लेख

काला सोना बचाने की जंग

Author : मनोज त्यागी

झारखंड की कर्णपुरा घाटी में धरती के नीचे दबे कोयले को हड़पने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियां लंबे अरसे से जुटी हुई हैं। लेकिन अब वहां के स्थानीय बाशिंदों ने अपनी इस खनिज संपदा को बचाने के लिए कमर कस ली है। सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने भी उनका उत्साह बढ़ाया है। इस उभरते आंदोलन का जायजा ले रहे हैं मनोज त्यागी।

कर्णपुरा घाटी में आराहरा जैसे दो सौ पाच गांव हैं जिनकी जमीन के नीचे ऐसा ही काला सोना मौजूद है। इन गांवों में साढ़े तीन लाख की आबादी रहती है। एनटीपीसी के अलावा पैंतीस और देशी विदेशी कंपनियों को सरकार इन गांवों की जमीन को कोयला ब्लाकों में तब्दील कर अब तक आबंटित कर चुकी है। यहां जमीन के अधिग्रहण की पुरजोर कोशिश कंपनियां कर रही हैं, पर इन गांवों के किसान हकीकत समझ गए हैं। उन्होंने अपने नजदीक में पहले खुली खदानों से विस्थापित हुए किसानों का दर्दनाक हाल देखा है। वे दहशत में हैं। शायद इसी दहशत से उनमें एक नया संकल्प उभर रहा है। झारखंड के हजारीबाग जिले के बड़का गांव प्रखंड में कर्णपुरा घाटी के बीच में स्थित है आराहरा गांव। पूरे गांव के नीचे काला सोना कहे जाने वाले बेशकीमती कोयले का विशाल भंडार है। रांची के सेंट्रल प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट (सीएमपीडीआईएल) के अध्ययन के मुताबिक यहां एक एकड़ जमीन के नीचे औसतन एक लाख से ढाई लाख टन कोयला भंडार है जिसका बाजार मूल्य करीब साठ करोड़ रुपए बैठता है। यहां कोयला खनन के लिए जमीन के अंदर खान नहीं बनानी पड़ती, ऊपर की तीन-चार फुट मिट्टी हटा देने से कोयले की परत चमकाने लगती है औऱ उसे गैंती से तोड़कर या हल्का-फुल्का विस्फोट करके उखाड़ा जा सकता है। झारखंड में जगह-जगह इतना आसान कोयला खनन सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियां आजादी के बाद से ही कर रही हैं। सरकार को नाममात्र की रायल्टी 120 से 300 रुपए प्रतिदिन देकर बाकी कोयला ले उड़ती है और अकूत मुनाफा कमाती है।

पंद्रह नवंबर 2013 को दोपहर में आराहरा गांव के शिव मंदिर प्रांगण में दो हजार किसानों का समूह एकत्र था। किसान और मजदूर आसपास के उन बारह गांवों से आए थे जिनकी लगभग 16,000 एकड़ उपजाऊ जमीन नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन (एनटीपीसी) की पकड़ी वरवाडीह कोयला खान परियोजना को कोयला खनन के लिए सरकार ने 11 अक्टूबर 2004 को आबंटित की थी। तमाम प्रयासों के बावजूद एनटीपीस अभी तक केवल चार सौ एकड़ जमीन ही अधिग्रहित कर पाई, लेकिन कोयला खनन के लिए ज्यादा जमीन की जरूरत थी। इस परियोजना को धन देने वाले अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय बैंकों, वित्तीय संस्थानों के भारी दबाव में और कोयले की बढ़ती घरेलू मांग को देखते हुए सरकार हर कीमत पर इस परियोजना को साकार करना चाहती है। चार बार इस परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण की समय सीमा बढ़ाई जा चुकी है। एनटीपीसी को जमीन अधिग्रहण में उसकी असफलता के लिए कई बार नोटिस दिए जा चुके हैं। ऐसे हालात में अब कंपनी ग्रामीणों को धमकाने, डराने, प्रलोभन देने पर उथर आई। स्थानीय ठेकेदारों और माफियाओं की मदद से किसानों को बरगलाने का काम कंपनी ने शुरू कर दिया पुलिस और प्रशासन कंपनी की मदद में हर तरह से तैयार रहा। पिछली 23 जुलाई को पगार गांव में किसानों पर गोलीबारी हुई और एक किसान की मौत हो गई। इससे पहले भी सैकड़ों किसानों पर फर्जी मुकदमे लादे जा चुके हैं। इस सरकारी दबाव, चाल बाजियों, भ्रष्ट तौर-तरीकों, दमन और प्रताड़ना को नकार कर दो हजार किसान 15 नवंबर को फिर आराहरा में एकत्र हुए और इनका संकल्प था कि वे अब कोयला खनन स्वयं करेंगे।

कर्णपुरा घाटी में आराहरा जैसे दो सौ पाच गांव हैं जिनकी जमीन के नीचे ऐसा ही काला सोना मौजूद है। इन गांवों में साढ़े तीन लाख की आबादी रहती है। एनटीपीसी के अलावा पैंतीस और देशी विदेशी कंपनियों को सरकार इन गांवों की जमीन को कोयला ब्लाकों में तब्दील कर अब तक आबंटित कर चुकी है। यहां जमीन के अधिग्रहण की पुरजोर कोशिश कंपनियां कर रही हैं, पर इन गांवों के किसान हकीकत समझ गए हैं। उन्होंने अपने नजदीक में पहले खुली खदानों से विस्थापित हुए किसानों का दर्दनाक हाल देखा है। वे दहशत में हैं। शायद इसी दहशत से उनमें एक नया संकल्प उभर रहा है।

आठ जुलाई 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने केरल के लिगनाइट खनन से संबंधित एक मुकदमे में फैसला देते हुए तीन जजों की खंडपीठ ने व्यवस्था दी कि खनिजों का स्वामित्व उसी का है जो खनिज के ऊपर की जमीन का मालिक है। यह स्वामित्व जमीन की सतह से लेकर पृथ्वी के केंद्र यानी पानी से लेकर सभी खनिजों तक लागू होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो खनिजों का स्वामित्व राज्य या सरकार को देता हो। अगर सरकार को या कंपनियों को खनिजों के ऊपर अधिकार हासिल करना है तो उन्हें वैध तरीके से उस जमीन का अधिग्रहण करना होगा या उस जमीन को खरीदना होगा जिसके नीचे खनिज भंडार है।

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने कोई नई बात नहीं कही, संवैधानिक स्थिति वही है। लेकिन खनिजों की बढ़ती जरूरत और उससे अनंत मुनाफा कमाने की संभावनाओं के चलते सरकार में बैठे नौकरशाहों, ठेकेदारों, राजनेताओं, कंपनियों के मालिकों ने कुछ ऐसा प्रचार कर आप आदमी में यह धारणा बैठा दी गई कि जमीन का मालिककिसान केवल तीन-चारफुट ऊपरी सतरह का ही मालिक है नीचे जो भी चीजें हैं उनका मालिक तो सरकार है और कभी भी कैसे भी उन खनिजों को हासिल कर सकती है। कर्णपुरा घाटी के किसानों में शुरू से ही यह भ्रम था कि सरकार कोयला ले ही लेगी और हमारा विरोध धरा रह जाएगा। कंपनी के ठेकेदारों और सरकार के अफसर गांव-गांव घूम कर किसानों से यह कहते फिरते थे कि विकास के लिए बिजली चाहिए और बिजली उत्पादन के लिए कोयला चाहिए जिसे सरकार ले ही लेगी इसलिए अपनी जमीन बचाने का आपका यह आंदोलन बेकार है। हां मुआवजे की दर पर बातचीत हो सकती है।

कंपनी ने शुरुआत में पैंतीस हजार रुपए एकड़ से अब दस लाख रुपए एकड़ तक मुआवजा बढ़ाया। लेकिन किसान विस्थापन की विभिषिका से इतने आतंकित थे कि वे अपनी जमीन न छोड़ने के संकल्प पर डटे रहे। विनोबा भावे विश्वविद्यालय हजारीबाग में वनस्पति शास्त्र के व्याख्याता और कर्णपुरा घाटी के हरली गांव के निवासी मिथिलेश कुमारडांगी ने अपनी अच्छी खासी नौकरी छोड़कर किसानों को जागरूक और संगठित करने का बीड़ा उठाया। गांव-गांव जाकर लोगों को बताया कि उनकी जमीन के नीचे कितनी संपत्ति है।

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला उनके बहुत काम आया। अब कर्णपुरा घाटी में हवा बदल चुकी है और किसान मान चुके हैं कि अपनी जमीनों के नीचे के कोयले के मालिक वे ही हैं। उन्होंने इस फैसले के आधार पर निर्णय लिया कि जब वे ही मालिक हैं तो कोयला खनन का पहला अधिकार उन्ही का है, सरकार केवल रायल्टी की हकदार है। अपने इसी अधिकार को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने के लिए 15 नवंबर 2013 को आराहरा में एकत्रित होकर उन्होंने स्थानीय किसान धनेश्वर महतो की एक एकड़ जमीन पर कोयला खदान बनाई और कोयला निकाला। पहले दिन तीन टन कोयला निकाला उसकी नीलामी की गई। प्राप्त पैसे का आधा हिस्सा जमीन मालिक को दिया गया, आधे हिस्से में से एक सौ बीस रुपए प्रतिटन रायल्टी जोड़कर सरकार के प्रतिनिधी की अनुपस्थिति में ग्रामसभा के खाते में जमा करा दी गई और बाकी पैसा खनन के लिए मजदूरी, परिवहन वगैरह में व्यय के लिए रख लिया गया। आराहरा में पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर को धता बताते हुए पिपुल्स सेक्टर द्वारा यह कोयला खनन जारी है और आने वाले दिनों में 15 गांवों में एक साथ इस कोयला सत्याग्रह को फैलाने की तैयारी आंदोलनकारी किसान कर रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि किसानों ने कोयले पर अपना स्वामित्व स्थापित करने के प्रयासों में केवल आंदोलनों की ही मदद ली हो। उन्होंने कानूनी और संवैधानिक तरीकों को अपनाने की भी कोशिश की। चीरूडीह और बरवाडीह के गांव वालों ने 2009 में ही 1956 के कंपनी कानून के तहत अपनी थर्मल पावर कंपनी बनाई. इस कंपनी कानून में 2002 में निर्माता कंपनी का प्रावधान जोड़ा गया है जिसके तहत चीरूडीह बरवाडीह थर्मल पावर प्रोड्यूसर कंपनी 2009 में लकुश थर्मल पावर प्रोड्यूसर कंपनी और कोल थर्मल पावर प्रोड्यूसर कंपनी 2010 में पंजीकृत कराई गई। इन कंपनियों के प्रोत्साहक किसान, मजदूर, महिलाएं हैं, वहीं इनके निदेशक मंडल में हैं।

इन कंपनियों ने ताप विद्युत संयंत्र लगाने के लिए झारखंड सरकार को परियोजानएं दे रखा है। और कोल खदानों को देने की मांग की है। केंद्र सरकार के कोयला मंत्रालय को भी लिखा है। इन कंपनियों को तकनीकी मदद के लिए कई जमी जमाई ताप विद्युत कंपनियों ने हाथ बढ़ाए। धनबाद के स्कूल ऑफ माइंस के विशेषज्ञ भी इन कंपनियों के आमंत्रण पर क्षेत्र का दौरा कर चुके हैं और कोयला खनन के लिए स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण का एक दौर चला चुके हैं। झारखंड का लघु उद्योग संगठन ने और झारखंड आल्टरनेटिव डेवलपमेंट फोरम भी इस काम में मदद कर रहा है। गांव वालों ने निर्णय ले रखा है कि कंपनियां या सरकार को तो हम यहां प्रवेश नहीं करने देंगे। अगर कोयला और बिजली चाहिए तो उनकी कंपनियों को अनुमति दी जाए। पर जन पहल को अनदेखा करने में मशहूर सरकारें गांव वालों की इन परियोजनाओं को अनुमति नहीं दे रही हैं या शायद ठंडे बस्ते में डाल चुकी है। इसलिए किसानों को कोयला सत्याग्रह करने और अपना संकल्प प्रदर्शित करने की जरूरत पड़ी।

सरकार अनुमति दे या न दे किसानों की यह मुहिम आगे बढ़ रही है। किसानों की कंपनियों ने छोटे-छोटे संयंत्र गांव-गांव में लगाने की मुहिम चला रखी है। दस किलोवाट का पहला अतिलघु ताप बिजलीघर हरली गांव में 2009 में लगाया गया, दूसरा सरायकेला खरसावा गांव में 2011 में और तीसरा 15 किलोवाट का केरेडारी ब्लाक के बेंगवारी गांव में 2012 में ग्राम सभा को सौंपा गया। इनमें से दो संयंत्र चल रहे हैं और इन्हीं गांवों के नौजवान चला रहे थे और अपने गांव के 200 परिवारों को रोशनी के लिए बिजली उपलब्ध करा रहे हैं। ये वे गांव हैं जहां आजादी के बाद बिजली नहीं पहुंची थी पर अब ये बिजली की रोशनी में रह रहे हैं। ये किसान कंपनियां दावा कर रही हैं कि अगर सरकार अनुमति दे और बैंक वित्त उपलब्ध करा दे तो वे संपूर्ण झारखंड को 24 घंटे बिजली उपलब्ध करा देंगी और अतिरिक्त बिजली नेशनल ग्रिड को देकर राष्ट्रीय विकास में योगदान करेंगी।

कर्णपुरा घाटी के इस आंदोलन ने सिर्फ कोयले के स्वामित्व और उपयोग के अधिकार का सवाल ही नहीं, बल्कि सभी प्राकृतिक संसाधनों पर मालकियत और उनके विनियोजन के अधिकार का सवाल उठा दिया है। पिछले दस वर्षों में झारखंड में विभिन्न खनिजों के खनन, ताप बिजलीघर,स्टील प्लांट लगाने के लगभग 101 सहमति हुई, पर इनमें से केवल दो ही जमीन पर उतर सके। कारण यह कि स्थानीय जनता अपने जल, जंगल, जमीन और खनिजों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।

वह समझ चुकी है कि उसके प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिए सहमति (एमओयू) हुए हैं। जो उसे थोड़ा बहुत मुआवजा भले ही दे दे, विकास में उसकी हिस्सेदारी, ईमान की रोटी और सम्मान की जिंदगी तो कदापि नहीं देंगे। ये संसाधन एक बार हाथ से निकले तो सिवा कंगाली और बदहाली के उसके सामने कुछ बचेगा नहीं। पूरे झारखंड में ऐसे स्थानीय आंदोलनों की बाढ़ आई है। आर्सेलर मित्तल को जाना पड़ा, टाटा की परियोजनाएं रुक गईं, ईस्टर्न कोल फील्ड का फैलाव अटक गया है। कोयले का उत्पादन नीचे गिर रहा है, धनबाद में कोयला खदानों पर कब्जा करने की रणनीति बनाई जा रही है। ऐसे में ये आंदोलन एक बड़े बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं।

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