शिवपुरी में महाभारतकालीन ऐसे 52 कुण्ड हैं, जो जलराशि से तो बारह माह भरे ही रहते हैं, नवग्रह मण्डल की सरंचना से भी जुड़े हुए थे। अब इन कुण्डों में से 20 कुण्ड अस्तित्व में हैं, जबकि 32 कुण्ड लुप्त हो चुके हैं।
हालांकि इन सभी कुण्डों का अस्तित्व तीन किलोमीटर की लम्बाई में था, इसलिये यदि इनकी खोज हो तो लुप्त हुए 32 कुण्ड भी मिल सकते हैं। लेकिन इनका खोजा जाना, इसलिये सम्भव नहीं लगता, क्योंकि जो बचे हैं, वे भी अस्तित्व बचाए रखने के संकट से जूझ रहे हैं। इन कुण्डों के बारे में कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य एवं किंवदन्तियाँ ऐसे जरूर मिलते हैं, जो इन्हें महाभारतकालीन होने के साथ पांडवों द्वारा बनवाए जाने के संकेत देते हैं।
ऐसा बताया जाता है कि जब पांडव 14 वर्ष का अज्ञातवास से गुजर रहे थे, तब अन्तिम दिनों में शिवपुरी क्षेत्र में थे। दरअसल उत्तर से दक्षिण का मार्ग शिवपुरी होकर निकलता है। शिवपुरी के उत्तर में प्रागैतिहासिक नगर नलपुर है, जिसे वर्तमान में नरवर के नाम से जाना जाता है। यहाँ राजा नल द्वारा बनवाया गया आलीशान किला आज भी विद्यमान है।
शिवपुरी के ही पास वह विराट नगरी है, जहाँ पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान भेष बदलकर शरण ली थी। इस कालखण्ड में जब पांडव भटक रहे थे, तब उन्होंने सुरवाया गढ़ी में भी माँ कुंती और द्रोपदी के साथ कुछ दिन व्यतीत किये थे। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी ने प्राचीन विराट नगरी के रूप में बैराड़ की पहचान की है। यहाँ उस गढ़ी के अवशेष भी हैं, जहाँ के शासक राजा विराट थे।
जनश्रुतिज है कि पांडव जब सुरवाया गढ़ी में रह रहे थे, तब एक दिन जंगल में शिकार करने के लिये निकले। शिकार की टोह में वे शिवपुरी के वनप्रान्तर में पहुँच गए। यहाँ कुंती को प्यास लगी, किन्तु आस-पास कहीं कोई भी जल का स्रोत नहीं था। तब अर्जुन ने धनुष-बाण हाथ में लिये और 52 जगह तीर छोड़ दिये।
इन सभी स्थलों से निर्मल जलधाराएँ फूट पड़ीं। चूँकि यह धाराएँ बाण चलने से फूटी थीं, इसलिये इन्हें बाणगंगा कहा गया। बाद में नकुल और सहदेव ने मिलकर इन सभी कुण्डों को बावड़ीनुमा आकार दिया। इसी आकार में शेष बचे 20 कुण्ड आज भी दिखाई देते हैं। हालांकि इनमें से भी अब मात्र बारह कुण्ड ऐसे हैं, जो अपना प्राचीन स्वरूप बचाए हुए हैं।
इन कुण्डों की विशेषता यह है कि ये सभी वर्गाकार हैं और इनमें उतरने के लिये किसी में दो तरफ, तो किसी में चारों तरफ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इनमें 10 से लेकर 30 फीट तक पानी भरा रहता है। बाणगंगा के नाम से जो स्थल जाना जाता है, उस क्षेत्र में कुल 9 कुण्ड हैं। इनमें गंगा नाम का जो कुण्ड है, उसके ऊपर एक किनारे पर मन्दिर बना हुआ है।
इसी परिसर में एक गणेश मन्दिर है, जिसके नीचे गणेश कुण्ड है। इनके अलावा 4 कुण्ड खुले मैदान में हैं। इनमें 2 कुण्ड बड़े हैं और दो कुण्ड बहुत छोटे हैं। इनमें उतरने के लिये सीढ़ियाँ भी नहीं हैं। गंगा कुण्ड का पानी सबसे स्वच्छ व निर्मल है।
हर साल यहाँ मकर संक्रान्ति के अवसर पर मेला लगता है। इस दिन हजारों लोग इन कुण्डों में डुबकी लगाकर पुण्य कमाने आते हैं। सिंधिया राजवंश की छत्री परिसर में कुल आठ कुण्ड हैं। इनमें केवल मोहन कुण्ड अच्छी अवस्था में है। शेष सभी कुण्ड कूड़े-कचरे से भरे पड़े हैं। यदि इन्हें जल्दी नहीं सँवारा गया तो यह भी अपना अस्तित्व खो देंगे।
सिद्ध बाबा क्षेत्र परिसर में पाँच कुण्ड हैं। ये सभी कुण्ड अस्तित्व का संकट झेल रहे हैं। परमहंस आश्रम के पीछे तीन कुण्ड हैं। इनकी स्थिति भी अच्छी नहीं है। परमहंस आश्रम परिसर में भी 2 कुण्ड हैं। जो लगभग ठीक हैं। भदैयाकुण्ड क्षेत्र में भी दो कुण्ड हैं। जिनमें 12 महीने पानी भरा रहता है। भदैयाकुण्ड के ऊपर गोमुख भी हैं, जिनसे पानी की निर्मल जलधार बहती रहती हैं। ग्वालियर राज्य में इस पानी से सोडा वाटर बनाया जाता था।
इस कारखाने की इमारत में अब पर्यटन ग्राम होटल में आने वाले यात्रियों के वाहन चालक ठहराए जाते हैं। सिद्धेश्वर मन्दिर परिसर में भी एक कुण्ड है, जिसे चौपड़ा के नाम से जाना जाता है। इस कुण्ड पर दीवारें उठाकर घेराबन्दी कर ली गई है। कुण्ड में बड़े-बड़े कई पेड़ उग आये हैं, जो इसे नष्ट करने पर उतारू हैं।
गोरखनाथ मन्दिर परिसर में भी एक कुण्ड है, जो छह माह पहले तक जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था। इसका अब धर्मस्व न्यास के अनुदान से जिला-प्रशासन ने जीर्णोंद्धार कर दिया है। इसमें अब करीब 30 फुट पानी भरा है। इसके प्राचीन स्वरूप को भी बहाल किया गया है। इसमें उतरने के लिये चारों ओर से सोपान हैं।
इस तरह से ये 20 कुण्ड वर्तमान में अस्तित्व में तो हैं, किन्तु कई कुण्डों को वर्चस्व बचाना मुश्किल हो रहा है। इन कुण्डों की नवग्रह मण्डल के रूप में संरचना की गई है। इस आधार पर इनमें से 10 दिग्पाल, 9 ग्रह, 12 राशियाँ, 8 वशु, 10 दिशाएँ और ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। इस दृष्टि से यह सरंचना किसी खगोलीय विद्या का भी प्रतीक है, जिसकी पड़ताल करने की जरूरत है।
बाणगंगा स्थल पर तीन प्राचीन शिलालेख भी उपलब्ध हैं। इनमें से एक शिलालेख सिद्ध बाबा मन्दिर के पीछे वाले कुण्ड में लगा है। दूसरा शिलालेख परमहंस आश्रम के कुण्ड में है। तीसरा शिलालेख बाणगंगा के मुख्य कुण्ड के पीछे लाट के रूप में है।
इन शिलालेखों को पढ़कर इन कुण्डों की अवधारणा और उद्देश्य के रहस्य को जाना जा सकता है। किन्तु अब तक पुरातत्व और इतिहास विभाग के जानकारों ने इस दिशा में कोई पहल ही नहीं की है। यदि सभी कुण्डों को सँवार लिया जाये तो इस पूरे क्षेत्र को खगोलीय रहस्य के रूप में विकसित किया जा सकता है।