जल संरक्षण

डगमगाया डीग

डाउन टू अर्थ हिन्दी टीम


भरतपुर की पारम्परिक जल संचय प्रणालियों से सीख लेना तो दूर, आज के अधिकारी पुराने समय की जलापूर्ति व्यवस्थाओं का रख-रखाव करने में भी विफल रहे हैं। केवल नलकूप पानी के स्रोत बनकर रह गए हैं।

दिल्ली से 153 किमी. दक्षिण भरतपुर के जाट शासकों की राजधानी रही डीग में आज भी तालाब उपेक्षित पड़े हैं। वे कभी स्थानीय खारे पानी से नमक निकालने के लिये उपयोग में लाए जाते थे। यहाँ के निवासियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये कुँओं और तालाबों से पर्याप्त मीठा पानी मिलता था। इन तालाबों के पास के कुँओं से अभी भी मीठा पानी मिलता है, लेकिन दूर के कुँओं से खारा पानी मिलता है क्योंकि इस क्षेत्र में ‘रेह’ (नमक) ज्यादा है।

डीग का उल्लेख स्कंद पुराण में भी मिलता है। यह कृष्ण और यादवों की ब्रजभूमि क्षेत्र में आता है। इसके शहरीकरण की शुरुआत राजा बदन सिंह ने की थी। उनके पुत्र सूरजमल ने 1756 और 1763 के बीच यहाँ महल बनवाए। बाहर बनी खाई, किले की खाई और किले के पास बनाए गए कई पोखरों के साथ शहर का नियोजन इस तरह से किया गया था कि इससे भूमिगत जलभरों में पानी जाता था और काफी सारे कुँओं से मीठा पानी निकलता था।

डीग-कमान रोड पर लालावाला कुंड और मथुरा-डीग रोड पर प्रीतम दास का कुंड जैसे कुंड, जाहिर है, अमीरों ने बनवाए थे। साल भर यमुना का पानी एक छोटी नहर के जरिए इन कुंडों तक आता रहता था। मैदानी इलाके में किला और छावनी बनाना वास्तव में साहस का काम था। किला और महल बनाने के वास्ते टीला बनाने के लिये जो मिट्टी निकाली गई, उसी से शायद तालाब बन गया, जिसमें यमुना का पानी जमा किया जाता था।

आज डीग के दो बड़े जलागार - गोपालसागर (कच्चा तालाब) और रूपसागर (पक्का तालाब) का पानी गंदा है। लोगों को नल से पानी तो मिलता है, मगर पेयजल के लिये वे सदियों पहले राजाओं द्वारा खुदवाए कुँओं अभी भी निर्भर हैं। जाट शासकों ने शहर को खूबसूरत बनाने के लिये झरने आदि बनवाए, जिनके लिये नहरों, जलागारों और जल प्रपातों आदि का प्रयोग किया।

महलों और बगीचों में कई झरने थे, जिनके लिये पानी सूरज भवन और किशन भवन के बीच विशाल इमारत की छत पर बनी टंकी से आता था। इस टंकी में पानी चार कुँओं से भरा जाता था। पानी भरने के लिये बैलों को लगाया जाता था जो एक लम्बी ढलान पर उतरते थे। इस टंकी से पाइपों के जरिए झरनों तक पानी पहुँचाया जाता था। टंकी में पानी भरने के दौरान पाइपों के मुँह बन्द कर दिये जाते थे। पानी भरने के बाद मुँह खोल दिए जाते थे। खास अवसरों पर पाइपों के मुँह के पास ताखों में रंग भर दिए जाते थे, ताकि झरनों से रंगीन पानी का फव्वारा फूटे। झरनों का पानी गोपाल भवन के दोनों ओर सावन-भादो नामक प्रपातों से बहकर गोपालसागर में पहुँचता था। रूपसागर के किनारे बने केशर भवन या बारादरी ऐसी बनाई गई थी कि बारिश का असर और बढ़े। केशर भवन में चारों ओर मेहराब बना हुआ है, जिससे भीतर एक चौकोर क्षेत्र बन गया है। यह क्षेत्र बाहर से नहर से घिरा हुआ है। नहर के किनारे-किनारे छोटे-छोटे फव्वारों के मुँह बने हुए थे और बीच में बड़े-बड़े फव्वारे बने थे। बादलों के गर्जन को बढ़ने के लिये बारादरी में दोहरी छत बनी हुई थी। निचली छत में खोखले खम्भों के बीच से पानी को बहुत तेजी से बहाया जाता था, जिससे भारी गोले लुढ़कते थे और तेज गर्जन होता था। छत से छोड़े जाने पर पानी पाइपों से बारिश की तरह गिरता था।

इन करिश्माई व्यवस्थाओं को फिर से बनाना तो दूर, आज के अधिकारी इनका रख-रखाव करने में भी विफल रहे हैं। आज डीग शहर में नलकूप पानी के स्रोत बनकर रह गए हैं।

पानी हुआ बेमानी

“भूजल में खारापन बहुत बढ़ गया है। इस कारण लोगों के दाँत पीले पड़ रहे हैं। बच्चों के बाल भी सफेद हो रहे हैं।”
सीएसई से वर्ष 1998 में प्रकाशित पुस्तक “बूंदों की संस्कृति” से साभार

राजस्थान की अन्य जल प्रणालियाँ


टांका : बीकानेर


घरों के अन्दर पानी संरक्षित रखने वाले भूमिगत टांके बीकानेर के प्रायः सभी पुराने घरों में हैं। जमीन के अन्दर गोलाकार इन गड्ढों में बारीक चूने की पुताई हुई रहती थी। इनमें बरसात का पानी जमा होता था और अन्य स्रोतों के चूक जाने पर इनका पानी उपयोग में लाया जाता था। अक्सर इनकी खूब सजावट होती थी और उसमें भी ज्यादा आकर्षक इसका ढक्कन होता था। टाँका का पानी केवल पीने के काम आता था।


नाडी : जोधपुर


नाडी गाँव का वैसा पोखर है जिसमें बरसात का पानी जमा किया जाता था। नाडियाँ बनाने की जगह का चुनाव गाँव के लोग बरसाती पानी के प्राकृतिक जल ग्रहण क्षेत्रों और पानी जमा हो सकने की क्षमता के हिसाब से करते थे। बरसात के बाद इनका पानी दो महीने से लेकर पूरे दो वर्ष तक भी चलता है। ढूह वाले इलाकों की नाडी 1.5 से 4 मीटर गहरी होती है और रिसाव के चलते इसमें तेजी से पानी गायब होता है। रेतीले इलाकों में इनकी गहराई तीन से 12 मीटर तक होती है।


खड़ीन : जैसलमेर


खड़ीन की तकनीक 15वीं शताब्दी में जैसलमेर के पालिवाल ब्राह्मणों ने विकसित की थी। खड़ीन मिट्टी का एक बड़ा बाँध है जो किसी ढलान वाली जमीन के नीचे बनाया जाता है ताकि ढलान पर गिरकर नीचे आने वाला पानी रुक सके। अक्सर यह 1.5 मीटर से 3.5 मीटर तक ऊँची होती है। यह ढलान वाली दिशा को खुला छोड़कर शेष तीन दिशाओं को घेरती है। जमीन की बनावट के हिसाब से इसकी लम्बाई 100 से 300 मीटर तक होती है। इससे घिरी जमीन की न सिर्फ नमी बढ़ती है, बल्कि बरसाती पानी के परवाह पर अंकुश लगाने के चलते यह उपजाऊ मिट्टी के बहाव को भी रोकती है। आज भी यहाँ छोटी-बड़ी करीब 500 खड़ीनें हैं, जिससे 12,140 हेक्टेयर जमीन सिंचित होती हैं।

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