पेन में मत्स्य पालन के लिये कार्प प्रजातियाँ कतला, रोहू, नयनी, बाटा तथा रेवा उपयुक्त होती हैं। इनके अलावा ग्रास कार्प, सिल्वर कार्प, कामन कार्प, वायु श्वासी मछलियाँ मागुर, सिंघी, केवई, तेलापिया, पंगास तथा मीठा जल झींगों का भी पालन किया जाता है। जिस स्थान पर जलीय पौधे हों वहाँ ग्रास कार्प का पालन किया जाना चाहिए। इसके अलावा विशेष आकार के मछली उत्पादन के लिये आवश्यक माप का बीज संचयन करना है। बिहार राज्य जलीय और मात्स्यिकी संसाधनों से समृद्ध है। बिहार के जलीय क्षेत्रों में आर्द्र क्षेत्रों की बहुलता है जिन्हें स्थानीय भाषा में चौर तथा मान कहा जाता है, जो उच्च मत्स्य उत्पादन की क्षमता रखते हैं। परन्तु वार्षिक बाढ़, अवांछित जीवों (परभक्षी, मछलियाँ, साप, मेंढक तथा पक्षी आदि), जलीय पौधे तथा अनियंत्रित जल क्षेत्र के कारणों से पूरे जल निकाय में मत्स्य उत्पादन करना कठिन हो जाता है। अतः ऐसे जल क्षेत्रों में पेन (घेरे) लगाकर मत्स्य-पालन सबसे उपयुक्त, सरल एवं सस्ती तकनीक माना जाता है। साथ-ही-साथ पेन में वैज्ञानिक तरीके से मात्स्यिकी प्रबन्धन, उपयुक्त प्रजाति, आकार, संचयन तथा संग्रहण से उत्पादन कई गुणा बढ़ाया जा सकता है।
पेन जल निकाय में बने उस घेरे को कहा जाता है जिससे मछली पालन किया जाता है। पेन जाल या बाँस की दीवार से बना एक स्थिर घेराव होता है जो ऊपर की तरफ खुला होता है तथा इसका निचला भाग जलस्रोत के तल में खुला रहता है।
खुले तथा अनियंत्रित जल क्षेत्र में आसानी से पालन प्रबन्धन तथा प्रग्रहण किया जा सकता है। खरपतवारों, जलीय पौधों तथा अवरोध वाले जल क्षेत्रों में भी मत्स्य पालन किया जा सकता है। पेन के घेरे में जल निकाय की निचली सतह मछलियों की पहुँच में होती है जहाँ से मछलियाँ प्राकृतिक आहार ले सकती हैं जो उनके विकास एवं वृद्धि के लिये उपयोगी है।
अपनी आवश्यकता के अनुसार विशेष प्रजातियों का चयन कर पालन किया जा सकता है, जिससे अवांछित मछलियों तथा पौधों से भोजन एवं ऑक्सीजन के लिये प्रतिस्पर्धा नहीं रहती है। पूरक आहार तथा मछलियों के प्रबन्धन में सुविधा होती है। परभक्षी तथा शिकारी जीवों से सुरक्षित रहती हैं एवं प्रग्रहण में सुविधा होती है। फलस्वरूप अत्यधिक मत्स्य उत्पादन होता है।
पेन की स्थापना के लिये चयनित प्रजातियों के अनुसार पेन के क्षेत्र में वर्ष भर में 4-8 महीनों तक स्थिर या धीमी गति से प्रवाहित जल होना चाहिए। पेन के लिये हल्की ढलान तथा 1-1.5 पानी की गहराई वाला स्थान उपयुक्त माना जाता है। चयनित स्थान की निचली सतह सख्त तथा तीव्र जल एवं अत्यधिक वायु प्रवाह से मुक्ति होनी चाहिए। पेन का क्षेत्र प्रदूषण मुक्त होना चाहिए। पेन स्थापना का स्थान खुला होना चाहिए ताकि सूर्य की किरणें पेन के घेरे में पहुँच सके।
पेन वर्गाकार, आयताकार या गोल हो सकता है। गोल पेन अन्य पेन की अपेक्षा किफायती होता है। मत्स्य बीज पालन में बेहतर प्रबन्धन तथा उत्पादन के लिये पेन का आकार 0.05-0.2 हे. उपयुक्त होता है।
पेन निर्माण के लिये स्थानीय स्तर पर उपलब्ध बाँस जैसी सस्ती तथा टिकाऊ सामग्री का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा जाल का भी प्रयोग किया जाता है। पेन की दीवार को चीरे हुए बाँस की पट्टियों तथा जाल को नारियल या नायलॉन की रस्सी से इस प्रकार बुना जाता है कि ताकि पानी का आदान प्रदान हो सके। हर 2 मी. के अन्तराल पर बाँस का सीधा खम्भा गाढ़ा जाता है ताकि पेन की दीवार मजबूती से खड़ी रहे। पेन की दीवार को तेज हवा से बचाने के लिये हर तीसरे खम्भे के साथ एक अतिरिक्त तिरछा खम्भा गाढ़ा जाता है।
मत्स्य बीज को पेन से बाहर आने से बचाने के लिये दीवार के अन्दर एक पतला जाल सिला जाता है। पेन की दीवार जलस्तर से कम-से-कम 0.5 मी. ऊपर रहनी चाहिए ताकि मछलियाँ कूद कर बाहर नहीं निकल सकें। बास के स्थान पर एच.डी.पी.ई. जाल का प्रयोग भी किया जा सकता है, जो आर्थिक दृष्टि से अधिक किफायती होता है। इसके अलावा एक मजबूत तथा मोटा जाल (3.5 फीट ऊँचाई) से पेन के भीतर रहने वाला भाग बनाया जाता है।
अंगुलिका प्राप्त करने के लिये जाल के फंदों का आकार 4 एम.एम. तथा बड़ी मछली उत्पादन के लिये 10 एम.एम. से अधिक नहीं होनी चाहिए, मोटे जाल के निचले किनारे से 7-8 एम.एम. मोटाई वाली रस्सी तथा ऊपरी किनारे से 4-5 एम.एम. मोटाई की रस्सी सिली जाती है। इन्हीं रस्सियों की सहायता से जाल को खम्भों से बाँधा जाता है, सीधे गाढ़े गए खम्भों के निचले सिरे में एक फाँक बनाई जाती है तथा मोटे जाल के निचले सिरे वाली रस्सी में लूप बनाए जाते हैं। बाँस की फाँक को लूप में कसकर गाड़ दिया जाता है ताकि जाल की दीवार मिट्टी में धँस जाये।
उचित समय पर आवश्यक प्रजातियों के बीज, बीज की माप या आकार तथा उनकी पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता मत्स्य पालन की सफलता के मुख्य घटक हैं। इसी दृष्टिकोण से मत्स्य बीज पालन आर्थिक रूप से एक व्यवहार्य उद्यम के रूप में उभर रहा है। अन्य मत्स्य पालन तकनीकों की तुलना में पेन में मत्स्य बीज पालन एवं प्रबन्धन काफी सरल होता है। साधारणतः पेन में मत्स्य बीज पालन के दो चरण होते हैं-
(1) धानी से अंगुलिका का उत्पादन,
(2) अंगुलिका से बड़ी मछली का उत्पादन
पेन में धानी से अंगुलिका उत्पादन के पहले जल क्षेत्र को अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए। इसके लिये जाल चलाकर जल क्षेत्र में उपस्थित मत्स्यभक्षी मछलियों को निकाल लेते हैं, जलीय पौधों को हाथ से उखाड़कर बाहर किया जा सकता है। मछली के प्राकृतिक भोजन के लिये खाद का छिड़काव करना भी आवश्यक होता है। साथ-ही-साथ जल की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिये 250-300 कि.ग्रा./हे. की दर से चूने का छिड़काव करना चाहिए।
पेन में जलीय वातावरण एवं पारिस्थितिकी के अनुसार प्रजाति का चयन कर सही घनत्व दर तथा आवश्यक माप के अनुसार संचयन करना चाहिए। संचयन दर प्राकृतिक भोजन तथा पानी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। पेन में मत्स्य पालन के लिये कार्प प्रजातियाँ जैसे (कतला, रोहू, नयनी, बाटा तथा रेवा) उपयुक्त होती हैं। इनके अलावा ग्रास कार्प, सिल्वर कार्प, कामन कार्प, वायु श्वासी मछलियाँ जैसे (मागुर, सिंघी, केवई), तेलापिया, पंगास तथा मीठा जल झींगों का भी पालन किया जाता है।
जिस स्थान पर जलीय पौधे हों वहाँ ग्रास कार्प का पालन किया जाना चाहिए। इसके अलावा विशेष आकार के मछली उत्पादन के लिये आवश्यक माप का बीज संचयन करना है। यदि हमें अंगुलिकाओं उत्पादन करना है तो पोना (जीरा अथवा धानी) का संचयन करना चाहिए और अगर हमें बड़ी मछलियों का उत्पादन करना है तो अंगुलिकाओं (80-100 एम.एम.) का संचयन करना चाहिए।
पेन से अंगुलिकाएँ प्राप्त करने के लिये साधारणतः 40-50 एम.एम. (4-5 से.मी.) के पोना 2,50,000 प्रति हे. की दर से संचयन किया जाता है जबकि बड़ी मछलियों के उपत्पादन के लिये 100 एम.एम. (10 से.मी.) की अंगुलिकाओं संचयन 4,000-5000 प्रति हे. की दर से किया जाता है। साधारणतः चौर में जलीय पौधे एवं मलबा अथवा अपरद अधिक मात्रा में होती है। अतः ग्रास कार्प, कामन कार्प अथवा मृगल का संचयन अधिक होता है। प्रजातियों की संचयन दर निम्नलिखित रूप में होती है।
ग्रास कार्प | 50 प्रतिशत |
कामन कार्प | 20 प्रतिशत |
कतला | 10 प्रतिशत |
रोहू | 10 प्रतिशत |
नयनी | 10 प्रतिशत |
मछलियों की बेहतर वृद्धि के लिये प्राकृतिक आहार के अलावा पूरक आहार भी दिया जाना आवश्यक है। पूरक आहार शारीरिक भार के 2-5 प्रतिशत की दर से दिन में 2 बार (सुबह एवं शाम) को दिया जाना चाहिए। मछलियों को शारीरिक रूप से स्वस्थ रखने के लिये उनके आवास तथा जल की गुणवत्ता का ध्यान रखना चाहिए तथा नियमित रूप से स्वास्थ्य एवं जल की जाँच करनी चाहिए। समय-समय पर मछलियों की वृद्धि (लम्बाई और भार) की भी जाँच करनी चाहिए। मछली में बीमारी होने पर उसे बाहर निकालकर तुरन्त उपचार करना चाहिए। मृत मछली को तुरन्त बाहर निकाल देना चाहिए। पेन की दीवार की सफाई एवं मरम्मत करनी चाहिए।
निर्धारित माप के हो जाने के बाद सुबह या शाम के समय प्रग्रहण करना चाहिए। चूँकि पेन में थोड़ी बड़ी माप के पोनों का संचयन किया जाता है, अतः इनकी उत्तरजीविता ज्यादा होती है। अंगुलिकाएँ 2 महीने में 10 से.मी. (15 ग्रा.) ये अधिक हो जाती है। 2 महीने में प्रति हे. 127930 अंगुलिकाओं का उत्पादन किया जा सकता है जबकि बड़ी मछली (औसत भारत 800 ग्राम) उत्पादन में 2,880-3,600 कि.ग्रा./हेक्टेयर उपज 6 महीनों में प्राप्त की जा सकती है।
पेन में मत्स्य बीज पालन की आर्थिकी निकाली गई है जो कि जन्दाहा (वैशाली) में प्रचलित मूल्यों पर आधारित है। प्रथम वर्ष में अंगुलिकाओं की 2 तथा द्वितीय और तृतीय वर्ष में 3 फसलें प्राप्त की जा सकती हैं। प्रथम वर्ष 0.1 हेक्टेयर के पेन के लिये स्थिर लागत रु. 11,350/- तथा परिवर्तनशील लागत रु. 35,720/- परिकलित की गई है। द्वितीय और तृतीय वर्ष में मजदूर तथा सामग्री के रूप में थोड़ा अतिरिक्त व्यय होता है। 0.1 हेक्टेयर के पेन से प्रथम वर्ष रु. 29,688/- तथा द्वितीय और तृतीय वर्ष रु. 58,957/- की शुद्ध आय प्राप्त की जा सकती है। पेन में मत्स्य बीच पालन के लिये बी.सी. (लाभः खर्च) अनुपात 1.93 प्राप्त किया गया है।
इसी प्रकार एक हेक्टेयर पेन में बड़ी मछली उत्पादन से 6 महीनों में 3,45,600-4,32,000 रु. की आय प्राप्त की जा सकती है।
चौर क्षेत्र में मात्स्यिकी द्वारा जीविकोत्थान के अवसर - जनवरी, 2014 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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5 | चौर संसाधनों में पिंजरा पद्धति द्वारा मत्स्य पालन से उत्पातकता में वृद्धि |
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7 | बिहार में टिकाऊ और स्थाई चौर मात्स्यिकी के लिये समूह दृष्टिकोण |
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