उमाशंकर मिश्र/भोपाल
`जब तक भोपाल ताल में पानी है, तब तक जियो।´ आशीर्वाद देते समय इन शब्दों का प्रयोग बड़े-बूढे करते रहे हैं। क़रीब एक हज़ार साल पुराने `भोपाल ताल´ का जिक्र लोगों की इस मान्यता का गवाह है कि बूढ़ा तालाब कभी सूख नहीं सकता। लेकिन शहर की गंदगी, कचरे और मिट्टी जमाव के कारण बूढ़ा तालाब 31 वर्ग किलोमीटर के विशाल दायरे से सिमटकर महज 7 वर्ग किलोमीटर में रह गया है। आज भोपाल ताल के सूखने से मानों हर भोपाली सूख रहा है।
पढ़ने या सुन भर लेने से किसी बात के मर्म तक नहीं पहुंचा जा सकता, जब तक कि वस्तुस्थिति से स्वयं साक्षात्कार न हो जाये। `ताल तो भोपाल ताल, और सब तलैया।´ भोपाल ताल के बारे में यह कहावत तो बचपन से सुनता आ रहा हूं, लेकिन शहर के बीचो-बीच कमला पार्क से जब भोपाल ताल को निहारने का अवसर मिला तो मैं अवाक् रह गया। रास्ते में सोचता जा रहा था कि तालाब सूख गया होगा और बीच में कीचड़ के बीच में खुदाई कर इसके पुनरुद्धार का काम चल रहा होगा। लेकिन बूढ़े तालाब को देखने का जब मौका मिला तो मेरी धारणा धराशायी हो गई। ताल शब्द विशालता का अनुभव कराता है, जबकि तलैया ताल की विशालता के आगे एक व्यंग्य सा जान पड़ता है। यहां किसी की जुबां पर बड़ा तालाब चढ़ गया है, तो कोई इसे बूढ़ा तालाब कहता है, मानो परिवार का कोई बच्चा अपने से किसी बड़े को सम्बोधित कर रहा हो। सच ही तो है सदियों से बूढ़े तालाब ने अपनी आंखों के आगे वनाच्छादित भोपाल को कंक्रीट के जंगल में तबदील होते देखा है, इसे पाला और पोषा है। विडंबना! जान पड़ता है कि कंक्रीट के जंगल में रहने वाले लोगों की संवेदनाएं भी अब पथराने लगी हैं। अचेतन लोगों के बीच मानों बूढ़ा तालाब भी संवेदनाशून्य होता जा रहा है। सुना था कि 31 वर्ग किलोमीटर में फैला भोपाल ताल सूख रहा है। हालांकि अभी भी तालाब के एक किनारे पर खड़े होकर यदि देखा जाये तो दूर तक दूसरा पाट नज़र नहीं आता। लेकिन विरासत में मिली इस धरोहर को क्या हम सच में `तलैया´ बनाकर ही दम लेंगे? ऐसे सवाल पर्यावरणविदों के साथ-साथ भोपाल-वासियों के मन में भी पिछले काफी समय से उठने लगे हैं।
जनसंख्या वृद्धि के साथ कंक्रीट के जंगलों के निर्माण से आज भोपाल का यह जीवनदायी सरोवर ख़तरे में पड़ गया है। कम वर्षा और उस पर शहर की गंदगी, मिट्टी और गाद इत्यादि के जमाव से 31 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत बूढ़ा तालाब आज सिमट कर महज 7 वर्ग किलोमीटर में रह गया है। इस तालाब का जलग्रहण क्षेत्र करीब 361 वर्गकिलोमीटर है, जिसमें मुख्यत: 54 उपगांव आते हैं। अवैध निर्माणों से भी जल भराव क्षेत्र कम हुआ है। बताया जा रहा है कि तालाब का 65 फीसदी हिस्सा सूख चुका है। गत वर्ष कम बरसात के कारण तालाब का पेट खाली ही रहा तथा अपने किनारे छोड़कर बीच में ही पानी रह गया। बड़े तालाब से भोपाल की 40 फीसदी आबादी को पीने का पानी मिलता रहा है। लेकिन पिछले कुछ समय से तालाब में जलस्तर कम हो जाने से अब भोपालवासियों को पानी की कटौती का सामना करना पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि ताल का डेड स्टोरेज लेवल 1648 फुट है और फिलहाल जलस्तर 1651 फुट के स्तर पर पहुंच चुका है। सदियों तक अपनी गोद में भोपालियों को पालने वाले ताल ने अब अपनी बांहे सिकोड़नी शुरु कर दी है। सिर्फ 3 फुट पानी ही जलप्रदाय के लिए अब बूढ़े तालाब में बचा है। समस्या जब विकराल होने लगी तो प्रशासन की नींद भी टूटी है। कोलार डैम का पानी फिलहाल झील में पहुंचाया जा रहा है। जिसके चलते जलप्रदाय का कार्य यहां से संभव बना हुआ है। भोपाल की प्यास बुझाने के लिए 70 से 80 एमजीडी पानी की जरूरत प्रतिदिन होती है। फिलहाल कोलार डैम समेत अन्य स्रोतों जैसे कुंए, बावड़ियों, नलकूप इत्यादि को मिलाकर भी कुल 50 एमजीडी पानी की सप्लाई हो पा रही है। इतने पर भी 20 एमजीडी पानी कम पड़ रहा है। नगर निगम ने ऐसे में एक दिन के अंतराल पर पानी सप्लाई का नियम बनाया है।
भोपाल ताल का निर्माण 11वीं सदी में राजा भोज ने कराया था। उस समय मुख्यत: शहरवासियों को पीने का पानी मुहैया कराना इसके निर्माण का मुख्य कारण था। 17वीं शताब्दी में नवाब छोटे खां ने इसी तालाब के नीचे छोटे तालाब का निर्माण कराया। इस तालाब का निर्माण निस्तार क्रियाकलापों के लिए किया गया था। इसके मूल में बड़े तालाब को संरक्षित कर बचाए रखने की धारणा निहित थी। परंतु हम अपने लालच पर काबू नहीं रख पाए और अंतत: बूढ़ा तालाब आज सिकुड़ के बीचो-बीच आ चुका है। परिणामत: बेतहाशा प्रदूषण हुआ। आज स्थिति यह है कि इसका पानी उपचार के बाद भी कई बीमारियों को जन्म दे रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो गई है। जबकि बीओडी (बायोलोजिकल केमीकल्स डिमांड) और सीओडी (केमीकल ऑक्सीजन डिमांड) की मात्रा बढ़ती जा रही है। कुछ भारी धातुओं का मिलना भी प्रदूषण का परिचायक है। इन सबका मुख्य कारण तालाब में गंदे नालों का मिलना है। इसके अतिरिक्त प्रदूषण का एक अन्य कारण मूर्तियों एवं ताजियों का विसर्जन है। हालांकि `भोज वेटलैण्ड परियोजना´ के अंतर्गत मूर्तियों एवं ताजियों के विसर्जन हेतु एक अलग घाट का निर्माण कराया जा चुका है।
तहज़ीब का शहर माने जाने वाले भोपाल को तालों की नगरी भी कहा जाता है। `वैसे तो भोपाल में 18 तालाबों के होने की बात कही जाती है। इन सबके बीच बड़े तालाब को भोपाल की जीवनरेखा के रूप में जाना जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति तक तो भोपाल ताल का पानी बिना किसी उपचार के ही पीने के लिए उपयोग में लाया जाता था।´ यह कहना है पर्यावरणविद् और भोपाल ताल पर शोध कर चुके डॉ. अविनाश वाजपेयी का। वे कहते हैं हम बचपन में तालाब के किनारे जाया करते थे और घंटों वहां बिताया करते थे। उसकी छप-छप करती लहरें आकर किनारे से टकराया करती थी, जिसकी गूंज आज भी कानों में सुनाई देती है। लेकिन आज 30 से 40 फुट तक पानी सरक गया है। वे बताते हैं कि पहले दूर-दूर तक नीला पानी दिखाई दिया करता था, लेकिन आज तो इस पानी में बदबू भी आने लगी है।´ डॉ. अविनाश इसे विकास बनाम पर्यावरण का परिणाम मानते हैं। वे कहते हैं कि यहां पर्यावरणीय मानकों का भारी उल्लंघन किया गया है। बड़े होटल और अपार्टमेंट तालाब के किनारे बना दिये गए हैं। पर्यटन क्रियाकलाप भी प्रदूषण वृद्धि में शामिल रहे हैं। बकौल डॉ. अविनाश `आज एक संतुलन कायम किए जाने की बेहद आवश्यकता है। हमको ईको फ्रेंडली होना पड़ेगा।
1995 में जेबीआईसी के सहयोग से एक वृहत् योजना लागू की गई थी। इस योजना के अंतर्गत भोपाल के तमाम छोटे एवं बड़े तालाबों के संवर्धन एवं प्रबंधन से संबंधित कार्य किए गए। 247 करोड़ रुपये की यह परियोजना वर्ष 2004 में पूर्ण हुई है। इस परियोजना के अंतर्गत तालाब को गहरा करने, जलीय खरपतवारों को निकालने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के निर्माण, हाई लेवल ब्रिज के निर्माण जैसे कार्य किए जाने की बात कही जा रही थी। परियोजना तो समाप्त हो गई और तालाब के हालात बद से बदतर हो गए। बहरहाल प्रशासन ही नहीं अब भोपालवासियों की नींद भी टूट चुकी है। मध्यप्रदेश शासन एवं भोपाल नगर निगम के साथ कुछेक मीडिया समूहों ने भी `भोपाल ताल´ को बचाने के लिए मुहिम छेड़ दी है। भोपाल ताल की सांसों को टूटने से बचाने की कवायद छिड़ चुकी है। अब तक के इतिहास में बूढ़े तालाब के रखरखाव और इसके पुनरूद्धार को लेकर इतने बड़े पैमाने पर जनभागीदारी पहली बार देखने को मिल रही है। स्वयंसेवी संगठन, आम जनता, छात्र, कर्मचारी और अधिकारी भी श्रमदान कर अपने तालाब को बचाने में जुट गए हैं। स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सप्ताह में एक दिन श्रमदान कर बूढ़े तालाब को बचाने का बीड़ा उठाया है, जिससे जल संग्रहण क्षमता को बढ़ाया जा सके। उनका यह प्रयास निश्चित तौर आम लोगों को इस पुनीत कार्य से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगा। `अपना सरोवर, अपनी धरोहर´ नाम का यह अभियान काफी प्रभावकारी साबित हो रहा है। आगामी छ: माह तक चलने वाले इस अभियान में लाखों लोग शामिल होंगे।
भोपाल के प्रख्यात पत्रकार, कवि राजकुमार केसवानी ऐसे ही लोगों में से एक हैं, जिन्होंने बूढ़े तालाब की लहरों के बीच अपना बचपन बिताया है। बाजेवाली गली में पैदा हुए राजकुमार केसवानी बड़ी झील की सांसे टूटने से बेहद दुखी हैं। वे कहते हैं कि `आपको क्या लगता है, मैं नहीं सूख रहा हूं? आप जरा गौर से देखिये( हर भोपाली अंदर से सूख रहा है। फर्क इतना है कि ताल ने अपनी छाती खोल कर दिखा दी है और हम शर्म के मारे खुद को हया से ढांके बैठे हैं।´ वे कहते हैं कि `किसी ने मुझसे पूछा कि भोपाल ताल से आपका किस तरह का रिश्ता है। सच कहता हूं, जी चाहा उसी घड़ी अपने जिस्म का एक-एक क़तरा बहा कर दिखा दूं और कहूं-लीजिए, इसमें है मेरा और इस झील का रिश्ता।´
साभार - विस्फोट
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