पहले हमारी नदियां ऐसे नहीं सूखती थीं, जैसे अब सूखने लगी हैं, भक्क से और झक्क से । आप किसी बहती नदी पर भरोसा करके तट पर कुछ पल के लिए आंख बंद करके बैठते हैं और जब आंख खोलते हैं, तो पाते हैं कि नदी सूख चुकी है। वैसे ठीक इसी तरह कभी-कभी किसी सूखी नदी में अचानक पानी आ जाता है, पर सूखने की ऐसी घटनाएं पहले नहीं होती थीं, इधर होने लगी हैं, तो चिंता भी बढ़ गई है।
हमारे यहां अनेक नदियां सदानीरा रही हैं, जैसे बिहार की कमला नदी, कभी नहीं सूखती थी। कमला नेपाल से आकर कोशी में मिल जाती थी, गर्मी के दिनों में उसमें पानी कम हो जाता था, पर नदी पूरी तरह कभी नहीं सूखती थी। दुखद है कि अब सूखने लगी है। वैसे विगत दशकों में देखते-देखते अनेक नदियों में जल कम हुआ है और नदियों को अक्सर असमय सूखते देखा जा रहा है।
इसका सबसे बड़ा कारण, मेरे हिसाब से भूजल में आई कमी है। हमने विगत दशकों में भूजल का जरूरत से ज्यादा दोहन किया है। भूगर्भ में अगर पानी की जरूरत है और नदी में अगर जल बह रहा है, तो भूगर्भ नदी का पानी अपनी ओर खींच लेता है। नदियां या जल के अन्य स्रोत अगर सूख रहे हैं, • तो इसका साफ संकेत है कि पानी भूगर्भ में हुए जलाभाव को दूर करने के लिए रिस जा रहा है।
अब हो यह रहा है कि हमारी नदियां, कुएं, पोखर, झील, झरने सूख रहे हैं और भूगर्भ में भी जल का पूरी तरह संरक्षण नहीं हो पा रहा है। भूगर्भ से जरूरत से ज्यादा पानी खींचकर इस्तेमाल करने का दुखद क्रम लगातार जारी है।
अब ऐसा लगता है कि भूगर्भ से जल निकालने की शुरुआत करना एक गलत फैसला था। पहले यह सोचा गया था कि भूगर्भ से जल लेने में कुछ भी गलत नहीं है। यह भी शायद नहीं सोचा गया था कि कभी भूगर्भ में पानी की कमी हो जाएगी। जब भूगर्भका पानी सूख गया है, तो हम नदियों से कैसे उम्मीद कर रहे हैं कि उनमें हर मौसम में जल बहाव रहेगा ?
सोचना चाहिए, छोटे-मोटे नाले, तालाब प्रतिकूल मौसम में सूख जाएं, समझ में आता है, पर यहां तो नदी ही सूख जा रही है?
कभी उत्तर भारत खासकर बिहार में लगातार तीन साल सूखा पड़ा था। साल 1950 से 1953 तक पानी की भारी कमी हो गई थी। रोहतास में मैंने एक व्यक्ति से पूछा था कि तब अकाल के समय पानी की क्या स्थिति थी। उन्होंने बताया था कि हमारा तालाब तब नहीं सूखा था, हां, उसमें पानी कम हो गया था। आपात स्थिति में हम कुएं से पानी लेते थे और दो-तीन दिन में कुएं में एक-दो फीट पानी इकट्ठा हो जाता था। तब इतनी बुरी हालत हो गई थी कि हमें रात के समय कुएं पर बारी-बारी से पहरा देना पड़ता था। रात के समय लगभग यह तय था कि कोई पानी नहीं निकालेगा और जो भी पानी जमा होगा, उसका इस्तेमाल दिन के समय जरूरत के हिसाब से किया जाएगा।
वास्तव में, आज भी गांव में अगर लोग यह तय कर लें कि अपने पानी का हर संभव तरीके से संरक्षण करना है, तो यह काम असंभव नहीं है। ध्यान रहे, आज समाज सक्षम भी है, जबकि तब समाज में अभाव था। 'अकाल पड़ता था, तो गरीबी भी घेर लेती थी। एक धोती को लंबाई में बीच से फाड़कर दो भगई बनाई जाती थी, बदन ढकने के लिए एक बजाय दो कपड़े हो जाते थे। लोग कमर पर भगई लपेट कर दिन गुजारते थे।
बाद में भी जब अकाल पड़ा, तब भगई लोगों के काम आती थी। लोग पानी बचाकर इस्तेमाल करते थे। कुओं में पानी कम हो जाता था, पर कुएं सूखते नहीं थे। समाज अपनी जरूरत का पानी बचाए रखता था, पर अब चिंता होती है कि अकाल तो कहीं नहीं है, पर कुएं, पोखरं सूखने लगे हैं। भूजल स्तर नीचे चला गया है, तो असंख्य कुओं में लोग कचरा भर दे रहे हैं। कुओं का महत्व खत्म होता जा रहा है। सूखते जल स्रोतों को हम भूलते जा रहे हैं।
कारण एक ही है कि भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ है। बाढ़ के समय नदियों में पानी आता है। ज्यादातर पानी भूगर्भ में चला जाता है, पर हमने भूगर्भ को इतना खाली कर दिया है कि बारिश और बाढ़ से भी भूगर्भ में जल की पूरी पूर्ति नहीं हो पाती है। यह भी सबको पता है कि भूगर्भ में जल पहुंचाकर ही समाधान हो सकता है। जमीन के नीचे पानी रहेगा, तभी तो जमीन के ऊपर बचेगा-बहेगा।
अफसोस, जल संरक्षण की केवल चर्चा होती `है। सत्ताधारी वर्ग को तो आसानी से पर्याप्त पानी उपलब्ध हो जाता है, तो भला वह जल संरक्षण की चिंता क्यों करे? हमारा सत्ताधारी वर्ग क्या जल के लिए जवाबदेह है? ध्यान दीजिए, पानी पर हम खर्च कम नहीं करते, तमाम जल स्त्रोतों के उद्धार पर हम खूब खर्च करते हैं, पर जमीन पर वांछित परिणाम नहीं दिखते हैं? क्यों नहीं दिखते हैं? क्या इसके बारे में पर्याप्त सोचा गया है?
अपने देश में जल स्रोतों के सूखते जाने की चेतावनी नई नहीं है, पर क्या इस चेतावनी को ईमानदारी से स्वीकार किया जा रहा है? ऐसे सवालों पर सभी को सोचना होगा, पर बड़ी चिंता है कि ऐसे सवाल अभी कितने लोगों को सता रहे हैं?
सक्षम वर्ग खामोश है। छोटे किसान और खेतिहर मजबूर हैं। देश के संपन्न इलाकों या राज्यों में तो काम चल जा रहा है, पर देश के अपेक्षाकृत अभावग्रस्त राज्यों के बारे में सोचने की जरूरत है। अभावग्रस्त राज्यों में अगर नदियां सूख रही हैं, कुएं, तालाब सूख रहे हैं, तो बचाव के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? इन इलाकों में रोजगार का अभाव हो रहा है, तो श्रमशक्ति को बाहर भेजने के इंतजाम किए जा रहे हैं। श्रमशक्ति जैसी ट्रेनें चलाई जा रही हैं। गरीबों को रोजगार की तलाश में बाहर जाना पड़ रहा है और बाहर उनकी जो बुरी स्थिति हो रही है, उसकी कितने लोगों को चिंता है? बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों के बारे में सोचना होगा। किसी भी अन्य प्रदेश में श्रमशक्ति को बाहर भेजने लाने के लिए ट्रेन नहीं चलती है, फिर उत्तर भारत में ही ऐसी ट्रेनों की क्या जरूरत है? जल स्त्रोत जब सूखते जाएंगे, तो श्रमशक्ति का पलायन भी तेज होगा, अतः सूखते जल स्रोतों का स्थाई उपचार खोजना होगा
जलस्रोतों के बारे में नीयत साफ करने की जरूरत है। लोगों को ही सोचना होगा। जब जरूरत से ज्यादा परेशानी होने लगेगी, तभी शायद सब जागेंगे। तमाम जिम्मेदार लोगों को बड़ी पहल के लिए मजबूर करेंगे, ताकि जल स्रोतों के संरक्षण के काम को अब कहीं भी टाला न जाए।