जैसे कि पहले बताया गया है कि जितनी वर्षा होती है उसका एक भाग सतही प्रवाह के रूप में जलग्रहण क्षेत्र से बाहर निकल कर नालों और नदियों के माध्यम से बहते हुए धीरे-धीरे अंततः समुद्र में मिल जाता है। एक भाग वाष्पोत्सर्जन के द्वारा वातावरण में चला जाता है और बाकी मृदा में रिसता हुआ भूजल में मिल जाता है। वर्षा जल सतही और भूजल के माध्यम से उपयोग किया जाता है। जल की प्रकृति उच्च ढलान से निम्न ढलान की ओर बहने की है तथा वर्षाजल का वेग अधिक होने से मृदा का कटाव होता है तथा पानी एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बहकर चला जाता है, जिसके कारण पानी जहाँ गिरता है वहां संरक्षित नहीं हो पाता है। इसलिए वर्षा जल को 'गाँव का पानी गाँव में' और 'खेत का पानी खेत में अपनाने के लिए जलग्रहण क्षेत्र में जल संचयन संरचनाओं के माध्यम से रोक कर जल की उपलब्धता को बढ़ाया जा सकता है। इस अध्याय में विभिन्न प्रकार के भूमि और जल संरक्षण की उपयुक्त विधियों को क्रमानुसार ऊंचे भूतल से लेकर नीचे वाले तल तक दर्शाया गया है।
हमारे देश में विभिन्न प्रकार की स्थलाकृति पायी जाती हैं जैसे उच्च ढलान, मध्यम ढलान और अल्प ढलान तथा समतल भूमियाँ । उच्च ढलान, अल्प मिट्टी उर्वरा और मिट्टी की कम गहराई वाली जगहों में कृषि वानिकी और वनीकरण उचित रहता है। मध्यम ढलान, अपेक्षाकृत कम उर्वर और कम गहराई की मिट्टियों में औद्यानिक फसलों के साथ सहफसली और कृषि सह चारागाह जैसी व्यवस्था उचित रहती है। अल्प ढलान तथा समतल वाली भूमि में मिट्टी की अधिक गहराई और अधिक उर्वरा शक्ति पायी जाती है जिसमें खेती करना सुगम होता है। इन स्थानों पर भूमि संरचना में विविधता के कारण बनायी जाने वाली स्वस्थानिक जल संचयन संरचनाओं का विवरण निम्न है:
स्वस्थानिक (इन-सीटू) वर्षाजल संचयन तकनीक में जल को उसी स्थान पर एकत्रित कर के रखा जाता है, जहां उसका प्रयोग भविष्य में होना है। शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में जहां वर्षा बहुत कम होती है, उन क्षेत्रों में वर्षा के मौसम में अधिक से अधिक वर्षाजल संचित करके उपयोग में लिया जा सकता है। यह मुख्य रूप से खेती और घरेलू प्रयोग के लिए वर्षाजल संचयन का एक उपाय हैं जो सबसे अधिक प्रयोग में लाया जाता है। अपेक्षाकृत गहराई वाले इलाके वर्षाजल के संचयन के लिए आदर्श होते हैं। यह तकनीक सामान्यतः सरल और प्रयोग में लाने में आसान होती है। इस विधि के लाभ और हानियाँ निम्न दर्शाये गए है:
उच्च और मध्यम ढलान वाले शुष्क क्षेत्रों में पौध रोपण और छोटे कृषि कार्यों के लिए वर्षाजल का संचय करने हेतु, अर्धचंद्राकार वेदिकाएं और नालियां बनाकर वर्षाजल का संचयन और भंडारण किया जाता है। ये पौधों को लगाये जाने से पहले भी और उसके बाद भी बनायी जा सकती हैं, ताकि इनके जल का प्रयोग भविष्य में किया जा सके। मिट्टी की गहराई को ध्यान में रखते हुए खेतों में ही फसलों की कतारों के बीच जल संरक्षित करने के लिए यह तकनीक प्रयोग की जाती है। इन नालियों में हर दो-तीन मीटर पर मिट्टी के बाँध बनाये जा सकते हैं; ताकि जल को लंबे समय तक रोका जा सके। इसके अलावा मृदा अपरदन को रोका जा सके तथा जल के धरती में अत्यधिक अवशोषण को भी कम किया जा सके। मध्यम ढलान (8-12%) वाले क्षेत्रों में औद्यानिक फसलों के उत्पादन के लिए सूक्ष्म जलग्रहण (1.0 X 0.3 X 0.3 मीटर) हेतु तश्तरी और अर्धचंद्राकार आकार में इन सीटू जल संचयन और संरक्षण किया जा सकता है। इस तकनीक में रखरखाव की बहुत कम आवश्यकता होती है, मात्र
जगह चुनना और तैयार करना ही होता है। इस तकनीक का मुख्य व्यय उपकरण में और उन श्रमिकों के वेतन के रूप में होता है जो नालियां और घेरा बंदी का निर्माण करते हैं। नाली बनाने की प्रक्रिया के अनुसार •विभिन्न प्रकार की नालियां बनाई जाती हैं, जैसे: रोपण से पहले बनी नालियां, रोपण के बादबनी नालियां, समतल घाटी नालियां, अवरोध के साथ नालियां, उन्नत बेड, आंशिक भूमि की नालियां और गुइमेयर्स ड्यूक पद्धति से बनी नालियां ।
दो खेतों के बीच मेड़ के ऊपर के ढलान के स्थान पर नाली बनायी जा सकती है। भूमि में जल के रिसन बढ़ाने के लिये वर्षा जल को खेत के आस-पास संग्रहित किया जा सकता है। स्थान और ढलान के अनुसार नाली 60 से 75 सेंमी गहरी बनाकर नाली से निकाली गई मिट्टी को दोनों किनारों पर 30 से 45 सेंमी ऊँची मेंड़ बनायी जाती है। नाली में जल भरा रहने देने के लिए 15 से 20 मीटर के बाद तक जमीन की खुदाई नहीं करनी चाहिए। इस विधि को मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। इन नालियों में जगह-जगह परकोलेशन चेम्बर बनाने से जल रिसन की गति को बढ़ाया जा सकता है।
ढलान (4-6%) वाली भूमि में मृदा अपरदन से भूमि को स्थिरता प्रदान करने के लिए एवं ऊपरी क्षेत्र से बहकर आने वाले जल के वेग को कम करने तथा जल को स्वस्थानिक स्थितियों में रोककर रखने के लिए 0.3 मीटर ऊंचाई के समोच्च बांधों का निर्माण किया जा सकता है। इन बांधों को थोड़ा-थोड़ा (1-2 % ) ढलान भी दिया जा सकता है; जिससे इसके पीछे का रुका हुआ जल सावधानीपूर्वक प्रवाहित होता हुआ जल निकास नाली के द्वारा ऊपर से नीचे लाकर जल संचयन संरचनाओं में रोक लिया जाता है। इन बांधों के ऊपर स्थानीय घास जैसे डूब घास, कंस, मूंज, हाथी घास, कुश या संबूता घास इत्यादि से रोपण करके संरक्षित किया जा सकता है। इन घासों को दो पंक्ति में 0.3 0.3 मी. की दूरी पर रोपा जाना चाहिए। अन्य प्रकार की हेज प्रजातियां जैसे असम शेड और ग्लिसेडिया 0.5 मी. प्रति पौधे की दूरी पर लगाए जा सकते हैं। समोच्च बाँध (कंटूर बंड) का प्रयोग उच्च और मध्यम ढलान वाली भूमियों पर जल संचयन के साथ-साथ फसल उत्पादन के लिए भी किया जा सकता है। समोच्च बाँध मेड़बंदी आमतौर पर 1 से 2 मीटर की दूरी पर होती हैं। वर्षा जल मेड़बंदी के बीच में गैर कृषि भूमि की क्यारियों में जमा किया जाता है और उसका भंडारण मेड़ के ठीक ऊपर की नालियों में किया जाता है। नालियों के दोनों किनारों पर फसलें उगायी जाती हैं। इसका एक और लाभ यह है कि पैदावार समान रूप से होती है, क्योंकि हर पौधे को लगभग एक ही जलग्रहण क्षेत्र का जल मिलता है। फसल उत्पादन के लिए कंटूर मेड़बंदी का प्रयोग 5% तक समतल खेत पर बिना रिल्स या ऊंची-नीची भूमि में और 350-700 मिमी वर्षा वाले क्षेत्रों में किया जा सकता है तथा इसके लिए मेड़ों के बीच की दूरी वर्षा की मात्रा के आधार पर निर्धारित की जानी चाहिए।
पर्याप्त वानस्पतिक आवरण के अभाव में उच्च वर्षा प्राप्त करने वाला क्षेत्र अपवाह वेग के साथ पहाड़ियों के नीचे बहने वाली अपवाह की विशाल मात्रा का उत्पादन करता है। इस प्रकार 1 मीटर खड़े (वर्टिकल) अंतराल पर ढाल युक्त बाँध (ग्रेडेड बंड) का निर्माण किया जाना चाहिए। अपवाह के साथ एक निरंतर छोटी खाई 0.2% ढलान अपस्ट्रीम साइड में अपवाह पानी को पकड़ने के लिए बनाना उचित होता है।
शीर्ष चौड़ाई 0.3 मीटर नीचे की चौड़ाई 0.45 मीटर और ऊंचाई 0.3-0.45 मीटर के स्टोन बंड 2.5 मीटर (ढलान 12 से 15 मीटर) प्रावधान के क्षेत्र में 10 मीटर क्षैतिज अंतराल पर बनाए जाने चाहिए। सामान्यतः स्टोन बंड उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त होता है जहाँ पत्थर स्थानीय रूप में उपलब्ध होता है। बाहर से पत्थर लाने में लागत अधिक लगती है।
पर्वतीय और अधिक ढलानों वाले क्षेत्रों में सतही अपवाह का वेग ज्यादा होने के कारण वृक्ष रोपण में कठिनाई होती है तथा पेड़ों की जड़ों को पानी नहीं मिल पाता है इसलिए समोच्च वेदिकाएं बना कर जल संरक्षण तथा वृक्ष रोपण आसानी से किया जा सकता है। समोच्च वेदिकाएं एक अन्तराल पर ढाल खत्म होने के साथ सतही अपवाह का वेग भी कम करते हैं। इस प्रकार खाइयों में भरे जल से मृदा में नमी संरक्षण एवं पुनर्भरण होता है।
समोच्च खत्तियाँ पहाड़ी इलाकों में खेतों की ढलान पर जल के बहाव से समकोणीय दिशा में कुछ इस तरह से खोदी और बनाई जाती हैं कि इन क्यारियों की खुदाई में जो मिट्टी निकलती है उसे निकाल कर उस बची हुई मिट्टी को एकत्रित कर एक मजबूत मेड़ का निर्माण किया जाता है। इससे जल संचयन के साथ- साथ मिट्टी को भी स्थिरता मिलती है और किसी भी तरह के कटाव की आशंका पूरी तरह समाप्त हो जाती है। यह भूमि में जल के अवशोषण को बढाती हैं एवं भारी वर्षा के दिनों में भी ढलान की मिट्टी को स्थिरता प्रदान करती हैं। इन मेड़ों पर स्थायी रूप से पौध रोपण (स्थानीय घास) किया जा सकता है। कंटूर ट्रेंच 10% से अधिक ढाल पर नहीं बनायी जानी चाहिए तथा इसके आसपास की मिट्टी में भरपूर जलधारण क्षमता होनी चाहिए और साथ ही उपसतह पर जल को भंडारित करने की क्षमता भी होनी चाहिए। स्टेगर्ड ट्रेंच 10% से अधिक ढाल पर और अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में बनाया जाता है जिसकी जलधारण क्षमता कंटूर ट्रेंच से ज्यादा होती है। बहुत बार एकसमान आकार वाली और लगातार चलने वाली नालियों को बनाने की संभावनाएं कम होती है, क्योंकि भूमि की संरचना कटाव युक्त और असमान होती है। ऐसी स्थलाकृतियों में टेढ़े और असम्मुखी असमान विन्यास वाली नालियां अथवा स्टेगर्ड ट्रेंच बनाना अधिक उपयुक्त होता है।
जिन क्षेत्रों में तेज आंधियां और तूफान आदि आते हैं, वहां पर जल का पूरी तरह बहने से रोकना कठिन हो सकता है। इससे बचने के लिए आधे से एक डिग्री की कोणवाली नालियां या जलमार्ग बनाए जाने चाहिए ताकि अतिरिक्त जल को सफलतापूर्वक दूसरी नहरों में ले जाया जा सके। इनका प्रयोग बहते जल को एकत्रित करने और उसकी गति को कम करने के लिए किया जाता है। एकत्रित होने के बाद यह जल मिट्टी के अन्दर चला जाता है जिसके कारण मिट्टी में नमी बनी रहती है तथा साथ ही कुओं का जल स्तर भी बढ़ जाता है। कुएं के इस पानी को पम्प के द्वारा वर्षाकाल के उपरांत सिंचाई के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
पहाड़ की निचली दिशा में ढलान के समकोणिक 6-12% ढलान पर लगभग 10-20 मीटर के क्षैतिज अंतराल पर 0.3 मीटर x 0.3 मीटर की गहरी निरंतर खाइयों का निर्माण किया जा सकता है। इस हेतु खाई से खोदी गयी मिट्टी को ढलान की निचली ओर रख कर खाई-सह-बाँध (ट्रेंच-कम- बंड ) बनाकर जल संचयन, जल का भूमि में अवशोषण और आवश्यकता पड़ने पर जल का उपयोग भी किया जा सकता है। इस प्रकार के बांधों पर वनस्पतिक अवरोध (संबूटा, संकर नेपियर, झाडू घास) और हेज रो प्रजाति (असमसेड, ग्लिसरीडिया और क्रोटोलारिया) के वृक्षों को लगाया जा सकता है तथा जो खाली स्थान बचता है (इंटर- बंड स्पेस) उसमें आम, काजू, सागौन आदि के फलदार वृक्ष लगाए जा सकते हैं।
खेत -बन्धी बाहरी जलग्रहण क्षेत्र से आने वाले अपवाह के लिए एक छोटा अवरोध होता है जो भूमि की सतह पर जल के प्रवाह को धीमा करती हैं और साथ ही भूजल पुनर्भरण तथा मिट्टी की नमी बनाए रखने में सहायता करती हैं। यह एक आयताकार प्रकार की संरचना है, जिसमें जमीन तीन ओर से घिरी होती है तथा चौथा किनारा उच्च निर्गम क्षेत्र से आने वाले वर्षा जल को ग्रहण करने के लिए खोलकर रखा जाता है। पुस्ता या खेत बन्धी एक ढाल के साथ समोच्च पंक्तियों में बनाने से ज्यादा प्रभावी होता है। पुस्ता या खेत बन्धी छोटे पत्थर या मिट्टी की दीवारों से बनता है तथा इसके अंदर जल के साथ-साथ चलने के लिए एक छोटी सी नाली को बनाया जाता है। ये किनारे आमतौर पर 20-100 मीटर लम्बे हो सकते हैं, जबकि आधार खेत -बन्धी, 50-300 मीटर लंबा हो सकता है। पुस्ता या खेत बन्धी के लिए निम्नलिखित सावधानियां अपेक्षित हैं:
टूटी-फूटी मेंड़ों से अथवा चूहों के द्वारा बनाये गए छेदों से खेत के जल के साथ-साथ पोषक तत्व भी बह कर निचले क्षेत्रों में जा सकते हैं; इससे न केवल जल का हास होता है बल्कि फसलोत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। पहाड़ की तलहटी के नीचे की ढलान वाली कृषि भूमि में कटाव हो जाता है और मिट्टी बहकर बहु-दिशात्मक ढलानों के साथ एकत्रित हो जाती है या फिर बह जाती है जिस के कारण छोटी उथली गलियाँ बन जाती हैं। इसलिए समय के साथ जीर्ण-शीर्ण हुई मेढ़ का नवीकरण करने से स्थायित्व और खेत की जल धारण क्षमता दोनों को ही बढाया जा सकता है। मॅड की ऊँचाई चारों तरफ से कम से कम 30 सेमी होने से पर्याप्त जल संचयन होता है, साथ ही पैदावार भी बढ़ती है। इसे सफल बनाने के लिए मेड को सुदृढ़ करने का काम सामुदायिक स्तर पर लोक सहभागिता के साथ होना चाहिए।
अधिक तीव्र ढलान युक्त ( 6-50% ) एवं अधिक वार्षिक वर्षा (>1000 मि.मी.) वाले पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेत या वेदिकाएं (जिन्हें बेंच टेरस कहा जाता है) बनायी जाती हैं। विभिन्न प्रकार की संरचनाओं में अपवाह जल का संकलन करके कृषि कार्यों, औद्यानिकी तथा वानिकी हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है।
जिन पहाड़ी क्षेत्रों में मध्यम से लेकर अधिक वार्षिक वर्षा एवं क्षेत्र ढलान 6 से 50% तक होता हैं वहां इन संरचनाओं का निर्माण किया जाता है। भारत के पूर्वी और पश्चिमी घाट के क्षेत्रों हेतु ये संरचनाएं अधिक उपयुक्त पायी गयी हैं।
अपेक्षाकृत कम वार्षिक वर्षा (500-1000 मि.मी.). गहरी मिट्टी तथा भारी अथवा काली मिट्टी के क्षेत्रों में वाह्य ढलान युक्त बेंच टेरस बना कर जल संचयन एवं प्रबंधन के आधार पर कृषि कार्य किये जाते हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं तमिलनाडु के पहाड़ी क्षेत्रों में ये संरचनाएं अधिक प्रचलित हैं।
इस प्रकार की बेंच टेरस का उपयोग धान की फसल की खेती करने के लिए किया जाता है जिसमें टेरस बेड को शून्य स्तर तक समतल किया जाता है।
कई जल ग्रहण क्षेत्र देखे गए हैं जिनमें पत्थर की खुदाई के उपरान्त बड़ी गहरी खदानें बची रह जाती हैं। इस प्रकार के जलग्रहण क्षेत्रों में खदान के माध्यम से निर्मित बड़े और पर्याप्त रूप से गहरे अवसादों को पुनर्निर्मित करके सूखे के दौरान वृक्षारोपण तथा फसलों की सिंचाई के लिए जल भंडारण तालाबों में परिवर्तित कर दिया जाता है।
खेत में आर्द्रता, नमी और भूमि से सूक्ष्मवाहिनी (कैपिलरी) में जल प्रवाह बनाए रखने के लिए पोखर बनायी जा सकती है। खेत की नालियों को पोखर से जोड़ देना उचित होता हैं । पोखर का स्थान और आकार सुविधा अनुसार रखना चाहिए। गोल पोखर 4-5 मीटर व्यास का बनाया जा सकता है। एक हेक्टयर खेत में दो-तीन पोखर बनाये जा सकते हैं। सड़क के दोनों ओर पोखर, उथली क्यारियां, कलर्वट (छोटी पुलिया) में रोक बनाकर जल को रोकने और रिसन बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं। इससे सड़क किनारे के पेड़-पौधे तेजी से बढ़ते हैं, जिससे हरियाली व जैव विविधता बढ़ेगी ।
अनुचित भूमि उपयोग और वनों की कटाई के परिणामस्वरूप भूजल विसर्जन के साथ अपवाह जल के वेग द्वारा कटाव हो सकता है। ये गहरी नालियां बंजर भूमि का विस्तार करती हैं और फसल को बड़ी हानि पहुँचाती हैं। उनके आगे के विस्तार पर अंकुश लगाने के लिए जल निष्कासन नाली का उपचार (ड्रेनेज लाइन ट्रीटमेंट) लूज बोल्डर चेक डैम की श्रृंखला के साथ किया जा सकता हैं, जिनमें से प्रत्येक में 0.6 मीटर की शीर्ष दीवार बढाव (हेड वाल एक्सटेंशन), 1-1.2 मीटर की ऊँचाई, 1:2 का ऊपरी ( अपस्ट्रीम) ढलान और 4:1 का निचला ढलान बनाया जाता है। नीचे की चौड़ाई और शीर्ष दीवार की चौड़ाई 0.45 मीटर होती है। इन रोक बांधों (चेक डैमों) के ऊपरी भाग में घासें जैसे: इपोमिया कॉर्निया लगाकर सुदृढ़ किया जा सकता है। लूज बोल्डर का निर्माण लंबी घाटी में कम या मध्यम ऊंचाई वाली चट्टानों की दीवार से होता है, जिनके शिखर घाटी के तल के किनारे-किनारे समान ऊंचाई वाले होते हैं। यह तटीय धाराओं को फैलने नहीं देता है। यह बाढ़ के जल को प्रक्षेत्रों पर फैलने तो देता है और नियंत्रित भी करता है ताकि फसल की वृद्धि ठीक ढंग से हो सके। साथ ही यह मृदा के कटाव को भी रोकता है। बांध की दीवार में नाले के अंदर लगभग 1 मीटर ऊंची रखी जाती है परन्तु कहीं-कहीं पर ऊंचाई 80 और 150 सेमी के बीच हो सकती है। बांध की दीवार की उपरी ढलान 2:1 एवं निचली ढलान 1:2, ऐसा संरचना को अच्छी स्थिरता देने के लिए किया जा सकता है। बाहरी दीवार पर बड़े पत्थरों और अंदर की दीवार पर छोटे पत्थरों का प्रयोग किया जाता है। फसल उत्पादन के लिए लूज बोल्डर का निर्माण निम्नलिखित परिस्थितियों में किया जा सकता है:
यह वह व्यवस्था है जिसका मुख्य उद्देश्य ढलुई भूमि पर छोटे-छोटे अवरोधक बनाकर मृदा में नमी की स्थापना करना है। इस प्रकार की संरचनाएं मुख्यतः गली, नाला या धाराओं पर सतही जल के प्रवाह को रोकने एवं पारगम्य मृदा में या शैल सतह पर लम्बी अवधि के लिए जल ठहराव के लिए किया जाता है। गली प्लग, जो साधारणतः प्रथम श्रेणी की धाराओं पर बनायी जाती है, की तुलना में नाला बांध एवं चेक डैम कम ढाल वाले क्षेत्रों में बड़ी जल धाराओं पर बनाये जाते हैं। ये संरचनायें अस्थाई एवं स्थाई दोनों प्रकार की हो सकती है। जल धारा के अधिकतम अपवाह के दोहन के लिए चेक डैम की श्रृंखला भी बनाई जा सकती है जिससे विस्तृत क्षेत्रीय स्तर पर पुनर्भरण हो सके। अस्थाई संरचनायें स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्रियों से बनाये जाते हैं जैसे सूखी लकड़ी द्वारा बनाया गया बांध, ढीला एवं चूना पत्थर, मेसोनरी चेक डैम, गेबियन चेक डैम, बुने तार बाँध आदि । स्थायी संरचनायें पत्थर, ईंट एवं सीमेंट से बनायी जाती हैं। चेक डैम बनाने के लिए स्थल चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि पारगम्य मृदा या अपक्षयित शैल की पर्याप्त मोटाई हो जिससे एकत्रित जल का रिसाव पुनर्भरण के लिए कम से कम समय में हो सके।
निम्न ढलान वाली समतल भूमियाँ जहाँ वार्षिक वर्षा <750 मि.मी. होती है उन क्षेत्रों के लिये निम्नलिखित स्वस्थानिक जल संचयन विधियाँ अपनाई जा सकती है:
खाई के साथ मेंड़बंदी (ट्रेंच-कम-बंड) (खाई की गहराई 20 से.मी. और मेंड़ की ऊंचाई 20 से.मी.), मेंड़ (बंड) (30 सेंमी. ऊंचाई) जल संरक्षण की विधि है, जिसमें मिट्टी की अधिक नमी फसल में जल का कम तनाव, उच्च सापेक्ष जल सामग्री एवं अन्य जैव-भौतिक (बायो- फिज़िकल) मापदंडों की उपलब्धता के हो सकती हैं तथा इसमें फसल उत्पादन सामान्य से 1.25 गुना अधिक प्राप्त हो सकता है।
रेज बेड और फरो जैसे 30:30, 45:30, 60:30, 75:45, 90:45 (रेज बेड: फरो) और 15 से.मी. ऊंचाई द्वारा बाजरा, मक्का और सोयाबीन को कम वर्षा की स्थिति में मृदा जल उपयोग और पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। यद्यपि, फसल की उपज को 1.5 गुना बढ़ाने के लिए बाजरा, मक्का और सोयाबीन में 90:45 से.मी. की रेज बेड और फरो का प्रयोग किया जा सकता है । उथली भूमि पर उत्पादकता को अधिक बढ़ाने के लिए फिर से बाजरा और ज्वार को रेज बेड पर और चारा वाली मक्का को उत्पादकता और पोषण को बढ़ाने के लिए फरो में बोया जा सकता है।
बाजरा में स्वस्थानिक (इन-सीटू) जल संरक्षण अभ्यास की चौकोर समतल क्यारी जुताई विधि (बेसिन टिलेज) और 45 से.मी. x 45 से.मी. x 15 से.मी. माप के गड्डों में ज्वार / बाजरा / मक्का की फसलें और ग्वार / लोबिया को गड्डों के बीच 75 से.मी. की दूरी के साथ अंतर फसल के रूप में उगाने का प्रयास किया गया और यह पाया गया कि 25-28 क्विटल प्रति हेक्टेयर बाजरा + 22 से 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर / ग्वार / लोबिया का उत्तम उत्पादन हुआ। बेसिन टिलेज को चौकोर के स्थान पर गोल आकार में भी बनाया जा सकता है।
इस प्रकार की संरचनाओं को कम ढलान बंजर भूमि एवं मध्यम तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में बनाया जाता है। मैदानी क्षेत्रों में वर्षा कालिक जल को नदी-नाले में बहाने से रोकने के लिए निरंतर अथवा विखंडित खाइयां खोद कर जल को एकत्रित किया जाता है जो मृदा में रिसकर अन्ततः भूमिजल पुनर्भरण करता है। खाई एव खांचे की इस विधि में उथली समतल एवं पास-पास श्रृंखला में बनी हुई खाई एवं खांचे में जल विस्तारित किया जाता है। उथली समतल एवं पास-पास होने के कारण विस्तारित जल एवं मृदा के बीच संपक्र काल एवं स्पर्श क्षेत्र अधिक रहता है। इन खाइयों में पर्याप्त ढलान भी होनी चाहिए जिससे प्रवाहित जल की गति समान रहे एवं कम से कम अवसाद का जमाव हो । प्रत्येक क्षेत्र के निचले भाग में एक संग्राही खाई की आवश्यकता पड़ती है जोकि जल की अतिमात्रा को मुख्य वाहिका में वापस कर देती है।
घने जंगलों वाले क्षेत्रों में जहां पर पेड़ों की बहुतायत होती है और अपवाह जल के तीव्र बहाव को रोकने की आवश्यकता पड़ती है, वहां पर 50 मिमी व्यास के टुकड़े (ग्लिरिसिडिया और सिमली और इपोमोआ बाध्यकारी सामग्री के रूप) या लकड़ी के लट्ठों के प्रयोग से एक पंक्ति (सिंगल) अथवा दो पंक्ति (डबल ब्रशवुड) जिनकी लठ्ठे से लठ्ठे की दूरी 0.15 मीटर, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 0.5 मीटर, भूमि में गहराई 0.3 मीटर और भूमि से ऊंचाई 1.5 से 2.0 मीटर से अधिक रखते हुए रोक बांधों के निर्माण से जल का सफलतापूर्वक संचयन किया जा सकता है जिससे मिट्टी का कटाव रोकने में भी लाभ होता है।
उप-सतही डाइक / भूमि जल बाँध छोटी नदियों के आर-पार बाँधा गया अधो- सतही बाँध है, जिसका उद्देश्य भूमिजल प्रवाह को रोकना या धीमा करना है एवं भूमि जल भंडारण बढ़ाना है। अनुकूल स्थानों पर ऐसे बाँधों का निर्माण न सिर्फ नदियों के आर-पार, बल्कि नदी घाटी के बड़े क्षेत्रों में भूमि जल संरक्षण के लिए किया जाता है।
समय के साथ-साथ किसानों के खेतों से गुजरने वाली नालियां (चैनल) बुरी तरह से नष्ट हो जाती हैं, जिससे आस-पास के खेतों को भी नुकसान होता है। इन चैनलों को वर्षा काल से पूर्व पुनर्निर्मित किया जाना चाहिए, जिसकी नीचे की चौड़ाई 0.45 मीटर और शीर्ष की चौड़ाई 0.6 मीटर होनी चाहिए। चैनल के ताल के स्थिरीकरण के लिए संबूता घास को 30 सेंमी तक पंक्ति-दर- पंक्ति और पौधे से पौधे के अंतर को रखते हुए कंपित पैटर्न में लगाया जाना चाहिए। अपवाह जल के वेग को कम करने के लिए उपयुक्त स्थानों पर एवं गैर-कटाव स्तर पर छोटे-2 ढीले बोल्डर संरचनाओं का निर्माण किया जाना अपेक्षित है।
अप्रैल से मई के अंतिम सप्ताह में पहली वर्षा के साथ ग्रीष्मकालीन जुताई करने से वर्षाकाल में उपलब्ध जल को खेत द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। जलग्रहण क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन जुताई को और बढ़ावा दिया जाना अपेक्षित है।
समग्र कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए किसानों को फलदार वृक्षों / वन वृक्षों के साथ कृषि और चरागाह का भी उपयोग करना चाहिए। कई वैकल्पिक भूमि उपयोग प्रणालियां जो विभिन्न कृषि पारिस्थितिक स्थितियों के अनुकूल हो सकती हैं, वे हैं गली फसल (एल्ली क्रोप्पिंग), कृषि-बागवानी प्रणाली (एग्री होर्टी सिस्टम), वानिकी - चरागाह (सिल्वी-पैस्तोरल ) या बागवानी - वानिकी - चरागाह - (हॉर्टी- सिल्वी-पैस्तोरल)। इन प्रणालियों को जल संरक्षण प्रणालियों के साथ अपनाने से जल संचयन के साथ-साथ मृदा संरक्षण भी होता है जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है तथा स्थिर उत्पादन के लिए संसाधनों का उपयोग उत्तम प्रकार से होता है।
उत्तम संसाधन प्रबंधन से आय को बढाने की दृष्टि से बागवानी कृषि प्रणाली (हॉर्टी- एग्री सिस्टम) - विकसित किए जाते हैं जैसे 6 x 6 मीटर की दूरी पर बेर के अंतरवर्ती क्षेत्रों में लोबिया / मूंग / चना की अन्य बागवानी - कृषि प्रणाली जिसमें दो बैर पौधों के बीच एक पंक्ति में फालसा लगाया जा सकता है जिससे कृषि प्रणाली अधिक दक्ष बनेगी। अच्छी तरह से प्रबंधित सूखी भूमि में स्थित बेर के बाग को प्रति पेड़ / वर्ष 50 किलोग्राम फल देना चाहिए। अनुकूलित उत्पादन के लिए 250 पौधे / हेक्टेयर होना चाहिए। इससे आय में वृद्धि 50.000रु./ हेक्टेयर के आसपास होगी। यह मानते हुए कि एक किलो बेर की कीमत मात्र 4.रु./किलोग्राम हो तो भी 250 वृक्षों के औसत 50 किलो फल प्रति पौधा के आधार पर व्यक्ति को 50,000 रु. / हेक्टेयर का अतिरिक्त लाभ प्राप्त हो सकता है तथा हरे चने / लोबिया (2.5-3.0 क्विंटल / हेक्टयेर) से 800-1000 रु. की अतिरिक्त आय भी होगी। फलदार पेड़ यदि उपयुक्त रूप से वर्षा आधारित कृषि प्रणाली में एकीकृत हैं; तो खाद्य, ईंधन और चारे, कृषि और मिट्टी और जल के संरक्षण और उत्पादन और आय में स्थिरता सहित समग्र कृषि उत्पादन में आशातीत वृद्धि हो सकती है।
फलदार वृक्ष गहरे जड़ वाले और कठोर होते हैं। वे छोटी अवधि की मौसमी फसलों की तुलना में मानसूनी विपत्तियों को अधिक उत्तम प्रकार से सहन कर सकते हैं। इसलिए सूखे के वर्ष में जब वार्षिक फसलें सामान्यतः विफल हो जाती हैं या उनका उत्पादन हास अत्यधिक होता है, फलों के पेड़ों की प्रजातियों से अधिक मात्रा में भोजन, चारा और ईंधन प्राप्त किया जा सकता है। किसी भी बाग के पौधों के बीच के खाली स्थान पर दाल वाली फसलें और हरे चारे का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। भिन्न-भिन्न जल संरक्षण प्रणालियों गोल (1.5 मीटर त्रिज्या) या चौकोर रिंग बेसिन, माइक्रो-कैचमेंट (1 मीटर त्रिज्या) और ट्रेंच (45 से.मी.) के साथ बाग-बगीचों में ज्वार, बाजरे, मक्का और बेल के साथ-साथ फलियां जैसे सोयाबीन, मूंग और लोबिया के अंतरफसल में 29 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और 19 से 34 क्विंटल प्रति हेक्टेयर (बेल) की पैदावार होती है। खाइयों के ऊपरी भाग की उत्पादकता लगभग डेढ़ गुना तक बढ़ जाती है। मात्र लोबिया की फसल से अर्जित आय रु. 94,300 प्रति हेक्टेयर की तुलना में बेल सह लोबिया से रु. 259300 / हेक्टेयर की आय प्राप्ति संभव है।
इस प्रणाली में समोच्च मेंड़ों या बंधियों पर पेड़ों या झाड़ियों की पंक्तियों द्वारा बीच में बनाने वाली गलियों में जिन्हें अले कहा जाता है, खाद्य फसलों को उगाया जाता है। इस प्रणाली की अनिवार्य विशेषता यह है कि छायांकन को रोकने और खाद्य फसलों के साथ प्रतिस्पर्धा को कम करने के लिए लगाए गयी पेड़ों की पंक्तियों को रोपण के आरम्भ में ही काट दिया जाता है तथा तेजी से बढ़ने वाले डाल वाले पेड़ जैसे ल्यूसीना ल्यूकोसेफला या गिलिरिसिडिया प्रजातियाँ पंक्तियों में लगाए जाते हैं। फसल के मौसम के दौरान, पेड़ों को लगभग 0.5 मीटर की ऊंचाई पर काट दिया जाता है। इन कटी हई डालियों का उपयोग नमी की कमी को रोकने और मिट्टी की पोषकता स्थिति में सुधार करने के लिए किया जाता है। मक्का, चावल, बाजरा, फलियां, तिलहन आदि फसलें पेड़ों की दो पंक्तियों द्वारा बनाई गई गलियों में लगाई जाती हैं। इसे कृषि वानिकी प्रणाली के रूप में भी जाना जाता है।
अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों से अतिरिक्त अपवाह जल को सावधानी पूर्वक मोड़ने के लिए 0.65 मीटर की शीर्ष चौड़ाई, 03 से 0.45 मीटर की नीचे की चौड़ाई और 03 से 0.65 मीटर की गहराई, 100-200 मीटर लंबे नालों के प्रयोग द्वारा नीचे की भूमि को कटाव से बचाते हुए जल को किसी निर्धारित स्थान पर ले जा कर संग्रहीत किया जा सकता है। कहीं-कहीं पर इस प्रकार के डायवर्सन चैनलों को पत्थर की खदानों से बने हुए गहरे और बड़े गड्ढे में छोड़कर सुरक्षित निपटान के लिए रोक दिया जाता है। इन यांत्रिक उपायों के अतिरिक्त संग्रहीत जल के प्रयोग से विभिन्न कृषि वानिकी प्रणालियाँ जैसे हॉर्टी-पैस्तोरल और हॉर्टी-सिल्वी-पैस्तोरल प्रणाली इत्यादि को भी अपनाया जा सकता है।
पूसा संस्थान ने वर्षा जल संचयन के द्वारा भूजल पुनर्भरण हेतु बड़ी मात्रा में खाइयों सह बांधों तथा खाइयों के निर्माण किये हैं। सतही अपवाह को भूजल में मिलाने हेतु जल प्रौद्योगिकी केंद्र के समग्र प्रक्षेत्रों में निरंतर खाइयां ( 45 सेंमी. चौड़ी और 30-45 सेंमी. गहरी ) हर मेड़ के ऊपर की तरफ बनायीं गयी हैं, जिससे सारा का सारा अपवाह खेतों में ही रोक लिया जाता है।
मिट्टी की परतों (प्रोफाइल) में नमी के संरक्षण के लिए निम्नलिखित या इनमें से कुछ प्रथाओं को आवश्यकतानुसार अपनाया जाना चाहिए:
खेत में गहरी जुताई, गर्मी की गहरी जुताई, धूल, मिट्टी, खरपतवार नियंत्रण, इष्टतम पौध घनत्व, इष्टतम रोपण प्रणाली और पंक्ति बुवाई, लीफ स्ट्रिपिंग |
फसल अवशेषों और कार्बनिक पदार्थों के अलावा पॉलिमर का उपयोग ।
वाष्पीकरण को रोकने और मिट्टी के जल स्तर में सुधार करने के लिए विभिन्न प्रकार की आच्छादन या मल्च (मृदा मल्च या डस्ट मल्य, स्टबल मल्च स्ट्रॉ मल्च, प्लास्टिक मल्च ) का प्रयोग किया जाना चाहिए।
अति शुष्क प्रदेशों में पौधों के ऊपर छिड़काव करके जल मांग को घटाया जा सकता है। काउलीन का छिडकाव (स्प्रे) वाष्पोत्सर्जन की हानि को 20-28% तक कम करता है। जड़ में वृद्धि के लिए साइक्लोसेल जैसे वृद्धि अवरोधक (ग्रोथ रेटडेंट्स) का उपयोग किया जा सकता है।
फसल और किस्मों के चयन के माध्यम से उपलब्ध नमी का दक्षतापूर्ण उपयोग उन्नत और कम जल मांग वाली फसल और किस्मों का चयन, समय पर बुवाई, बुवाई विधि और बुवाई की गहराई, बीज दर, उर्वरक दर, उर्वरक की मात्रा, सामान्य मात्रा का आधा, सख्त बीज, खरपतवार नियंत्रण, इष्टतम रखरखाव के साथ खरीफ फसलों की पौध आबादी में वृद्धि और समय पर कटाई, इत्यादि विधियों को अपना कर उपलब्ध नमी का दक्षतापूर्ण उपयोग करने से शुष्क और अर्ध शुष्क स्थितियों में फसल उत्पादन किया जा सकता है।
इन जल संचयन संरचनाओं की विशेषता यह है कि इनमें जो जल संग्रह किया जाता है वह किसी अन्य स्थान पर वर्षा जल अथवा अपवाह के रूप में प्राप्त होता है जिसे किसी निश्चित स्थान पर रोक लिया जाता है। संरक्षित जल को फसल की पैदावार बढ़ाने में प्रयोग किया जाता है।
इस प्रकार से उपलब्ध जल को भी छोटी बावड़ी बनाकर अथवा जल कुंडी बनाकर विभिन्न प्रकार से प्रयुक्त किया जा सकता है। प्राकृतिक संग्रह स्थानों पर जल सामान्यतः पीने योग्य ही होता है, परन्तु उसकी मात्रा बहुत कम होती है और वह तत्काल समाप्त भी हो जाता है। बावड़ी के बांध को कंक्रीट, मिट्टी और पत्थरों का उपयोग करके बनाया जाता है ताकि बाढ़ आदि में जल को सुरक्षित ढंग से भंडारित किया जा सके। इस जल को सूखे के दिनों में प्रयोग में लाया जा सकता है। रेत बांध (सैंड डैम) प्राकृतिक रेतीले जल भंडारण स्थानों में कृत्रिम तौर पर सुधार करके बनाए जाते हैं ताकि अधिक से अधिक मात्रा में भूजल पुनर्भरण किया जा सके और उस जल को प्रयोग में लाया जा सके।
एक प्राकृतिक वर्षा जलागम क्षेत्र में बांध बना कर जल संचयन किया जा सकता है, जैसे एक नदी घाटी परियोजना में जल को अनेकों जलाशय बना कर उसका उचित स्थान पर भंडारण कर सकते हैं या फिर उस जल को किसी अन्य जलाशय में भी भेजा जा सकता है। ऐसी एक संरचना के पीछे खुले जलाशय की भंडारण क्षमता 20 से लेकर 4,000 घन मीटर तक हो सकती हैं। वैकल्पिक रूप से, जल की मात्रा को जलागम से सीधे जल इकट्ठा कर ढके हुए भंडारण टैंक में भी संग्रहित किया जा सकता है तथा वितरण से पहले बांध के पीछे संग्रहित जल का उपचार किया जाना चाहिए।
कहीं-कहीं पर ग्रामीणों के पास स्नान करने और जानवरों को पेयजल उपलब्ध कराने के लिए जल के भंडारण की कोई सुविधा नहीं होती है। इनकी भूमि में नीचे की ओर बहने वाले जल की रोक हेतु ऊपरी भूमि में खेत तालाब बनाया जा सकता है। गांव के अलावा अन्य स्थानों पर भी वर्षाजल और अपवाह जल को संग्रहीत करने के लिए खेत तालाब बनाये जा सकते हैं। तालाब बनाने हेतु क्षेत्र या स्थान (साइट) चयन के बाद तालाब की भंडारण क्षमता का आंकलन करते हुये 2.5 से 3.5 मी. की गहराई के तालाब का निर्माण करना उचित होता है। तालाब के बहाव के छोर पर सुरक्षा हेतु एक जल निकास संरचना (स्पिलवे) का प्रयोग किया जाना चाहिए। भारत सरकार द्वारा 20 मीटर x 15 मीटर x 3.5 मीटर के खेत तालाब बनाने हेतु 50% तक अनुदान दिया जाता है । भा.कृ.अनु.सं. में निर्मित अनाच्छादित (अन-लाइन्ड) तालाब (लागत लगभग 1.0 लाख रुपये) की भंडारण क्षमता के साथ (आकार 1500 मीटर और माप ( 25 मीटर x 20 मीटर x 3 मीटर) को प्रति वर्ष 15 लाख लिटर जल भंडारण हेतु उपयोग किया जा सकता है। इसी प्रकार 3000 घन मीटर धारिता वाले (40 मीटर x 25 मीटर x 3मी. आकार के) आच्छादित (लाइन्ड) तालाब में प्रति वर्ष 3 करोड़ लिटर जल का संचयन किया जा सकता है। जियो मेम्ब्रेन / झिल्ली, ईंट के साथ जियो मेम्ब्रेन / झिल्ली, और प्रबलित सीमेंट कंक्रीट (आरसीसी) जैसे तालाब अस्तर सामग्री की स्थापना लागत, क्रमशः रु. 2 लाख 3 लाख और 45 लाख होती हैं। इसी तरह से खेत के अंत में 12 मीटर x 10 मीटर x 3 मीटर के आकार के तालाब का निर्माण सीमेंट + मिट्टी (2:10) की परत के साथ किया जा सकता है। लेकिन आजकल यह पाया जाता हैं कि बहुत सारे तालाब जो पहले बनाये गये थे काम नहीं कर रहे हैं या उनकी क्षमता घट गयी है। इसलिए तालाबों को पुनर्जीवित करने के प्रयास किये जाने चाहिए।
घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल को तालाब में एकत्रित करके उपचारित करके पुनः प्रयोग में लाया जा सकता है। जैसा कि पूसा संस्थान ने इंजीनियर्ड वेटलैंड बनाकर कृषि कुंज आवासीय कालोनी से निकलने वाले घरेलू जल को तालाब में डालकर उपचारित किया है। इसके बाद इस जल को पत्थर, ग्रेवल और टायफा घास द्वारा उपचारित करके सिंचाई के लिए उपयोग में लाया गया है।
पहाड़ के नीचे के क्षेत्र में अपवाह जल को रोकने तथा कृषि भूमि को क्षरण से बचाने के लिए यह संरचना बनाई जाती है। इसका कोई निश्चित आकार निर्धारित नहीं किया जा सकता है। इसका आकार अपवाह जल का परिमाण तथा तालाब बनाने हेतु उपलब्ध स्थान के आधार पर निर्भर करता है। साधारणतया धँसे हुए तालाबों को 30 मीटर x 30 मीटर x 1.5 मीटर का बनाना उचित होता है। ये जल के अस्थायी भंडारण हेतु डूबे हुए तालाब होते हैं जिनके द्वारा भूजल पुनर्भरण किया जाता है।
उड़ीसा के तटीय क्षेत्र में एक विशिष्ट भू-स्थलाकृति का अस्तित्व है; जो पूरे वर्ष जलमग्न रहती है । झोला भूमि में पानी का दोहन करने के लिए सिंचाई के लिए झोला लैंड बैंक के पास झोला कुंडियों (रिचार्ज कुओं) का निर्माण करके जल का संचयन किया जाता है। संचयित जल का उपयोग वर्षाकाल के बाद फसल की सिंचाई हेतु कृषक बंधु पम्प से किया जाता है।
भारत में प्रचलित अपवाह दोहन संरचनाओं में सबसे प्रमुख है परिस्रवण टैंक, जो नाला बंध बनाने के सिद्धांत पर ही आधारित होता है। परिस्रवण टैंक, कृत्रिम रूप से सृजित सतही जल संरचना है जिसके जलाशय में अत्यंत पारगम्य भूमि जल प्लावित हो जाती है जिससे सतही अपवाह परिस्रवित होकर भूजल भण्डार का पुनर्भरण करता है। इनमें सिंचाई या अन्य उद्देश्यों के लिए टैंक से जल विसर्जन के लिए किसी प्रकार की निकास व्यवस्था नहीं होती, फिर भी टैंक को खिसकने (ओवर टापिंग) से बचाने के लिए अतिरिक्त जल के निकास के लिए उत्प्लव मार्ग की व्यवस्था होती है।
रोक बाँध या चेक डैम एक छोटा अस्थायी या स्थायी बांध है, जिसका निर्माण किसी जल निस्तारण खाई, गली, स्वेल या चैनल के अन्दर किया जाता है, ताकि वर्षा काल में संघनित अपवाह जल प्रवाह की गति को कम किया जा सके। बांध भूमि की सतह में प्राकृतिक गलीज में अस्थायी या स्थायी सामग्री के बनाये जा सकते हैं। इसमें कंक्रीट, मृदा, वनस्पति, पत्थर और झाड़-झंखाड़ आदि का प्रयोग किया जाता है। जहां मिट्टी का प्रयोग किया जाता है, संरचना के कटाव या विनाश से इसे बचाकर रखने की आवश्यकता होती है। यह करने के लिए, विशेषकर एक ठोस स्पिलवे का निर्माण किया जाता है; जहां वे उपलब्ध जल निस्तारण प्रणाली का उपयोग करते हैं, परन्तु बिना किसी विशिष्ट डिजाइन के जलवाहिनियों या स्थायी रूप से बह रही नदियों में रोक बाँध (चेकडैम) का निर्माण नहीं किया जाना चाहिये ।
रेत बांध (सैंडडैम) साधारण, कम लागत और कम रखरखाव वाली ऐसी वर्षा जल संरक्षण तकनीक है जिसका जगह-जगह अनुकरण किया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में वर्षा अनिश्चित होती है वहां प्रायः नदियों के तटवर्ती इलाके में काफी रेत इकट्ठी होती रहती है। इन जगहों पर वर्षा के तत्काल बाद जल बहुत तेजी से बह जाता है। ये क्षेत्र प्राकृतिक तौर पर जल भंडारण वाले जल क्षेत्र निर्मित करते हैं। तेज बहाव वाले दिनों में बहुत बड़ी मात्रा में बालू भी बहकर निचली धारा वाले क्षेत्र में पहुंचती है। कुछ बालू ऊपरी धाराओं में चट्टानों के बीच भी फंस जाती है। रेत बांध (सैंडडैम) प्राकृतिक रेतीले जल भंडारण स्थानों में कृत्रिम तौर पर सुधार करके बनाए जाते हैं ताकि अधिक से अधिक मात्रा में भूजल पुनर्भरण किया जा सके और उस जल को प्रयोग में लाया जा सके।
ये खुले और बड़े तालाब होते हैं जिनको या तो खोदा जाता है या यह भूमि का ऐसा हिस्सा होता है जो स्वयं उच्च स्थलों से घिरा रहता है। इसका कुल क्षेत्र प्रायः 15,000 घन मीटर तक होता है। ये तालाब प्रायः एक से चार मीटर तक गहरे होते हैं, लेकिन तालाब का आकार जल धारण क्षेत्र और एक साल में उसके भराव की क्षमता को देखते हुए तय किया जाना चाहिए। इनमें वर्षा जल संरक्षण किया जाता है, लेकिन इसका प्रमुख लक्ष्य होता है इस जल को जलाशयों तक पहुंचाना, ताकि वहां से यह बोर होल, कुओं और आसपास की जलधाराओं तक पहुंचाया जा सके। इनका निर्माण ऐसे इलाकों में किया जाता है जहां तालाब का आधार पारगमन क्षमता वाला हो और जहां इसकी मदद से आसपास के इलाकों का भूजल पुनर्भरण किया जा सके।
पहाड़ी से नीचे बहने वाली बारहमासी धारा को ग्रामीणों द्वारा पीवीसी पाइप (आंतरिक व्यास 150 मिमी) से सीधा खेतों तक ले जाया जाना चाहिए। इससे जल संवहन दक्षता को 80-90 प्रतिशत तक बढाया जा सकता है, जिसके कारण जल की जो बचत होगी वह भी एक प्रकार से जल संचयन ही कहा जायेगा।
परिसर में विभिन्न स्थानों पर वर्षा जल संचयन तालाबों एवं रिचार्ज शाफ्टों का निर्माण किया गया है। इन संरचनाओं द्वारा संस्थान के सतही अपवाह को रोककर भूजल पुनर्भरण एवं उपयोग किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त संस्थान ने सिंचाई के लिए घरेलू अपशिष्ट जल के उपचार के लिए एक प्रणाली विकसित की है। इस तकनीक को देशभर के अन्य संस्थानों में भी स्थानांतरित किया जा रहा है।
हमारे देश के पूर्ववर्ती लोगों ने अपनी-अपनी स्थलाकृति, वर्षा, अपवाह जल की उपलब्धता, मृदा की अधिशोषण क्षमता इत्यादि का गहराई से अध्ययन करके विभिन्न प्रकार की संरचनाओं के निर्माण में पारंगतता प्राप्त कर ली थी। जल संचयन संरचनाएं सबसे उपयुक्त व निम्नतम स्थानों पर बनाई जाती थीं। इसके अतिरिक्त समय-समय पर जल संचयन संरचनाओं के रख रखाव की विधियों का भी सम्यक ध्यान दिया जाता था तथा जल को किसी भी प्रकार से दूषित न होने देने के लिए नियमावली बनाये गयी थी जिसे धर्म से जोड़ दिया गया था। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पायी जाने वाली पारम्परिक जल संचयन संरचनाओं का वर्णन निम्नलिखित है:
सामान्य तौर पर कुण्ड का अर्थ भूगर्भीय टैंक होते हैं, जिनका विकास सूखे की समस्या के समाधान के लिये किया गया था। जो धार्मिक स्थान हैं, वहाँ कुण्ड पवित्र माने जाते हैं और उनमें प्रदूषण फैलाने की मनाही होती है जैसे गौरी कुण्ड, सीता कुण्ड, ब्रह्म कुण्ड इत्यादि । कई बार ऐसे कुण्ड पवित्र नदियों के किनारे अपने आप निर्मित हो जाते हैं अथवा विभिन्न काल खण्डों में व्यक्तियों के प्रयासों से स्थापित किये गए हैं। प्राचीन काल में भारत में कुण्ड जल उपलब्धता के प्रमुख स्रोत थे।
यह एक ऐसी भूमिका संरचना है जो मात्र भारत में पाई जाती है। यह भारत के शुष्क क्षेत्रों में काफी लोकप्रिय रही है। इसका उपयोग वर्षाजल संचयन एवं पीने के पानी की निरंतर उपलब्धता के लिये किया जाता है। इनके विभिन्न क्षेत्रों में उनके नाम अलग-अलग हैं जैसे काव,बावड़ी, बावरी, बादली बावड़ी एवं बावली । उदाहरण स्वरूप अहमदाबाद के पास अडालज बावा है जिसमें 6 मंजिलें हैं। यह एक मंदिर है जो एक कुएँ पर जाकर समाप्त होता है। इनकी मंदिरनुमा संरचना एवं जल उपलब्धता के लिये महत्ता को ध्यान में रखते हुए इन्हें जलमंदिर भी कहा जाता है। इसी प्रकार, नई दिल्ली में हैली रोड पर स्थित अग्रसेन की बावली जिसकी लम्बाई 60 मीटर और चौड़ाई 15 मीटर है, एक ऐतिहासिक स्मारक और पत्थरों और चट्टानों के विभिन्न वर्गीकरणों का एक प्राचीन जल भंडार है।
भारतीय राजाओं ने बड़ी-बड़ी जल संचयन संरचनाओं के बीचों-बीच महल बनवाये थे जिससे अतिशय गर्मी के मौसम में जल महल में वाष्पोत्सर्जन तथा बहने वाली गर्म हवा के मेल से आने वाली हवा ठंडी हो कर महल में प्रवेश कर सकें, जैसे- जयपुर के आमेर स्थित इसी प्रकार की संरचनाएं भारत के अन्य प्रदेशों में भी पाई जाती हैं। यह जल संचयन के उत्कृष्ट उदाहरण हैं जिनका जल वर्षा काल के बाद नगर के विभिन्न कार्यों हेतु प्रयुक्त किया जाता था ।
ये सामाजिक कुएँ हैं, जिनको मुख्यतः पीने के पानी के स्रोत के रूप में उपयोग में लाया जाता था। इनमें पानी बहुत लम्बे समय तक बना रहता है, क्योंकि वाष्पीकरण की दर बहुत कम होती है।
पोखर एक प्रकार का बड़ा जल संचयन क्षेत्र होता है जिसमें वर्षा ऋतु में जल एकत्रित किया जाता है तथा वर्षा के बीतने पर रबी के मौसम में जल निष्कासन के उपरांत फसल उगाई जाती है। कई स्थानों पर इनके अंदर भी कुएँ खोदे जाते थे ताकि भूमिगत जलाशयों को रिचार्ज किया जा सके। मध्यम आकार के जलाशयों को बन्धी और तालाब कहा जाता है तथा बड़े जलाशयों को झील कहा जाता है। यह संरचना भारत के लगभग सभी राज्यों के प्रत्येक गाँव में प्राकृतिक या कृत्रिम रूप में पायी जाती है।
हरियाणा में तालाबों को जोहड़' कहते हैं परन्तु यह जल संचयन संरचना छोटी नालियों के आगे रोक बांध अथवा चारों ओर मिट्टी के बाँध बना कर बीच में जल को रोकने की प्रविधि पर आधारित होती है। कहीं-कहीं पर खेतों में 'पाल' बनाकर खेती की जाती थी, पाल एक प्रकार के छोटे- छोटे चेक डैम होते हैं तथा जिनका उपयोग वर्षाकाल में जल को एकत्र करने और भूजल की स्थिति को और उत्तम बनाने का काम लिया जाता था ।
झालर एक प्रकार की कृत्रिम जल संचयन संरचना या टैंक है जिसका उपयोग धार्मिक एवं सामाजिक कार्यक्रमों में होता है। गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक में इन पारंपरिक जल संरक्षण संरचनाओं की संख्या सबसे अधिक है। ये लगभग आयताकार होते हैं। इनके चारों ओर या तीन ओर मेंड़ बंदी की जाती है। यह एक सतही जलस्रोत है जिनकी सहायता से आस-पास की धाराओं एवं भूगर्भीय स्रोतों के जल की प्रतिपूर्ति होती है, परन्तु इसके जल का उपयोग पीने के लिये नहीं करते हैं।
यह एक छोटा टैंक ही होता है जिसमें पानी को एकत्र किया जाता है। राजस्थान में इसे टंका कहा जाता है। यह भूमि के अंदर होता है और इसकी दीवारों पर चूना भी लगाया जाता है। इसमें सामान्य तौर पर वर्षाजल इकट्ठा किया जाता है। इसके अतिरिक्त बड़े टैंकों का उपयोग बाढ़ को रोकने, मृदा अपरदन रोकने तथा भूजल स्रोतों को प्रतिपूरित (रिचार्ज) करने के लिये किया जाता था ।
दक्षिण भारतीय टैंकों को इरिस भी कहते हैं। इरिस भारत में जल प्रबन्धन के लिये किये गये प्राचीनतम संरचनाओं में एक हैं। दक्षिण भारत में टैंक मंदिर स्थापत्य से सीधे तौर पर जुड़े हैं साथ ही टैंकों का निर्माण सिंचाई सुविधा के लिये भी किया गया था। प्राचीन काल के सभी मंदिरों में टैंक की व्यवस्थाओं को जो न मात्र आगंतुकों को जल उपलब्ध कराते रहे हैं बल्कि भूजल स्तर को भी बनाए रखने के लिये उपयोग में लाया जाता रहा है।
कुहल या खुल, पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर हिमाचल प्रदेश, जम्मू और उत्तराखंड में बनाए जाते हैं। ये एक प्रकार की नहरें होती हैं जिनका उपयोग ग्लेशियर के पिघलने से पानी को गाँवों तक पहुँचाने के लिये किया जाता है। इसके अलावा खुल का प्रयोग पहाड़ से निकलने वाली प्राकृतिक धाराओं को सिंचाई और पीने के पानी को गाँव या क्षेत्र तक पहुँचाने के लिये किया जाता है।
असम में राजाओं ने वर्षाजल संरक्षण के लिये तालाब और कुण्ड बनाए थे जिन्हें गड़ कहा जाता है। कई स्थानों पर गड़ का उपयोग नदी के पानी को वितरित (चैनलाइज) करने के लिये किया गया था । गड़ बड़े नाले की तरह होते हैं। गड़ों का उपयोग सिंचाई के साथ-साथ बाढ़ की विभीषिका को रोकने के लिये भी होता है। इस प्रकार की संरचनाओं को पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार प्रांत में आहार पाइन के नाम से जाना जाता है। इन संरचनाओं में बाढ़ के पानी को खेतों तक पहुंचाने के लिए चौड़े चौड़े नालों को बनाया जाता है जिनमें पानी भरा रहता है और बाढ़ उतरने के बाद उसके मुहाने को बंद कर दिया जाता है। इस जल को अगली फसल के उत्पादन हेतु सिंचाई में प्रयोग में लाया जाता है।
पश्चिमी घाट के पर्वतीय क्षेत्रों (केरल) में सिंचाई हेतु वर्षा जल के परिचालन के लिए पहाड़ों के बीच से ऐसी सुरंगों का निर्माण किया जाता था जिसके भीतर होकर आया-जाया भी जा सकता था । इन सुरंगों में पर्वत से अवशोषित जल टपक-टपककर जल धारा बन जाती है जिसे किसी जल कुंड में रोककर भविष्य के कार्यों हेतु संरक्षित किया जाता है।
जाबो (अपवाह को रोकना) प्रणाली उत्तर-पूर्वी भारत के नागालैंड में प्रचलित हैं। यह प्रणाली वानिकी, कृषि और पशु देखभाल के साथ जल संरक्षण को जोड़ती है। इसे रूजा प्रणाली के रूप में भी जाना जाता है। वनों की पहाड़ियों पर गिरने वाले वर्षाजल को चैनलों द्वारा एकत्र किया जाता हैं जो सीढ़ीदार पहाड़ियों पर बनाए गए तालाब जैसी संरचनाओं में बहते पानी को जमा करते हैं। चैनल पशुशाला से भी गुजरते हैं तथा जानवरों के गोबर और मूत्र को इकट्ठा करते हुए अंततः पहाड़ी की तलहटी में धान के खेतों में मिल जाते हैं। धान के खेत में बनाए गए तालाबों का उपयोग मछली पालन और औषधीय पौधों के विकास को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।
बांस ड्रिप सिंचाई प्रणाली कुशल जल प्रबंधन की एक सरल प्रणाली है जो पूर्वोत्तर भारत में दो शताब्दियों से अधिक समय से प्रचलित है। क्षेत्र के आदिवासी किसानों ने सिंचाई के लिए यह प्रणाली विकसित की है जिसमें बारहमासी झरनों के पानी को विभिन्न आकार और माप के बांस के पाइपों का उपयोग करके खेतों में ले जाया जाता है। कम पानी की आवश्यकता वाली फसलों के लिए यह सबसे उपयुक्त प्रणाली है क्योंकि इसमें पानी की छोटी बूंदें सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचाई जाती हैं। इस प्राचीन प्रणाली का उपयोग खासी और जयंतिया पहाड़ियों के किसान अपनी काली मिर्च की खेती में ड्रिप सिंचाई के लिए करते हैं।
हवेली प्रणाली मध्य प्रदेश में पाई जाने वाली एक पारंपरिक वर्षा जल संचयन प्रणाली है। इस प्रणाली में जलग्रहण के आधार पर भूमि के ढलान पर 100-300 मीटर लंबे मिट्टी के तटबंध (4-10 मीटर चौड़े और 1-3 मीटर ऊंचाई) का निर्माण किया जाता है तथा इसमें मानसून अवधि के दौरान अतिरिक्त अपवाह को छोड़ने के लिए स्पिलवे सुविधा होने के साथ एक नाली के माध्यम से पानी को निकालने का विकल्प भी होता है। आम तौर पर, हवेली प्रणाली का जलग्रहण 10 से 200 हेक्टेयर तक होता है। जलग्रहण से उत्पन्न अपवाह को मानसून के दौरान इन संरचनाओं में काटा जाता है जो पूरे गांव में उथले खोदे गए कुओं और बोरहोल कुओं का पुनर्भरण करता है। एक बार मानसून के कम होने के बाद (आमतौर पर अक्टूबर के अंत तक ) जमा पानी भी निकल जाता है और अवशिष्ट मिट्टी की नमी का उपयोग करके रबी फसलों की खेती के लिए हवेली बेड तैयार किया जाता है। हवेली के पानी का उपयोग नीचे के किसानों द्वारा बुवाई पूर्व सिंचाई में भी किया जाता है। हवेली प्रणाली मानसून के मौसम के दौरान एक जलाशय के रूप में कार्य करती है और मानसून के बाद कृषि क्षेत्रों में परिवर्तित हो जाती है।
स्रोत :- इंडिया एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टिट्यूट