इससे पहले कि बारिश की बूंदों में यह स्मृति धुल जाए कि गर्म हवाएं न जाने कितनी जानें ले चुकी हैं, हमें भावी पीढ़ियों को खातिर लेने होंगे कुछ संकल्प। पेड़ और बारिश को सहेजकर सूरज की तपिश के जानलेवा परिणामों को रोका जा सकता है। बारिश दस्तक देने वाली है, पर क्या हम इसकी बूंदों को सहेजने के लिए तैयार हैं। हम कुछ ऐसे ही उदाहरण दे रहे हैं जो जल संरक्षण के लिए कुछ सराहनीय काम कर रहे हैं।
भारत आज भूमिगत जल पर आश्रित अर्थव्यवस्था बन गया है। दुनिया भर में जितना भूमिगत जल इस्तेमाल होता है उसका 25 प्रतिशत भारत में उपयोग होता है। भूमिगत जल के दोहन में हम अमेरिका और चीन से आगे हैं। हाल ही में नीति आयोग ने कहा कि भारत जिस ढंग से भूमिगत जल का उपयोग कर रहा है, उससे हम इतिहास के सबसे बड़े जल संकट की तरफ बढ़ रहे हैं। इसकी मुख्य वजह है पानी का सही प्रबंधन न होना और पर्यावरण की सुध न लेना भूमिगत जल का लगातार गहरे में उतरते जाना पर्यावरणीय कारणों से ज्यादा मनुष्यों के क्रियाकलापों का नतीजा है। दो दशकों से सिंचाई के लिए खेतों में कुंओं की खुदाई बढ़ी है और औद्योगिक जरूरतों के लिए भी भूमिगत जल का उपयोग हो रहा है। यह कारण भी है कि आज हम जल संकट की गंभीर स्थिति का सामना कर रहे हैं। फिर भी देश में जल संरक्षण को लेकर वह गंभीरता नहीं है, जो दिखनी चाहिए।
जब प्राकृतिक रूप से पानी धरती में समाता है तब भूमिगत जल का भंडार बनता है। धरती के नीचे जो पानी का भंडार है उसमें इस प्रक्रिया से कई हजार वर्ष पुराना जल भी संग्रहित है, जिसे आज हम उलीचते जा रहे हैं। दिक्कत यह है कि इस खजाने से हम पानी उलीच जरूर रहे हैं, लेकिन उसमें वापस कुछ नहीं डाल रहे। बारिश का मौसम उस खजाने में कुछ जमा करने का मौसम होता है। जब बारिश के जरिए हमें अमृत रूपी जल की नेमत मिलने का मौसम आता है तो हमें कोशिश करनी चाहिए कि इस पानी को बहुत स्वच्छ तरीके से भंडारित करें।
हालांकि बीते कुछ सालों में जागरूकता देखने को मिली है। इसके दायरे को और भी बड़ा करने की जरूरत है। जंगलों में ताल-तलैया को साफ कर वर्षा जल संग्रहण के लिए तैयारी करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। शहर में सतही जल को सहेजने वाले स्रोतों का संरक्षण करना हमारी जिम्मेदारी है, क्योंकि ये भूजल को बढ़ाने का काम करते हैं। उसके लिए सामाजिक चेतना ही जरूरी है। जब सूखा आता है तो हमारी नदियां, झीलें और ताल सूख जाते हैं, लेकिन पानी का छुपा हुआ खजाना यानी भूमिगत जल हमारे लिए सुरक्षित रहता है। ऐसे में यह विचार का बिंदु है कि हम सतही जल नहीं बचाएंगे और खेती के लिए भूमिगत जल का उपयोग करेंगे तो संकट के समय क्या करेंगे?
उत्तरी गुजरात के पाटन जिले में सालाना बारिश 650 मिलीमीटर यानी 25 इंच से भी कम होती है। जब बारिश होती है तो नमकीन मिट्टी के कारण पानी जमीन में उतर नहीं पाता। सालभर किसान ताल, चैक डैम और नहरों के जरिए सिंचाई करते हैं, लेकिन यह पर्याप्त नहीं होती। ऐसे में अहमदाबाद के इनोवेटर बिप्लब केतन पाॅल ने यहां वर्षा जल संचय का तरीका ‘भूंगरू’ लागू किया। इसमें कंक्रीट का घेरा बनाकर जमीन में 8 फीट का पाइप उतारा जाता है। सारा पानी इकट्ठा होकर इससे होता हुआ जमीन में चला जाता है। इस काम से महिलाओं को भी जोड़ा गया है ताकि वे ‘भुंगरू’ का प्रबंधन करती रहें।
अहमदाबाद के इनोवेटर बिप्लब केतन पाॅल ने वर्षा जल संचय का तरीका ‘भूंगरू’ लागू किया।
महाराष्ट्र का मराठवाड़ा पानी की कमी के कारण पूरे देश में सुर्खियों में रहता है। इस इलाके में जालना जिले में एक गांव है कंडवांची। इस गांव ने पानी को बचाने की तैयारी वर्ष 2000 से भी पहले शुरू कर दी थी। 1995-96 में कृषि विज्ञान केंद्र, जालना द्वारा कुछ काम हुए थे। इस गांव ने उन कामों के मर्म को समझा और खाली जमीनों पर जल संरचनाएं बनाईं। बीते 15-20 वर्ष में गांव के लोगों ने चैक डैम बनाए और 347 तालाबों की खुदाई की। 40 नए तालाब भी जोड़े ताकि पानी की एक बूंद भी व्यर्थ न जाए। गांव में अब अंगूर की खेती तक होती है। जिले का नंदापुर और वाघरूल भी ऐसा ही गांव है।
मुंबई की सामाजिक कार्यकर्ता अमला रूईया ने राजस्थान के 100 गांवों में पारंपरिक वाॅटर हार्वेस्टिंग तकनीक को अपनाकर चैक डैम बनाकर जल संवर्धन की पहल की। उन्होंने सूखा प्रभावित राजस्थान में टिकाऊ विकास की दिशा में कदम बढ़ाया है और जल संकट के स्थायी समाधान कि लिए लोगों को प्रेरित किया। उनकी आकार चैरिटबल ट्रस्ट के माध्यम से अब तक करीब 200 चैक डैम का निर्माण हुआ। इनकी मदद से करीब 3000 करोड़ की कुल आय हो सकेगी।
अयप्पा मसागी को ‘वाॅटर मैजीशियन’, ‘वाॅटर गांधी’ और ‘वाॅटर डाॅक्टर’ नामो से संबोधित किया जाता है। कर्नाटक के पैतृक गांव गडाग में उन्होंने छह एकड़ जमीन खरीदी और तैयारी शुरू की। खूब अध्ययन किया और अपने खेत को ही ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैब’ बना दिया। वे धरती को एक बड़ा फिल्टर मानते हैं। वे पानी को संग्रहित करते हैं और उसे जमीन उतार देते हैं। इसके लिए पहले एक बड़े गड्ढे में बड़े पत्थर, बजरी, रेत और कीचड़ की मदद से एक स्ट्रक्चर खड़ा करते हैं। जब पानी गिरता है तो यह पानी बजरी और रेत से होता हुआ नीचे तक जाता है और भूमि को रिचार्ज करता है।