उत्तराखंड के कुमाऊं पहाड़ों में स्थित तुला कोटे गांव में एक महिला एक चश्मे से पानी भरती हुई। छायाकार: फर्नांडो क्वेवेदो डी ओलिवेरा/आलमी
सफलता की कहानियां

स्प्रिंगशेड इनीशिएटिव: फिर बहने लगे हैं हिमालय के सूखते नौले-धारे

संस्‍थाओं और सरकार की साझा पहल के चलते स्‍थानीय समुदाय इन परंपरागत जल स्रोतों के संरक्षण के लिए जागरूक हो रहे हैं।

Author : केसर सिंह

उत्तर भारत की बड़ी आबादी का जीवन हिमालयी ग्लेशियरों, नदियों और पारंपरिक स्रोतों जैसे नौलों, धारों और चश्मों पर निर्भर है। ये स्रोत ही पीने, सिंचाई और मवेशियों के लिए पानी मुहैया कराते हैं। 

हालांकि, बीते बरसों में जंगलों की बेहिसाब कटाई, पहाड़ी ज़मीन के बदलते इस्तेमाल और बढ़ते बेतरतीब निर्माण ने स्थितियों को काफ़ी बदल दिया। फिर जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम का मिज़ाज भी पहले जैसा नहीं रहा। लिहाजा, कई जगहों पर ये जल स्रोत या तो सूख गए हैं या कमज़ोर पड़ने लगे हैं। 

भारत में लगभग 50 लाख प्राकृतिक चश्मे हैं, जिनमें से 60% हिमालयी क्षेत्र में हैं। नीति आयोग की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार हिमालयी क्षेत्र के लगभग 30 लाख प्राकृतिक नौले-धारे 20 करोड़ से अधिक लोगों की पेयजल जरूरतें पूरी करते हैं। चिंता की बात यह है कि इनमें से आधे से ज़्यादा चश्मे-नौले अब साल भर बहने के बजाय केवल मौसमी बहाव वाले हो चुके हैं या पूरी ही तरह सूख गए हैं। 

इस बदलाव के कारण इलाके लोगों की मुश्किलें बढ़ गईं। महिलाएं और बच्चे रोज़ाना पानी लाने के लिए कई कोस दूर तक जाने लगे। इन्हीं मुश्किलों को देखते हुए सरकार और समाज ने मिलकर काम शुरू किया। उत्तराखंड से लेकर सिक्किम और नागालैंड तक सूखते चश्मों को बचाने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए गए। 

एक्वाडैम व अर्घ्यम का ‘स्प्रिंग इनिशिएटिव’  

साल 2013-14 में पहाड़ों के सूखते जल-स्रोतों को पुनर्जीवित करने के लिए भारत की बड़ी दो संस्थाएं आगे आईं। पहली, पुणे की एक्वाडैम (एडवांस्ड सेंटर फॉर वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट एंड मैनेजमेंट - ACWADAM), जिसने वैज्ञानिक रूप से नौले-धारों को समझा। उसने भू-जल विज्ञान को स्थानीय लोगों को सरलता से समझाया। दूसरी ओर, बेंगलुरु की अर्घ्यम संस्‍था ने इस काम के लिए आर्थिक मदद दी। साथ ही, उसने जल समस्‍या के समाधान के लिए कई राष्‍ट्रीय संगठनों को स्थानीय संगठनों से जोड़ा।

इन दोनों संस्थाओं की साझेदारी से 'स्प्रिंग इनिशिएटिव' की शुरुआत हुई। इसके तहत, लोगों को चश्मे-नौले-धारों को जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखना सिखाया गया। स्प्रिंग इनिशिएटिव ने धीरे-धीरे उत्तराखंड से लेकर सिक्किम, नागालैंड और मेघालय तक के पहाड़ी इलाकों का एक व्यापक नेटवर्क तैयार किया। 

इस पहल में नौले-धारों की पहचान करना, उनकी मैपिंग करना, स्थानीय लोगों को हाइड्रोलॉजी की बुनियादी जानकारी व प्रशिक्षण देना और जन-भागीदारी को बढ़ावा देना शामिल था। स्प्रिंग इनिशिएटिव की इन कोशिशों ने हज़ारों स्थानीय पैरा-हाइड्रो-जियोलॉजिस्ट (पैरा जल भूविज्ञानियों) को प्रशिक्षित किया। 

ये आज अपने इलाकों में नौले-धारों की सेहत पर बारीकी से नजर रख रहे हैं। एक्वाडैम की वैज्ञानिक समझ, अर्घ्यम की सामाजिक दृष्टि और स्प्रिंग इनिशिएटिव के माध्यम से बनी साझेदारी ने मिलकर यह विश्वास जगाया कि हिमालय के 30 लाख प्राकृतिक चश्मे, नौले और धारे फिर से जिंदा किए जा सकते हैं।

मेल्ली गांव की धारा

सिक्किम का धारा विकास कार्यक्रम

सिक्किम का ‘धारा विकास कार्यक्रम’ भारत में स्प्रिंगशेड प्रबंधन का एक बेहतरीन उदाहरण बनकर सामने आया है। यह एकमात्र राज्य है, जो पानी के लिए लगभग पूरी तरह पारंपरिक चश्मों, नौलों और धारों पर निर्भर है। राज्य की 94.2% ग्राम पंचायतों को इन्हीं स्रोतों से पीने और सिंचाई के लिए जल प्राप्त होता है।

इसी आवश्यकता को देखते हुए 2008 में सिक्किम सरकार के ग्रामीण प्रबंधन और विकास विभाग (RM&DD) ने स्प्रिंगशेड अवधारणा के अनुरूप धारा विकास कार्यक्रम की शुरुआत की। 

स्प्रिंगशेड वह भौगोलिक क्षेत्र होता है, जहां वर्षा का जल भूमि में रिसकर एक्विफ़र (भूजल संग्रहण क्षेत्र) तक पहुंचता है, जो बाद में प्राकृतिक झरनों (स्प्रिंग) को रिचार्ज करता है। पानी के रिचार्ज से लेकर डिस्चार्ज तक के भौगोलिक क्षेत्र को स्प्रिंगशेड कहते हैं।

इसके अंतर्गत पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक तकनीक से जोड़ा गया। उदाहरण के लिए, जल रिचार्ज संरचनाओं की वैज्ञानिक डिजाइन बनाई गईं। साथ ही, प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी को भी प्राथमिकता दी गई। 

किसानों, महिलाओं और पंचायत प्रतिनिधियों को स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट का प्रशिक्षण दिया गया। इससे जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने में जन सहयोग बढ़ा। इसी क्रम में नक्शों के आधार पर स्प्रिंगशेड डीमार्केशन किया गया। इससे यह समझने में मदद मिली कि किस इलाके की वर्षा का पानी कहां के जलस्रोतों को रिचार्ज कर रहा है। इस डेटा की मदद से योजना बनाना अधिक सटीक हो गया।

इस कार्यक्रम में जलग्रहण क्षेत्र, भूगर्भीय संरचना और जल स्तर की वैज्ञानिक मॉनिटरिंग की जाती है। इसके अलावा कंटूर ट्रेंच, पिट और सोख्ता पिट आदि बनाकर जल संरक्षण भी सुनिश्चित किया जाता है। इस प्रक्रिया ने सिक्किम में कई सूखते स्रोतों को फिर से जीवंत कर दिया। इससे सिंचाई की सुविधा भी बेहतर हुई। कई जगहों पर किसान अब रबी और खरीफ दोनों मौसम की फसलें ले पा रहे हैं। 

इस कार्यक्रम की सफलता सामूहिक प्रयासों का परिणाम है। एक्वाडैम और देहरादून स्थित पीपुल्स साइंस इंस्टिट्यूट (पीएसआई) ने इसमें विशेष योगदान दिया। उन्होंने राज्य सरकार को स्प्रिंगशेड आधारित जल प्रबंधन की वैज्ञानिक समझ दी। साथ ही, प्रशिक्षण और तकनीकी मार्गदर्शन भी दिया।

अब तक 700 से अधिक नौले-धारों को रिचार्ज किया जा चुका है। नतीजतन हर वर्ष लगभग 90 करोड़ लीटर पानी का पुनर्भरण संभव हो सका है। उल्लेखनीय यह है कि प्रति लीटर रिचार्ज की लागत मात्र 1 पैसा आई। यह किसी भी सार्वजनिक जल परियोजना से बेहद कम है। 

योजना के परिणाम को प्रमाणित करने के लिए भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (BARC) के वैज्ञानिकों ने समस्थानिक अनुरेखण तकनीक का प्रयोग किया। इस वैज्ञानिक पद्धति से यह साबित हुआ कि नौले-धारों में पानी का बहाव वास्तव में बढ़ा है। 

इसके लिए वैज्ञानिकों ने पानी में मौजूद प्राकृतिक समस्थानिकों का विश्लेषण किया। इनमें ऑक्सीजन-18, ड्यूटेरियम और ट्रिटियम प्रमुख हैं। जब रिचार्ज संरचनाएं बनाई जाती हैं, तो पानी भूमि में रिसता है। यदि संरचनाओं के पानी में मौजूद समस्थानिक बाद में धारों के डिस्चार्ज जल में मिलते हैं, तो यह पानी के रिचार्ज होने का प्रमाण होता है। यह प्रक्रिया फिंगरप्रिंट मैचिंग जैसी मानी जाती है।

हिमाचल के सिरमौर में स्प्रिंगशेड प्रबंधन ने बढ़ाया प्रवाह

हिमाचल प्रदेश के सिरमौर ज़िले की थानाकसोगा-लुहाली पंचायत में पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट (PSI) ने 'पार्टिसिपेटरी ग्राउंडवॉटर मैनेजमेंट' (PGWM) मॉडल को सफलतापूर्वक लागू किया। इसका उद्देश्य स्थानीय समुदाय को शामिल करते हुए जल स्रोतों की निगरानी करना था। साथ ही, रिचार्ज ज़ोन की पहचान और सूखते नौले-धारों का पुनर्जीवन भी इसका प्रमुख लक्ष्य था।

PSI की टीम ने जल प्रवाह (डिस्चार्ज) और गुणवत्ता पर लगातार नजर रखी। इसके विश्लेषण के आधार पर उपयुक्त रिचार्ज संरचनाएं विकसित की गईं। इनमें खाइयां, बंध और सोख्ता गड्ढे शामिल थे। इसके अलावा स्रोतों के आस-पास वृक्षारोपण भी किया गया। ये प्रयास भूजल को फिर से भरने में सहायक रहे।

इन प्रयासों का असर गर्मियों में भी स्पष्ट रूप से देखा गया। नौले-धारों के प्रवाह में औसतन 30% तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई। रिचार्ज से जल की गुणवत्ता भी बेहतर हुई। स्वच्छ पानी आने से, प्रदूषण के कारण पानी में मौजूद कोलीफ़ॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा में गिरावट आई।

कुमाऊं क्षेत्र में ‘चिराग’ ने जलाई उम्मीद की लौ

उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में चिराग संस्था ने एक्वाडैम के साथ मिलकर स्प्रिंगशेड आधारित जल पुनर्भरण का कार्य किया। इस पहल के तहत 100 से अधिक नौले-धारों का वैज्ञानिक रूप से प्रबंधन किया गया। मुक्तेश्वर, रामगढ़, गागर और बेतालघाट जैसे गांव इसके केंद्र में रहे। 

यहां भी स्थानीय युवाओं को पैरा-हाइड्रोजियोलॉजिस्ट के रूप में प्रशिक्षित किया गया। इन युवाओं ने रिचार्ज क्षेत्रों की पहचान कर उन्‍हें बारिश के पानी से रिचार्ज करने के उपाय किए। जल संरक्षण के लिए खाई-बंध और जल संरचनाएं तैयार की गयीं और बारिश के पानी को मिट्टी में रोके रखने के लिए आसपास के क्षेत्र में वृक्षारोपण भी किया गया। 

कार्यक्रम में नौलों-धारों को उनमें पानी की मात्रा और स्थिति के आधार पर वर्गीकृत किया गया। इससे यह तय करना आसान हुआ कि किस चश्मे को रिचार्ज करने के लिए किस तरह के प्रयास किए जाएं। इन प्रयासों से गर्मियों में इन चश्मों के जल प्रवाह में 25% से 40% तक की वृद्धि दर्ज की गई।  

‘हिमोत्थान’ की कोशिशों से उठा भूजल का स्‍तर

टाटा ट्रस्ट से जुड़ी हिमोत्थान सोसाइटी ने उत्तराखंड और नागालैंड में काम किया। यहां स्प्रिंगशेड यानी धारा विकास को वॉश (वाटर, सेनिटेशन और हेल्थ) से जोड़ा गया। स्वच्छ जल को बेहतर सेहत की बुनियादी जरूरत मानते हुए ग्रामीणों को जल-स्वच्छता और स्वास्थ्य का संबंध समझाया गया। 

उत्तराखंड के भौसाल, हिनोल और बणेल गांवों में यह प्रयोग किया गया। हिमोत्थान ने प्राकृतिक नौले-धारों को पेयजल का मुख्य जल स्रोत मानकर, इसी आधार पर जल वितरण योजनाएं बनाईं। इनमें पाइपलाइन, पानी की टंकियों और सार्वजनिक नलों को शामिल किया गया। साथ ही, ग्राम जल समितियां गठित कर उन्हें जल प्रणालियों के संचालन और रख-रखाव की ज़िम्मेदारी दी गई। इससे स्थानीय स्वामित्व और जवाबदेही दोनों सुनिश्चित हुई है। 

स्प्रिंग के रिचार्ज क्षेत्रों में खाइयां, तालाब और चेक डैम जैसी संरचनाएं बनाई गईं। इनसे नौले-धारों में पूरे साल पानी उपलब्ध रहने लगा है। 

उत्तराखंड में हिमालय सेवा संघ (HSS) ने स्प्रिंग इनीशिएटिव को संस्कृति और परंपरा से जोड़कर इसे एक जन-अभियान का रूप दिया। जन जागरूकता के लिए जल यात्राएं, सांस्कृतिक आयोजन और ग्राम सभाएं आयोजित की गईं, जिससे नौले-धारों को ज़रूरी और पवित्र मानकर उनके आसपास के इलाकों में पेड़ों की अवैध कटाई और अतिक्रमण को रोका गया। 

एलयूथेरियन क्रिश्चियन सोसाइटी द्वारा रीचार्ज ज़ोन में बनाए गए ट्रेंच

टाटा ट्रस्ट की कोशिशों से पूर्वोत्तर में भी उठी उम्मीद की लहर

नागालैंड में एलयूथेरियन क्रिश्चियन सोसाइटी (ECS) ने टाटा ट्रस्ट के सहयोग से मोकोकचुंग और तुएनसांग ज़िलों में स्प्रिंगशेड के मुद्दों पर काम किया। भूजल को रिचार्ज करने के लिए रिचार्ज ज़ोन में संरचनाएं बनाई गईं और ग्राम समितियों ने उनकी निगरानी की। इस कार्यक्रम से गर्मियों में भी नौले-धारों के प्रवाह में 15-25% की वृद्धि देखी गई। इस दौरान सामाजिक सहभागिता और पारदर्शिता भी बढ़ी है। अब ECS नागालैंड के पांच अन्य जिलों में इस मॉडल पर काम कर रही है।

टाटा ट्रस्ट से जुड़ी नॉर्थ ईस्ट इनिशिएटिव डेवलपमेंट एजेंसी (नेडा-NEIDA) पूर्वोत्तर भारत में हिमालयी पारिस्थितिकी के लिए महत्वपूर्ण नौले-धारों के पुनरुद्धार पर काम कर रही है। जलवायु परिवर्तन और मानवीय दबाव से ये जल स्रोत तेज़ी से सूख रहे हैं। 

इस संकट से निपटने के लिए नेडा, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम व नागालैंड में 'स्प्रिंग रिवाइवल इनिशिएटिव' के तहत काम कर रही है। यहां अब तक 129 झरनों का पुनरुद्धार हो चुका है, जिनसे लगभग 4.9 लाख लोगों को स्वच्छ जल मिल रहा है। 

टाटा ट्रस्ट से जुड़ा एक और संगठन सेंटर फॉर माइक्रो फाइनेंस एंड लाइवलीहुड (CML) इसी मुद्दे पर काम कर रहा है। उसकी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि परियोजना का उद्देश्य स्प्रिंगशेड प्रबंधन के सिद्धांतों के आधार पर स्थानीय चश्मों को ज़िंदा करना है। स्प्रिंगशेड प्रबंधन के लिए संस्था ने अभी प्रदेश सरकार के साथ समझौता भी किया है। वर्तमान में, CML मणिपुर, असम, त्रिपुरा और मेघालय के कुछ क्षेत्रों में स्प्रिंगशेड प्रबंधन का काम कर रहा है।  

मेघालय में 5 हज़ार चश्मों के लिए बनाई योजनाएं 

मेघालय बेसिन डेवलपमेंट अथॉरिटी (MBDA) ने हाल ही में 60,000 से अधिक प्राकृतिक नौले-धारों की GIS तकनीक से मैपिंग की। यह राज्य स्तर पर जल स्रोतों की निगरानी की बहुत बड़ी पहल है। 2015 में पहले चरण में 5,000 स्प्रिंग के लिए योजनाएं बनाई गईं। इसमें रिब्होई, वेस्ट खासी हिल्स, ईस्ट गारो हिल्स और वेस्ट जयंतिया हिल्स शामिल हैं।

इन योजनाओं को विभागीय समन्वय से आगे बढ़ाया गया। वन, जल संसाधन, मृदा संरक्षण और ग्रामीण विकास विभागों को जोड़ा गया। इससे एकीकृत संसाधन प्रबंधन की मजबूत नींव पड़ी। तकनीकी सहयोग के लिए आइसीमॉड और एक्वाडैम जैसे संस्थान जुड़े। 

मेघालय बेसिन डेवलपमेंट अथॉरिटी ने एक डिजिटल डैशबोर्ड और वेब पोर्टल विकसित किया है। इससे डाटा प्रबंधन और निगरानी में पारदर्शिता आई है। इस पहल ने नीति-निर्माण को डिजिटल आधार दिया है। 

ट्रेनिंग से लेकर राष्ट्रीय कार्यक्रम तक : स्प्रिंग इनिशिएटिव का विस्तार

2018 में नीति आयोग की रिपोर्ट इन्वेंटरी एंड रिवाइवल ऑफ स्प्रिंग्स इन द हिमालयाज फॉर वॉटर सिक्योरिटी ने हिमालयी चश्मों की चिंता को राष्ट्रीय विमर्श में स्थान दिलाया। इस पहल के पीछे एक्वाडैम और उसके निदेशक डॉ. हिमांशु कुलकर्णी की अहम भूमिका रही। उन्होंने स्प्रिंगशेड प्रबंधन को केवल एक तकनीकी कदम नहीं, बल्कि सामाजिक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने पैरा-हाइड्रोजियोलॉजिस्ट मॉडल और सामुदायिक सहभागिता को एक साथ जोड़ने का काम किया। उनका मानना है कि नौले-धारे केवल जल स्रोत नहीं, बल्कि एक समूचा व जीवंत पारिस्थितिक तंत्र हैं। 

ऊपर बताए गए प्रयासों से निस्संदेह सुधार की एक ठोस उम्मीद जगी है। लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि भारत में लगभग 50 लाख चश्मे-नौले-धारों को पुनर्जीवित करना अभी बाकी है। अब तक महज़ कुछ हज़ार स्रोतों को ही संरक्षित या रीचार्ज किया जा सका है। यानी रास्ता लंबा है, लेकिन दिशा अब स्पष्ट है।

यह यात्रा ‘स्प्रिंग इनिशिएटिव’ के रूप में आगे बढ़ रही है। उत्तराखंड, सिक्किम, हिमाचल, नागालैंड और मेघालय जैसे राज्यों में इन पहलों को सरकारी योजनाओं से भी जोड़ा गया है। इन्हें मनरेगा, जल जीवन मिशन और ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में समाहित कर सीधे जनसरोकारों से जोड़ने की कोशिश की गई है।

इस रिसर्च आर्टिकल को लिखने में टाटा वाटर मिशन के सुनेश शर्मा की मदद ली गई है। 

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