प्रज्ञाम्बु के पांचवें अंक में हम बात करेंगे नदियों की अविरलता के बारे में नदी का जिक्र आते ही हमारे जहन में बहते हुए पानी की तस्वीर उभरती है। बहती हुई नदियां अब हमारे इतिहास का हिस्सा बनने लगी हैं, बर्तमान में हमारे देश की कई विशाल नदियां झीलों की एक श्रृंखला में परिवर्तित हो रही है। नदी का ठहर जाना, नदी की मूलप्रवृत्ति के विपरित है। इसी क्रम में अविरलता और ठहराव को समझने के लिए प्रज्ञाम्बु का यह अंक नदियों के प्रवाह से जुड़े विभिन्न पहलूओं पर समर्पित है
नदी की सबसे छोटी और साधारण परिभाषा है वो जलधारा जो अपने उदगम से गतव्य तक खुद ब खुद पहुंच जाएं, कभी हिमखंडों से पिघलकर कभी पहाड़ों से उत्तरकर चट्टानों को काटकर नदियां अपनीयात्रा पूरी कर मंजिल तक पहुंच जाती है। नदी की धारा को प्रकृति ने अविरलता दी है। मानव की गतिविधियों ने नदी तंत्र पर कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव डाले हैं जिनसे नदी की अविरलता प्रभावित हुई हैं। जिसके चलते कल-कल बहती नदियां अब साहित्य, इतिहास और कल्पना में अधिक नजर आती है और यतार्थ में कम। आईए कोशिश करते है उन कारणों को समझने की जिनसे नदी की अंदिरल धारा में अवरोध उत्पन्न होता है।
विभिन्न मानवीय जरूरतों की आपूर्ति के लिए नदी के पानी का अत्याधिक दोहन किया जाता है। जिसके चलते नदी की अविरलता प्रभावित होती है। नदी के प्रवाह को बनाए रखने के लिए न्यूनतम जलराशि की उपस्थिति अनिवार्य है ठीक उसी तरह जैसे एक शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए रक्त की न्यूनतम मात्रा जरूरी है। नदी को भी बहाव के लिए न्यूनतम जल की मात्रा जरूरी है। कभी कभी मानव की लालसा उसकी आवश्यकता से अधिक की मांग करती है और नदियों से इतना पानी ले लिया जाता है कि अपना प्रवाह बनाए रखने के लिए नदी में आवश्यकता से कम जल रह जाता है।
सहायक नदियों की उपेक्षा विभिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक कारणों से हम बड़ी नदियों को पूजनीय मानते हैं और नदियों के साथ जिम्मेदार और समझदारीपूर्वक व्यवहार करते हैं वही दूसरी ओर छोटी नदियों को नदी के रूप में स्वीकार ही नहीं करते। यह उपेक्षा या तो इन नदियों को प्रदूषित बनाती है अथवा इनके सूखने या विलुप्त होने का कारण बन जाती है। लिहाजा इनके जरिए पहुंचने वाली जलराशि मुख्य नदी तक नहीं पहुंच पाती। जिसका असर नदी की जलराशि और प्रवाह दोनों पर पडता है।
एक तरफ नदियों की सहायक नदियां सूखने लगी है. दूसरी ओर नदी से ज्यादा से ज्यादा लाभ लेने के लिए उसके पानी को नहरों की सहायता से किनारे से दूर बसे गाय और खलिहानों तक पहुंचाया गया। लिहाजा नदी का जलस्तर लगातार घटने लगा। यदि हम देश की सभी प्रमुख नदियों की जलराशि और प्रवाह की तुलना उनकी 50 वर्ष पुरानी स्थिति से करे तो पाएंगे कि हर नदी के जलस्तर में कमी आई और उनकी अविरलता बाधित हुई है।
शहरों को जल और विद्युत की आपूर्ति करने के लिए दुनियाभर में नदियों पर बांध बनाए गए। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा और हमारे यहां भी नदियों पर बांध बनाए गए। बांध का काम ही है, नदी को बांध लेना या रोक लेना बांध से जनसंख्या को बड़े पैमाने पर लाभ भी हुआ लेकिन नदी की अविरलता में बाधा आ गई।
नदियों के समीप प्राकृतिक रूप से वेटलैंड्स (आद्रभूमि) पाई जाती है ये वेटलैंड्स बाढ़ की परिस्थितियों में नदी के समीप बसे जनजीवन के लिए सुरक्षा कवच साबित होते हैं। दूसरी ओर गर्निया में जब नदी में पानी का स्तर घटता है तब वेटलैंड्स से रिसकर जल नदियों में समाहित होता जाता है और नदी के जलस्तर और महाव को बनाये रखने में मददगार साबित होता है ये वेटलैंड्स केवल नदी में जलआपूर्ति के लिए ही नहीं बल्कि किसी क्षेत्र की जैवविविधता को बनाए रखने के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है हमारे देश में तेजी से वेटलैंड्स का प्रतिशत घट रहा है। शहरीकरण और भूमि उपयोग के मापदंड और नियमों में परिवर्तन से कई नदियों के वेटलैंड्स का क्षेत्र घटता जा रहा है। कश्मीर की झेलम नदी के बहाव क्षेत्र में नदी के ईर्द-गिर्द 300 वर्ग किमी क्षेत्र मे खूबसूरत वेटलैंड्स हुआ करते थे। 1911 के कुछ दस्तावेजों में वेटलैंड्स की मौजूदगी का प्रमाण है। उन्नीसवी सदी में यह एशिया का संभवतया मीठे पानी का सबसे बडा वेटलैंड जोन था, जिसका ज्यादातर हिस्सा आज कृषि भूमि में परिवर्तित हो चुका है। आज अगर उस इलाके का हाईड्रोग्राफ का अध्ययन किया जाए तो लैंडस्केप में परिवर्तन साफ नजर आता है जिस इलाके में पानी भरपूर मात्रा में उपलब्ध था, आज वहां पानी की कमी के निशान साफ दिखाई देते है
कई ऐसी भी गतिविधियां है, जो नदी के समीप तो नहीं होती लेकिन नदी और उसकी अविरलता को प्रभावित करती है इन्हीं में से एक गतिविधि है, किसी क्षेत्र में जंगलों का कटना पहाड़ों पर व्यवसायिक निर्माण होना, वानस्पतिक परिवर्तन आना हमारे देश में कई नदियां ऐसी भी है, जिनका उदगम हिमालय से नहीं होता लिहाजा हिमालय से निकलने वाली नदियों की तरह इन नदियों में बर्फ से पिघल कर आने वाला जल नहीं मिलता है
इन नदियों को जल की आपूर्ति करते है, जंगल और पेड़ जंगलों के घने वृक्षों की जड़े वर्षाकाल में पानी को सोख लेती हैं और बाद में धीरे-धीरे यही जल यो भूमि को लौटाती है, जो अंदुरुनी मार्ग (सबसॉईल परत) से नदियों में जा मिलता है यह पूरी प्रक्रिया आँखो से दिखाई नहीं देती लेकिन यह किसी नदी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। बीते दो दशकों में हमारे पहाड़ो और जंगलों में बहुत से परिवर्तन हुए, जिसका असर आज नदियों पर नजर आ रहा है। यही नहीं हर राज्य और हर क्षेत्र में पाए जाने वाली वनस्पतियों में भी परिवर्तन आया है। उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश में हुए एक वानस्पतिक अध्ययन के मुताबिक प्रदेश में यूकेलिप्टस के पेड़ उगाए गए, जो मूलतः मध्यप्रदेश में नहीं उगते थे, इन पेड़ों की प्रवृत्ति भूजल को खींचने की होती है इसलिए इन्हें दलदली क्षेत्रों में उगाया जाता है जहां ये दलदल को समाप्त करने में मददगार होते है। मध्यप्रदेश के पठारी इलाकों में इस किस्म के वृक्षों की मौजूदगी ने कुछ क्षेत्रों के भूजल स्तर पर विपरित प्रभाव डाला। यही बरगद, पीपल, कबीट और जामुन के पेड़ों की संख्या लगातार कम हुई जो भूजल का स्तर बढ़ाने में मददगार होते हैं।इतना ही नहीं नदी के बेसिन में जब भू-जल का अत्याधिक दोहन होता है तब भी नदी में पहुंचने वाली जल की मात्रा कम हो जाती है जिसका असर अंततः नदी की अविरलता पर पड़ता है।
बढ़ते शहरीकरण के साथ सभी शहरों में स्थानीय जलस्रोतों की अवहेलना हुई हैं। बड़े बांधों की मौजूदगी और आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से लगभग सभी बड़े शहर 100 से 150 किमी दूर स्थित किसी विशाल नदी से पेयजल प्राप्त कर रहे हैं जिसके चलते विशाल जलराशि प्रतिदिन नदियों से बाहर खींच ली जाती है। मध्यप्रदेश के बड़े शहरों की प्यास नर्मदा बूझा रही है, बेंगलौर 100 किमी दूर से कावेरी नदी से पानी ले रहा हैं यही कहानी हैदराबाद की भी हैं। यदि स्थानीय जलस्रोतों का सही ढंग से संरक्षण और प्रबंधन किया जाए तो नदियों के जल के अतिदोहन से बचा जा सकता है। इसके लिए एक ऐसे संतुलित फ्रेमवर्क की जरूरत है जो भूजल और नदियों के जल के दोहन को नियंत्रित और नियमित कर सके।
नदी की अविरलता में बाधा आने से नदी के अंदरूनी परितंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। नदी के तलछट में जमा होने वाले तत्वों के अनुपात एवं नदी के बहाव के साथ आने वाली गाद भी नदी के निचले क्षेत्रों में नहीं पहुंच पाती है। नदी के साथ बहकर आने वाली गाद कृषि के लिए बहुत उपयोगी होती है. जब यह निचले क्षेत्रों में नहीं पहुंचती तो इसका इलाके की कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
जब नदी का प्राकृतिक बहाव रुक जाता है तो नदी में रहने वाली मछलियां और अन्य जीव-जंतु इस बदलाव के लिए स्वयं को अनुकूल नहीं बना पाते। मछलियों की ऐसी कई प्रजातियां है, जिसमें व्यस्क मछलियां गहरे पानी में रहती लेकिन प्रजनन के समय या अडोत्सर्ग के समय वे उथले पानी में आती है जब नदियों की अविरलता समाप्त होती है तो उनकी प्राकृतिक बनावट (नदी का कही उथलाये कही गहरा होना, नदी के पाट का कही चौड़ा तो कही संकरा होना) प्रभावित होती है जिसका असर इन जीव जंतुओं के प्रजनन, आवास और भोजन पर होता है। ऐसे कई जलीय जंतु है जो भोजन के लिए जलीय वनस्पतियां पर निर्भर करते हैं. ये वनस्पतियां अलग अलग मौसम में नदी के पथ पर मिलती है जब नदी का प्रवाह और उसकी अविरलता बाधित होती है तो नदी के साथ बहकर आने वाली गाद और अन्य पोषक तत्व भी प्रभावित होते हैं। ऐसे में जलीय वनस्पतियां का प्राकृतिक चक्र बाधित होता है और उन पर निर्भर जीव-जंतुओं के समक्ष भोजन का संकट उत्पन्न हो जाता है अविरलता को बाधित करने के प्रभाव यही नहीं थमते, सैकड़ों किलोमीटर का सफर करने वाली नदियों पर सिर्फ जलीय जीव-जंतु ही नहीं बल्कि पक्षी भी निर्भर करते हैं। स्थानीय पक्षी ही नहीं बल्कि प्रवासी पक्षी भी भारत में विभिन्न मौसमों में मीलों का सफर तय करके नदी और तालाबों के किनारे आश्रय लेते हैं। नदी के भीतर रहने वाले जलीय जंतु और मछलियों की संख्या में आने वाली कमी इन पंछियों के लिए भोजन की उपलब्धता को कम कर देती है। कुल मिलाकर नदी की अविरलता में बाधाएं आना सिर्फ नदी के भीतर ही नहीं बल्कि बाहर के जीव-जंतुओं को भी प्रभावित करती है।
नदी की अविरलता में रूकावट नदी के डेल्टाक्षेत्र को भी नुकसान पहुंचाती है जब गाद और सेडीमेंटस की उपयुक्त मात्रा नदी के डेल्टा तक नहीं पहुंचती तो डेल्टा की पारिस्थितिकी में व्यवधान पैदा होते हैं विश्व के ज्यादातर देशो में नदियों के डेल्टा में सबसे उर्वरक कृषि भूमि पाई जाती है जो कि चावल के उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण होती है। यही पर मत्स्य उद्योग भी फलता-फूलता हैं। यदि नदी अपने प्राकृतिक बहाव के साथ सागर तक नहीं पहुंचती तो डेल्टा सिकुड़ने लगता है। नतीजतन सागर भूमि की ओर बढ़ने लगता है और डेल्टा की भूमि धीरे धीरे सागर में समाने लगती है। ये स्थिति डेल्टा क्षेत्र में कई प्राकृतिक विपदाओं का कारण बन सकती है
चीन से बहकर वियतनाम में डेल्टा बनाने वाली मिकांग नदी के बहाव को जब चीन में रोका गया तो इसका असर वियतनाम में नदी के डेल्टा पर पड़ी। जैव विविधता का खजाना कहे जाने वाले इस क्षेत्र ने पिछले कुछ वर्षों में तटीय कटाव (कोस्टल इरोजन) की समस्या को झेला है। दुनिया के अन्य देश भी इस समस्या का सामना कर रहे हैं।
नदी और उसके संसाधन, नदी पर आधारित जनजीवन परितत्र सबकुछ सुरक्षित और समृद्ध रहे इसके लिए आवश्यक है कि नदी अविरल बहती रहे। संभवतया हमारे पूर्वज नदी की अविरलता के महत्व को समझते थे इसलिए हमारी कई धार्मिक विधियों को बहते पानी में ही सम्पन्न करने की बात कही जाती हैं। विज्ञान, प्रकृति और संस्कृति तीनों ही हमें मार्गदर्शन दे रहे हैं कि हमें सिर्फ नदी के पानी को नहीं बल्कि उसकी अविरलता को भी बचाना होगा।
नदियों की अविरलता को बनाए रखाना, इस समय एक बड़ा सवाल हैं। आधुनिक विकास की अवधारणाएं, बिजली और पानी की मांग को लगातार बढ़ा रही है। बढ़ते शहर कटते जंगल सभी कुछ नदियों और उनकी अविरलता पर विपरित प्रभाव डाल रहा है। ऐसे में नदियों की अविरलता को कायम रखना विज्ञान और सामाजिक विज्ञान दोनों के समक्ष एक चुनौती है। नदी की अविरलता, नदी का एक ऐसा संसाधन है, जो नदी और मनुष्य दोनों के लिए आवश्यक | कुछ कदम हमें इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए उठाने होंगे, जो इस प्रकार है-
नदियों पर सबका अधिकार होता है तो उनको बचाना, उनकी अविरलता को बचाना भी सबकी साझी जिम्मेदारी है हमारी जो छोटी नदियां आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है उनके संरक्षण में जनभागीदारी सुनिश्चित करना चाहिए। जब जनता खुद अपनी नदी को सहेजने के लिए आगे आएगी तो नदी संरक्षण की सभी योजनाओं का क्रियान्वयन बेहतर हो सकेगा।
नदियों के संरक्षण की दिशा में उत्तरप्रदेश में बहुत अच्छा उदाहरण देखने को मिला है जहां मनरेगा योजना के जरिए कई छोटी नदियों के संरक्षण और पुनर्जीवन का कार्य हो रहा है। इस तरह श्रमिकों को काम मिल रहा है और नदियां दोबारा जिंदा हो रही है। इस दौरान कुछ ऐसी नदियों का भी पुनर्जीवन करने के प्रयास हुए जिनके नाम एक आम जनता भूल चुकी थी मसलन टेढी, ससुर खदेड़ी आदि इन नदियों के बारे में बहुत सी जानकारियां और ज्ञान लोकजीवन में समाया हुआ है जिसका दस्तावेजीकरण नहीं हुआ है। इस ज्ञान का दस्तावेजीकरण होना भी जरूरी है ताकि भविष्य में जल संबंधी नीति निर्धारण में उक्त ज्ञान का उपयोग हो सके। उत्तर प्रदेश की तर्ज पर अन्य प्रदेश के. स्थानीय प्रशासन को भी उपलब्ध संसाधनों और योजनाओं का उपयोग नदी संरक्षण की दिशा में करना चाहिए क्षेत्रीय नदियों को सहेजकर हम वही नदियों के संरक्षण को आसान बना सकते हैं।
नदियों को अविरल बनाने के लिए हमें नदियों के प्रति अपने नजरिये में बदलाव लाना भी जरूरी है. हमें यह समझना होगा कि नदियों पर सबका हक हैं, सिर्फ मनुष्य का नहीं इन पर मछलियों और पक्षियों का भी हक है, जंगल में रहने वाले जानवरों का भी हक है। जब हम इस बात को समझेंगे तो विकास की योजनाएं नदियों के हित को केंद्र में रखकर बनाएंगे तभी हम नदी के रूप में प्रकृति के दिये हुए तोहफे को आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकेंगे।