जल संरक्षण

वर्षा जल संरक्षण का महत्व एवं विधियां | Importance and methods of rain water conservation

जाने वर्षा जल संरक्षण का महत्व एवं विधियां के बारे में | Know about the importance and methods of rain water conservation

Author : पुरुषोत्तम, कुमार सिन्हा, डॉ बी पी त्रिपाठी, बीएस परिहार

जल ही जीवन है साथ ही अमुल्य धरोहर । जलसंख्या के वृध्दि से कृषि पशुपालन उद्योग धन्धो एवं पीने के पानी की मांग भी बढ़ रही है। इसके साथ ही वन क्षेत्र कम हो रहे हैं जिसके परिणाम स्वरुप बरसात ka पानी रुककर धरती में समा नहीं पाता फलस्वरुप धरती का जलस्तर 1 से 1.5 मी. प्रति वर्ष कम होते जा रहा है। जिससे आने वाले दो तीन दशको में कृषि को मिलने वाले जलानुपात में 10-15% कमी का अनुमान लगाया गया है। हमारे देश में लगभग 55% कृषि भू-भाग असंचिंत है। जो केवल वर्षा आधारित है 80% से अधिक वर्षा दक्षिण पश्चिम मानसून जून से सितम्बर में होती है परन्तु मानसून वर्षा के वितरण में समय व स्थान के अनुसार अनिश्चितता पाई जाती है। कभी कम समय में भी भारी वर्षा के कारण बाढ़ तो कभी कम समय में भी कभी लम्बे समय तक वर्षा ना होने पर सुखे की स्थिति का सामना करना पड़ता है पर जहाँ सिंचित क्षेत्र हैं वहाँ वर्षा मुख्य स्त्रोत है और इन क्षेत्रो में भु-जल के गिरते स्तर को वर्षा जल संरक्षण कर संरक्षित किया जाना अति आवश्यक है। पृथ्वी का 97 प्रतिशत जल समुद्र में मौजूद हैं, परन्तु वह पानी अत्यधिक लवणयुक्त होने के कारण उपयोग के योग्य नहीं है। पृथ्वी का शेष एक-चौथाई भाग, जो कि भूमि से ढका हुआ है। भूमि पर कुल पानी की मात्रा का लगभग 3 प्रतिशत भाग उपलब्ध है। पृथ्वी का एक प्रतिशत जल ही उपयोग हेतु उपलब्ध है जिसमें से 70 प्रतिशत सिंचित कृषि में 20 प्रतिशत उद्योगों में व 8 प्रतिशत घरेलू उपयोग में लाया जाता है। देश में कुल सृजित सिंचाई क्षमता 102 मिलियन हैक्टेयर है। देश में भूमि पर सिंचाई के लिये पानी मिल रहा है। कुल 329 मिलियन भूमि में अभी 113 मिलियन हैक्टेयर अतः वर्तमान ध्यान में रखकर उपलब्ध जल संसाधनों के उत्तम प्रबंधन की आवश्यकता है। 

जल संग्रहण विकास का एक प्रमुख नारा "गांव का पानी गांव में, खेत का पानी खेत में, और बहते हुए पानी को चलना सिखाना है व चलते हुए पानी को रोकना सीखाना है" इस कार्यक्रम का मूल सिद्धान्त है। साधारणतया टांका, नाड़ी, बांध, । फार्म पोण्ड, खडिन, जोहड़ आदि बनाकर वर्षा जल को संग्रहित किया जाता था राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में जो हड़ के अतिरिक्त मकान की छत से वर्षा जल संग्रहण हेतु भूमिगत टांका बनाया जाता था। शुष्क क्षेत्रों में एक ओर जहां सिंचाई जल की कमी है दूसरी ओर कुओं को जल लवणीयया क्षारीय होने के कारण गुणात्मक जल की समस्या इन क्षेत्रों में अधिक विकट है। अतः इन क्षेत्रों में वर्षा जल संग्रहण एक वरदान ही होगा। यहां तक पश्चिमी क्षेत्रों में 100 से 200 मि.मी. वार्षिक वर्षा होते हुए भी जल संग्रहण किया जा सकता है।

विश्व के देशो की जलसंग्रहण क्षमताः

देश में स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) के बाद जल संग्रहण की क्षमता 156 घन कि.मी. से बढ़कर वर्तमान में 213 घन कि.मी. हुई। राष्ट्रीय आयोग ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2050 तक विभिन्न प्रकार के इस्तेमाल पानी की कुल मांग 973 घन कि.मी. (न्यूनतम) या 1180 घन कि.मी. अधिकतम होगी ।

रेन वाटर हार्वेस्टिंग से जमीन के भीतर जल संग्रहण का एक फायदा यह भी होता है कि वाष्पीकरण के जरिये पानी के खत्म होने का समय कम होता है।भूगर्भीय जल में फ्लोराइड, क्लोराइड और सल्फेट की तीव्रता बढ़ती जा रही है। योजना आयोग की रिर्पोट कहती हैं। कि देश के 200 की मात्रा निर्धारित मानक से कहीं जब जमीन के भीतर वर्षा जल खतरनाक इन लवणों की तीव्रता कम हो जाती है। जिलों के भू गर्भीय जल से फ्लोराइड अधिक हैं। रेन वाटर हार्वेस्टिंग से उतरता है तो मानव स्वास्थ्य के लिए रेनवाटर 
खतरनाक इन लवणों की तीव्रता कम हो जाती है।

पानी के संकट की समस्या के कारण वनिवारण के लिए वर्षा जल संग्रहण हेतु निम्न तकनीकों के प्रयोग किये जाने चाहिए-

आजकल आधुनिक तरीके से वर्षा जल तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है।   iske liye sarkar  सहायता भी प्रदान कर रही इमारतों एवं सरकारी भवनों में इस तकनीक के प्रयोग को अनिवार्य बनाया ja raha hai  । इस तकनीक का प्रयोगपंचायत भवनों, प्राथमिक स्कूलों ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी  वनों में करके जलाभाव से मुक्ति पायी जा सकती है। एक बरसाती मौसम के लिए 1000 वर्ग फीट वाली  छत से उतारा जा सकता है। इसी तरह भी एकत्र किया जाता है। लगभग 100000 लीटर पानी नीचे फिल्टर के जरिये पानी को सम्पवैल या टैंक मे भी एकत्र किया जाता है।

वर्षा जल को तालाबों, पोखरों, झीलों मे भरा जाना चाहिए। इन पोखरों, तालाबों को प्रतिवर्ष खुदाई कर गहरा करते रहना चाहिए, जिससे इनमें पानी भरने की क्षमता में कमी न आने पाए। इसके साथ ही जहाँ पर तालाब या पोखरें नहीं हैं, वहाँ पर ग्रामों के निचले क्षेत्रों वाली भूमियों पर गहरे पोखर या तालाब बनाए जाने चाहिए जिससे वर्षा से प्राप्त गाँव का पानी गाँव में रहे का सिद्धान्त अपनाया जाए।

वर्षा जल को की उपलब्धता के संग्रहित रखने के लिए ढलान वाले खेतों में वर्षा जल अनुसार कैचमेन्ट क्षेत्र से उन्नत तकनीक द्वारा जल संग्रहण आकृति में वर्षा के पानी को  लम्बे समय तक संग्रहित रखने के liye खड़िन  लिए के पेंदी में चिकनी मृदा एक परत या पोलीथीन सीट डाल डाल दी जाती है। जिससे अपक्षालन द्वारा पानी का नुकसान रूक जाता है।खड़िन में संग्रहित पानी का उपयोग फसल उत्पादन के लिए किया जा सकता है

सोख्ता गड़ढे के माध्यम से अपवाह के रूप में बहने वाले वर्षा जल स्रोतों से फालतू बहने वाले जल का मृदा में पुनः भरण करके जलस्तर को स्थायित्व दिया जा सकता है। सोख्ता गडढा बरसाती पानी बहकर निकलने वाले मार्गो पर बनाना चाहिए। इस गड्ढे की लम्बाई चौड़ाई और गहराई वर्षा जल के वेग और उस मिलने वाली सम्भावित मात्रा पर निर्भर करती है।

यह जल संग्रहण का पारम्परिक तरीका है। इसकी मुख्य उपयोगिता पश्चिमी राजस्थान में बहुत है। इसका उद्देश्य बरसात के पानी को एक पक्के कुंड या हौज में एकत्रित करना होता है. जिसको जरूरत के मुताबिक उपयोग में लिया जा सकता हैं। घरों की छतों से बरसात के पानी को जमीन के नीचे बनाये गये टांकों में भरा जाता है और इसे अच्छी तरह ढ़ककर रखा जाता है। इन टांको का आकार जल ग्रहण क्षेत्र अर्थात छतों में वर्षा जल एकत्रित करने की क्षमता पर निर्भर करता है।

अधिक ढलान एवं बड़े खेतो के मध्य भाग में भी ढलानदार गड्ढे बनाये जा सकते है। जिससे इसमे चारो तरफ का बहने वाला बरसाती पानी आकर जमा हो सके। इस पानी को लम्बे समय तक सरुक्षित रखने के लिए तलाई की पैदे में प्राकृतिक रूप से बनी तलाई की मृदा या पहाड़ो से निकाली गई मोहरम डाल सकते है। सतह से ने वाली हानि को रोकने के लिए पानी की सतह पर वाष्पन रोधी रसायनों का  छिडकाव किया जा सकता है।

स्रोत :-

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