हर साल भारत में मानसून जब आता है, तो दो चीजें तय मानी जाती हैं। पहला, सड़कों पर पानी भर जाना। दूसरा, जैसे ही पानी उतरेगा, सड़कें उखड़ कर टूट जाएंगी। यह दोनों ही समस्याएं हमारे देश में सड़कें निर्माण की दशकों पुरानी आउटडेटेड हो चुकी तकनीकों का इस्तेमाल किए जाने के कारण देखने को मिलती हैं। इससे एक ओर तो यह बारिश में खस्ताहाल हो जाती हैं, दूसरी ओर इनकी बनावट के चलते लाखों लीटर बारिश का पानी धरती में समा कर भूजल को रीचार्ज करने के बजाय नालों और नदियों के जरिये बहकर समुद्र में चला जाता है।
ऐसे मेें हर साल मानसून के बाद सड़कों की मरम्मत पर करोड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं। साथ ही अच्छी बारिश होने के बावजूद भूजल की रीचार्जिंग नहीं हो पाती, जिसके कारण हमारे भूजल स्रोत सूखते जा रहे हैं। यह भारत के लिए एक गंभीर समस्या है, क्योंकि भारत दुनिया में भूजल का सबसे ज़्याजा दोहन करने वाला देश है और दुनिया का करीब 26% जल दोहन यहीं होता है। इस कारण देश के कई हिस्सों में जलस्तर खतरनाक रूप से गिर चुका है।
अच्छी बात यह है कि वैज्ञानिकों ने सड़क निर्माण की एक ऐसी उन्नत तकनीक खोज निकाली है, जो इन दोनों ही समस्याओं का समाधान एक साथ कर देती है। वैज्ञानिकों ने ऐसी सड़कों का मॉडल तैयार किया है जो भरपूर मजबूत होने के साथ ही करीब 88% पानी को सोख सकती हैं। यह खोज भारत जैसे मानसूनी व उष्ण कटिबंधीय देशों के लिए उम्मीद की एक नई किरण लेकर आई है।
चीन के शांडोंग प्रांत के पश्चिमी तट पर स्थित किंगदाओ (Qingdao) शहर में हाल ही में सड़क निर्माण के एक नए मॉडल का अध्ययन किया गया। इस सड़क को चीन और जर्मनी द्वारा मिलकर विकसित किए गए इको पार्क में "स्पॉन्ज सिटी मॉडल" के आधार पर इस तरह डिज़ाइन किया गया कि वह बारिश के पानी को अधिक से अधिक सोख सके।
शोध अध्ययनों को प्रकाशित करने वाले मल्टीडिसिप्लिनरी डिजिटल पब्लिशिंग इंस्टीट्यूट (MDPI) के पोर्टल पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक इस रिसर्च में देखा गया कि 173 मिलीमीटर भारी बारिश होने पर भी सड़क ने करीब 88% पानी को सोख लिया। हल्की और सामान्य बारिश में तो सड़क की पानी सोखने की क्षमता 100% तक दर्ज की गई।
द ग्लोबल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर (GCRG) की एक रिपोर्ट के मुताबिक स्पॉन्ज सिटी एक शहरी नियोजन मॉडल है। इसका उद्देश्य शहरों को इस तरह डिज़ाइन करना है कि वे बारिश के ज़्यादा से ज़्यादा पानी को सोख सकें, ताकि भूमिगत जल अच्छी तरह से रीचार्ज हो जाए। यह ठीक वैसे ही काम करता है, जैसे कोई स्पॉन्ज (स्पंज) पानी को अवशोषित कर लेता है।
यह मॉडल खासतौर पर उन शहरों के लिए कारगर है जहां भारी वर्षा के दौरान जलभराव, सड़क क्षरण और पानी की बर्बादी जैसी समस्याएं आम हैं। पारंपरिक शहरी ढांचे, जैसे सीमेंट से बनी सड़कें, कंक्रीट के मकान और बंद नालियां वर्षा जल को धरती में जाने नहीं देतीं। स्पॉन्ज सिटी मॉडल वर्षा जल के अवशोषण के जरिये इस स्थिति को पलटने की एक वैज्ञानिक और प्रकृति-आधारित कोशिश है।
इस मॉडल के तहत शहरी इलाकों में ऐसी सतहें और संरचनाएं तैयार की जाती हैं जो वर्षा जल को धरती के भीतर पहुंचा सकें या उसे अस्थायी रूप से संग्रहित करके बाद में उपयोग के लिए छोड़ सकें। इसमें मुख्य रूप से चार तरह संरचनाएं शामिल हैं:
1. Permeable Pavements (छिद्रित पक्की सड़कें) : ये सड़कें पारगम्य और जल-अवशोषक पदार्थों से बनती हैं। ये पारंपरिक कंक्रीट या डामर से बनी सड़कों की तरह पानी को सतह पर रोके रखने के बजाय उसे सोख कर नीचे ज़मीन में समाने देती हैं। ऐसा इनकी सतह पर बने छोटे-छोटे छिद्रों या दरारों के कारण संभव हो पाता है। इन छिद्रों से पानी धीरे-धीरे रिसता हुआ ज़मीन की परतों तक पहुंचता है। इस तरह के डिज़ाइन के चलते इन सड़कों पर भारी बारिश में भी जलभराव नहीं होता और अधिक से अधिक वर्षा जल भूजल को रीचार्ज करने में इस्तेमाल हो जाता है। भारत जैसे देशों में, जहां जलभराव के कारण सड़कों का टूटना और इसके चलते दुर्घटनाएं होना आम हैं, ऐसी सड़कें एक कारगर और स्थायी समाधान पेश करती हैं।
2. Bioswales (बायोस्वेल्स) : बायोस्वेल्स दरअसल ऐसी 'ग्रीन' और गहरी नालियां होती हैं, जो सतह पर बहते वर्षा जल को धीरे-धीरे जमीन में अवशेषित होने में मदद करती हैं। इन नालियों में खास तरह की घास, झाड़ियां और जल-अवशोषक वनस्पतियां लगाई जाती हैं। ये न सिर्फ पानी को रोकती हैं, बल्कि उसमें मौजूद गंदगी, धूल और रसायनों को भी काफी हद तक सोख कर छान देती हैं। इस तरह कंक्रीट की पारंपरिक नालियों के विपरीत बायोस्वेल्स काफी इको-फ्रेंडली होती हैं और यह जल निकासी का काम करने के साथ ही प्राकृतिक रूप से ग्राउंड वाटर रिचार्ज को भी सपोर्ट करती हैं।
3. Rain Gardens (वर्षा उद्यान) : रेन गार्डन एक तरह की कृत्रिम या प्राकृतिक हरित संरचना होती है। इन्हें ऐसी निचली जगहों पर बनाया जाता है, जहां आसपास की जगहों से बारिश का पानी बहकर एकत्र हो सके। इसमें जलभराव को झेल सकने वाले जल-सहिष्णु पौधे (Water-Tolerant Plants) लगाए जाते हैं, जो मिट्टी और जैविक परतों के माध्यम से पानी को सोख लेते हैं और धीरे-धीरे जमीन में पहुंचाते हैं। यह प्रणाली जल निकासी व्यवस्था को सपोर्ट करने के साथ ही ग्राउंड वाटर रीचार्ज को भी बढ़ावा देती है। साथ ही यह शहरों की हरियाली और जैव विविधता को भी समृद्ध करने में मदद करती है।
4. Green Roofs (हरित छतें) : ग्रीन रूफ्स ऐसी छतें होती हैं, जिनपर सतह की वाटर प्रूफिंग के बाद मिट्टी की परत बिछाकर पौधे उगाए जाते हैं। ये छतें बारिश के पानी को कुछ समय के लिए रोक कर रखती हैं और धीरे-धीरे उसे वाष्पित या रिसाव के जरिए बाहर छोड़ती हैं। इससे न केवल उस इमारत की गर्मी कम होती है, बल्कि वर्षा जल सीधे ड्रेनेज सिस्टम में जाकर उसपर ओवरफ्लो का दबाव डालने की बजाय नियंत्रित रूप में बाहर निकलता है। ये छतें शहरी ताप प्रभाव (Urban Heat Island Effect) को कम करने, बिजली खपत घटाने और जैव विविधता बढ़ाने में भी सहायक होती हैं। विशेष रूप से घनी आबादी वाले इलाकों में यह तकनीक बेहद कारगर साबित हो सकती है।
इन चीजों के संयोजन से तैयार होने वाला ‘स्पॉन्ज सिटी मॉडल’ की सड़कें न केवल बारिश के पानी को बचाती हैं, बल्कि उसे शहरी पारिस्थितिक तंत्र का हिस्सा बना देती हैं। इससे सड़कों के टूटने की समस्या खत्म होने के साथ ही भूजल का स्तर भी बढ़ता है। साथ ही शहरी इलाकों में ज्यादा गर्मी के लिए जिम्मेदार अर्बन हीट इफेक्ट में भी कमी आती है।
सड़कों और बायोस्वेल्स को जल-ग्राही और टिकाऊ बनाने के लिए विशेष प्रकार के पारगम्य (permeable) और जल-अवशोषक (absorbent) पदार्थों का चयन किया जाता है, ताकि वे पानी को सतह पर रोके बिना नीचे तक पहुंचा सकें। साथ ही लंबे समय तक भारी ट्रैफिक और मौसमी बदलावों को भी यह सह सकें। निर्माण कार्य में इस्तेमाल किए जाने वाले प्रमुख पदार्थ इस प्रकार हैं :
यह पारंपरिक कंक्रीट या डामर से अलग होता है। इसमें महीन रेत या गारा (fine aggregate) बहुत कम या नहीं के बराबर होता है, जिससे इसकी सतह में 10–20% तक void space (रिक्त स्थान) बनते हैं। यही रिक्त स्थान पानी को सोखने और उसे धरती तक पहुंचाने का रास्ता देते हैं। इसमें दबाव सहने की भी अच्छी क्षमता होती है, जिससे यह भारी वाहनों के यातायात के लिए भी उपयुक्त होता है।
● क्रश्ड स्टोन और ऐग्रीगेट (बजरी आधारित परतें) : बायोस्वेल्स और सड़क की नीचे की परतों में graded crushed stone या aggregates का प्रयोग किया जाता है, जो जल निकासी की सुविधा देने के साथ ही संरचनात्मक मजबूती देने में भी सहायक होते हैं। ये सामग्रियां गैर प्रतिक्रियाशील और रासायनिक रूप से स्थिर (chemically stable) होती हैं, जिससे वे मिट्टी या जल में किसी प्रकार का अवांछित रसायन नहीं छोड़तीं।
● फ़िल्टर मीडिया (बायोफिल्ट्रेशन परतें) : बायोस्वेल्स में अकसर एक विशेष किस्म के फ़िल्टर सॉइल मिक्स का प्रयोग होता है, जिसमें रेत, जैविक कम्पोस्ट और हल्की मिट्टी का संतुलित मिश्रण किया जाता है। इसका उद्देश्य पानी को नीचे जाने से पहले उसमें मौजूद धातु, तेल, फॉस्फेट या नाइट्रेट जैसे प्रदूषकों को सोखना होता है। ये परतें न केवल पानी को साफ करती हैं, बल्कि पौधों की जड़ों को पोषण भी देती हैं।
● जिओटेक्सटाइल और ड्रेनेज लाइनर : पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने और मिट्टी के क्षरण को रोकने के लिए जिओटेक्सटाइल फ़ैब्रिक का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक तरह की सिंथेटिक झिल्ली होती हैं जो नीचे की परतों को स्थिर रखते हुए जल प्रवाह को फैलाकर धीरे-धीरे रिसने देती हैं।
● एक्टिवेटेड कार्बन या ज़ियोलाइट जैसे एडवांस फिल्टर : कुछ क्षेत्रों में, विशेषकर औद्योगिक इलाकों के आसपास पानी में भारी धातु या जहरीले रसायनों को फिल्टर करने के लिए एक्टिवेटेड कार्बन, ज़ियोलाइट या अन्य टिकाऊ पदार्थों का उपयोग किया जाता है, जो विषाक्त पदार्थों को बांध या सोख लेते हैं।
इस प्रकार, इन सामग्रियों के इस्तेमाल से यह सुनिश्चित होता है कि सड़कें और नालियां न सिर्फ पानी को सोखें, बल्कि उसे संरक्षित, शुद्ध और ग्राउंड वाटर को रीचार्ज करने योग्य भी बनाए। स्थानीय परिस्थितियों और जलवायु के अनुसार तैयार किए गए ये मॉडल भारत के शहरी विकास में क्रांतिकारी साबित हो सकते हैं।
भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों और एक्सप्रेस वे जैसे मार्गों के बनने से हाल के वर्षों में सड़कों की हालत में सुधार आया है। इसके बावजूद राज्यों और शहरों-कस्बों के स्तर पर हालत बहुत अच्छी नहीं है। इन सड़कों का हाल मानसून के बाद तो और भी बिगड़ जाता है। हाल के वर्षों में तो बरसात के मौसम में राष्ट्रीय राजमार्गों के बड़े हिस्से धंसने की भी खबरें कई जगह से आने लगी हैं। इसके चलते राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) और राज्यों को सड़कों की मरम्मत में हजारों करोड़ खर्च करने पड़ते हैं। इसके साथ ही जलभराव और यातायात अवरोध जैसी समस्याएं बढ़ती हैं। वहीं दूसरी ओर सड़कों पर गिरने वाले वर्षा जल का संचयन न हो पाने के कारण शहरी जल संकट गहराता जा रहा है। इसे देखते हुए अगर भारत में भी स्पंज सिटी मॉडल के अनुरूप पानी सोखने वाली सड़कें बनाई जाएं तो यह कई तरह से फायदेमंद होगा-
सड़कों पर जलभराव न होने से उनकी उम्र बढ़ेगी और मरम्मत का खर्च कम होगा।
जलभराव न होने से शहरी बाढ़ की घटनाएं घटेंगी। खासकर, पुराने शहरी इलाकों में जहां जलभराव आम बात है।
भूजल के रिचार्ज में सुधार होने से शहरों की जल स्वायत्तता में बढ़ोतरी होगी
हवा की गुणवत्ता में भी सुधार हो सकता है क्योंकि हरित सतहें (ग्रीन सरफेस) तापमान नियंत्रित करती हैं
● शुरुआती लागत होगी काफी अधिक : स्पॉन्ज सिटी तकनीकों में उपयोग होने वाले पारगम्य पदार्थ, फिल्टर परतें, और जलनिकासी संरचनाएं पारंपरिक सड़क निर्माण सामग्रियों से महंगी हो सकती हैं। शुरुआती निवेश अधिक दिख सकता है, लेकिन लंबे समय में ये सड़कें कम मेंटेनेंस और जल प्रबंधन में बचत देकर इस लागत की भरपाई कर देती हैं। इसे लागत नहीं, निवेश के रूप में देखा जाना चाहिए।
● टेक्निकल नॉलेज और ट्रेनिंग की आवश्यकता होगी : पारगम्य फुटपाथ, बायोस्वेल्स और रेन गार्डन जैसी संरचनाओं का डिज़ाइन और निर्माण पारंपरिक ढाँचों से अलग होता है। इसके लिए सिविल इंजीनियरों, ठेकेदारों और शहरी नियोजकों को विशेष प्रशिक्षण देना जरूरी होगा, ताकि तकनीक का सही अनुप्रयोग हो सके और अपेक्षित परिणाम मिल सकें।
● नीति निर्माताओं और इंजीनियरों के बीच जागरूकता बढ़ानी होगी : आज भी भारत के अधिकांश नगर निगम और निर्माण एजेंसियां बारिश के पानी को "निकालने की समस्या" के रूप में देखती हैं, न कि "सहेजने के अवसर" के रूप में। जब तक नीति-निर्माता और तकनीकी टीमें मिलकर इस सोच को नहीं बदलेंगी, तब तक स्पॉन्ज सिटी जैसा नवाचार ज़मीनी स्तर पर नहीं उतर पाएगा। इसके लिए नीति दस्तावेजों और नियमों में भी बदलाव जरूरी है।
● नागरिकों की भागीदारी जरूरी है, ताकि ऐसे मॉडल को समर्थन मिल सके : शहरों को स्पॉन्ज बनाने की यह पूरी कवायद तब तक अधूरी रहेगी जब तक आम नागरिक इसमें रुचि और सहयोग नहीं दिखाएंगे। लोग अगर समझें कि हरित छतों, घर के पास रेन गार्डन या सड़क किनारे पौधों की अहमियत क्या है, तो यह आंदोलन जन-सहयोग से और भी सफल हो सकता है। स्थानीय समुदायों की भागीदारी, संरक्षण और निगरानी भी इस मॉडल को स्थायित्व देने में अहम भूमिका निभा सकती है।
स्थानीय जलवायु और मिट्टी के अनुसार डिज़ाइन – हर इलाके की बारिश और मिट्टी की क्षमता अलग होती है, इसलिए स्थानीय जलवायु और मिट्टी की स्थितियों के आधार पर सड़कों की प्लानिंग ज़रूरी है। भारत में इस बिंदु पर खास ध्यान देना होगा क्योंकि यहां भौगोलिक स्तर पर व्यापक विविधता देखने को मिलती है।
भारी ट्रैफिक और भार को सहने वाले डिज़ाइन – भारत में वाहनों की संख्या काफी अधिक है। इसके साथ ही व्यावसायिक वाहनों पर ओवर लोडिंग की प्रवृत्ति भी आम है। इसके चलते सड़कों पर लोड बहुत अधिक होता है। इसलिए सड़कों को मजबूती के साथ डिजाइन करना होगा।
रख-रखाव की उचित व्यवस्था – पानी सोखने वाली सड़के बनाने के बाद भी फिल्टर और जल-निकासी व्यवस्था को नियमित रूप से साफ करना जरूरी होगा, ताकि सड़क की जल सोखने की क्षमता बनी रहे। भारत में इस मामले में खासतौर पर सतर्कता की जरूरत होगी, क्योंकि देश में अकसर विभिन्न योजनाओं के तहत इन्फ्रास्ट्रक्चर तो खड़ा कर लिया जाता है, उसका उचित मेंटेनेंस न होने के कारण सबकुछ बेकार हो जाता है।
मानकों और बजट पर ध्यान देना – बिना स्पष्ट मानकों और बजट आवंटन के यह मॉडल बड़े पैमाने पर सफल नहीं हो सकता। भारत में क्रियान्वयन के स्तर पर यह एक बड़ी समस्या हो सकती है। देश के विशाल आकार को देखते हुए इसे राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने के लिए एक बड़े बजट की भी आवश्यकता होगी।