मौसम

भारतीय मौसम पूर्वानुमान तकनीक की प्रासंगिकता

Author : शशि भूषण

भारतीय सभ्यता काफी पुरानी है। काल के इस लम्बे अंतराल में हुए अनुभवों एवं प्रकृति की प्रयोगशाला में नित्य किए गए प्रयोगों पर आधारित प्राप्त ज्ञान ने भारतवंशियों को अत्यंत ही दक्ष मौसम वैज्ञानिक बना दिया है। अपने ऐसे मौसम विज्ञान एवं मौसम पूर्वानुमान से संबंधित ज्ञान के सूत्रों को हमारे वैज्ञानिकों ने अत्यंत ही सरस एवं सुबोध लोकभाषा में सूत्रबद्ध करके प्रचारित करवाया है। इसके परिणामस्वरूप भारतीय मौसम वैज्ञानिक तथ्य अत्यंत ही लोकप्रिय होकर लोक-परंपराओं के रूप में स्थापित हो गए हैं। ऐसे लोकप्रिय भारतीय मौसम वैज्ञानिक तथ्यों को लोकोक्तियों, लोक-गीतों, लोक-कथाओं तथा लोक-साहित्य के रूप में हमारे गांव के लोग भी जानते हैं। इनका (मौसम संबंधित ज्ञान को) वे आज भी अपने स्तर पर प्रकृति में निरीक्षण करते रहते हैं। फलतः वे भी दक्ष मौसम वैज्ञानिक हैं। अपनी निकट प्रकृति में छोटी-छोटी घटनाओं का भी वे गहन विश्लेषण करते हैं। इनके आधार पर वे सटीक मौसम पूर्वानुमान करते हैं। पर्यावरण की दृष्टि से मौसम अत्यंत ही महत्वपूर्ण तत्त्व है, क्योंकि जमीन, जल, जंगल, जंतु तथा वायु पर्यावरण के अन्य घटक मौसम से ही प्रभावित होते हैं। भारत जैसे मानसूनी जलवायु के क्षेत्र में तो वर्ष कई स्पष्ट मौसमों में विभक्त रहता है। सर्दी, गर्मी एवं वर्षा की यहां तीन ऋतुएं होती हैं। ये चार-चार महीनों की होती हैं। हालांकि प्राचीन साहित्यों में बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत तथा शिशिर नामक छः ऋतुओं का उल्लेख किया गया है। ये ऋतुएं दो-दो महीनों की होती हैं। हेमंत (कार्तिक एवं अगहन की तथा शिशिर (पौष एवं माघ) ऋतुओं को मिलाकर सर्दी का मौसम, बसंत (फाल्गुन एवं चैत्र) व ग्रीष्म (वैशाख व ज्येष्ठ) को संयुक्त स्वरूप में गर्मी का मौसम तथा वर्षा (आषाढ़ और सावन) और शिशिर (भादो व आश्विन) ऋतुओं को सम्मिलित रूप से वर्षा ऋतु कहा जाता है।

कार्तिक, अगहन, पूस एवं माघ (नवम्बर से फरवरी तक) महीनों में सर्दी का मौसम रहता है। कार्तिक एवं अगहन की सर्दी तो सुखद रहती है, जिसे हेमंत ऋतु कहा जाता है, परंतु पूस एवं माघ में यह जानलेवा हो जाती है। फाल्गुन, चैत्र, बैसाख एवं जेठ (मार्च से जून तक) में गर्मी का मौसम रहता है। फाल्गुन एवं चैत्र में गर्मी सुखद रहती है। इसे वसंत ऋतु भी कहा जाता है, जबकि बैसाख एवं जेठ में भीषण गर्मी पड़ती है। जेठ की गर्मी तो जानलेवा हो जाती है। आषाढ़, सावन, भादो एवं आश्विन (जुलाई से सितम्बर तक) वर्षा के माह होते हैं। पहले तीन महीनों में भारी वर्षा होती है। इस तरह विभिन्न मौसम के जो अलग-अलग स्वरूप हैं, उनका हमारे पर्यावरण पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है। ये हमारी अर्थव्यवस्था को भी विभिन्न प्रकार से प्रभावित करते हैं। इसलिए मौसम का पूर्वानुमान काफी लाभप्रद एवं महत्वपूर्ण होता है। आने वाले मौसम के बारे में समय रहते पूर्व में ही जानकारी हो जाने पर भविष्य में पर्यावरण एवं अर्थव्यवस्था संबंधी योजनाएं पहले से ही बनाई जा सकती हैं। भारतीय परंपराओं में मौसम के ऐसे पूर्वानुमानों की अत्यंत ही विकसित तकनीकों की व्यापकता एवं प्रचुरता है।

अनपढ़ कहे जाने वाले (हालांकि वे अनपढ़ तो हैं, परंतु अज्ञानी नहीं हैं, अपितु वे अत्यंत ही बुद्धिमान व तेजस्वी हैं) अतएव मौसम पूर्वानुमान से संबंधित हमारी पारंपरिक तकनीक, जो लोक-परंपराओं के रूप में पूरे देश में विद्यमान हैं, आज भी न केवल पूरी तरह से प्रासंगिक हैं, अपितु पाश्चात्य आधुनिक मौसम पूर्वानुमान की विद्या की तुलना में ज्यादा ही प्रामाणिक, सटीक, वैज्ञानिक तथा सूक्ष्म हैं (तालिका-1)। मौसम पूर्वानुमान से संबंधित भारतीय लोकपरंपराओं के कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं, लेकिन इसके पूर्व आधुनिक तकनीक पर अधारित मौसम पूर्वानुमान के पाश्चात्य पत्तियों तथा लोक-पर्यवेक्षण पर आधारित भारतीय विधियों के तुलनात्मक विश्लेषण का उल्लेख प्रासंगिक है।

क्रम संख्या

मौसम पूर्वानुमान की पद्धतियों

आधुनिक पाश्चात्य

पारंपरिक भारतीय

1
पूर्णतया संगठित, उत्तम

सुसज्जित, अतिशय परिष्कृत व सूक्ष्मतम स्तर तक के परिशुद्धता वाले यंत्रों से युक्त

संपूर्ण भारत के ग्रामांचलों में लोकप्रिय लोकोक्तियों, लोक-गीतों, लोक-संगीतों, लोक-कथाओं तथा लोक-साहित्यों के रूप में बेतरतीब रूप से विद्यमान
2
समस्त अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस उत्तम विकसित आधारभूत संरचनाओं वाली समुन्नत स्थापित प्रयोगशालाएं
अतिशय व्यापक तथा असीमित विस्तार वाली प्रकृति ही प्रयोगशाला
3
मात्र 400 या 500 वर्ष पुराना अत्यल्पकालीन इतिहास
हजारों-हजार वर्षों का सुदीर्घ इतिहास
4
अत्यंत खर्चीला एवं अत्यधिक निवेश की आवश्यकता
निवेशविहीन व नितांत सस्तापन
5
शोधार्थ उच्चस्तरीय प्रशिक्षित विशेषज्ञों की आवश्यकता
गैर-प्रशिक्षित तथा गैर-तकनीकी विशेषज्ञता वाले सर्वसामान्य भी मौसम पूर्वानुमान में सक्षम
6
वर्तमान मौसम वैज्ञानिक आंकड़े ही औजार
हजारों हजार वर्षों के अतिशय लंबे दौर में विकसित पर्यवेक्षण एवं अनुभव ही औजार
7
अतिशय कठिन संचालन
अति सरल विश्लेषण
8
उपकरणीय एवं गणितीय पर्यवेक्षणों पर आधारित परिणाम
मेघों की दशाओं, पवनों की प्रवृत्तियों, जंतुओं तथा पक्षियों के व्यवहारों आदि जैसी प्राकृतिक दशाओं के आधार पर निकाले गए परिणाम
9
परिणाम प्रायः ही अपूर्ण, भ्रामक, अशुद्ध, अवास्तविक तथा अविश्वसनीय
परिणाम प्रायः ही पूर्ण, सत्य, शुद्ध, वास्तविक, अधिकृत तथा विश्वसनीय

सावन मास बहै पुरबईया। बेच वर्धा किन गईया।।
अथवा
सावन मास बहै पुरवाई। बरध बेचि बेसाहो गाई।।



इसका सारांश यह हुआ कि गंगा के मैदान में सावन के महीने में अगर हवा पूरब दिशा से चले तो वर्षा नहीं होगी। सावन का महीना गंगा की मध्य घाटी में मध्य जुलाई से मध्य अगस्त तक का माह होता है। इस मौसम में पछुआ हवाओं के चलने से ही वर्षा होती है, क्योंकि दक्षिण-पश्चिम मानसून की बंगाल की खाड़ी शाखा की जल-वाष्पपूरित हवाएं इस क्षेत्र के आकाश में फैली रहती हैं एवं पूरब (बंगाल की खाड़ी) से पश्चिम की ओर चलती हैं। ऐसी स्थिति में पश्चिम (थार के तप्त मरुस्थल) से चलने वाली शुष्क हवाएं जब इस प्रदेश में पहुंचती हैं तब पूरब से चलने वाली वर्षादायिनी हवाओं का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप पूरबी हवाएं ऊपर उठने लगती हैं। इस क्रम में वे काफी ऊपर पहुंच जाती हैं, जहां तापमान की कमी के कारण वे ठंडी होने लगती हैं। इस तरह इन हवाओं के जलवाष्प ठंडे होकर गैसीय अवस्था से जल के कणों में बदल जाते हैं और वर्षा के रूप में भूतल पर गिरने लगते हैं। इस प्रकार यहां भारी वर्षा होती है। इसके विपरीत जब इस मौसम में पूर्वी हवायें चलती हैं तब पश्चिमी हवाओं के अवरोध के अभाव में वे बेरोकटोक पश्चिम की ओर बढ़ती चली जाती हैं और वर्षा नहीं कर पाती हैं (चित्र संख्या - 2 व 3)।

इस मौसम में पछुआ हवाओं के कारण हुई अच्छी वर्षा कृषि-कार्यों के लिए अत्यंत ही लाभदायक होती है, क्योंकि यह इस कृषि प्रधान क्षेत्र में कृषि-कार्यों के प्रारंभ का समय होता है। अगहनी एवं भदई की फसलों के लगाए जाने एवं इनके विकास का यही समय होता है। इनके लिए इस समय वर्षा की नितांत आवश्यकता रहती है। यह धान के रोपणी का भी समय रहता है। इसको काफी पानी की आवश्यकता पड़ती है। इन सबों को इस वर्षा से काफी गति प्राप्त होती है। पश्चिमी हवाओं के अभाव में जब यहां वर्षा नहीं होती है तब इसी मानसूनी वर्षा पर आधारित इस कृषि प्रधान भूभाग में वर्षा विहीनता की स्थिति उत्पन्न होने पर सूखा पड़ जाता है। फलतः फसलोत्पादन बाधित हो जाता है।

इससे निपटने के लिए यहां की कृषि अर्थव्यवस्था के आधार-स्तम्भ के रूप में मान्य बैलों (बर्ध) को बेचकर दुधारू गायों को खरीदने के सुझाव दिए गए हैं। ऐसा इसलिए कि इस प्रतिकूल स्थिति में कृषि-कार्यों के असंचालन से तत्कालीन तौर पर बेकार एवं अनुपयोगी हो गए बैलों की जगह दुधारू गायों से आजीविका के विकल्प तैयार किए जा सकते हैं। अर्थात् गायों से वह (कृषक) अपना निर्वाह कर लेगा।

जो पुरबा पुरबईया पाबै, सुखल नदी में नाव चलाबै।
अथवा
जो पुरबा पुरबईया पाबै, झूरी नदी में नाव चलाबै।
ओरी के पानी बरेड़ी जावै।।



अर्थात् पूरबा नक्षत्र (अगस्त के आखिरी चरण से सितम्बर के प्रारंभिक चरण तक) में जब हवा मध्य गंगा मैदान में पूरब दिशा से चलने लगती है तो इतनी भारी वर्षा होती है कि सूखी हुई नदी में भी बाढ़ आ जाती है और उस नदी में नाव चलने लगती है। यह मध्य वर्षाऋतु का काल रहता है, जो धान के पौधों के विकास की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होता है और इसके लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए पूरब दिशा से ही हवा का चलना काफी महत्वपूर्ण होता है।

इस मौसम में गर्म पछुआ हवाओं का विस्तार गंगा के मैदान में काफी पूरब तक हो जाता है। उसी समय जब बंगाल की खाड़ी से पूर्वी हवाएं चलती हैं तब जैसे ही इन दोनों विभिन्न चरित्र वाली हवाओं का मिलन होता है तो पूर्वा हवा के मार्ग में पछुआ हवाओं द्वारा व्यवधान उपस्थित कर दिए जाने से तथा पूर्वी हवाओं के ऊपर उठकर संघनित हो जाने से इस मैदानी भाग में भारी वर्षा होती है। चूंकि यह काल धान तथा अन्य खरीफ फसलों के विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है, जिसके लिए पानी निहायत ही आवश्यक रहता है, इसीलिए इस मौसम की वर्षा अति उत्तम मानी जाती है।

हवाओं की दिशा ज्ञात करने का प्राचीन धार्मिक भारतीय उपकरण

प्राचीन भारतीय ज्ञान एवं मौसम के सटीक पूर्वानुमान के कुछ अन्य तथ्य

(लेखक पटना विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग में रिसर्च स्कॉलर हैं।)


ई-मेल : shashigeography1987@gmail.com

SCROLL FOR NEXT