स्वतंत्रता के दौरान, भारत में बांधों की संख्या नगण्य थी, लेकिन आजादी के बाद से यह अत्यधिक बढ़ गई। बाढ़ नियंत्रण, जल आपूर्ति, विद्युत उत्पादन और सिंचाई करने के लिए बड़े पैमाने पर बांधों को बनाया गया। स्वतंत्रता के दौरान, भारत में तकरीबन 300 बड़े बांध थे। इसलिए बांधों को मल्टीपल रिवर वैली प्रोजेक्ट्स के रूप में जाना जाता था। वर्ष 2000 तक बांधों की संख्या लगभग 4000 से अधिक हो गई थी, जिनमें से आधे से अधिक बांधों का निर्माण 1971 और 1989 के बीच किया गया था। आजादी के बाद भारत में हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा गर्व के साथ उनकी विशेषताओं, परिपूर्णताओं, परिष्कार और स्थायित्व के कारण बांधों को आधुनिक भारत के मंदिरों के रूप में घोषित किया गया था। यह सोचा गया कि बांध ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था को अपने शहरी औद्योगिक समकक्षों से जोड़ने (कनेक्ट) में मदद करेंगे। 1955 में सतलुज नदी पर भाखड़ा नांगल बाँध का उद्घाटन करते हुए नेहरू ने आधुनिक भारत में बांधों के लिए यह नया नाम दिया। यह सोचा गया था कि बांध नए भारत में विकास के स्तंभ बनेंगे। हालांकि, 1980 के दशक तक भारत में बड़े बांधों पर किये गये सार्वजनिक निवेश विवादों से घिर गये और सरदार सरोवर परियोजना लंबे समय तक विवादों का विषय रही जिसने पूरे देश को झकझोर दिया और हिला कर रख दिया। नर्मदा आंदोलन कुछ समस्याओं को स्पष्ट करने और समझाने में मदद करेगा जो हमारे देश में पानी के मुद्दे की मुख्य विशेषता है। आइए हम इन मुद्दों पर गौर करें क्योंकि ये देश में बढ़ती पर्यावरणीय समस्याओं की ओर सही इशारा करते हैं।
सबसे पहले, जैसा कि आप जानते हैं, जल विवाद एक संसाधन के आवंटन के मुद्दे और | इसमें शामिल लागतों और लाभों के संबंधित क्षेत्रों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। दूसरे, आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि यह मुद्दा नियंत्रण से बाहर हो सकता है, खासकर अगर कोई परिसंघ (फेडरेशन) विवाद के विषय में हैं या किसी फेडरेशन का प्रश्न है, जहाँ दो या अधिक राज्य और केंद्र सरकार के क्षेत्राधिकार विवाद में शामिल हो जाते हैं। तीसरा,
नदी के ऊपर, नदी के प्रवाह की ओर या नदी के बहाव के (अपस्ट्रीम डाउनस्ट्रीम) संघर्ष में नदी के पानी को साझा करते समय समस्याएं समान रूप से जटिल हो जाती हैं। एक ओर पर्यावरण कार्यकर्ताओं और दूसरी ओर सरकार या राज्य के बीच संघर्ष की मध्यस्थता करते समय समस्याओं की गंभीरता और बढ़ जाती है। इसलिए जैसा कि आप आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि पानी जैसे दुर्लभ संसाधन को वितरित करना वास्तव में हमारे जैसे तीसरी दुनिया के देश के लिए एक मुश्किल मुद्दा है।
नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर परियोजना शायद भारत में क्रियान्वित की जाने वाली सबसे शक्तिशाली और सबसे महंगी बहुउद्देश्यीय नदी घाटी परियोजनाओं में से एक थी। जैसा कि आप जानते हैं कि नर्मदा नदी गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश द्वारा संयुक्त रूप से साझा की जाती है और इसलिए परियोजना की शुरुआत से ही विवादों और संघर्षो ने घेर लिया। यह उ म्मीद की गई थी कि यह बांध गुजरात और राजस्थान में लगभग 1.8 मिलियन हेक्टेयर भूमि के बड़े हिस्से को सिंचित करेगा और 40 मिलियन से अधिक लोगों को पीने के पानी की आपूर्ति करेगा। आने वाले तीस वर्षों के लिए बांध में लगभग 1450 वाट जल विद्युत उत्पादन की स्थापित क्षमता होगी। इस प्रकार बांध ने बड़े वादों और मजबूत संकल्पों के साथ जो उड़ान भरी उसे निभाना मुश्किल हो गया था। आइए अब हम इस शक्तिशाली नदी के स्थान की जाँच करें जिस पर बाँध बनाया गया था। इससे हमें इसके सामरिक महत्व को समझने के साथ-साथ इसके विवाद के स्रोत का पता लगाने में मदद मिलेगी।
नर्मदा नदी मध्य प्रदेश (एमपी) के शहडोल जिले में स्थित मैकल पर्वतमाला में अमरकंटक से निकलती है। यहां नदी तल की ऊंचाई 1,051 मीटर (3,468 फीट) है। यहाँ नदी पश्चिम की ओर जाती है और आगे चलकर इसमें लगभग 41 प्रमुख सहायक नदियों का समागम होता है। नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र लगभग 98,796.8 वर्ग किमी है, इसके पूर्व में मैकाल पर्वतमाला, उत्तर में विंध्य पर्वत और दक्षिण में सतपुड़ा पर्वतमाला स्थित हैं। नदी मध्य प्रदेश के शहडोल, मंडला, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद खंडवा (पूर्वी निमाड़) खरगोन (पश्चिम निमाड़) जिलों से होते हुए बहती है। नदी झाबुआ जिले (एमपी) महाराष्ट्र में धूलिया जिले और गुजरात में बड़ौदा - भरूच जिलों के बीच एक दुर्जेय सीमा बनाती है।
भरूच जिले से गुजरते हुए नदी खंभात की खाड़ी में समाप्त होती है (देखें: पटेल 1994:1957)। इसलिए, ऐसा लगता है कि नदी वास्तव में जल का एक अंतरराज्यीय संसाधन है जिसे तीन पड़ोसी राज्यों द्वारा साझा किया जाता है, लेकिन तीनों राज्यों का आपस में विवाद होने के कारण उनका सर्वसम्मति से एक निर्णय पर पहुंचना मुश्किल हो रहा है। नदी एक लंबा रास्ता तय करती है और कई क्षेत्रों की भौगोलिक विशिष्टताओं और लक्षणों के कारण इसे घुमावदार रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है। जैसा कि आपने देखा यह प्रबल, महान और शक्तिशाली नदी, जिसकी लंबाई और चौड़ाई बहुत विस्तृत और व्यापक है लेकिन इसकी विविध परिधियाँ | अपने साथ महत्त्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक अंतर्धाराएं लाती है जिसके कारण बांध निर्माण प्रक्रियाओं का और भी अधिक राजनीतिकरण हो जाता है। नदी की कुल लंबाई 1312 किमी हैं और नदी का बेसिन क्षेत्र कुल 98,800 किमी का है जिसमें मध्य प्रदेश का लगभग 88 प्रतिशत महाराष्ट्र में 2 प्रतिशत और गुजरात में 10 प्रतिशत क्षेत्र शामिल है।
नदी पर मानव शोषण का एक तीव्र दबाव है जिसके परिणामस्वरूप नदी की गहराई (बेसिन) एक दिल दहलाने वाली भयानक और खौफनाक सीमा तक कम हो गई है। अत्यधिक जनसंख्या का बढ़ता हुआ दबाव पलायन, प्रवास और बेतरतीब बस्तियाँ असंगठित एवं अव्यवस्थित भूमि उपयोग कृषि विस्तार, लकड़ी, ईंधन और चारे की मांग, पशुओं द्वारा अधिक चराई, घुसपैठ आदि नदी के बेसिन पर बढ़ते हुए दबाव के कुछ संभावित कारण थे। इस प्रकार यह पहले से ही स्पष्ट है कि नदी का बेसिन हमेशा से सभी संभावित कारणों के घेरे में रहा है। इस प्रकार नदी के आसपास के विवाद इन कारणों से भी बढ़ गए थे।
नर्मदा सूर्पनेश्वर के रास्ते गुजरात में प्रवेश करती है जो महाराष्ट्र और गुजरात के बीच लगभग 35 किमी की सीमा बनाता है। गुजरात में नर्मदा की कुल लंबाई 165 किमी है। गुजरात में नर्मदा का जलग्रहण क्षेत्र लगभग 10,000 वर्ग किमी है। यह विशेष क्षेत्र आदिवासी बहुल आबादी वाले क्षेत्रों में स्थित है जो कि गुजरात से संबंधित नहीं है। अक्सर यह दावा किया जाता है कि राज्यों के कलह और विवाद का सबसे बड़ा बिंदु यह है कि नर्मदा परियोजना का सबसे बड़ा लाभार्थी गुजरात राज्य होगा, लेकिन यह दो अन्य राज्यों, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की कीमत पर किया जाएगा। आपको यह जानकर हैरानी और आश्चर्य होगा कि इन राज्यों के वनों और प्राकृतिक संसाधनों के बड़े भूभाग का अधिग्रहरण कर लिया जाएगा। हजारों लोग, जिनमें ज्यादातर जनजातियां होंगी, वे इस क्षेत्र से उजाड़ दी जाऐंगी।
1969 में, गुजरात राज्य ने नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के समक्ष बांध बनाने का प्रस्ताव रखा राज्य ने दावा किया कि बांधों से अधिशेष और अतिरिक्त पानी का संग्रह करके एक जलकोष का निर्माण किया जाऐगा, जिससे स्वच्छ पेयजल, सिंचाई और बिजली उत्पादन करने के अलावा, आर्थिक रूप से कमजोर और कम उपजाऊ क्षेत्रों में जल की आपूर्ति की जा सकती है। इस प्रस्ताव को चुनौती देते हुए मेधा पाटकर ने छत्तीस दिवसीय मार्च आयोजित किया जो नर्मदा घाटी के पड़ोसी राज्यों के बीच एकजुटता का प्रतीक होगा और साथ ही सरकार और विश्व बैंक के लिए एक सीधी चुनौती होगी। उन्होंने विश्व बैंक और राज्य को इस तरह की परियोजना से हटने के लिए एक विरोध के प्रतीक के रूप में छत्तीस दिनों तक चलने वाले एक मार्च का आयोजन किया। समग्र रूप से बुनियादी विकास परियोजना का अनुपालन न करने के कारण पर्यावरण मंत्रालय के आदेश पर परियोजनाओं को पहले ही निलंबित कर दिया गया था।
आइए मेधा पाटकर के बारे में थोड़ा जान लें। सन् 1985 में, जैसे ही यह खबर देश के मध्य और पूर्वी हिस्सों में फैली, मेधा पाटकर और उनके कुछ सहयोगियों ने बांध स्थल का दौरा करना शुरू कर दिया। वह लोगों के विस्थापन की जटिलता, भयावहता और अहमियत पर हैरान थी और इसलिए नर्मदा चरणग्रस्त समिति (एनसीएस) या नर्मदा विस्थापित संघ की स्थापना की, जो अंततः मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों में गांधीवादी संगठनों के साथ एनसीएस के सहयोग से नर्मदा बचाओ आंदोलन के रूप में विकसित हुई।
मेधा ने घाटी के निवासियों और वहाँ के लोगों से उनकी पीडा और दर्द को समझने की बात उठायी। उनमें से अधिकांश को यह नहीं पता था कि सरकार क्या कर रही है और उन्हें किस प्रकार का पुनर्वास प्रदान किया जाएगा। अगले वर्ष यानी 1986 में, विश्व बैंक से सरदार सरोवर परियोजना के समर्थन में राज्य का पक्ष लेने का अनुरोध किया गया था। पाटकर ने महसूस किया कि परियोजना को स्थगित करने और सरदार सरोवर बांध के निर्माण को समाप्त करने के लिए विश्व बैंक का प्रतिरोध करना चाहिए। मेधा और उनके सहयोगियों ने प्रस्ताव के विरोध में मध्य प्रदेश से बांध स्थल तक लंबा मार्च निकाला। छत्तीस दिवसीय मार्च नर्मदा घाटी के पड़ोसी राज्यों के बीच एकजुटता का प्रतीक बनने के साथ-साथ सरकार और विश्व बैंक के लिए एक सीधी चुनौती बन गया। 1993 में पर्यावरण रक्षा कोष और इंटरनेशनल रिवर्स नेटवर्क से नर्मदा बचाओ आंदोलन या एनबीए ने विश्व बैंक को बांध के लिए अपने प्रस्तावित राशि को निलंबित करने के लिए मजबूर किया 1995 में पुनर्वास प्रक्रिया की आगे की समीक्षा किए जाने तक निर्माण प्रक्रिया में देरी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को राजी किया गया था।
मेघा पाटकर एक भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो आदिवासियों, दलितों, किसानों, मजदूरों और भारत में अन्याय का सामना कर रही महिलाओं द्वारा उठाए गए महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों के लिए लड़ रही हैं वह भारत के एक प्रमुख संस्थान टाटा इंस्टीट्यूट और सोशल साइंस (टीआईएसएस) की पूर्व छात्रा है। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, 1991 में राइट लाइवलीहुड अवार्ड, 1992 में गोल्डमैन एनवायरनमेंट अवार्ड, में 1999 ह्यूमन राइट्स डिफेंडर अवार्ड फ्रॉम एमनेस्टी इंटरनेशनल और 2014 में मदर टेरेसा अवार्ड्स फॉर सोशल जस्टिस उनमें से मुख्य हैं।
यह एक अजीब, अद्भुत और आश्चर्यजनक तथ्य है कि पिछले दशकों में गुजरात सरकार ने उत्तर में दांता से लेकर दक्षिण में डांग तक शोषित आदिवासी क्षेत्रों की वन संपदा का एक बड़ा हिस्सा नष्ट कर दिया था राजपीपला में वन रेंजर्स कॉलेज के प्राचार्य की रिपोर्ट के अनुसार, "राजेंद्र शर्मा ने कहा कि 1970 और 1990 के बीच राजपीपला के पश्चिम में फैले जंगलों को व्यवस्थित रूप से नष्ट कर दिया गया था व्यवस्थित और संगठित वन कटाई के कारण एक राजपीपला के पूर्व में लगभग 60 किमी तक वन क्षेत्र का विनाश हो गया " (देखें: पटेल 1994:1961 )। वनाच्छादित क्षेत्र वास्तव में आदिवासी समूहों का था, जिन्हें उनके मूल स्थानों से ही उजाड़कर फेंक दिया गया था। मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले तक फैले वन क्षेत्र का इस अनुमान पर अधिग्रहण किया गया था कि ये क्षेत्र गरुडेश्वर और सरदार जलाशयों के तहत जलमग्न हो जाऐंगे। स्थानीय भील जनजाति जो कि व्यावहारिक रूप से पर निर्भर थीं, उन्हें पूरी तरह से उनके मूलनिवास से दूर कर दिया गया था। वन्य जीवन इन जंगलों पूरी तरह से बाधित हो गया था और पारिस्थितिकी के साथ बुरी तरह छेड़छाड़ की गई थी।
मध्य प्रदेश के पश्चिम में स्थित झाबुआ मुख्य रूप से एक आदिवासी जिला है। इसमें गुजरात के पंचमहल और बड़ौदा जिले, राजस्थान के बांसवाड़ा जिले और मध्य प्रदेश के धार और रतलाम जिले शामिल होते हैं। नर्मदा नदी दक्षिण क्षेत्र से गुजरती हुई जिले की दक्षिणी परिधि का निर्माण करती है। जिले के इलाके पहाड़ी, उबड़-खाबड़ बीहड़ और असमतल से हैं जिन्हें अक्सर "झाबुआ पहाड़ियों की स्थलाकृति कहा जाता है। भील और भिलाला जनजाति के लोग इस क्षेत्र में निवास करते हैं और उनमें से ज्यादातर अपनी आजीविका के लिए आपराधिक गतिविधियों का सहारा लेते हैं और उनके पास ना तो रोजगार का कोई | अन्य वैकल्पिक स्रोत है और ना ही वे ढूंढने की कोशिश करते हैं।
क्या आप जानते हैं कि बाँधों ने नदी, उसकी पारिस्थितिकी और उसकी सामाजिक अर्थव्यवस्था के साथ घाटी के जैविकीय संपर्कों और संबंधों को कैसे नुकसान पहुंचाया? यह समझना बेहद मुश्किल जान पड़ता है कि बांघ भौतिक, पारिस्थितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक संबंधों के एक जटिल बंधन को तोड़कर छिन्न-भिन्न कर देते हैं जो एक नदी और समुदायों और बेसिन में रहने वाले जीवित और निर्जीव प्राणियों को आपस में बांधता है। लोगों की विभिन्न वर्ग अपने व्यवसायों के साथ साथ बांध और इसके बुनियादी ढांचे से प्रभावित होती है। बांध के बनने से भूमिहीन मजदूर जो आसपास के गांवों में रहकर नदी के किनारे से एकत्रित रेत खनन करके अपना जीवन यापन करते हैं, उन्हें बहुत नुकसान होगा। उनके पास अपनी आजीविका को जल्दी दोबारा शुरू करने के लिए कोई साधन नहीं होगा क्योंकि नदी को एक बड़े जलाशय में तब्दील कर दिया जाएगा। उनके लिए जलाशय अब इतना गहरा हो जाऐगा कि वे उनसे बालू ओर रेत इकठ्ठा नहीं कर सकते और दूसरी बात, नदी का बारहमासी प्रवाह जो बार बार नई रेत में प्रवाहित होता है, हमेशा के लिए बंद हो जाएगा। नदी से अपनी आजीविका कमाने वाले मछुआरे, नाव चलाने वाले और अन्य लोगों की ऐसी सूची अनंत हो गयी थी जो बांध से प्रभावित हो गयी थी। भीलखेड़ा जैसे गांव बुरी तरह तबाह हो गए थे। गांव के दुकानदार, कुम्हार और बढ़ई बुरी तरह प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी आजीविका खो दी और किसी और पर निर्भर रहने के लिए बेरोजगार हो गए। उदाहरण के लिए, जब जबलपुर के पास नर्मदा नदी पर बरगी बांध बनाकर खड़ा किया गया था, तो ऐसे गांव जो कई सौ किलोमीटर नदी के किनारे और पानी बहाव के साथ - साथ बसे हुए थे, नदी के किनारे खरबूजे और तरबूज की ग्रीष्मकालीन आकर्षक फसल तैयार करते थे. उन्हें अपनी आकर्षक फसल से हाथ धोना पड़ा क्योंकि नदी में जल-प्रवाह की प्रवृत्ति गंभीर रूप से बदल गई थी। जब सरदार सरोवर का निर्माण किया गया था, और पानी को मोड़ दिया गया था, तो नर्मदा में पानी के प्रवाह क्षेत्र के समृद्ध मुहाना मछली पालन के पतन की पूरी संभावना थी।
जैसे ही नर्मदा पर बांध बनाए जा रहे थे नहरों और जल चैनलों में नाटकीय रूप से बदलाव आया नदी के किनारे नियमित रूप से लगने वाले कई मेलों के आयोजनों को बंद करना होगा। नदी में स्नान करना और डुबकी लगाना मेलों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था, और उन त्यौहारी और उत्सव के दिनों के लिए बांधों से पानी की ऊंचाई कम करके नदियों के प्रवाह को फिर से शुरू करना पड़ा। कई नदी तट मंदिर जिन्हें स्थानांतरित कर दिया गया था और बहुत दूर 'पुनर्स्थापित किया गया था, अब उन लोगों को वहाँ तक पहुँच पाना बुरी तरह विफल हो गया गया था। मेलों से घिरने वाला सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन कम हो गया और इस प्रकार बांधों ने नदी और उसके लोगों के चारों ओर फैले समृद्ध ताने-बाने को प्रभावित किया। चूंकि नर्मदा को हमारे देश की सबसे पवित्र नदियों में से एक माना जाता है, इसलिए इसमें परिक्रमा या सर्कमनेविगेशन नामक एक अनूठी प्रथा शामिल होती है। जिसे आमतौर पर नदी के आसपास मनाया जाता है। इस विचित्र अनुष्ठान में हजारों की संख्या में लोग नदी के आरंभिक बिंदु से उसके मुहाने तक जाते हैं और फिर चक्कर लगाते हुए वापस लौट आते हैं। नदी पर पैदल ही जाना पड़ता है, और नदी को उसके मुहाने पर ही पार करना होता है। ऐसे बांध जो निर्मित और निर्माणाधीन हैं उन्होंने नदी की परिक्रमा करने के मार्ग को पूरी तरह जलमग्न कर दिया है। नदी के किनारे बसे गाँव पानी के जोर और दबाव में डूब गए हैं और जलाशय के किनारे पर नए गाँवों का एक समूह तैयार कर लिया गया है। हालाँकि, ये गाँव अब ऐसी किसी भी परंपरा से रहित हो चुके हैं।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि बांधों ने न केवल उस स्थान के पारिस्थितिक संतुलन को बल्कि एक स्थान के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को भी बुरी तरह से प्रभावित किया था। यह क्षेत्र अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ अपने स्थानीय लोगों के लिए धन की एक आधारशिला प्रदान करेगा जो इस क्षेत्र से अपना जीवन यापन करेंगे। इसके साथ-साथ अन्य सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के विविध लेख, विशेष रूप से किसी विशेष गतिविधि के लिए आवश्यक उपकरण, साज-सज्जा, निजी माल सामग्री विकसित होगी जो स्थानीय लोगों को रोजगार का एक तैयार स्रोत भी प्रदान करेगी। हालाँकि, जब भी कोई बांध या परियोजना किसी स्थान की प्राकृतिक सेटिंग का अतिक्रमण करती है, जिसे लागों ने इतने लंबे समय तक आत्मसात् किया था, तो उनकी बहुत दुर्दशा हो जायेगी उनके लिए तो उन पर नरक ही टूट पड़ेगा। बाधित पारिस्थितिक संतुलन के साथ-साथ पुराने रीति-रिवाज और अनुष्ठान जो उनके दैनिक अस्तित्व का लगभग एक हिस्सा बन गए थे, बुरी तरह से पंचर हो गए। इस प्रकार सरदार सरोवर बांध अपनी भूख से महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के काफी गांवों का नरसंहार करे देगा।
नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध में जलस्तर बढ़ने से मध्य प्रदेश के बड़वानी और धार जिलों के चिखलदा, धर्मराय और काकराना गांव डूब गए हैं। एनबीए ने दावा किया कि अगर एक बार जलाशय की अधिकतम क्षमता को पूरा कर लेता है, इसके बाद मध्य प्रदेश के 192 गांवों में लगभग 40,000 परिवार उजड़ जाएंगे।
उन सभी गांवों के नाम पता करें जो बांध में डूब गये हैं। यह पता लगाने की कोशिश करें कि उन ग्रामीणों के साथ क्या हुआ था और वे कैसे स्वस्थ हो रहे हैं। उनके पुनर्वास के स्थलों का पता लगाएँ और क्या वे स्थान उन्हें आजीविका के वैकल्पिक स्रोत प्रदान करने के लिए पूरी तरह से सक्षम हैं।
कई आदिवासी गाँव नदी के नीचे डूब रहे थे और स्थानीय निवासियों के पास खुद को निर्जन स्थानों में पुनर्वासित होने के अलावा कोई सहारा नहीं था। उदाहरण के लिए, नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के समझौते के अनुसार, नर्मदा नदी के तट पर महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव अंजनवारा को यह अधिकार दिया गया कि वह चाहे तो मध्य प्रदेश में बस सकता है या फिर गुजरात में पुनर्वास कर सकता है। मध्य प्रदेश सरकार ने यह अवलोकन करने की कोशिश की कि इस आदिवासियों की इस स्वतंत्रता का प्रयोग कभी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यदि राज्य के 193 गांवों के सभी परिवारों को एसएसपी स्टे द्वारा जबरन बेदखल कर मध्य प्रदेश में रखा जाता है, तो यह एक बड़ी प्रशासनिक परेशानी होगी। मप्र सरकार इस सिरदर्द को लेने और सहन करने को तैयार नहीं थी। वह अपने आदिवासी बेदखलियों को गुजरात में पुनर्वासित करने के लिए अधिक उत्सुक थी। गुजरात को उन्हें संभालने दीजिए। स्थिति विशेष रूप से कष्टकर और तनावपूर्ण थी क्योंकि महेश्वर, नर्मदा सागर, ओंकारेश्वर और अन्य सभी बांधों से विस्थापन के लिए लगातार दबाव पड़ रहा था जो कि अपस्ट्रीम निर्धारित किया गया था। दूसरी ओर ग्रामीण गुजरात की ओर पलायन नहीं करना चाहते। वे पहले ही वहां पुनर्वास स्थलों पर जा चुके थे और दुख-दर्द की अपनी पीड़ा का अनुभव कर चुके हैं। जलभराव वाले खेत पास में कोई पशुधन नहीं, खंडों में विभाजित परिवार, शत्रुतापूर्ण पड़ोसी, ईंधन और चारा इकट्ठा करने के लिए कोई आम चारागाह नहीं यह मध्य प्रदेश के अधिकांश आदिवासियों की व्यथा, पीड़ा और दर्द के अनुभव का सार था, जिन्हें गुजरात में पुनर्वास के लिए जमीन दी गई थी।
विस्थापित आदिवासी लोग हिलना और आगे नहीं बढ़ना चाहते थे। हालाँकि, वे इस बात पर अड़े हुए थे यदि सबसे खराब से खराब स्थिति हो जाती हैं, वे केवल तभी पलायन करेंगे जब उन्हें ऐसी वन भूमि दी जाएगी जहाँ वे अपने पूरे गाँव के साथ समग्र रूप से पुनर्वासित हो सके। ज्यादातर मामलों में, न तो मध्य प्रदेश राज्य और न ही गुजरात राज्य उन्हें वो बुनियादी और मूलभूत सुविधाएं प्रदान कर सके जो उनकी आवश्यकताओं को पूरा कर पातीं। दुखद तथ्य यह रहा कि इस मामूली आवश्यकता को भी उनके मेजबान राज्य मध्य प्रदेश ने नकार दिया। यह वास्तव में अति कष्टकर और दुर्भाग्यपूर्ण है कि सबसे बड़े वनाच्छादित क्षेत्र वाले राज्य में विस्थापितों के लिए मध्य प्रदेश सरकार को कोई भी उचित भूमि नहीं मिली, जिस पर वह अपनी आदिवासी आबादी का पुनर्वास कर सके। इसके बजाय उसने अपने आदिवासी लोगों को समायोजित करने के लिए अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया और । पड़ोसी राज्य गुजरात में स्थानांतरित करने की प्रवृत्ति अपना ली थी।
यद्यपि मध्य प्रदेश में आदिवासी लोग अपना गृह राज्य नहीं छोड़ना चाहते थे, फिर भी पूरे गांव के निवासियों के साथ ऐसा कुछ नहीं था। संभवत: वहाँ कुछ लोग ऐसे भी थे जो पुनर्वास और स्थानांतरण की इस पूरी प्रक्रिया से लाभान्वित हुए और दूसरे लोगों के लिए भी इस प्रक्रिया को सुविधाजनक और लाभदायक बनाया। अमिता बाविस्कर ने उन्हें एक मोटिवेटर की संज्ञा दी, जो हर उस व्यक्ति से कमीशन लेता है जिसे वह 'दूब' अधिकारी (सबमर्जेन्स ऑफीसर) के दरवाजे तक पहुंचाता है। बाविस्कर ने पास के काकड़सिला के पूर्व सरपंच धनकिया नामक एक व्यक्ति की कहानी सुनाई जिसे उचित मात्रा में जमीन मिली, जहां उसके गांव को एक इकाई के रूप में फिर से बसाया गया था। माना जाता था कि धनकिया को इस पुनर्वास अभियान से काफी लाभ हुआ था। उसने काकडसिला के जंगलों से सागौन के पेड़ों को अवैध रूप से काटकर और गुजरात में लकड़ी बेचकर एक व्यवसाय खड़ा कर लिया। उन्होंने हर उस परिवार से धन भी अर्जित किया जिसे उन्होंने पुनर्वासित और स्थानांतरित किया और आखिरकार वे अपने सामान के साथ राज्य छोड़ गए।
यह प्रक्रिया पुराने नसबंदी अभियान की तरह ही काम करती है जिसमें एक मोटिवेटर' को तैनात किया जाता है जो पुनर्वास प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाता है और अंत में किसी कम रहने योग्य के पक्ष में अपना पुनर्वास स्थल को छोड़ने के लिए स्थानीय बसने वालों को प्रेरित करता है, जिसे राज्य द्वारा उनके लिए चुनता है मोटिवेटर आमतौर पर गाँव का ही एक रसूक और हैसियत वाला व्यक्ति होता है, जैसे कि एक सरपंच या एक लोकल नेता जिसका बाविस्कर ने उल्लेख किया था। आमतौर पर ऐसी हैसियत वाले लोग गरीब ग्रामीणों पर हावी हो जाते हैं और अपनी सौदेबाजी की क्षमता को और भी कम कर देते हैं। बाविस्कर ने कहा, धनकिया जैसे हसलरों के लिए यह पैसा कमाने का एक आसान और आकर्षक तरीका है। फिर भी हमें यह याद रखना चाहिए कि बांध स्थल के अधिकांश निवासी गरीब लोग हैं जो न तो आम जनता के साथ हसलरों की तरह हेरफेर कर सकते हैं और न ही वे अवैध कमाई के माध्यम से ऐसी संपत्ति जमा करते हैं। इसलिए सरदार सरोवर परियोजना के इर्द-गिर्द, विस्थापन और पुनर्वास का कार्य एक बेहद गंदला मामला बन गया था, जिससे निश्चित रूप से लोगों के एक वर्ग ने क्रीम को बाहर कर दिया है। यह वे लोग होते हैं जो स्वयं को समुदाय का भला करने वाला समझते हैं और जो अपने स्वयं को यथोचित लाभान्वित हेतु सरकार के साथ बातचीत कर सकते हैं। वे न केवल अपने लिए बातचीत करते हैं बल्किदूसरों के लिए भी बातचीत करते हैं जिनके हितों को वे ध्यान में नहीं रखते हैं। इसलिए गरीब विस्थापित आदमी शायद ही दिन की रौशनी या उजाले को देख पात ।
हालांकि बांध निर्माण कार्य 1994 में निलंबित कर दिया गया था, क्योंकि एनबीए कार्यकर्ताओं ने पर्यावरण और पुनर्वास के मुद्दों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट से स्थगन आदेश प्राप्त करने में कामयाबी हासिल की थी, लेकिन निलंबन को लंबे समय तक बरकरार नहीं रखा जा सका। सुप्रीम कोर्ट (एससी) द्वारा 1999 में एक बार फिर से निर्माण को फिर से शुरू करने का आदेश जारी करने के बाद बांध के निर्माण को बहाल कर दिया गया था यह पूर्व शर्त पर किया गया था कि चरणों में पुनः निपटान की शर्तों के नियमित पुनः अवलोकन के बाद बांध की ऊंचाई चरणों में बढ़ाई जाए।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नर्मदा के इस फैसले के बाद मामला और जटिल और राजनीतिक हो गया था। लोगों ने अक्टूबर 2000 में 'मानव अधिकार यात्रा शुरू की और इसके फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना विरोध प्रदर्शन किया। सरकारें अब उसी फैसले का इस्तेमाल घाटी के जलमग्न होने और पुनर्वास के बिना लोगों को विस्थापित करने के लिए कर रही हैं। यह न केवल घाटी के लोगों पर भयानक प्रभाव डाल रहा है बल्कि यह दलितों, आदिवासियों, श्रमिकों, किसानों और पिछड़े वर्गों जैसे सीमांत लोगों के साथ की गई निष्पक्षता की बात करता है। आंदोलन की गति धीमी हो गई थी और विरोध प्रदर्शन राज्य की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं रह सकते थे।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 सितंबर को केवडिया की यात्रा की और अपने 67वें जन्मदिन पर नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन किया। उद्घाटन से पहले श्री मोदी ने नर्मदा के तट पर और बांध स्थल पर फूल अर्पित करके पूजा-अर्चना की। मोदी ने दावा किया कि भारत के पश्चिमी हिस्से में अभी भी पर्याप्त पानी की आपूर्ति का अभाव है, और पूर्वी हिस्से में भी बिजली और गैस की आपूर्ति की कमी है जो बांध के निर्माण को सही ठहराता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि जब विश्व बैंक ने सरदार सरोवर बांध के निर्माण के लिए धन देने से इनकार कर दिया था, तब गुजरात के संतों ने इस भव्य कार्य को सक्षम करने के लिए धन दान किया था। उन्होंने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके महाराष्ट्र समकक्ष देवेंद्र फडणवीस को परियोजना शुरू करने के लिए उनके परोपकार के लिए धन्यवाद दिया।
प्रधान मंत्री को विश्वास था कि नर्मदा के पानी से कई जीवन लाभान्वित होंगे, खासकर वे लोग जो अपने अस्तित्व के लिए हाशिये और कगार पर रह रहे हैं। मोदी को पूरा यकीन था कि जब हम भारत की स्वतंत्रता संग्राम के 75 साल पूरे करेंगे, यह परियोजना 2022 तक 'न्यू इंडिया की स्थापना करेगी। ऐसा माना जाता था कि पीएम मोदी ने बांध के उद्घाटन के साथ सरदार पटेल के लंबे समय से चले आ रहे सपने को पूरा किया, जिसकी जवाहरलाल नेहरू ने बहुत पहले ही आधारशिला रखी थी। जल संसाधन और नदी विकास मंत्री नितिन गडकरी ने गुजरात में सरदार सरोवर बांध के उद्घाटन पर चार राज्यों के लोगों को बधाई दी क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि सरदार सरोवर बांध से वर्ष 2022 तक 4 करोड़ लोगों को ताजा पेयजल मिलेगा जिससे किसानों की आय में कई गुना तेजी आएगी। साथ ही सरकार आशावादी थी कि बांध से 22 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई में मदद मिलेगी। सरदार सरोवर परियोजना के अधिकारी उत्साहित थे कि इस परियोजना से राजस्थान के बाड़मेर और जालोर के प्रमुख रेगिस्तानी जिलों में 2,46,000 हेक्टेयर भूमि और महाराष्ट्र की आदिवासी पहाड़ियों में 37,500 हेक्टेयर भूमि सिंचित होगी.
उसी दिन कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के छोटा बरदा घाट पर नर्मदा के बढ़ते जल में जल सत्याग्रह का आयोजन किया। पाटकर इस बात को लेकर आशंकित थीं कि बांध का जलस्तर खतरनाक ऊंचाई तक आ जाने से यह स्थान जल्द ही जलमग्न हो जाएगा और क्षेत्र के करीब 192 गांव पानी में डूब जाएंगे। यह लगभग 40,000 परिवारों को प्रभावित करेगा, पाटकर ने आरोप लगाया है कि प्रभावित परिवार जल्द ही बेघर हो जाएंगे और सुप्रीम कोर्ट के सख्त आदेश के बावजूद पुनर्वास या मुआवजे से वंचित हो जाएंगे। पाटकर ने 30 महिलाओं के साथ धार के छोटा बरदा गांव में नर्मदा नदी के तट पर धरना दिया, जहां उन्होंने जोर देकर कहा कि जल स्तर घातक रूप से बढ़ रहा है।
भारत के मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में आयोजित किया जा रहा जल सत्याग्रह विरोध, गोगलगाँव गाँव के निवासियों द्वारा किया जा रहा एक लंबा विरोध है, और आस-पास के गाँवों में परिवारों के पीड़ितों के घर हैं जो बांध में डूबे हुए हैं। ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर बढ़ाने से खासकर निचली बस्तियों के ग्रामीणों को डर है कि आने वाली बाढ़ का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा। उनकी शिकायतों को इस आशंका से और बढ़ा दिया गया था कि राज्य द्वारा पुनर्वास के लिए पर्याप्त सहायता प्रदान नहीं की गई थी। शनिवार 11 अप्रैल, 2015 को शुरू हुए विरोध में लगभग पचास स्थानीय निवासी शामिल थे, लेकिन धीरे-धीरे इसकी ताकत बढ़ रही है।
नर्मदा घाटी परियोजना द्वारा स्थापित विकासात्मक रूपरेखा भारत जैसे देश के लिए उपयुक्त नहीं थी । समाजशास्त्रियों ने बार-बार तर्क दिया है कि इस तरह के बांध हमारे देश में केवल एकतरफा विकास लाएंगे, जहां अधिकांश निर्णय एक उच्च नौकरशाही व्यवस्था के भीतर ऊपर से नीचे के दृष्टिकोण में लिए जाते हैं। विकेंद्रीकरण के किसी भी रूप के अभाव में विकास का ध्रुवीकरण हो जाता है, जिससे एक वर्ग को लाभ दूसरों की कीमत पर मिलता है, जिससे जनता कंगाल हो जाती है। असली सवाल यह था कि क्या बांध समाज के लिए संसाधन पैदा कर सकता है या क्या यह देश में पहले से ही बनाई गई संपत्ति को बहा देता हैं, जिससे अर्थव्यवस्था और समाज पहले से अधिक नाजुक हो जाता है। हजारों लोगों को उनके पैतृक घरों से उजाड़ दिया गया और उनके पुनर्वास और पुनर्वास के वैकल्पिक तरीकों को तथा उनकी आजीविका को बिना किसी पूर्व योजना के तबाह कर दिया गया। यह अनियोजित विकास निश्चित रूप से देश में रहने वाले लाखों लोगों को लाभान्वित नहीं कर सका और किसी भी प्रकार का आधुनिकीकरण नहीं लाया जिसके लिए राज्य ने बार-बार तर्क दिया। इसने राज्य और उसके लोगों के बीच एक शाश्वत संघर्ष की गुंजाइश पैदा कर दी, जहां दलितों को बड़े पैमाने पर विकासात्मक अभियानों का खामियाजा भुगतना पड़ा और राज्य ने कुछ ऐसा करने का संकल्प लिया जिसे वह पूरा नहीं कर सका।
इसलिए नर्मदा अनेक भावनाओं की नदी है, न कि केवल एक सांसारिक जल निकाय । यह देश में सबसे गतिशील जन आंदोलनों में से एक का प्रतीक है। यह वास्तव में एक स्वदेशी आवाज है जो जिद्दी प्रतिरोध के बावजूद लंबे समय तक बाहर निकलने से इनकार करती रही। यह देश में अपनी तरह का अनूठा आंदोलन है, क्योंकि इस आंदोलन ने सीमांत लोगों की ताकत और सभी बाधाओं से लड़ने की उनकी ताकत को दिखाया। यह आंदोलन एक लंबी कानूनी लड़ाई में फंस गया था, जहां इसे विश्व बैंक का समर्थन मिला था और सर्वोच्च न्यायालय अपनी लंबी खींची गई लड़ाई को जारी नहीं रख सका। आधुनिकीकरण और सौंदर्यीकरण के अपने भारी वादों के साथ वैश्विक युग अक्सर आम लोगों को उत्तर- - आधुनिक युग के स्क्रॅप बकरियों बनाने के लिए ऐसी परियोजनाओं पर निर्भर करता है। फिर भी, पर्यावरण आंदोलनों को न केवल सुंदरलाल बहुगुणा, मेधा पाटकर, बाबा आमटे, वंदना शिवा, विजयपाल बघेल, आदि जैसे आग की चिंगारी पैदा करने के लिए याद किया जाएगा, बल्कि आलोक अग्रवाल, विलासराव बी सालुके और राजेंद्र सिंह जैसे कम ज्ञात वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को भी याद किया जाएगा। अपने समुदायों में छोटे-छोटे तरीकों से जल संरक्षण आंदोलन शुरू किए थे। इसलिए इस आंदोलन को न केवल जन-संघर्षों को भड़काने के लिए बल्कि अपने स्वयं के व्यक्तिगत तरीकों से स्थानीय चेतना हासिल करने के लिए भी याद किया जाएगा।