में पर्याप्त जल प्रवाह और पानी सुनिश्चित कराएँ।
iii. आजीविका स्थायित्व के लिये जल :
सार्वजनिक उपयोग के लिये न्यायसंगत उपयोग और सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए उत्पादक गतिविधियों को सक्षम कराएँ।
iv. परिवर्तन के अनुकूलन के लिये जल :
वर्तमान और भविष्य के जनसांख्यिकीय, आर्थिक और भूमि उपयोग में परिवर्तन और जलवायु परिवर्तन के लिये भण्डार बनाए रखें।
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