मनुष्य अनन्त काल से प्राकृतिक विपदाओं की मार झेलता रहा है। अनेक विपदाएँ ऐसी हैं जिनका वह प्रतिकार करने में असमर्थ हैं। वह तो बस चुपचाप या रोते-धोते उनके दुष्परिणाम भुगतने को अभिशप्त हैं। यही नहीं मनुष्य ने अपने क्रिया-कलापों से अनेक प्राकृतिक विपदाओं की विनाशक शक्ति और उनकी आवृत्ति को बढ़ाने में ही योगदान दिया है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे संसार में औसतन एक लाख से अधिक लोग प्राकृतिक विपदाओं से मर जाते हैं और 20,000 करोड़ रुपयों की संपत्ति नष्ट हो जाती है।
संसार के सबसे अधिक प्राकृतिक विपदा प्रवण देशों में भारत का स्थान दूसरा है। पहले स्थान पर चीन है। अतः विपदाओं के कारण, परिणाम एवं इसके रोकथाम के उपाय के बारे में आम नागरिकों में जागरूकता पैदा करना आवश्यक है। इससे व्यक्ति एवं समाज अच्छी तरह से निपट सकता है। इस अध्याय में हम भूकंप, भूस्खलन, सूखा, बाढ़ और चक्रवात जैसी पाँच प्राकृतिक विपदाओं का अध्ययन करेंगे।
भारत विपदाओं से कई वर्षों से संघर्ष कर रहा है। हम उस दिन को कैसे भूल सकते हैं, जब 26 दिसंबर 2004 को सुनामी ने भारत के तटीय भागों में तबाही मचाई अथवा 26 जनवरी 2001 की सुबह जब भारत का पश्चिमी भाग भूकम्प से बुरी तरह प्रभावित हुआ था। ये तो कुछ उदाहरण हैं। हम प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया में हमेशा ऐसे समाचार सुनते हैं कि भारत का एक भाग बाढ़ द्वारा प्रभावित है जबकि दूसरा सूखे का सामना कर रहा होता है।
विभिन्न प्रकार की विपदाओं की छेद्यता के कारण भारत को ‘विपदा प्रवण राष्ट्र’ कहा जाता है। इसके कारण हैं-
(क) 55 फीसदी से ज्यादा भूभाग भूकम्प की आशंका से ग्रस्त है,
(ख) 12 फीसदी भूभाग बाढ़ प्रवण है,
(ग) 8 फीसदी भाग चक्रवातों से प्रभावित है, और
(घ) 70 फीसदी कृषि भूमि सूखा प्रवण है।
नवीय क्रिया कलापों से भौतिक पर्यावरण की छेद्यता निरंतंर बढ़ती जा रही है। लेकिन यह एकतरफा संबंध नहीं है। मानव पर्यावरण का अंग है। इसीलिए वह पर्यावरणीय प्रक्रियाओं के प्रभावों से बच नहीं सकता। जब स्थानीय, प्रादेशिक या भूमंडलीय स्तर की पर्यावरणीय प्रक्रियाएं जैसे भूकंप, बाढ़ चक्रवात, भूस्खलन अथवा सूखा, मानव और उसकी संपत्ति के लिए खतरा पैदा करने लगते हैं, तब इन्हें प्राकृतिक संकट कहते हैं। जब तक मानव या संपत्ति को इनसे कोई खतरा नहीं होता, ये केवल प्राकृतिक घटनाएं है। उदाहरण के लिए अंटार्कटिका में चलने वाला बर्फानी तूफान एक प्राकृतिक घटना है। लेकिन यदि यह तूफान हमारे वैज्ञानिक शोध केन्द्र दक्षिण गंगोत्राी के लिए खतरा पैदा करता है तो इसे (बर्फानी तूफान) प्राकृतिक संकट कहा जाएगा।
जब प्राकृतिक संकट मानव और संपत्ति को हानि पहुंचा देते हैं अर्थात् इन के प्रभाव से लोग मर जाते हैं और संपत्ति नष्ट हो जाती है तो इसे प्राकृतिक विपदा कहा जाता है। उदाहरण के लिए 26 दिसंबर 2004 को सुमात्रा के पास के सागर में उत्पन्न भूकंप से बनी सुनामी (भूकंपीय ऊंची समुद्री लहर) भारत, श्रीलंका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देशों के लिए प्राकृतिक विपदा बन गई थी। इससे अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु के तट पर धन जन की हानि हुई थी।
मानसूनी वर्षा के प्रारंभ होते ही देश के 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रा में रहने वाले लोगों की चिंताएँ बढ़ने लगती हैं। पता नहीं कब नदी में उफान आ जाए और उनके गाढ़े पसीने की कमाई पानी में बह जाए। अन्य सभी विपदाओं की तुलना में बाढ़ से जान-माल को सबसे अधिक हानि होती है। दुनिया में बाढ़ से होने वाली मौतों में से 20ः भारत में होती है।
ऐसे भूमि क्षेत्रा में वर्षा या किन्हीं अन्य जल सं्रोतों के जल का भर जाना जिसमें सामान्यतः पानी नहीं भरता है, बाढ़ कहलाता है। दूसरे शब्दों में नदी के तटों को तोड़कर या उनके ऊपर से होकर जल का चारों ओर फैल जाना ही बाढ़ है। बाढ़ कई तरह से आती है। बाढ़ के कारण, उससे होने वाली क्षति एवं उसके रोकथाम का वर्णन निम्न है-
भारत में बाढ़ आने के निम्नलिखित कारण हैंः-
नदियों में आई बाढ़ की मार मनुष्य और पशुओं दोनों को झेलनी पड़ती है। बाढ़ से लोग बेघर हो जाते हैं। मकान ढह जाते हैं। उद्योग धन्धे चौपट हो जाते हैं। फसलें पानी में डूब जाती हैं। बेजुबान पालतू पशु और वन्य जीव मर जाते हैं। तटवर्ती क्षेत्रों में मछुआरों की नावें, जाल आदि नष्ट हो जाते हैं। मलेरिया, दस्त जैसी बीमारियां फैल जाती हैं। पेय जल प्रदूषित हो जाता है तथा कभी-कभी उसकी भारी कमी हो जाती है। खाद्यान्न नष्ट हो जाते हैं और बाहर से आपूर्ति कठिन हो जाती है। प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ के कारण होने वाली हानि घटने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। सन् 1953 में बाढ़ से 2.43 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे। सन् 1987 तक आते-आते बाढ़ प्रभावित लोगों की संख्या बढ़कर 4.83 करोड़ हो गई। एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष औसतन 210 करोड़ रूपये मूल्य की संपत्ति नष्ट हो जाती है। 6 करोड़ लोगों पर बाढ़ का असर पड़ता है तथा एक करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र की फसलें बरबाद होती हैं।
(क्षेत्र जहां बाढ़ आ सकती हैं) - देश का लगभग 4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र बाढ़ प्रवण है, जो देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग आठवां भाग है। सबसे अधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्रा सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र की द्रोणियों में ही है। राज्यों की दृष्टि से बाढ़ प्रवण राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम हैं। इनके बाद हरियाणा, पंजाब और आंध्रप्रदेश का स्थान है। अब तो राजस्थान और गुजरात में भी बाढ़ आती है। कर्नाटक और महाराष्ट्र भी बाढ़ से अछूते नहीं हैं।
(क) संग्रहण जलाशयः नदियों के मार्गों में संग्रहण जलाशयों के निर्माण से अतिरिक्त पानी को उनमें रोका जा सकता है लेकिन अब तक किए गए उपाय कारगर सिद्ध नहीं हुए हैं। दामोदर नदी की बाढ़ रोकने के लिए बनाए गए बाध्ं उसकी बाढ़ों को नहीं रोक पाए हैं।
(ख) तटबंधः नदियों के किनारों पर तटबंध बनाकर पाश्र्ववर्ती क्षेत्रों में फैलने वाले बाढ़ के पानी को रोका जा सकता है। दिल्ली में यमुना पर बने तटबंधों का निर्माण बाढ़ रोकने में कारगर सिद्ध हुआ है।
(ग) वृक्षारोपणः नदियों के जलग्रहण क्षेत्रा में यदि वृक्षारोपण किया जाए तो बाढ़ के प्रकोपों को काफी कम किया जा सकता है।
(घ) प्राकृतिक अपवाह तंत्रा की पुनस्र्थापनाः सड़कों, नहरों, रेलमार्गों आदि के निर्माण से अवरूद्ध प्राकृतिक अपवाह तंत्रा को पुनः चालू करने से भी बाढ़ें रोकी जा सकती हैं।
लगभग 4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र पर बाढ़ की आशंका बनी रहती है। इसमें से 1.44 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र को कुछ सीमा तक बाढ़ से सुरक्षित कर दिया गया है। इसके लिए तटबंधों और अपवाह नालियों का निर्माण किया गया है। कस्बों और नगरों की सुरक्षा के उपाय और गांवों को ऊँची भूमि पर बसाने के उपाय किए गए हैं। नौवीं योजना के
अंत तक बाढ़ को रोकने के लिए 8,000 करोड़ रू. व्यय किए जा चुके हैं।
सूखे की त्रासदी मानव को धीरे-धीरे पर विशाल स्तर पर प्रभावित करती है। यह एक अलग तरह का दर्द है, पर है बड़ा कष्ट कारक। अपनी आँखों के सामने अपने प्यारे पालतू पशुओं को भूख-प्यास से तड़प कर मरते हुए देखना, बेहद अनिश्चय और शोषण के हालात में अपने प्रियजनों को, सैकड़ों मील दूर रोजगार की तलाश में भेजना, रूखे-सूखे भोजन में भी दिनों दिन कटौती होते जाना, राहत कार्यों पर दिन भर भटकना और रात को निराश लौटना ये सब दर्दनाक दृश्य हैं।
मौसम विज्ञानियों के शब्दों में ’’काफी लंबे समय तक एक विस्तृत प्रदेश में वर्षण की कमी ही सूखा है।‘‘ सूखे के लिए अकाल और अनावृष्टि जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया
जाता है। जब कृषक वर्ग के लिए भौम जल उपलब्ध न हो सके तो भी सूखे की स्थिति होती है। मौसमी परिस्थितियों के कारण किसी भी क्षेत्रा-विशेष की फसलें 50 प्रतिशत से भी ज्यादा खराब हो जाती है तो सरकार उस क्षेत्रा को सूखा क्षेत्रा घोषित करती है।
- सूखे का एक मात्रा कारण वर्षा की कमी है। लेकिन मानव ने प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करके अपने क्रिया कलापों से पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ दिया है। लोगों ने जलाशयों (तालाबों, झीलों, जोहड़ों) को पाट दिया है। वनस्पति का आवरण नष्ट कर दिया है। वनस्पति के कारण वर्षा का जल भूमि में रिसता रहता है क्योंकि वनस्पति उसके प्रवाह को अवरूद्ध करती रहती है। मनुष्य ने लाखों की संख्या में नलकूप लगाकर भूमिगत जल के भंडारों को भी कम किया है।
सूखे के कारण भोजन और पानी की कमी हो जाती है। भूखे-प्यासे लोग त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। भुखमरी, कुपोषण और महामारियों से अकाल मौतें होने लगती हैं। मजबूरन लोगों को अपना क्षेत्र छोड़ कर पलायन करना पड़ता है। पानी की कमी से फसलें सूख जाती हैं। मवेशी चारे-पानी के अभाव में मरने लगते हैं। खेती करने वाले लोगों का रोजगार छिन जाता है। भोजन, पानी, हरे चारे और रोजगार की तलाश में लोग गाँव के गाँव छोड़ कर बच्चों के साथ दूर-बहुत दूर की अनिश्चित यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं।
दिए गये मानचित्र का ध्यानपूर्वक अध्ययन कीजिए। इस मानचित्र में सूखा प्रवण क्षेत्रों की एक प्रमुख पट्टी दक्षिणी राजस्थान और तमिलनाडु के बीच है। इस पट्टी में दक्षिणी पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, मध्यवर्ती महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु है।
मानसूनी वर्षा की कमी और पर्यावरण हृास के कारण राजस्थान और गुजरात प्रायः सूखे की चपेट में रहते हैं। भारत के 593 जिलों (2001) में से 191 जिले भयंकर रूप से सूखा प्रवण है। राजस्थान के अधिकांश क्षेत्र सन् 2003 में चैथे वर्ष लगातार सूखे की चपेट में थे।
यह कार्यक्रम 1973 में शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम के निम्नलिखित उद्देश्य हैंः
(क) फसलों, मवेशियों, भूमि की उत्पादकता, जल और मानव संसाधनों पर सूखे के प्रतिकूल प्रभावों को कम करना। जिस तरह से गुजरात क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों के समन्वित विकास के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकियों का प्रयोग किया गया है, वैसा करके अन्य भागों में सूखे के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
(ख) वर्षा जल का विकास, संरक्षण और समुचित उपयोग करके लंबे समय तक पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखा जा सकता है।
(घ) संसाधनों के अभाव से ग्रस्त और सुविधाओं से वंचित समाज की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारना।
अगस्त 1988 में पिथौरागढ़ से कैलाश-मानसरोवर पैदल पथ पर ‘धारचूला’ से लगभग 60 कि.मी. दूरी पर लामारी के पास भूस्खलन हुआ था। यह बूंदी और मालपा के बीच लामारी नामक स्थान पर आधी रात को भारी भूस्खलन से काली नदी का प्रवाह अवरूद्ध हो गया था। प्रवाह के रूकने से करीब 1ण्5 वर्ग कि.मी. क्षेत्रा में जल ही जल हो गया था। इस प्रकार बनी झील में जल जमा हो रहा था। कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए देश के कोने-कोन से आये थके-हारे यात्री इसी क्षेत्र में चैन की नींद सो रहे थे। इस दुर्घटना में 60 यात्री अकाल ही काल के ग्रास बन गये थे।
पर्वतीय ढ़ालों या नदी तटों पर छोटी शिलाओं, मिट्टी या मलबे का अचानक खिसकर नीचे आ जाना ही, भूस्खलन है। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन का सिलसिला निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। इससे पर्वतों के जन-जीवन पर बुरे प्रभाव दिखाई पड़ने लगे हैं। भूस्खलन प्रवण क्षेत्र-हिमालय, पश्चिमी घाट और नदी घाटियों में प्राय भूस्खलन होते रहते हैं। स्खलनों का प्रभाव जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम तथा सभी सात उत्तर पूर्वी राज्य भूस्खलन से ज्यादा ही त्रास्त है। दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल को भूस्खलन का प्रकोप झेलना पड़ता है।
सामान्य शब्दों में धरातल का अचानक कांपने लगना या हिल उठना ही भूकंप है। अधिकतर भूकंप हल्के से कंपन के रूप में आते हैं। लेकिन बड़े या विनाशकारी भूकंप प्रायः हल्के झटकों के साथ शुरू होते हैं और फिर झटकों की तीव्रता बढ़ती जाती है तथा उसके बाद झटकों की तीव्रता कम होती जाती है। झटकों की अवधि प्रायः कुछ सेकेंडों में ही होती है। भूकंप अचानक आनेवाला संकट है। एक हिन्दी कवि के शब्दों में ‘‘भूकंप आता बिना कहे, सांस छुट्टी कर जाती है’’। भूकंप साल में कभी भी, दिन में या रात में आ सकता है। इसका अचानक प्रभाव होता है। पहले से कोई चेतावनी संकेत नहीं मिलते। निरंतर और गंभीर शोध के बावजूद मानव भूकंप की भविष्यवाणी करने या पूर्वानुमान लगाने में आज तक सफल नहीं हो सका है
तीव्र भूकंप की आशंका वाले क्षेत्र- भारतीय मानक ब्यूरो ने भूकंप के विभिन्न तीव्रताओं वाले क्षेत्रों का मानचित्रा बनाया है। इसका संशोधित संस्करण सन् 2002 में प्रकाशित किया गया था। (देखिए चित्रा 18ण्4) भूकंपों की तीव्रता में भिन्नता के आधार पर संपूर्ण भारत को चार क्षेत्रों में बांटा गया है। प्रत्येक क्षेत्रा की तीव्रता और भूकंप से होने वाली हानियों का विवरण नीचे दिया गया है।
दिल्ली और मुबंई अधिक खतरे वाले क्षेत्रा सं. IV में स्थित हैं। संपूर्ण उत्तर-पूर्वी भारत, कच्छ, गुजरात, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर के कुछ भाग अत्यधिक खतरे वाले क्षेत्रा संख्या-ट में शामिल हैं। अब प्रायद्धीपीय पठार भी भूकंपों से अछूता नहीं रहा है। महाराष्ट्र राज्य के लाटूर (1993, रिक्टर पैमाने पर तीव्रता 6.4) तथा कोयना (1967, तीव्रता 6.5) के भूकंप इस बात के प्रमाण हैं।
चक्रवात निम्न वायुदाब के केन्द्र होते हैं। इनमें केन्द्र से बाहर की ओर वायु दाब-बढ़ता जाता है। नतीजतन परिधि से केन्द्र की ओर पवन चलने लगती है। चक्रवात में पवनों की दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सूईयों के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उनके अनुरूप होती है। स्थिति और भौतिक गुणों की दृष्टि से चक्रवात दो प्रकार के होते हैं। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात और उष्ण कटिबंधीय चक्रवात। यहाँ हम ऊष्ण कटिबंधीय चक्रवात की ही चर्चा करेंगे और उसके लिए केवल चक्रवात शब्द का ही प्रयोग करेंगे क्योंकि अब मौसम विज्ञान की शब्दावली में शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात को अवदाब और उष्ण कटिबंधीय चक्रवात को केवल चक्रवात ही कहते हैं।
‘‘चक्रवात अत्यंत निम्न वायुदाब का लगभग वृत्ताकार तूफानी केन्द्र हैं, जिसमें चक्करदार पवन प्रचंड वेग से चलती है तथा मूसलाधार वर्षा होती है।’’ वायुमंडल के सामान्य परिसंचरण में चक्रवात महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक पूर्ण विकसित चक्रवात मात्रा एक घंटे में 3 अरब 50 करोड़ टन कोष्ण आर्द्र वायु को निम्न अक्षांशों में स्थानान्तरित कर देता है।
चक्रवात एक ऐसी परिघटना है जो वर्ष के कुछ महीनों तक ही सीमित रहती है। भारत में अधिकतर चक्रवात मानसून के बाद अक्टूबर-दिसंबर या मानसून से पहले अप्रैल-मई में आते हैं। सामान्यतः चक्रवात की जीवन अवधि 7 से 14 दिनों की होती है।
चक्रवात में बाहर के उच्च वायुदाब से केन्द्र के निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर पवन बड़े वेग से चलती हैं। इनके साथ-साथ ही चक्रवात का पूरा का पूरा तंत्रा ही (बंगाल की खाड़ी में) पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर 15 से 30 कि.मी. प्रति घंटे की गति से आगे बढ़ता है। उड़ीसा में आया चक्रवात अंडमान द्वीप समूह के पास बना था और कई दिन बाद 29 अक्टूबर 1999 को उड़ीसा पहुँचा था। जिस तरह एक लट्टू अपनी कीली पर चक्कर खाते हुए किसी एक दिशा में आगे सरकता रहता है, उसी तरह चक्रवात भी आगे बढ़ता है। समुद्रों के ऊपर पैदा होकर चक्रवात स्थल पर पहुंच कर विघटित हो जाते हैं।
भारत में सबसे अधिक चक्रवात पूर्वी तट पर आते हैं। चक्रवात के संकट की आशंका वाले राज्य हैं- पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु। पश्चिमी तट अरब सागर में बने चक्रवातों से प्रभावित होता है। चक्रवात से उत्पन्न विपदा को सबसे अधिक झेलने वाला पश्चिमी तट का राज्य गुजरात है। महाराष्ट्र के तटीय और कुछ
अंदरूनी क्षेत्रा भी चक्रवात के प्रकोप की चपेट में आते हैं। संसार किसी भी सागर की तुलना में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में सबसे अधिक चक्रवात आते है।
चक्रवात जिधर से गुजरते हैं, वहां महाविनाश करके निकलते हैं। चक्रवातों के प्रचंड वेग से कच्ची झोंपड़ियां तो क्या कंक्रीट, लोहे और पत्थरों से बने महल और किले भी धाराशायी हो जाते हैं। पेड़, बिजली के खंभे आदि जो कुछ भी सामने आता है टूट-फूट जाता है। मूसलाधार वर्षा बाढ़ का कारण बन जाती है। बाढ़ का पानी चारों ओर तबाही
मचा देता है। चक्रवात के वेग से सागर में उत्ताल तरंगें उठती हैं। ये पानी की दीवारों की तरह आती हैं और तट से 10-15 कि.मी. की दूरी तक घर-द्वार, खेत-खलिहान, सड़कें, भवन, गांव और नगर सभी को निगल जाती हैं। चक्रवाती वर्षा से उत्प्रेरित भूस्खलन और भी अधिक विनाशकारी सिद्ध होते हैं। विकसित देशों ने तो चक्रवात के प्रतिकार के उपाय खोज लिए हैं। समय पर दी गई।
सही चेतावनी से लोगों की जान बच जाती है। केवल धन, संपत्ति ही नष्ट होती है। इसके विपरीत विकासशील देशों में चक्रवात से लोग असमय ही मृत्यु को प्राप्त करते हैं, धन-संपत्ति का विनाश तो होता ही होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में सितम्बर 1989 में प्रलयंकारी ह्यूगो हरीकेन आया। सही एवं समयानुसार भविष्यवाणी के कारण केवल 21 लोगों की जानें गई थीं। इसके विपरीत 1991 के बाँग्लादेश के चक्रवात में 1,39,000 लोग मृत्यु का ग्रास बन गए थे।