नदी और तालाब

वैदिक-पौराणिक चिन्तन का गंगा तत्त्व

Author : पुरुषोत्तम

‘वह ध्रुव-रूपी शैल शिखर से उतरती है। दुग्ध की तरह श्वेत धवल है। पूरी सृष्टि में वह व्याप्त है। उसका शब्द (अट्टहास) बहुत ही भयंकर है। वह अन्तरिक्ष में समुद्र की तरह विशाल झील का निर्माण करती है। उसे धारण करने में पर्वतगण समर्थ नहीं। महादेव ने उसे एक लाख वर्ष से धारण कर रखा है। वह पवित्रतम और पुण्यदायिनी है। उसके स्पर्श मात्र से सारे पापों से मुक्ति मिल जाती है।’ महाभारत, बाल्मीकि रामायण, पौराणिक और अन्य प्राचीन संस्कृत साहित्य ने गंगा से सम्बन्धित समझ को ऐसा ही रूप दिया है। इन ग्रन्थों का मानना है कि गंगा का जल दिव्य और कल्याणकारी है। यह मनुष्य का उद्धार करने वाला है।

श्रीमद्भागवत महापुराण का एक रूपक है। एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञ के लिए छोड़े गए घोड़े को इन्द्र ने चुरा लिया। सागर के साठ हजार पुत्रों ने घोड़े की तलाश में सारी पृथ्वी छान मारी। घोड़े को ढूँढ़ने के लिए उन्होंने पृथ्वी को चारों ओर से खोद डाला। वे गड्ढे ही बाद में समुद्र बन गए। तलाश के क्रम में उन्हें पूर्वोत्तर कोने पर मुनि कपिल के आश्रम के पास अपना घोड़ा बँधा दिखा। इन्द्र ने राजकुमारों की बुद्धि हर ली थी। घोड़े पर नजर पड़ते ही वे कपिल के आश्रम की ओर यह चिल्लाते हुए दौड़े- ‘हमारे घोड़े को चुराने वाला चोर यही है। देखो तो, इसने कैसे आँखें मून्द रखी है। इसे मारोे, इसे मारो।’ उन सबों ने कपिल-जैसे मुनि का तिरस्कार किया। शोर सुन कर कपिल ने आँखें खोली। आँखों के खुलते ही राजकुमारों के शरीर में आग लग गई। क्षण भर में ही वे भष्म हो गए। इसके बाद राजा सगर की आज्ञा से उनका एक पौत्र, अंशुमन घोड़ा को ढूँढ़ने निकला। वह अपने चाचाओं के शरीर के भष्म के पास पहुँचा। उसे वहाँ घोड़ा बँधा हुआ दिखा। वहीं पर कपिल भी ध्यानरत थे।

अंशुमन ने मुनि कपिल को प्रणाम किया। उसने प्रार्थना करते हुए कहा- ‘आप तो अजन्मा ब्रह्म से एकाकार हैं। हमलोग उनके मन, शरीर और बुद्धि से होने वाली सृष्टि के क्रम में बने अज्ञानी जीव हैं। हम भला आपको कैसे समझ सकते हैं। यह संसार माया की कृति है। माया को ही सत्य समझ कर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह के प्रभाव में भटकने के लिए हम लोग विवश हैं। आज आपके दर्शन से मेरे मोह की वह दृढ़ फाँस कट गई, जो कामना, कर्म और इन्द्रियों को जीवन देती है।’ अंशुमन की प्रार्थना का कपिल पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी आँखें खोली और कहा- ‘यह घोड़ा तो तुम्हारे पितामह का यज्ञ पशु है, पुत्र। तुम इसे ले जाओ। कपिल मुनि ने उसे बताया कि ‘तुम्हारे जले हुए चाचाओं का भी उद्धार सम्भव है। लेकिन, गंगा ही यह कर पाने में समर्थ है। उद्धार का दूसरा कोई उपाय नहीं है।’

अपने चाचाओं के उद्धार के लिए पहले अंशुमन, और बाद में उसके पुत्र दिलीप ने तपस्या की। इन दोनों को स्वर्ग से गंगा को उतार लाने में सफलता नहीं मिल सकी। इसके बाद दिलीप के पुत्र भागीरथ ने भीषण तपस्या की। भागीरथ की तपस्या से गंगा प्रसन्न हुईं। लेकिन उनके वेग को सह पाने में शिव के अलावा दूसरा कोई समर्थ नहीं था। गंगा को धारण करने के लिए भागीरथ ने उन्हें भी मना लिया। इस प्रकार गंगा पृथ्वी पर उतरीं और उनके पितरों का उद्धार किया।

यह रूपक गंगा रूपी प्रतीक के सहारे अभिव्यक्त अवधारणा का मानवीकृत रूप है। इसमें सृष्टि के स्वरूप को चर्चा का विषय बनाया गया है। राजा सगर और उनके साठ हजार पुत्र काम, ईर्ष्या, लोभ और मोह के प्रभाव में हैं। वे विशुद्ध चेतना से विमुख हैं। इनके अतिशय प्रभाव में सृष्टि का स्वरूप बिगड़ रहा है। परिणामत: विशुद्ध चेतना या परमसत्य के अप्रतिम साधक कपिलमुनि की आँखें खुलते ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र जल कर राख हो गए। बाद में राजा सगर की अगली पीढ़ियाँ भी उस विशुद्ध चेतना का सम्मान करने लगीं। तब जा कर सृष्टि का कल्याण करने वाली गंगा की वेगवती धारा फूट पड़ी और उसके स्पर्श मात्र से सगर पुत्रों का उद्धार हो गया।

गंगा से जुड़े चिन्तन की शुरुआत ऋग्वेद से होती है। इसके नदी सूक्त में दी गई नदियों की सूची में पहला नाम गंगा का है। हालाँकि तब गंगा रूपी प्रतीक के सहारे से अभिव्यक्ति पाने वाली अवधारणा का आरम्भिक दौर था। तब प्रतीक के रूप में सिन्धु को अधिक महत्त्व प्राप्त था। ऋग्वेद की तुलना में शतपथ और ऐतरेय ब्राह्मण की रचना के वक्त तक गंगा का महत्त्व बहुत बढ़ा। पुराणों में इसी का मानवीकृत रूप उभर कर आया है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अलावा अनेक पुराणों में गंगा की महिमा का वर्णन किया गया है। महाभारत और रामायण में भी गंगा अवतरण की कथा कही गई है।

कुछ पुराणों में तीन गंगाओं की चर्चा आई है। वे स्वर्ग की गंगा को मंदाकिनी, पृथ्वी की गंगा को भागीरथी तथा पाताल की गंगा को भोगवती कहते हैं। दरअसल ये ग्रन्थ सृष्टि को आत्मिक, दैविक और भौतिक कहे जाने वाले तीन आयामों में बँटा पाते हैं। वैदिक-पौराणिक चिन्तन की इस वैचारिक पृष्ठभूमि में गंगा के तात्त्विक स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों पक्षों पर चर्चा जरूरी है। वेद, उपनिषद और पुराणों ने अपनी अवधारणाओं को इन प्रतीकों और बिम्बों में अभिव्यक्ति दी है। इन प्रतीकों, बिम्बों और रूपकों को स्पष्ट किए बिना इनके वास्तविक अर्थ तक नहीं पहुँचा जा सकता।

गंगा अवतरण की उक्त कथा का आध्यात्मिक स्वरूप वैदिक देव-ब्रह्मवाद से गुंथा हुआ है। वैदिक समाज आरम्भ में मनुष्य के प्रत्येक कृत्य के मूल में दिव्यता को देखता था। उत्तर वैदिक काल में पाया गया कि दिव्यता तो सृजन प्रक्रिया के अगले पड़ाव पर पैदा होती है। तब माना गया कि परमता सृष्टि के मूल में है। वैदिक ऋचाएँ दिव्यता के विभिन्न आयामों को ही अलग-अलग देव प्रतीकों में देखती हैं। उनकी मान्यता है कि प्रत्येक भूत की क्रियाशीलता इसी पर निर्भर है। ऋक्, साम और यजुर्वेद की ऋचाएँ सृष्टि को तीन लोकों में बाँटती हैं। ऋचाएँ इन्हें द्यु, अन्तरिक्ष और पृथ्वी कह कर पुकारती हैं। द्युलोक के प्राण को आदित्य कहा जाता है। अन्तरिक्ष का प्राण वायु है। पृथ्वी के प्राण को अग्नि कहकर पुकारा जाता है। ऋचाएँ इन्हीं को क्रमश: आदित्य, रुद्र और वसु भी कहती हैं।

स्वच्छन्द विचरण करने वाले मेघ धरती रूपी शैय्या पर हलचल मचा कर जब रिक्त हो जाते, तब उस तेजोदिप्त जीवन-पुष्प को अपनी सरित्तंतुओं के सहारे नदियाँ धारण करती हैं। ये सरिताएँ ही पृथ्वी में जनन की शक्ति पैदा करती हैं। उसे गति प्रदान करती हैं। ये सरिताएँ माता पृथ्वी के शरीर में शिराओं का काम करती हैं। इन्हीं के सहारे जड़ और जंगम की सृष्टि निरन्तर होती और मिटती रहती है। और हवलदार त्रिपाठी सहृदय ने अपनी कृति ‘बिहार की नदियाँ’ में गंगा को इसी पृष्ठभूमि में भौतिक राष्ट्र की माता कहा है।

‘वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति’

युद्धकर्त्ता राजा जैसे सेना के साथ जाता है, वैसे ही तुम अपनी सहगामिनी नदियों के साथ जाती हो। ...वह मधुवधर्क पुष्पों से आच्छादित है। ...वह सुखकर और सुन्दर अश्व वाले रथों को जोतती है। ...उस रथ से भर-भर कर वह अन्न दे।

‘बिहार की नदियाँ’
‘जिन्होंने लोक-परलोक, धन- सम्पत्ति और स्त्री-पुरुष की कामना का परित्याग कर दिया है, जिन्होंने सांसारिक प्रपंचों से खुद को विलग कर लिया है, जो बह्मनिष्ठ और परोपकारी हैं, वे अपने स्पर्श से तुम्हारे पापों को नष्ट करेंगे’
लेखक पेशे से पत्रकार और शोधार्थी हैं। शोधपरक वृत्त चित्र बनाने में इनकी विशेष रुचि हैं।
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