जल संरक्षण

40% बादल आकाश में छाए रहें तो कृत्रिम बारिश की है संभावना

कृत्रिम बारिश में बादलों में कुछ रासायनिक पदार्थ जैसे सिल्वर आयोडाईड, ड्राई आइस या साधारण नमक डाले जाते हैं। इसे क्लाउड सीडिंग का नाम दिया गया है। इस प्रक्रिया को सफलतापूर्वक करने के लिए प्राकृतिक बादलों की उपस्थिति आवश्यक है

Author : दीपक

दिल्ली में कृत्रिम बारिश का प्रयोग 20 और 21 नवंबर को पहली बार होने की संभावना है। इन दिनों राजधानी में हल्के बादल भी छाए रहने की उम्मीद है। इसलिए इन दिनों के लिए ट्रायल करने की तैयारी चल रही है। इस प्रयोग के बारे में बुधवार को आईआईटी कानपुर के साथ पर्यावरण मंत्री गोपाल राय और अन्य अधिकारी बैठक करते हैं। बैठक के बाद गोपाल राय ने कहा कि नवंबर के शुरुआत से ही दिल्ली में हवा की रफ्तार बहुत कम है। इस वक्त ग्रैप-4 की कड़ी पाबंदियां लागू हैं। लेकिन यदि हवा का बहाव ऐसा ही रहता है तो यह परिस्थिति अगले सप्ताह या उससे भी ज्यादा देर तक बनी रहेगी। इस हालात में कृत्रिम बारिश के लिए बुधवार को आईआईटी कानपुर के साथ हमारी दूसरी मुलाकात हुई। हमने पहली बार 12 सितंबर को इस विषय पर चर्चा की थी। हमने उनसे कहा था कि आपने जुलाई में मॉनसून के समय कृत्रिम बारिश का परीक्षण किया है, आप हमें यह बताएं कि दिल्ली में सर्दी के मौसम में कृत्रिम बारिश कैसे कराई जा सकती है? इसके लिए हमने दूसरी बार बुलाया था।

  • कृत्रिम बारिश में बादलों में कुछ रासायनिक पदार्थ जैसे सिल्वर आयोडाईड, ड्राई आइस या साधारण नमक डाले जाते हैं। इसे क्लाउड सीडिंग का नाम दिया गया है। इस प्रक्रिया को सफलतापूर्वक करने के लिए प्राकृतिक बादलों की उपस्थिति आवश्यक है। नवंबर माह में दिल्ली में बादलों का अभाव होता है। इसलिए क्लाउड सीडिंग का प्रयोग करने में कठिनाई हो सकती है। अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि इस तरह की बारिश से प्रदूषण कितना कम होगा। इस तरह की बारिश करवाने का एक बार में लगभग 10 से 15 लाख रुपये का खर्च होता है। यह प्रयोग लगभग 53 देशों में किया जा चुका है। कानपुर में इस तरह के कुछ परीक्षण छोटे विमानों से किए गए हैं। इनमें से कुछ में बारिश हुई और कुछ में सिर्फ बूंदें गिरीं। 2019 में भी कृत्रिम बारिश के लिए तैयारी की गई थी। लेकिन बादलों की कमी और इसरो की अनुमति का अभाव भी रुकावट बना।
  • क्लाउड सीडिंग एक ऐसी विधि है जिसमें विमान या रॉकेट लॉन्चर से बादलों में कुछ रासायनिक पदार्थ डाले जाते हैं जो बारिश को उत्पन्न करने में मदद करते हैं। इस विधि को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए बादलों का उचित चयन और उनमें तरल पदार्थ की उपस्थिति आवश्यक है। सर्दियों में बादलों में पानी की कमी होती है और वातावरण में नमी भी कम होती है। इससे बारिश के बूंदों का भाप बन जाने का खतरा बढ़ जाता है।
  • क्लाउड सीडिंग का उद्देश्य प्रदूषण को दूर करना नहीं है, बल्कि स्मॉग की स्थिति में आराम देना है। इसका प्रभाव केवल कुछ समय तक ही रहेगा। इसका परिणाम यह भी होगा कि बारिश के बाद हवा कितनी तेज़ चलती है। इसलिए इस विधि का प्रयोग केवल आपातकालीन परिस्थितियों में ही किया जा सकता है। इसके साथ ही बादलों की गति और दिशा का भी ध्यान रखना जरूरी है। अन्यथा बारिश वांछित स्थान पर नहीं होगी।

1945

में कृत्रिम बारिश को सबसे पहले विकसित किया गया था। आज पूरी दुनिया के लगभग 50 देशों में इस तकनीक का प्रयोग हो रहा है।

1951

में पहली बार भारत में क्लाउड सीडिंग का प्रयोग किया गया था। तब वेस्टर्न घाट में कई जगहों पर इस तरह की बारिश कराई थी।

1973

में आंध्र प्रदेश में सूखे से निपटने के लिए आर्टिफिशल रेन कराई। इसके बाद भी कुछ प्रयोग हुए।

1993

में तमिलनाडु और 2003-04 में कर्नाटक में आर्टिफिशल बारिश कराई गई !

2008

में चीन ने बीजिंग ओलिंपिक्स के दौरान 21 विमानों से क्लाउड सीडिंग का प्रयोग किया था।

राय ने बताया कि कृत्रिम बारिश एक ऐसी विधि है जिसमें बादलों में कुछ केमिकल डाले जाते हैं जो उन्हें वर्षा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इसका लक्ष्य सूखा, बाढ़, प्रदूषण या अन्य मौसमी समस्याओं को दूर करना है।दिल्ली सरकार ने प्रदूषण को कम करने के लिए कृत्रिम बारिश का उपयोग करने का प्लान बनाया है। इसके लिए उन्होंने आईआईटी कानपुर से प्रस्ताव मांगा है। यदि यह प्रस्ताव और सुप्रीम कोर्ट की अनुमति मिल जाती है तो वे 20 और 21 नवंबर को दिल्ली में कृत्रिम बारिश का पायलट प्रोजेक्ट शुरू करने की कोशिश करेंगे। इसके लिए उन्हें केंद्र और राज्य सरकार से इजाजत लेनी होगी।

एलजी वी के सक्सेना ने हाल ही में सीआईआई और आईआईटी कानपुर के साथ एक बैठक की जिसमें उन्होंने क्लाउड सीडिंग और कृत्रिम बारिश के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की। उन्होंने आईआईटी कानपुर से इस विषय पर एक प्रस्ताव तैयार करने का आग्रह किया।

आईएमडी के डीजी मृत्युंजय मोहापात्रा ने बताया कि कृत्रिम बारिश करने के लिए बादल और नमी का होना आवश्यक है। भारत में तेलंगाना, तमिलनाडु और कर्नाटक में इस तकनीक का प्रयोग किया गया है। विश्व में भी कृत्रिम बारिश के उपर अनेक अनुसंधान हो रहे हैं। लेकिन भारत में इस तकनीक को लागू करने में अभी बहुत कुछ करना बाकी है।

स्रोत -नवभारत टाइम्स 

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