भारत की जल परंपरा में कुओं का हमेशा से ही एक विशेष स्थान रहा है, मोहनजोदड़ो जैसे हड़प्पाकालीन नगरों में सैकड़ों कुएं इसके जीवंत प्रमाण हैं। समय के साथ भले ही बहुत कुछ बदल गया हो, लेकिन कुओं की प्रासंगिकता कम नहीं हुई है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार, आज भी देश में 82 लाख पारंपरिक कुएं सक्रिय हैं, जिनके साथ 55 लाख उथले, 43 लाख मध्यम और 37 लाख गहरे नलकूप भी मौजूद हैं।
जल संकट के इस दौर में, पारंपरिक कुओं का पुनरुद्धार एक स्थायी समाधान के रूप में उभर रहा है। बेंगलुरु का 'ए मिलियन वेल्स' अभियान इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। इसके तहत, अब तक ढाई लाख से ज़्यादा कुएं फिर से उपयोग लायक बनाए गए हैं। यह पहल केवल सरकारी प्रयासों का परिणाम नहीं, बल्कि राज-समाज की सामूहिक भागीदारी का प्रतीक है। इसी तर्ज़ पर, फेसबुक पर बना समूह 'ओपन वेल्स ऑफ इंडिया एंड द वर्ल्ड' हज़ारों लोगों को जोड़ रहा है, जो यह मानते हैं कि जल संकट का समाधान हमारी अपनी सदियों पुरानी परंपराओं में ही निहित है। इसके लिए बस थोड़ी समझदारी, साझा मेहनत और पहलकदमी की ज़रूरत है।
भारत में कुओं के विलुप्त होने और जल संकट के कई जटिल कारण हैं:
तेजी से बढ़ती आबादी के साथ पानी की मांग भी बढ़ी है, जिससे भूजल पर अत्यधिक दबाव पड़ा है। अनियोजित शहरीकरण ने भी स्थिति को बदतर बनाया है। किसान लगातार सिंचाई के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन कर रहे हैं। पारंपरिक कुओं की जगह अब हर गाँव और कस्बे में बोरवेल और मोटर पंप आम हो गए हैं, जिससे जल स्तर तेज़ी से गिर रहा है। बेंगलुरु इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहाँ पहले हज़ारों खुले कुएं थे, वहीं अब शहर पूरी तरह बोरवेल पर निर्भर है। चेन्नई और दिल्ली में भी यही स्थिति देखने को मिल रही है, जहाँ कई बोरवेल या तो सूख गए हैं या बहुत कम पानी दे रहे हैं।
आधुनिक पाइपलाइन व्यवस्था के आगमन के साथ ही पुराने कुओं को भुला दिया गया। उनकी देखरेख बंद हो गई और वे कचरे के ढेर में बदल गए। कुछ जगहों पर तो अतिक्रमण कर उन पर घर-दुकानें बना ली गईं। बेंगलुरु में कई तालाबों और कुओं को ढककर उन पर पक्की इमारतें खड़ी कर दी गईं, जिससे शहर की प्राकृतिक जल निकासी व्यवस्था गड़बड़ा गई। परिणाम स्वरूप, शहरों में अब बाढ़ और जलजमाव जैसी समस्याएँ आम हो गई हैं।
भूजल के अत्यधिक दोहन से ज़मीन के नीचे के जलभृत (aquifers) खाली हो रहे हैं, जिससे पानी की गुणवत्ता भी गिर रही है। यदि बारिश का पानी ज़मीन में न समाए, तो यह संकट और भी बढ़ जाता है। जब भूजल स्तर बहुत नीचे चला जाता है, तो मिट्टी और चट्टानों की परतों से ज़हरीले तत्व पानी में घुलने लगते हैं।
पश्चिम बंगाल और बिहार में आर्सेनिक प्रदूषण, राजस्थान और गुजरात में फ्लोराइड की अधिकता, और खेतों से बहकर आने वाले नाइट्रेट का ज़हर मीठे पानी को भी दूषित कर रहा है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।
जैसे-जैसे नई जल प्रणालियाँ आईं, कुओं के उपयोग में कमी आई, और उनके निर्माण तथा रखरखाव से जुड़ा सदियों पुराना पारंपरिक ज्ञान भी लुप्त होता चला गया। कभी कुएं बनाना और उनकी देखभाल करना एक सामुदायिक जिम्मेदारी थी, लेकिन अब यह सामूहिक भागीदारी धीरे-धीरे समाप्त हो गई है। इसका असर उन समुदायों पर भी पड़ा है जो विशेष रूप से कुआँ खोदने का काम करते थे, जैसे कि दक्षिण भारत का 'मन्नू वड्डर' समुदाय, जो आज उपेक्षा का शिकार है। उत्तर भारत में पारंपरिक रूप से कुएँ खोदने, तालाब बनाने, पानी ढोने और नाव चलाने के काम कहार, धीमर, मल्लाह या पाल करते रहे हैं।
आधुनिक ट्यूबवेल और बोरवेल की बढ़ती उपलब्धता ने पानी तक पहुँच को आसान बना दिया, जिससे पुराने कुओं को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। भारत में केंद्रीय स्तर पर बोरवेल ड्रिलिंग के लिए कोई कानून नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश, केंद्रीय भूमि जल प्राधिकरण (CGWA) के बड़े उपयोगकर्ताओं के लिए NOC नियम, और महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में राज्य के भूजल अधिनियम इसे नियंत्रित करते हैं। पर, कानूनों के होने के बावजूद, प्रभावी पालन और निगरानी की कमी से अनियमित ड्रिलिंग एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
इसके अतिरिक्त, जल निकायों और पारंपरिक कुओं के संरक्षण के लिए नियम बनाना अभी समय की मांग है। शहरी विस्तार के नाम पर कुओं जैसे पारंपरिक जलस्रोतों के अतिक्रमण रोकने में शासन तंत्र की विफलता जल संकट को और गहरा कर रही है।
कुएं केवल जल आपूर्ति का स्रोत नहीं हैं, बल्कि ये भूजल पुनर्भरण के प्रभावी साधन भी हैं और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
उन क्षेत्रों में जहाँ पाइपलाइन नहीं पहुँची है या बोरवेल बहुत गहरे हैं, ये अब भी जीवनरेखा बने हुए हैं।
इनका रखरखाव आसान होता है और ये लंबे समय तक सेवा देते हैं। बिजली कटौती या बाढ़ जैसी आपात स्थितियों में भी ये पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करते हैं।
इनकी एक और विशेषता यह है कि ये विकेन्द्रीकृत होते हैं, जिसका अर्थ है कि इनका नियंत्रण स्थानीय लोगों के पास होता है। यह सामुदायिक भागीदारी और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देता है।
बोरवेल की तुलना में इनमें ऊर्जा की खपत कम होती है, क्योंकि कुएं कम गहराई से पानी उपलब्ध कराते हैं, जिससे पंपिंग लागत घटती है और कार्बन पदचिह्न (carbon footprint) भी कम होता है।
पारंपरिक कुएं भूजल पुनर्भरण की प्राकृतिक व्यवस्था को मजबूत करते हैं। जब वर्षा जल रीचार्ज सिस्टम के माध्यम से कुएं में जाता है, तो वह धीरे-धीरे ज़मीन में रिसता है, जिससे जलभृत (aquifers) फिर से भरते हैं और सूखे बोरवेल भी सक्रिय हो सकते हैं।
इसके अलावा, जब पानी ज़मीन में उतरता है, तो वह मिट्टी और चट्टानों की परतों से होकर गुज़रता है, जो एक प्राकृतिक फिल्टर का काम करती हैं। इससे पानी की गुणवत्ता बेहतर होती है और उसमें घुले आर्सेनिक, नाइट्रेट, फ्लोराइड जैसे हानिकारक प्रदूषक कम हो जाते हैं। यह उन इलाकों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जहाँ भूजल प्रदूषण एक गंभीर स्वास्थ्य संकट बन चुका है।
पुनर्जीवित कुएं स्थानीय पारिस्थितिक संतुलन को भी बनाए रखते हैं। ये आसपास की मिट्टी को नम रखते हैं, जिससे भूमिगत सूक्ष्मजीव और वनस्पतियाँ पनपते हैं। इससे जैव विविधता मज़बूत होती है और पर्यावरण संतुलित रहता है।
तटीय क्षेत्रों में कुएं एक और महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भूजल के अत्यधिक दोहन से समुद्री पानी ज़मीन के नीचे ताज़े पानी की जगह ले सकता है, जिसे समुद्री जल का अंतर्ग्रहण (salinity ingress) कहा जाता है। नियमित रूप से कुओं में भूजल को रीचार्ज होने से यह खारा पानी अंदर नहीं घुस पाता, जिससे ज़मीन को खारेपन से बचाया जा सकता है।
बेंगलुरु लंबे समय से गहरे जल संकट से जूझ रहा है। 'ए मिलियन वेल्स' अभियान इस संकट से निपटने का एक सराहनीय कदम है। इस पहल ने शहर में ढाई लाख से ज़्यादा पारंपरिक कुओं को फिर से जीवित किया है। इस अभियान के पीछे मुख्य रूप से बायोम एनवायर्नमेंटल ट्रस्ट और इसके सह-संस्थापक एस. विश्वनाथ का हाथ है, जो वर्षा जल संचयन और भूजल पुनर्भरण के प्रयास करते रहे हैं।
इस अनूठे प्रयास में पारंपरिक कौशल को भी शामिल किया गया है। कुएं खोदने में माहिर 'मन्नू वड्डर' समुदाय को अभियान से जोड़ा गया है, जिससे स्थानीय ज्ञान का लाभ मिला और समुदाय की आजीविका में भी सुधार हुआ। इसके ठोस परिणाम भी सामने आए हैं: बेंगलुरु के कांटेरावा नगर में एक पुनर्जीवित कुआँ रोज़ाना लगभग एक लाख लीटर पानी देता है, जो 500 से 700 परिवारों की रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए पर्याप्त है। यह मॉडल दर्शाता है कि सही तकनीक और सामाजिक सहयोग से पारंपरिक जल स्रोत शहरी जल संकट का स्थायी हल बन सकते हैं।
चेन्नई में भी जल संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण प्रयास हुए हैं। वर्ष 2002 में राम कृष्णन और शेखर राघवन ने मिलकर आकाश गंगा ट्रस्ट की स्थापना की और 'रेन सेंटर' खोला, जो लोगों को वर्षा जल संचयन के तरीके सिखाता है। शेखर राघवन ने 90 के दशक में ही चेन्नई में पानी की कमी महसूस कर ली थी, और 1995 से उन्होंने वर्षा जल संचयन का अभियान शुरू किया।
राघवन ने गहरे भूजल-भंडारों को फिर से भरने के लिए रीचार्ज कुओं को बढ़ावा दिया, जिनमें छतों का पानी पाइपों के ज़रिए 15 फुट गहरे और 5 फुट व्यास के कुओं में डाला जाता था। 2002-03 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने भी नियम सख्त किए कि वर्षा जल को या तो खुले कुओं में डाला जाए या रीचार्ज कुओं में।
इसके बाद, 2018 में चेन्नई के नागरिक संगठनों के संयुक्त अभियान 'सिटी ऑफ 1,000 टैंक्स' ने पानी को रीसायकल करने और प्राकृतिक तरीकों से साफ करने का लक्ष्य रखा है। इस अभियान ने कई पायलट परियोजनाएं शुरू की हैं। उदाहरण के लिए, चेन्नई शहर के कई स्कूलों में प्रतिदिन कई हजार लीटर अपशिष्ट जल को उपचारित करके भूमिगत जलभृत में रिचार्ज किया जा रहा है।
हालांकि, कई चुनौतियाँ अभी भी हैं। शेखर राघवन के अनुसार, साल 2013 से 2015 के बीच 'रेन सेंटर' को चेन्नई में वर्षा जल संचयन (RWH) की जाँच का काम मिला था। उनकी रिपोर्ट में यह सुझाव था कि यदि किसी प्लॉट पर पहले से कुआँ है, तो बिल्डर उसे बनाए रखे, और यदि नहीं है, तो नया खुला कुआँ बनाना अनिवार्य किया जाए। शेखर बताते हैं कि सरकार ने इस दिशा में अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, जिसके कारण इन प्रयासों की गति धीमी पड़ गई है।
मध्य प्रदेश का सिवनी जिला डार्क ज़ोन यानी 'अति-दोहित' (Over-exploited) क्षेत्र की श्रेणी में आता है, जहाँ भूजल स्तर बहुत नीचे जा चुका है। इस चिंता को समझते हुए ग्राम पंचायत देवरीटीका के सचिव केके साहू ने सूखते कुओं को फिर से ज़िंदा करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने केवल 22 हज़ार रुपये खर्च कर मोक्षधाम के कुएं में डगवेल रीचार्ज यूनिट बनवाई।
इसके परिणाम अपेक्षा से बढ़कर निकले। कुएं में पानी लौटा और यह बात पूरे ज़िले में फैल गई। चूँकि मनरेगा योजना में भी कूप रीचार्ज यूनिट शामिल है, लिहाज़ा इस सफल मॉडल को राज्य स्तर पर अपनाने की शुरुआत हुई।
मनरेगा के तहत अप्रैल 2025 में सिवनी ज़िले के देवरीटीका में प्रदेश की पहली डगवेल रीचार्ज यूनिट (कुआँ पुनर्भरण इकाई) बनी। यह काम पूरा होते ही तकनीकी अफसरों ने इसकी सराहना की और उच्च अधिकारियों को रिपोर्ट भेजी। परिणामस्वरूप, मध्य प्रदेश राज्य रोजगार गारंटी आयुक्त ने सभी ज़िलों में इसे लागू करने के निर्देश दिए।
पहले चरण में 10,146 कुओं का चयन हुआ, फिर यह आँकड़ा बढ़कर 1.03 लाख तक जा पहुँचा। दैनिक जागरण की 16 जून की एक रिपोर्ट के अनुसार, 98,641 कुओं पर डगवेल रीचार्ज यूनिट बन चुकी हैं। सिवनी में 2,181, बालाघाट में 1,379 और छिंदवाड़ा में 3,989 कुओं को डगवेल रीचार्ज के माध्यम से फिर से जीवित किया गया है।
ओपन वेल्स ऑफ इंडिया एंड द वर्ल्ड
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