चित्र-4: वर्षा जल का भंडारण करके सिंचाई, पेयजल तथा मछलीपालन हेतु निर्मित प्रक्षेत्र तालाब।चित्र-4: वर्षा जल का भंडारण करके सिंचाई, पेयजल तथा मछलीपालन हेतु निर्मित प्रक्षेत्र तालाब।पानी मानव जीवन की पहली जरूरत है- फिर वह चाहे स्वास्थ्य और जीवित रहने के लिये हो या फिर खाद्य उत्पादन और दूसरी आर्थिक गतिविधियों के लिये। बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति व तेजी से हो रहे औद्योगिक विकास के कारण जल उपलब्धता की स्थिति दिन प्रतिदिन अत्यंत विकट होती जा रही है। पानी की सर्वाधिक समस्या के संदर्भ में भारत में राजस्थान राज्य का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है लेकिन औसत वार्षिक वर्षा के आधार से यह सबसे अंतिम है।
भारतीय शुष्क क्षेत्र का 90 प्रतिशत हिस्सा उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित है जिसका 62 प्रतिशत राजस्थान में है। राजस्थान के 33 में से 12 जिले थार रेगिस्तान के अंतर्गत आते हैं। कम व अनियमित वर्षा, उच्च तापमान, उच्च वायु वेग तथा त्वरित वाष्पन थार रेगिस्तान की जलवायु को प्रतिकूल बनाने वाले प्रमुख कारक है। कम व अनियमित वर्षा के कारण यहाँ प्रति तीसरा वर्ष अकाल का होता है।
आज की दुनिया में पानी का उपयोग घर, कृषि और व्यापार के क्षेत्र में अत्यधिक उपयोग में लाया जाने लगा है। अब ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में भी अत्यधिक बोरवेल स्थापित हो जाने पर भी मिट्टी के अंदर जल स्तर कम होने लगा है और कुछ जगहों पर तो कई बोरवेल बंद भी हो चुके हैं। ऐसे में पानी को संरक्षित यानी कि जल संरक्षण के विषय में हमें जल्द से जल्द सोचना होगा क्योंकि जल ही जीवन है। आज ना सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में बोरवेल बल्कि शहरी क्षेत्रों में कई बड़े कल कारखानों में पानी का उपयोग होने के कारण भी पानी की किल्लत होने लगी है।
ऐसे में घरेलू और व्यावसायिक उपयोग के लिए वर्षा जल को संरक्षित करना सबसे आसान और बेहतरीन तरीका माना जाता है। भगवान की कृपा से प्रतिवर्ष थोड़ी बहुत वर्षा हर क्षेत्र में होती है ऐसे में कुछ चीजों का ध्यान और प्रक्रियाओं के माध्यम से हम वर्षा के जल को संरक्षित करके रख सकते हैं।
वर्षा जल संचयन या रेन वाटर हारवेस्टिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम वर्षा के पानी को जरूरत की चीजों में उपयोग कर सकते हैं। वर्षा के पानी को एक निर्धारित किए हुए स्थान पर जमा करके हम वर्षा जल संचयन कर सकते हैं। इसको करने के लिए कई प्रकार के तरीके है जिनकी मदद से हम रेन वाटर हारवेस्टिंग कर सकते हैं। इन तरीकों में जल को मिट्टी तक पहुंचने (भूजल) से पहले जमा करना जरूरी होता है।
इस प्रक्रिया में ना सिर्फ वर्षा जल को संचयन करना है उसे स्वच्छ बनाना भी शामिल होता है। वर्षा जल संचयन कोई आधुनिक तकनीक नहीं है यह कई वर्षों से उपयोग में लाया जा रहा है परंतु धीरे-धीरे इसमें भी नई टेक्नोलॉजी का उपयोग बढ़ते चले जा रहा है ताकि रेन वाटर हारवेस्टिंग आसानी और बेहतरीन तरीके से हो सके।
अकाल के दौरान न केवल खाने की अपितु पीने के पानी की भी भयंकर कमी हो जाती है। रेगिस्तानी क्षेत्रों में प्रायः पानी गहराई पर मिलता है व ऊँटों को जोतकर चरस से पानी निकाला जाता है। गहराई के कारण यहाँ के कुएँ सांठीके कहलाते थे। प्राचीन काल में आधुनिक साधनों के अभाव में भूजल दोहन बहुत मुश्किल होता था। अतः जल संग्रहण यहाँ की परम्परा रही। सन 1960 तक जल के संदर्भ में यहाँ की स्थिति ठीक रही। यहाँ के निवासियों ने जल संग्रहण के अनेक तरीके यथा टांका, नाडा, नाडी, कुई, कुंड, तालाब, बावड़ी, कुएँ खड़ीन आदि अपनाये।
वर्षा जल संचयन करने के कई आधुनिक एवं पारम्परिक तरीके हैं। इनमें से कुछ तरीके वर्षा जल का संचयन करने में बहुत ही कारगर साबित हुए हैं। संचयन किए हुए वर्षा जल को हम व्यावसायिक और साथ ही घरेलू उपयोग में भी ला सकते हैं। इन तरीकों में कुछ तरीकों के जमा किए हुए पानी को हम घरेलू उपयोग में ला सकते हैं और कुछ तरीकों से बचाए हुए पानी का हम खेती एवं व्यावसायिक क्षेत्र में उपयोग में ला सकते हैं।
छत प्रणाली से वर्षा जल संग्रहण (Rooftop rainwater harvesting): इस तरीके में आप छत पर गिरने वाले बारिश के पानी को संचय करके रख सकते हैं। ऐसे में ऊंचाई पर खुले टंकियों का उपयोग किया जाता है जिनमें वर्षा के पानी को संग्रहित करके नलों के माध्यम से घरों तक पहुंचाया जाता है। यह पानी स्वच्छ होता है जो थोड़ा बहुत ब्लीचिंग पाउडर मिलाने के बाद पूर्ण तरीके से उपयोग में लाया जा सकता है।
बड़े बड़े बांध के माध्यम से वर्षा के पानी को बहुत ही बड़े पैमाने में रोका जाता है जिन्हें गर्मी के महीनों में या पानी की कमी होने पर कृषि, बिजली उत्पादन और नालियों के माध्यम से घरेलू उपयोग में भी इस्तेमाल में लाया जाता है। जल संरक्षण के मामले में बांध बहुत उपयोगी साबित हुए हैं इसलिए भारत में कई बांधों का निर्माण किया गया है और साथ ही नए बांध बनाए भी जा रहे हैं।
बीहड़ क्षेत्र में मध्यम व अधिक गहरी नालियों को पुर्नस्थापित करने के लिए रोकबाँध अपनाए जा सकते है। मिट्टी के व पक्के रोकबाँध अपवाहित जल को एकत्रित करते हैं, जो कि अंततः भूमिगत जल को पुनर्निवेशित करने के काम आता है। अनुसंधान अध्ययनों के आधार पर सिफारिश की गई है कि शुष्क एवं बीहड़ क्षेत्र में मध्यम गहराई की नालियां, उनकी भीतरी पट्टियों को समतल करके तथा धरातल से 1.2 मीटर ऊँचे मिट्टी के या पक्के मिश्रित रोकबाँधों की श्रृंखला बनाकर पुर्नस्थापित की जा सकती है।
प्रक्षेत्र तालाब, शुष्क एवं बीहड़ क्षेत्र में जीवनोपयोगी सिंचाई तथा साथ ही साथ प्राणियों के लिए पीने के पानी की सुविधा के लिए खोदे जा सकते हैं। चूंकि रेतीली दुमट मृदाएं जल के अधिक अंतःस्त्रवण को बढ़ाने वाली होती हैं, अतः शुष्क एवं बीहड़ क्षेत्र में तालाब खोदकर उन्हें पक्का बनाए जाने की सिफारिश की जाती है। 1 हेक्टेयर भूखंड के अपवाह क्षेत्र के लिए 900 क्यू.मी. क्षमता का तालाब निर्मित किया जा सकता है। इसके भीतरी भाग को सीमेंट व कंक्रीट के घोल से लेप देना चाहिए। यह 1/2 हेक्टेयर क्षेत्र में रबी की फसल को 5 सेमी. की एक अनुपूरक सिंचाई प्रदान कर सकता है। यह विभिन्न फसलों (सरसों, चना, सूरजमुखी तथा लोबिया) की 15 से 30 प्रतिशत अधिक पैदावार बढ़ा देगा।
टांका एक प्रकार का छोटा ऊपर से ढ़का हुआ भूमिगत खड्डा होता है इसका प्रयोग मुख्यतः पेयजल के लिये वर्षा जल संग्रहण हेतु किया जाता है। टांका आवश्यकता व उद्देश्य विशेष के अनुसार कहीं पर भी बनाया जा सकता है। परम्परागत तौर पर निजी टांके प्रायः घर के आंगन या चबूतरों में बनाये जाते हैं, जबकि सामुदायिक टांकों का निर्माण पंचायत भूमि में किया जाता है। चूँकि टांके वर्षा जल संग्रहण के लिये बनाये जाते हैं इसलिये इनका निर्माण आंगन / चबूतरे या भूमि के प्राकृतिक ढाल की ओर सबसे निचले स्थान में किया जाता है। परम्परागत रूप से टांके का आकार चौकोर, गोल या आयताकार भी हो सकता है। जिस स्थान का वर्षा जल टांके में एकत्रित किया जाता है उसे पायतान या आगोर कहते हैं और उसे वर्ष भर साफ रखा जाता है। संग्रहित पानी के रिसाव को रोकने के लिये टांके के अन्दर चिनाई की जाती है। आगोर से बहकर पानी सुराखों से होता हुआ टांके में प्रवेश करता है। सुराख के मुहानों पर जाली लगी होती है ताकि कचरा एवं वृक्षों की पत्तियाँ टांके के अन्दर प्रवेश न कर सके।
गाँव के तालाब का निर्माण बरसात के मौसम के दौरान प्राकृतिक जलग्रहण क्षेत्रों से उपलब्ध पानी के भंडारण के लिए किया जाता है। यह कृषक समुदाय द्वारा जल संचयन के एक सामान्य संसाधन के रूप में प्रचलित सबसे पुराना अभ्यास है। प्राकृतिक स्थितियों और वर्षा पैटर्न के आधार पर तालाबों की क्षमता आमतौर पर 1200 से 1500 के बीच होती है। तालाब भूजल स्तर में सुधार करते है। जब पानी सूख जाता है तो तालाब की जमीन का उपयोग बाद में फसलों की बुवाई के लिए किया जाता है। तालाब निर्माण करने की प्रणाली को तीन चरणों में लागू किया जाता है- चरणबद्ध तरीके से मिट्टी को खोदना और फैलाना, नाले के मुहाने पर तहखाने की खुदाई करना और अतिरिक्त पानी को निकालने के लिए नाले पर पक्की दीवार का निर्माण करना। तालाब वर्षा ऋतु (खरीफ) की फसलों के लिए जीवनरक्षक सिंचाई प्रदान करने या रबी फसलों की बुवाई से पूर्व सिंचाई के लिए बहुत उपयोगी है।
वर्षा पानी को संचित करने के लिये तालाब प्रमुख स्त्रोत रहे हैं। प्राचीन समय में बने इन तालाबों में अनेक प्रकार की कलाकृतियाँ बनी हुई हैं। इन्हें हर प्रकार से रमणीय एवं दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाता रहा है। इनमें अनेक प्रकार के भित्ति चित्र इनके बरामदों, तिबारों आदि में बनाए जाते हैं। कुछ तालाबों की तलहटी के समीप कुआँ बनाते थे जिन्हें 'बेरी' कहते हैं।
तालाबों की समुचित देखभाल की जाती थी जिसकी जिम्मेदारी समाज पर होती थी। धार्मिक भावना से बने तालाबों का रख-रखाव अच्छा हुआ है, परन्तु आज इन तालाबों की भी स्थिति दयनीय हो चुकी है तथा इन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। आज राजस्थान के कई ग्रामीण क्षेत्रों में जलाभाव के कारण ग्रामीण महिलाओं को बहुत दूर से पानी लाना पड़ता है। जिसके कारण उनका अधिकांश समय जल की व्यवस्था करने में ही चला जाता है।
भारत में सदियों से वर्षा जल संचयन का प्रचलन है और वर्षा जल संचयन की पारंपरिक प्रणाली अधिक सफल साबित हुई। राजस्थान में, जिसका एक बड़ा हिस्सा थार रेगिस्तान से ढ़का हुआ है, जल संरक्षण की यहा एक लंबी और अटूट परंपरा रही है। मिसाल के तौर पर, प्रसिद्ध चित्तौड़ और रणथंभौर किलों के बिल्डरों के पास किलों में प्राकृतिक कैचमेंट्स का फायदा उठाने का विजन था। कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने राजस्थान में इन पुराने जल संचयन प्रणाली को पुनर्जीवित करने का नेतृत्व किया, जिसे जोहड़ कहा जाता है। अब राज्य के 700 से अधिक गांवों की पानी की जरूरतों को बिना किसी परेशानी के जोहड़ पूरा कर रहे है। अनिवार्य रूप से, जोहड़ बारिश के पानी को संग्रहण करने के लिए ढलान के विपरीत में निर्मित पत्थर और मिट्टी के समोच्च अवरोध हैं। इनमें तीन तरफ ऊंचे तटबंध हैं जबकि चौथा हिस्सा बारिश के पानी को प्रवेश के लिए खुला छोड़ दिया जाता है। गांवों में, जहां जोहड़ों को पुनर्जीवित किया गया है, पानी को ग्रामीणों के बीच साझा किया जाता है और किसानों को पानी की
ज्यादा जरुरत वाली फसलें उगाने की अनुमति नहीं है। जोहड़ बारिश के पानी को बहने से रोकता है,जिससे वह जमीन में पानी का स्तर बढ़ाता है, और पृथ्वी के जल संतुलन में सुधार होता है।
रेतीले इलाकों में, थार रेगिस्तान के ग्रामीणों ने कुंड या कुंडियों के रूप में वर्षा जल संचयन की एक सरल प्रणाली विकसित की थी। कुंड, जिसे एक ढके हुए भूमिगत टैंक का स्थानीय नाम दिया गया है, मुख्य रूप से पेयजल समस्याओं से निपटने के लिए विकसित किया गया था। आमतौर पर स्थानीय सामग्रियों या सीमेंट के साथ निर्माण, कुंड राजस्थान के पश्चिमी शुष्क क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है, और ऐसे क्षेत्रों में जहां सीमित एवं अत्यधिक खारा भूजल उपलब्ध है। उदाहरण के लिए, बाड़मेर में भूजल, जिले के लगभग 76 प्रतिशत क्षेत्र में, लवण (टीडीएस) 1,500-10,000 भाग प्रति मिलियन (पीपीएम) है। ऐसी परिस्थितियों में, कुंड ने पीने के लिए सुविधाजनक, स्वच्छ और मीठा पानी उपलब्ध कराया है।
कुंड राजस्थान के रेतीले ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षाजल को संग्रहित करने की महत्त्वपूर्ण परम्परागत प्रणाली है, इसे कुंडी भी कहते हैं। इसमें संग्रहीत जल का मुख्य उपयोग पेयजल के लिये करते हैं। यह एक प्रकार का छोटा सा भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढ़क दिया जाता है। कहीं-कहीं पर सन्दूषण को रोकने के लिये इस जलस्त्रोत के ढक्कन पर ताला भी लगा दिया जाता है। इसका निर्माण मरुभूमि में किया जाता है, क्योंकि मरुस्थल का अधिकांश भूजल लवणीयता से ग्रस्त होने के कारण पेय रूप में स्वीकार्य नहीं है। अतः वर्षाजल का संग्रह इन कुंडों में किया जाता है।
कुई पश्चिमी राजस्थान के स्थानीय लोगों की सरलता का एक और पहलू बताती हैं। कुई, जिसे बेरी के रूप में भी जाना जाता है, को तालाब के बगल में खोद लिया जाता था जिससे रिसाव के पानी को इकट्ठा किया जा सके। इस तरह, पानी की हर एक बूंद को बेकार नहीं जाने दिया गया। कुई आमतौर पर 10-12 मीटर गहरी होती है और पूरी तरह से कच्ची संरचना होती है। आमतौर पर लकड़ी के तख्तों से ढकी होती है। बीकानेर की लूणकरनसर तहसील में अभी भी कुईयां बहुतायत में पाई जाती हैं। भारत-पाकिस्तान सीमा के नज़दीक जैसलमेर जिले के मोहनगढ़ और रामगढ़ के बीच पड़ने वाले गाँवों में कई कुईयां हैं। कुईयों से पानी का उपयोग बहुत कम किया जाता है और इसे संकट की स्थिति के लिए अंतिम संसाधन के रूप में सुरक्षित रखा जाता है।
भारत में बावड़ियों को बनाने और उनके इस्तेमाल का लंबा इतिहास रहा है, ये वो सीढ़ीदार कुएं या तालाब हुआ करते थे, जहां से जल भरने के लिए सीढ़ियों का सहारा लेना पड़ता था। भारत के कई राज्यों में इनका इस्तेमाल अगल-अलग नामों से होता रहा है, जैसे महाराष्ट्र में 'बारव', गुजरात में 'वाव', कर्नाटक में 'कल्याणी' आदि। राजस्थान में आज भी कई छोटी-बड़ी बावड़ियों को देखा जा सकता है, जिनका इस्तेमाल अब न के बराबर होता है। पर इनकी सरंचना आज भी इनकी आकर्षक खूबसूरती को बयां करती हैं।
राजस्थान में कुआँ व सरोवर की तरह ही बावड़ी निर्माण की परम्परा अति प्राचीन है। यहाँ पर हड़प्पा युग की संस्कृति में बावड़ियाँ बनाई जाती थीं। प्राचीन शिलालेखों में बावड़ी निर्माण का उल्लेख प्रथम शताब्दी से मिलता है प्राचीनकाल में अधिकांश बावड़ियाँ मन्दिरों के सहारे बनी हैं। बावड़ियाँ और सरोवर प्राचीनकाल से ही पीने के पानी और सिंचाई के महत्त्वपूर्ण जलस्त्रोत रहे हैं। आज की तरह जब घरों में नल अथवा सार्वजनिक हैण्ड पम्प नहीं थे तो गृहणियाँ प्रातःकाल एवं सायंकाल कुएँ, बावड़ी व सरोवर से ही पीने का पानी लेने जाया करती थी। बावड़ी का जल लवणीय नहीं होता है क्योंकि इनका निर्माण बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से किया जाता है। राजस्थान में बावड़ी निर्माण का प्रमुख उद्देश्य वर्षा जल का संचय रहा है।
राजस्थान में जल का परम्परागत ढंग से सर्वाधिक संचय झीलों में होता है। यहाँ पर विश्व प्रसिद्ध झीलें स्थित हैं। जिनके निर्माण में राजा-महाराजाओं, बंजारों एवं आम जनता का सम्मिलित योगदान रहा है। झीलों के महत्त्व का अनुमान झीलों की विशालता से लगाया जा सकता है। उदयपुर में विश्व प्रसिद्ध झीलों-जयसमंद, उदयसागर, फतेहसागर, राजसमंद एवं पिछोला में काफी मात्रा में जल संचय होता रहता है। इन झीलों से सिंचाई के लिये जल का उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त इनका पानी रिसकर बावड़ियों में भी पहुँचता है जहाँ से इसका प्रयोग पेयजल के रूप में करते हैं।
नाड़ी एक प्रकार का पोखर होता है, जिसमें वर्षाजल संचित होता है। राजस्थान में सर्वप्रथम पक्की नाड़ी के निर्माण का विवरण सन् 1520 में मिलता है, जब राव जोधाजी ने जोधपुर के निकट एक नाड़ी बनवाई थी। पश्चिमी राजस्थान में लगभग प्रत्येक गाँव में कम-से-कम एक नाड़ी अवश्य मिलती है। नाड़ी बनवाते समय वर्षा के पानी की मात्रा एवं जलग्रहण क्षेत्र को ध्यान में रखकर ही जगह का चुनाव करते हैं। रेतीले मैदानी क्षेत्रों में नाड़ियाँ 3 से 12 मीटर गहरी होती हैं। इनका जलग्रहण क्षेत्र भी बड़ा होता है। यहाँ पर रिसाव कम होने के कारण इनका पानी सात से दस महीने तक चलता है। केन्द्रीय शुष्क अनुसन्धान संस्थान, जोधपुर के एक सर्वेक्षण के अनुसार नागौर, बाड़मेर एवं जैसलमेर में पानी की कुल आवश्यकता में से 37.06 प्रतिशत जरूरतें नाड़ियों द्वारा पूरी की जाती हैं। वस्तुतः नाड़ी भू-सतह पर बना प्राकृतिक गड्डा होता है, जिसमें वर्षा जल आकर संग्रहीत होता रहता है।
कुछ समय पश्चात इसमें गाद भरने से जल संचय क्षमता घट जाती है इसलिये इनकी समय-समय पर खुदाई की जाती है। कई छोटी नाड़ियों की जल क्षमता बढ़ाने हेतु एक या दो ओर से पक्की दीवार बना दी जाती है। नाड़ी के जल में गुणवत्ता की समस्या बनी रहती है। क्योंकि मवेशी भी पानी उसी से पी लेते हैं। आज अधिकांश नाड़ियाँ प्रदूषण एवं गाद जमा होने के कारण अपना वास्तविक स्वरूप खोती जा रही हैं। अतः इस दिशा में ध्यान देने की आवश्यकता है।
झालरों का कोई जलस्त्रोत नहीं होता है। यह अपने से ऊँचाई पर स्थित तालाबों या झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका स्वयं का कोई आगोर नहीं होता है। झालरों का पानी पीने के लिये उपयोग में नहीं आता है वरन इनका जल धार्मिक रीति-रिवाजों को पूर्ण करने, सामूहिक स्नान एवं अन्य कार्यों हेतु उपयोग में आता है। अधिकांश झालरों का आकार आयताकार होता है, जिनके तीन ओर सीढ़ियाँ बनी होती हैं। अधिकांश झालरों का वास्तुशिल्प अद्भुत प्रकार का होता है। जल संचय की दृष्टि से ये अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। आज इनके संरक्षण के प्रति तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है।
नाड़ी के समान आकृति वाला जल संग्रह केन्द्र 'टोबा' कहलाता है। इसका आगोर नाड़ी से अधिक गहरा होता है। इस प्रकार थार के रेगिस्तान में टोबा महत्त्वपूर्ण स्त्रोत है। सघन संरचना वाली भूमि जिसमें पानी रिसाव कम होता है, टोबा निर्माण हेतु उपयुक्त स्थान माना जाता है। इसका ढलान नीचे की ओर होना चाहिए। इसके जल का उपयोग मानव व मवेशियों द्वारा किया जाता है। टोबा के आसपास नमी होने के कारण प्राकृतिक घास उग जाती है जिसे जानवर चरते हैं।
मानसून के आगमन के साथ ही लोग सामूहिक रूप में टोबा के पास ढाणी बनाकर रहने लगते हैं। सामान्यतया टोबाओं में 7-8 माह तक पानी ठहरता है। राजस्थान में प्रत्येक गाँव में जाति एवं समुदाय विशेष द्वारा पशुओं एवं जनसंख्या के हिसाब से टोबा बनाए जाते हैं। एक टोबे के जल का उपयोग उसकी संचयन क्षमता के अनुसार एक से बीस परिवार तक कर सकते हैं। इसके संरक्षण का कार्य विशिष्ट प्रकार से किया जाता है।
खड़ीन जल संरक्षण की पारम्परिक विधियों में बहुउद्देशीय व्यवस्था है। यह परम्परागत तकनीकी ज्ञान पर आधारित होती है। खड़ीन मिट्टी का बना बाँधनुमा अस्थायी तालाब होता है, जो किसी ढाल वाली भूमि के नीचे निर्मित करते हैं। इसके दो तरफ मिट्टी की पाल उठाकर तीसरी ओर पत्थर की मजबूत चादर (Spillway) बनाई जाती है। खड़ीन की यह पाल धोरा कहलाती है। धोरे की लम्बाई पानी की आवक के हिसाब से कम ज्यादा होती है।
पानी की मात्रा अधिक होने पर खड़ीन को भर कर पानी अगले खड़ीन में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे यह पानी खड़ीन की भूमि को भी कृषि योग्य बनाया जा सकता है।
खड़ीनों में पानी को निम्न ढालू स्थानों पर एकत्रित करके फसलें ली जाती हैं। जिस स्थान पर पानी एकत्रित होता है उसे खड़ीन तथा इसे रोकने वाले बाँध को खड़ीन बाँध कहते हैं। खड़ीनों द्वारा शुष्क प्रदेशों में बिना अधिक परिश्रम के फसलें ली जा सकती हैं क्योंकि इसमें न तो अधिक निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है, न ही रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों की। इन खड़ीनों के पास कुआँ भी बनाया जाता है, जिसमें खड़ीन से रिसकर पानी आता रहता है, जिसका उपयोग पीने के लिये किया जाता है।