बारिश को आमतौर पर प्रकृति का वरदान कहा जाता है, लेकिन तब, जब समय पर हो? मशहूर ग्रामीण कृषि विज्ञानी घाघ ने खेती के लिहाज से बारिश के बारे में चेताते हुए कहा है 'अगहन दूना, पुस सवाई। माघ फागुन में घरो के जाई।। हालिया बे-मौसम की बारिश से महाकवि की उक्ति चरितार्थ हुई है। उत्तरते माघ और चढ़ते फागुन में रुक-रुक कर हुई कई दिनों की बारिश ने अन्नदाताओं की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। चना, गसूर तिलहन की खेती करने वाले किसानों की कमर टूट गई है, खेती से आमदनी तो दूर, जिन किसानों ने किराए पर खेत और कर्ज लेकर दलहन-तिलहन की खेती की है उनकी लागत भी निकलने की गुंजाइश नहीं है।
खेती किसानी पर संकट के बादल कुछ सालों से लगातार मंडरा रहे है। किसान की लागत भी वसूल नहीं हो पा रही है। किसान अपनी लागत और पैदावार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिए लगातार आंदोलन मी कर रहे हैं। ऊपर से प्रकृति भी उनका साथ नहीं दे रही है। रुक-रुक कर इधर हुई तीन-चार दिनों की बारिश से फसलों की भारी हानि हुई है। इस हानि की भरपाई कौन करेगा इसकी गारंटी कोई नहीं देता? हालांकि कई प्रदेशों की सरकारों ने मुआवजा देने का ऐलान किया है। लेकिन इस तरह का मुआवजा कब और कितने दिनों बाद दिया जाता है और पीड़ित को क्या मिलता है, इसकी कड़वी सच्चाई से किसान पूरी तरह वाकिफ है। साधारण और साफ शब्दों में कहें तो लाखों के नुकसान पर सैकड़ो के मुआवजे की व्यवस्था होती है वह भी महीनों चप्पल घिसने के बाद।
पिछले साल भी अप्रैल के महीने में असमय बारिश से हुए नुकसान की भरपाई के लिए राज्य सरकारों ने 75 प्रतिशत से अधिक के नुकसान पर 12 हजार से लेकर 15 हजार प्रति एकड़ राहत राशि का निर्णय लिया था। लेकिन अधिकांश किसानों की इसका लाभ नहीं मिल सका। दरअसल, मौसम की वजह से हुए नुकसान पर सरकारें तात्कालिक रूप से सहायता की घोषणाएं तो करती ही है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत भी किसानों को राहत दी जाती है। लेकिन इस योजना में किसानों को कई तरह की व्यवहारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। विडंबना यह है कि ऐसे मामलों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसी दीर्घकालिक नीति नहीं बन पाई जो किसानों को स्थाई रूप से राहत प्रदान कर सके। यही कारण है कि कृषि के क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर प्रगति होने के बावजूद आज मी खेती करना चुनौतीपूर्ण काम है। इस प्रगतिशील दौर में भी खेती काफी हद तक मौसम पर निर्भर है। जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित मानसून के चलते भी खेती की चुनौतियां लगातार बढ़ती ही जा रही किसान इन चुनौतियों के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
मौसम अनुकूल रहने के कारण इस बार रवि की खेती खासकर दलहन और तिलहन बड़ी मात्रा में और समय से हुई थी। अगहन और पूस के महीने में कुदरत भी मेहरबान थी। फसल उठान पर थी। लहलहाती फसल के भरोसे खेतिहर किसान इस सीजन में अपने कई अरमान भी पूरे करने का सपना देख रहे थे। लेकिन बारिश ने रबी की फसलों को नष्ट कर दिया। मसूर, चना, तिलहन तहस नहस हो गया, वहीं तेज हवा के झोंकों से गेहूं की फसल जमीन पर बिछ गई। रही सही कसर ऊपर से गिरे ओले ने पूरी कर दी।
बे-मौसम की बारिश मौसम वैज्ञानिकों के लिए भी चुनौती बनी हुई है। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग, दुर्बल पश्चिमी विक्षोन और प्रबल उष्णकटिबंधीय जेट स्ट्रीम को मोटे तौर पर बेमौसम बारिश का कारण बताया जाता रहा है लेकिन इन दोनों अल नीनो परिघटना केंद्र में है। अल नीनो में पश्चिमी प्रशांत महासागर का गर्म जल पूर्व की ओर प्रवाहित होता है, जिसके परिणा स्वरुप कुछ क्षेत्रों में सुखे की स्थिति जबकि उसी समय में अन्य क्षेत्रों में बे-मौसम बारिश की स्थिति उत्पन्न होती है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने कहा है कि वर्ष 2023 24 की अल नीनो परिघटना ने अब तक के पांच सर्वाधिक प्रचंड अल नीनों में से एक होने का रिकॉर्ड कायम किया है।
कमजोर रुख के बावजूद आने वाले महीनों में भी वैश्विक जलवायु को प्रभावित करना जारी रखेगी। संगठन ने जानकारी दी है कि मार्च से लेकर मई के दौरान अल नीनो के बने रहने की 60 प्रतिशत संभावना है। भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि जून से अगस्त तक ला नीना की स्थिति बनने का मतलब यह हो सकता है कि इस साल मानसून की बारिश पिछले साल की तुलना में बेहतर होगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि अल नीनो का वैश्विक जलवायु पर सर्वाधिक प्रभाव इसके उत्पन्न होने के दूसरे साल देखने को मिलता है। इसलिए भी अब की बार वर्ष 2024 में इसका प्रभाव दिखेगा। वर्तमान अल नीनो की घटना जो जून 2023 में विकसित हुई और नवंबर और जनवरी के बीच सर्वाधिक प्रचंड थी। इसके चलते समुद्री 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया। भारतीय वैज्ञानिकों का एक मत यह भी है कि इस बार पहाड़ों में बर्फबारी और बारिश देर से और कम होने के कारण पश्चिमी विक्षोभ कमजोर पड़ा और ऊपर-ऊपर ही निकल गया, जिसके कारण मौसम में तब्दीली होती रही। अल नीनो प्रभाव के कारण दुनिया के स्तर पर वर्ष 2023 सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज किया जा चुका है।
जंगलों की कटाई, अंधाधुंध शहरीकरण, बेतहाशा प्रदूषण जैसी मानवीय गतिविधियां भी बदलते मौसम मिजाज का कारण है। अधिकांश फसल अभी फूल पर थी। जिन फसलों में दाने आ रहे थे उनका दाना अनी पुष्ट नहीं हुआ था। जिन किसानों ने तिलहन की फसल काट ली थी अब उसके सड़ जाने का खतरा बढ़ गया है। देशभर में बेतहाशा बारिश के साथ-साथ कई जगहों पर मोटे-मोटे ओले भी पड़े हैं। बारिश की वजह से जो फसलें खेतों में गिर गई है उनका फिर से खड़ा होना और खड़ा होने के बाद उसके दाने होने के बाद उसके दाने का बना रहना मुश्किल है। मसूर, सरसों, सब्जियां, प्याज आदि की फसलों को कुछ अधिक ही नुकसान हुआ है। ये ऐसी फसलें होती है जो कमजोर मानी जाती हैं और हल्की बारिश में भी खराब हो जाती है। नुकसान को देखने के बाद किसान अपना कलेजा पकड़कर खेतों की मेड़ों पर बैठे हैं। उनके रोने-चिल्लाने की तस्वीरें इन दिनों सोशल मीडिया पर खूब फैल रही है।फसलों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय स्तर पर जो योजनाएं हैं, कुदरती आपदाओं के समय छोटे किसानों के काम नहीं आती हैं। कम जोत वाले किसान की पहुंच प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना तक अब भी नहीं है।
दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि कृषि के क्षेत्र में अनेक शोध और अध्ययन होने के बावजूद किसानों पर लगातार मौसम की मार पड़ रही है। न तो अकादमी की जगत और न हीं सरकार कोई ऐसा तंत्र विकसित कर पाए हैं जो मौसम की मार से किसानों को राहत दिला सकें। असामान्य मौसमी घटनाओं ने इतना विकराल रूप ले लिया है की आजीविका और जीवन के लिए ही संकट उठ खड़ा होने को है। ऐसे में कृषि क्षेत्र की चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस नीति बनाने की जरूरत है, जो किसानों को त्वरित राहत के लिए एक ठोस तंत्र स्थापित करें और सभी तरह की प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए एक छत के नीचे समाधान तलाशे। हालांकि प्राकृतिक आपदाओं या जलवायु परिवर्तन के असर को समाप्त करना संभव नहीं है फिर भी समय पर अग्रिम तैयारी करके इसके प्रभाव को सीमित जरूर किया जा सकता है। विशेषकर विपरीत परिस्थितियों में भी खेती किसानी से जुड़े लोगों को संभालने की जिम्मेदारी कल्याणकारी राज्य को उठानी ही चाहिए।