रंग-बिरंगी भित्तिचित्रों से सजा मयूर विहार फ़्लाइओवर यमुना खादर के बाढ़-पीड़ितों के लिए सिर छुपाने की जगह बन गया है। स्रोत: टाइम्स ऑफ़ इंडिया
नदी और तालाब

प्रवासी खेतिहर, ज़मीन मालिक और डीडीए: यमुना के खादर का हकदार कौन?

यमुना खादर में प्रवासी किसानों, ज़मीन मालिकों और डीडीए के बीच ज़मीन और आजीविका को लेकर चल रहे संघर्ष के बीच बाढ़, अतिक्रमण हटाने की कार्रवाइयों और रिवरफ़्रंट जैसी विकास योजनाओं की दोहरी मार का सबसे ज़्यादा असर प्रवासी किसानों और मज़दूरों पर हो रहा है।

Author : डॉ. कुमारी रोहिणी

पूर्वी दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाले फ़्लाइओवर के नीचे की सड़क से गुज़रते हुए आप खंभों और दीवारों पर विभिन्न राज्यों के नृत्यों, भारत की विभूतियों के चित्र देखेंगे। लेकिन, जुलाई-अगस्त का महीना आते ही यहां का नज़ारा थोड़ा बदल जाता है। इस रंगीन विविधता में दिल्ली के प्रवासियों के संघर्ष का एक और रंग जुड़ जाता है। वह रंग जो तकलीफ़ तो देता ही, नागरिकों और प्रशासन के लिए कई ज़रूरी सवाल भी लेकर आता है।

यमुना खादर के प्रवासी किसानों का अनिश्चित जीवन

पूर्वी दिल्ली का मयूर विहार क्षेत्र यमुना तट पर बसा है और बाढ़-प्रभावित और संभावित दोनों ही वर्गों में आता है। यहां से गुज़रते दिल्ली नोएडा डायरेक्ट फ़्लाइवे के नीचे यमुना किनारे की ज़मीनों पर एक तरफ़ विकास कार्य हो रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ वहां अनाज, सब्ज़ियों और सजावटी पेड़-पौधों के खेत और नर्सरियां भी देखने को मिलती हैं। यह खेती उत्तर प्रदेश, बिहार और बाकी राज्यों से आए प्रवासी मज़दूरों की आजीविका है और खेतों के नज़दीक बनी झोंपड़ियां उनका घर।

नदी के बाढ़ क्षेत्र में होने के कारण लगभग हर साल ये खेत यमुना के पानी में डूब जाते हैं, जिसके साथ ही डूबती हैं प्रवासी मज़दूरों की झोंपड़ियां। इस बार, 2025 के अगस्त-सितंबर महीने में हुई बारिश में यमुना का जल स्तर बढ़ गया और यमुना खादर में बसे इन प्रवासी किसानों और मज़दूरों को ऊपर सड़क किनारे बने सरकारी शिविरों में रहने आना पड़ा।

हर बार बारिश आने और निचले इलाक़े में पानी भर जाने पर यही होता है। यमुना खादर से जुड़ी सड़कों पर सफ़ेद तंबू दिखाई पड़ने लगते हैं जिनमें यमुना के निचले इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए बाढ़-शिविर बनाया जाता है।

शिविर में रह रहे यूपी के बदायूं से आए धर्मेंद्र ने बताया कि वे यमुना खादर के निचले हिस्से में अपने परिवार के साथ रहकर खेती करते हैं, यही उनकी आजीविका है। लेकिन पिछले दिनों यमुना में बढ़े पानी के कारण भिंडी, तोरई, लौकी, बैंगन सहित अन्य सब्ज़ियों की उनकी फसल पूरी तरह डूब गई। उन्हें बताया कि इस बाढ़ के कारण हमें लाखों का नुकसान होता है लेकिन हमारे पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है।

खादर में फूलों और सजावटी पौधों की खेती और व्यापार करने वाले बिहार के अभिषेक ने मायूसी से कहा कि इस साल की बाढ़ में मुझे और मेरे जैसे फूल-पौधों के दूसरे व्यापारियों को लगभग डेढ़ से दो लाख का नुकसान हुआ है। “लगभग दस दिन पहले जब हमने देखा कि पानी बढ़ रहा है, तो हम जैसे-तैसे अपना सामान बांधकर यहां ऊपर आ गए। लेकिन, अगले सीजन वाली गेंदे, गुलदाउदी और बाकी सजावटी पौधों की हमारी फसल डूब गई,” अभिषेक बताते हैं।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बताया कि वे तैयार पौधों सहित अपना थोड़ा सामान तो बचा लाए, लेकिन कम तैयार पौधों को बचा कर ऊपर ला पाना असंभव था। “हर बार पानी बढ़ने पर हमें इसी तरह का नुकसान उठाना पड़ता है।”

यमुना खादर और मयूर विहार फेज़ एक और दो के निचले इलाकों में रहने वाले लोगों को बाढ़ और सरकारी एजेंसियों, दोनों की मार झेलनी पड़ रही है।

बाढ़ ही नहीं, डीडीए, पुलिस और ज़मीन मालिकों से भी खतरा

बेहतर जीवन की तलाश में दूसरे राज्यों से आए इन नागरिकों की समस्या सिर्फ़ बाढ़ नहीं है। बदायूं से लगभग दो दशक पहले आकर इस इलाके में बसने वाली शारदा देवी बताती हैं कि लगभग पांच महीने पहले दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) वालों ने इन इलाकों में आकर उनकी फसलों और झोपड़ियों पर बुलडोज़र चला कर उन्हें बर्बाद कर दिया। “इसके कारण हमें डेढ़ से दो लाख का नुकसान हुआ। अभी हम इस नुकसान से उबर भी नहीं पाए कि अब इस बाढ़ ने हमारी कमर तोड़ दी।”

यमुना खादर के मयूर विहार इलाके में नेचर पार्क के निर्माण की प्रस्तावना को मंज़ूरी मिल चुकी है। उसी क्रम में इस क्षेत्र में अतिक्रमण को हटाने के लिए इस साल अप्रैल माह में डीडीए ने लगभग 10 बुलडोज़र लगाकर एनएच-9 से डीएनडी के बीच 200 से ज़्यादा झुग्गियों को ध्वस्त कर दिया। इस कार्रवाई में फसलों और नर्सरियों को भी भारी नुकसान पहुंचा।

पहेली यह है कि ये किसान सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करके खेती नहीं कर रहे हैं। वे बाकायदा इस ज़मीन को इनके तथाकथित मालिकों से पट्टे पर लेते हैं, किराया देते हैं, बाढ़ का खतरा झेलते हैं और इसके बावजूद प्रशासन की तरफ से उन्हें किसी सहायता की जगह सिर्फ़ तकलीफ़ मिलती है।

डीडीए ने इस साल मई के महीने में मयूर विहार यमुना खादर में 20 एकड़ भूमि को अतिक्रमण से मुक्त किया।

यमुना खादर इलाके में खेती करने और रहने वाले बिहार के शंभू ने बातचीत में बताया कि इन ज़मीनों के मालिक आसपास के ही लोग हैं। ये पटपड़गंज, मयूर विहार, लक्ष्मी नगर आदि में रहते हैं। ये मालिक लोग ही खेती के लिए प्रवासियों को पट्टे पर अपनी ज़मीनें देते हैं। पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले धर्मेंद्र का कहना है कि पट्टे की कीमत पच्चीस हज़ार प्रति बीघा है और बाढ़ या किसी अन्य वजह से हुए नुकसान का भार भी किसानों पर ही होता है। फसल अच्छी हो या बुरी ज़मीन मालिक को अपने पैसे समय से चाहिए होते हैं। वे किसी तरह की रियायत नहीं बरतते। 

शम्भू और धर्मेंद्र की बात की पुष्टि अगस्त 2023 के इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में छपे ज़फ़र तबरेज़ के ‘फ़ार्मर्स ऑफ दी यमुना फ़्लडप्लेन’ नाम के लेख से भी होती है। पीएचडी के लिए किए गए फ़ील्डवर्क के हवाले से तबरेज़ लिखते हैं कि जिन ज़मीनों को किराए पर लेकर ये प्रवासी किसान खेती कर रहे हैं, उनका क़ब्ज़ा आस-पास की रिहाइशी कॉलोनियों में रहने वाले अधिकतर ऊंची जाति के लोगों के पास है, जिनमें गुज्जर, चौहान और कुछ सरदार शामिल हैं।

इन ज़मीनों के लिए, किसानों को दस से पच्चीस हज़ार प्रति बीघा चुकाना होता है। बाढ़ से फसल को नुकसान होने की स्थिति में अगर सरकार से मुआवज़ा मिलता है, तो वह ज़मीन के मालिकों के हिस्से आता है, जिसमें से कुछ भी इन किसानों को नहीं दिया जाता। इसके अलावा, सिंचाई के लिए बोरवेल लगवाने के लिए 10-15 हज़ार और पंपसेट लगवाने के लिए लगभग 50 हज़ार रुपए तक की रिश्वत पुलिस को देनी पड़ती है। जो लोग ये पैसा नहीं दे पाते उनके पंप को अक्सर नुकसान पहुंचाया जाता है।

अब, अप्रैल 2025 में डीडीए की अतिक्रमण हटाने की मुहिम इन किसानों की त्रासदी का तीसरा पहलू दिखाती है। एक तरफ़ जहां ये प्रवासी किसान तथाकथित मालिकों को पैसे देकर खेती कर रहे हैं वहीं डीडीए उन ज़मीनों पर अपना हक बता रहा है। इस पूरी स्थिति से यमुना खादर की ज़मीन के भरोसे जीने वाले इस वर्ग के पहले से ही अनिश्चित जीवन में और भी अनिश्चितता आ गई है।

कई पीढ़ियों से यमुना खादर में खेती कर रहे किसानों के पास इस ज़मीन की मिल्कियत से जुड़ा कोई सरकारी दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। नतीजतन, पूर्वी दिल्ली के चिल्ला खादर गांव के किसान यमुना के इस डूब क्षेत्र में ज़मीन के मालिकाना हक़ को लेकर डीडीए के साथ चल रहे संघर्ष के बीच बेदख़ली के डर में जी रहे हैं।

शिविर में रह रही कांति देवी बताती हैं कि वे इन ज़मीनों पर खेती के लिए मालिकों को पैसे देती हैं लेकिन डीडीए वाले आकर उनके घर और खेत दोनों को तहस-नहस कर देते हैं। वे कहते हैं कि यह ज़मीन डीडीए की है और वहां रहना और खेती करना दोनों ही अवैध है। “हम समझ नहीं पाते कि इसमें हमारी क्या गलती है। ज़मीन मालिक की हो या डीडीए की, नुकसान हमारा ही है,” कांति गहरी सांस लेकर कहती हैं।

डूबती उम्मीद के साथ वे कहती हैं कि भले ये लोग उनसे पैसे ले लें लेकिन उन्हें यहीं रहने दें। “हम कई सालों से यहीं रह रहे हैं। हमारे बच्चे यहीं पास के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और हमारे ग्राहक भी इधर ही के हैं। ऐसे में यहां से कहीं और जाने पर हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा,” वे कहती हैं।

क्या है प्रशासन का रुख

इस बारे में डीडीए के अधिकारियों का कहना है कि डीडीए द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक यमुना के खादर क्षेत्र वाले ‘ज़ोन O’ की कुल 9,700 हेक्टेयर ज़मीन में से 7,362.56 हेक्टेयर पर अतिक्रमण किया गया है। अपनी ज़मीन वापस पाने के लिए डीडीए ने इस साल मई के महीने में मयूर विहार यमुना खादर में 20 एकड़ भूमि को अतिक्रमण से हटाया। यहां खेतों की सिंचाई करने वाले अवैध बोरवेल सील किए गए और 25 झुग्गियों को तोड़ा गया। इतना ही नहीं, उन ज़मीनों पर गड्ढे भी बना दिये गए, ताकि वहां दोबारा खेती न की जा सके।

दरअसल, यमुना खादर के लगभग 22 किलोमीटर विस्तार की अधिकतर ज़मीनों पर डीडीए का अधिकार तो है, लेकिन यमुना किनारे बसे गांवों के लोग काफ़ी लंबे से इन ज़मीनों पर खेती करते आए हैं। साल 2000 के बाद से इलाके में तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के कारण यहां का परिदृश्य बदलने लगा है। पिछले 60 सालों में कई विकास प्रोजेक्ट, जैसे सड़कों, फ़्लाइओवर, मेट्रो रेल, पार्क, मंदिरों (जैसे अक्षरधाम मंदिर), कॉमनवेल्थ खेलगांव वगैरह के लिए नदी के आसपास की लगभग 2,000 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण किया जा चुका है।

हालांकि, अलग-अलग समय पर होने वाले इन अधिग्रहणों के कारण यहां रहने वाले लोगों का जीवन तुरंत प्रभावित नहीं हुआ और, प्रवासी खेतिहर मज़दूरों ने बची हुई ज़मीन में खेती के नई तरीके अपना लिए। लेकिन वर्तमान में यमुना खादर और मयूर विहार फेज़ एक और दो के निचले इलाकों में स्थितियां अब तेज़ी से बदल रही हैं।

इस इलाके में रहने वाले लोगों को दोहरी मार का सामना करना पड़ रहा है। जहां एक तरफ़ नदी में बढ़ते जल-स्तर और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा से उनका जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, वहीं अब डीडीए और पीडब्ल्यूडी जैसी विभिन्न सरकारी एजेंसियां उनके जीवन की अनिश्चितता को बढ़ा रही है। इलाके में प्रस्तावित विकास प्रोजेक्ट का काम शुरू करने से पहले सरकारी एजेंसियों ने अतिक्रमण को हटाना शुरू कर दिया है।

साल 2021 में सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की मिट्टी को ट्रकों में लाकर यहां खाली किया जाने लगा, ताकि ज़मीन को ऊंचा किया जा सके। यहां हरित क्षेत्र और चार मीटर चौड़ा पैदल पथ प्रस्तावित है।

दिलचस्प बात यह है कि इस इलाके में खेती करने और झुग्गियों में रहने वाले लोगों को भविष्य में होने वाले विकास की जानकारी है, लेकिन वे केवल इतना चाहते हैं कि किसी भी तरह की तोड़-फोड़ और अधिग्रहण से पहले सरकारी एजेंसियां उनके पुनर्वास का इंतज़ाम करें। इसके लिए कुछ लोगों ने यमुना खादर स्लम यूनियन के बैनर तले डीडीए के खिलाफ़ दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका देकर ज़मीन अधिग्रहण से पहले पुनर्वास की मांग की है। हालांकि, डीडीए ने कानून का हवाला देते हुए ऐसी किसी भी मांग को ख़ारिज कर दिया है। फ़िलहाल यह मामला विचाराधीन है।

हमारी मांग केवल इतनी है कि हमारे घरों को गिराने से पहले हमारे पुनर्वास की व्यवस्था की जाए। साल 2019 में अजय माकन बनाम भारत संघ पर दिए अपने फैसले में उच्च न्यायालय ने दिल्ली की एक झुग्गी को गिराने के संदर्भ में यही सुझाव दिया था। आदेश में कहा गया है कि पहले पूरा सर्वेक्षण करना और झुग्गी में रहने वालों से सलाह लेना ज़रूरी है।
देव पटेल, हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क कार्यकर्ता

देव का घर भी इसी झुग्गी में है, जहां उन्हें और उनकी पत्नी नीतू को हर पल अपने घर को खोने का डर बना रहता है।

बदलती-बिगड़ती पारिस्थितिकी

यमुना और उसकी ज़मीन के स्वरूप में आए परिवर्तन से केवल उसके आसपास और उस पर निर्भर रहने वाले लोगों का ही जीवन प्रभावित नहीं हो रहा है, बल्कि इस प्राकृतिक और मानव निर्मित बदलावों का असर यमुना के पूरे पारिस्थितकी तंत्र पर भी पड़ रहा है। 

यमुना के आसपास के इलाकों में तरह-तरह के पक्षी और पेड़-पौधे पाए जाते हैं। यह नदी हजारों स्थानीय और प्रवासी पक्षियों का घर रहा है। उत्तरी दिल्ली के वज़ीराबाद से ओखला बैराज तक यमुना का 22 किलोमीटर लंबे क्षेत्र में हजारों प्रवासी पक्षियों के साथ-साथ स्थानीय जलीय पक्षियों का भी बसेरा है। लेकिन यह पूरी प्राकृतिक व्यवस्था अब विभिन्न विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ता दिख रहा है।

डीडीए और दिल्ली सरकार द्वारा प्रस्तावित और पूरी हो चुकी दोनों ही तरह की विकास परियोजनाओं के कारण यमुना खादर की पारिस्थितिकी में तेज़ी से बदलाव देखने को मिल रहा है। लगातार आने वाली बाढ़, शहर में तेज़ी से बढ़ता प्रदूषण और नदी की ज़मीन पर हो रहे वैध और अवैध दोनों तरह के निर्माणों का भी इस बदलाव में योगदान है।

यमुना के किनारे 122 किलोमीटर लंबा रिवरफ़्रंट बनाया जाएगा।

नदी क्षेत्र में तेज़ी से हो रहे अवैध निर्माणों के कारण इसका बहाव बाधित हुआ है। यमुना की 9,700 हेक्टेयर जमीन में अब 3,000 से ज़्यादा पक्के मकान बन चुके हैं। इन अवैध बस्तियों के कारण बाढ़ का खतरा और बढ़ गया है।

पारिस्थितिकी तंत्र को पुनः बहाल करने के प्रयास

यमुना खादर की लगातार बदलती पारिस्थितिकी को फिर से बहाल करने के शुरुआती प्रयास साल 1993 में शुरू किए गये थे। इस प्रयास में न केवल दिल्ली को, बल्कि नदी के उत्तर प्रदेश और हरियाणा वाले हिस्से को भी शामिल किया गया था, जिसमें कुल 21 शहर शामिल थे।

इसके बाद यमुना के पूर्वी और पश्चिमी तटों पर साल 2012, 2015, 2018 से 2021 में अलग-अलग चरणों में लाखों-करोड़ की लागत वाले कई काम कराए गए। उदाहरण के लिए उत्तरी दिल्ली के वज़ीराबाद में 457 एकड़ का प्राकृतिक अभयारण्य बनाया गया है। कभी बंजर रही इस भूमि पर अब आर्द्रभूमि और जंगल हैं, जिनमें 1500 से अधिक पौधे, कीड़े, पक्षी, मछलियां और स्तनपायी प्रजातियां निवास करती हैं।

इसके अलावा, राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने 2015 से दिल्ली में यमुना के बाढ़ के मैदानों में नदी के पानी के साफ़ होने तक सभी कृषि गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया है। एनजीटी का कहना था कि तेज़ी से बढ़ रहे प्रदूषण के कारण नदी का पानी विषैला हो गया है। नतीजतन, यहां उगाई जाने वाली सब्जियां और फल खाने लायक़ नहीं हैं और इसे खाने से लोगों के स्वास्थ्य को ख़तरा है। अपने इस दावे के लिए ट्रिब्युनल ने नेशनल एनवायर्नमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट के रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसके अनुसार यमुना खादर में उगाई जाने वाली सब्ज़ियों में सीसे की उच्च मात्रा की मौजूदगी का पता चलता है।

हालांकि, वॉटर सीकर्स फ़ैलोशिप की एक रिपोर्ट के मुताबिक, यहां सब़्जियां उगाने वाले किसान पूसा रिपोर्ट के हवाले से इस दावे को गलत बताते हैं। रिपोर्ट कहती है कि एक ओर यह पता लगाना मुश्किल है कि ट्रिब्यूनल और पूसा के दावों में से कौन सही है, दूसरी ओर ट्रिब्यूनल के फैसले के कारण जनधारणा इन किसानों के खिलाफ़ हुई है। साथ ही, इसने डीडीए को इन्हें उजाड़ने की खुली छूट दे दी है।

डीडीए की परियोजना से नदी और जनता को कितना फ़ायदा होगा, इस पर फ़ैलोशिप रिपोर्ट यमुना के पश्चिमी तट पर लाल किले के पीछे बने सिल्वर जुबिली पार्क की केस स्टडी पेश करती है। परियोजना के पहले चरण में साल 2013-14 में बने इस पार्क की हालत यह है कि आस-पास के लोग तक इसके बारे में नहीं जानते। इसके अलावा यहां तक पहुंचने और यहां से निकलने के लिए हाइवे तक पैदल चलकर आने के अलावा कोई सुविधा नहीं है।

पारिस्थितिकी पर इसके असर और लोगों को मिली सुविधा की बात करें, तो मानसून के समय पार्क पूरी तरह पानी में डूब जाता है। इसके बीचों-बीच दिल्ली के 22 बड़े नालों में से एक नाला बहता है, जिसे लोगों की नज़र से बचाने के लिए बैरीकेड किया गया है। जहां यह नाला नदी में मिलता है, वहां चारों ओर गंदा पानी और ठोस कचरे का अंबार दिखाई देता है। रिपोर्ट कहती है कि रिवरफ़्रंट जैसी परियोजना को नदी के स्वच्छता कार्यक्रम के साथ एकीकृत किए जाने की ज़रूरत है।

इस साल के मई महीने में पीडब्ल्यूडी मंत्री प्रवेश शर्मा ने कहा कि अब तक यमुना खादर की पारिस्थितिकी को बहाल करने के लिए अलग-अलग विकास परियोजनाएं लागू की गईं, लेकिन अब उन्होंने डीडीए से कहा है कि इन सभी परियोजनाओं को एकीकृत करके खंडों में विकसित किया जाए। इसके तहत, यमुना के किनारे 122 किलोमीटर लंबे पैदल पथ यानी रिवरफ़्रंट का निर्माण किया जाएगा। इसके निर्माण में पर्यावरण-अनुकूल सामग्री का इस्तेमाल किया जाएगा और यह आमजन के उपयोग के लिए उपलब्ध होगा।

लेकिन, जल एवं पर्यावरण कार्यकर्ता दीवान सिंह का कहना है कि नदी तट क्षेत्र में किसी भी तरह के निर्माण से नदी के बहाव का रास्ता प्रभावित होता है। इन परियोजनाओं के एकीकरण के दौरान नदी की ज़मीन पर किसी भी प्रकार के भारी मशीनों और कंक्रीटीकरण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से नदी तट की मिट्टी और प्राकृतिक पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचेगा।

वे कहते हैं, “अगर केवल नदी तट पर मौजूद हानिकारक प्रजातियों को हटा दिया जाए और मिट्टी को उसके हाल पर छोड़ दें तो वह खुद अपनी मूल प्रकृति में वापस लौट जाएगी।” इसके अलावा, वे इस रिवरफ़्रंट के सौंदर्यीकरण के लिए कृत्रिम प्रजाति की घासों की बजाय देशी नदी घास के उपयोग और ‘ओ’ ज़ोन के रीचार्ज को प्राथमिकता देने का भी सुझाव देते हैं।

रिवरफ़्रंट के निर्माण में कंक्रीट, सीमेंट, पत्थर और ईंटों का प्रयोग होता है और नदी तट का प्राकृतिक बहाव प्रभावित होता है। नदी के कंक्रीटीकरण के नाम पर नदियों की चौड़ाई कम हो जाती है और बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है।

रिवरफ़्रंट जैसी विकास परियोजनाओं का स्वरूप और ढांचा प्राकृतिक नहीं होता है। इससे, नदी की जैव-विविधता खत्म होती है और इस पर निर्भर जीवों का जीवन प्रभावित होता है। दृष्टि फाउंडेशन ट्रस्ट के फाउंडर दिनेश कुमार गौतम इस बारे में कहते हैं कि नदी के तट कच्चे ही होने चाहिए। अगर उनका कंक्रीटीकरण हो जाएगा, तो वहां के जलीय-जीव, पेड़-पौधे व जैव विविधता पर भी उसका असर होगा।

देश के विभिन्न शहरों में नदी किनारे बने इसी तरह के रिवरफ़्रंट के निर्माण से इस बात की पुष्टि की जा सकती है। महाराष्ट्र के पुणे में बन रहे 44 किलोमीटर लंबे रिवरफ़्रंट का विरोध करने वालों का तर्क भी यही है।

नदी की पारिस्थितिकी और नागरिकों के हित, दोनों साधने की ज़रूरत

यमुना का भविष्य केवल एक नदी का भविष्य नहीं है। यह दिल्ली के सतत विकास, पारिस्थितिक संतुलन के साथ ही सामाजिक न्याय का भी सवाल है। यमुना रिवरफ़्रंट को लेकर पीडब्ल्यूडी और डीडीए की एकीकृत परियोजना में यमुना खादर के इलाकों में रह रहे लोगों के भविष्य को लेकर भी कोई स्पष्ट नीति दिखाई नहीं पड़ती है। ऐसे में यह कहा पाना मुश्किल है कि रिवरफ़्रंट और नेचर पार्क जैसी परियोजनाओं का यमुना की पारिस्थितिकी पर क्या और कितना असर पड़ेगा।

यमुना को लेकर ​​यहां के प्रवासी खेतिहर मज़दूर, ज़मीन मालिक और डीडीए - तीनों अपने-अपने दावों और अधिकारों के साथ खड़े हैं, लेकिन सबसे अधिक मार उन लोगों पर पड़ती है जो अपनी मेहनत से इस खादर पर शहर के लिए अनाज, फूल और सब्ज़ियां उगाते हैं।

उनके सामने एक तरफ़ नदी की प्राकृतिक मार है, तो दूसरी तरफ़ तथाकथित ज़मीन मालिकों और प्रशासन की कठोरता। प्रशासन के कामों से नदी की स्थिति में कितना सुधार आएगा, यह कहना तो अभी मुश्किल है पर इससे इन प्रवासी परिवारों के सामने बच्चों की शिक्षा, रोज़गार और आवास का संकट गहराता जा रहा है।

ऐसे में ज़रूरी है कि नदी की पारिस्थितिकी की समग्रता को केंद्र में रखकर बनाए गए विकास मॉडल बनाया जाए। नदी के प्राकृतिक स्वरूप को नष्ट करने के बजाय, उसे पुनर्जीवित करने के प्रयासों पर काम किया जाए। साथ ही, यमुना खादर में रहने और खेती करने वाले समुदायों को पुनर्वास और आजीविका सुरक्षा की ठोस गारंटी दी जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो यमुना रिवरफ़्रंट जैसी परियोजनाओं को विकास के मॉडल के बदले ‘विस्थापन की त्रासदी’ का प्रतीक बनने में देर नहीं लगेगी।

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