लेख

न्यायिक संघर्ष से राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून-2013 तक

सचिन कुमार जैन

भारत के लिए 26 अगस्त 2013 का दिन कुछ मायनों में महत्वपूर्ण लगता है। लोकसभा में राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा विधेयक इसी दिन पारित हुआ। कुछ दिन बाद यह राज्यसभा से भी पारित हो गया।

कानून बनने के बाद यह देश की 67 प्रतिशत जनसंख्या को अनाज की सीमित सुरक्षा प्रदान करेगा। इस कानून को प्रभावी बनाने के लिए 318 संशोधन प्रस्तुत किए गए थे। एक दिन में साढ़े नौ घंटे की बहस को देखें तो पता चलता है कि खाद्य-सुरक्षा के अन्तर्निहित पहलुओं को आर्थिक मजबूरियों का नाम देकर खारिज किया गया है।

यह दिन इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि आखिरकार यह साबित हो गया कि 22 साल तक अर्थव्यवस्था के कारपोरेटीकरण और संसाधनों की लूट की नीतियों ने बुनियादी रूप से देश का भला नहीं किया है और आज भी हमें भुखमरी से निपटने के लिए एक करूणामयी कानून बनाने की जरूरत महसूस हुई। नए कानून में एक हद तक राज्य सरकारें केन्द्र के अधीन होंगी, क्योंकि उन्हें केवल क्रियान्वयन का काम करना है। नीति और व्यवस्थागत निर्णय का अधिकार केन्द्र के पास रहेगा। 359 में से 250 सांसद राज्य सरकारों के अधिकार सीमित रखने के पक्ष में थे। राज्यसभा में तो विपक्ष ज्यादा ताकतवर था, परन्तु वहां भी उसने रणनीतिक विरोध ही दर्ज करवाया। यदि वह चाहता तो कानून का स्वरूप कुछ बेहतर हो सकता था। इसमें अभी बहुत सुधार की जरूरत है, इसके बावजूद इसे महज खारिज नहीं किया जा सकता है। यह जनसंघर्ष यानी भारत के लोगों की मांग पर बना कानून है, इसलिए इसे महज एक सतही राजनीतिक लाभ के लिए की गयी पहल मानना सही नहीं है।

भारत की संसद ने खाद्य-सुरक्षा को एक अधिकार के रूप में मान्यता देकर एक ऐतिहासिक काम किया है। राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून (2013) बनने का मतलब है सरकार का भुखमरी, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा की स्थिति में जवाबदेह बन जाना। हालांकि हमें यह स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि अब भी खाद्य-सुरक्षा या भुखमरी से मुक्ति भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है। इसलिए दूर की ही सही पर यह आशंका बनी रहेगी कि इस कानून को कभी खत्म भी किया जा सकता है।

इस कानून पर चली बहसों में जो पक्ष उभरे उन्हें तीन वर्गों में रखा जा सकता है -

एक वर्ग जो यह मानता है कि सरकार ने बहुत लम्बे समय के बाद एक अच्छा कानून बना दिया है और इसमें अनाजों के अधिकार के जो प्रावधान किए गए हैं उनसे भुखमरी मिट जायेगी।

दूसरा वर्ग यह मानता है कि कानून बहुत जरूरी कदम था और है, परन्तु इसके किए प्रावधान भुखमरी और खाद्य असुरक्षा के मूल कारणों से लड़ने के मामले में कमजोर है। यानी किसानों, प्राकृतिक संसाधनों, उन आर्थिक नीतियों की आलोचनात्मक समीक्षा न होना, जो असमानता बढ़ा रही हैं, के बारे ईमानदार पहल नहीं करता है।वे यह भी मानते हैं कि इस कानून में जिस खाद्य-सुरक्षा की बात की गई है, उसमें पोषण की सुरक्षा का कोई स्थान नहीं है।

तीसरा वर्ग कहता है कि सरकार राजनीतिक लाभ के लिए 1.25 लाख करोड़ रूपए रियायत (सब्सिडी) के रूप में बर्बाद कर रही है। इस कदम से आर्थिक विकास के लिए जरूरी सुधार (जिसमें जनकल्याणकारी कार्यक्रमों पर सरकारी खर्चा और सब्सिडी कम करने के कदम उठाये जाते हैं) की प्रक्रिया को आघात पहुँचेगा। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि देश में मौजूदा कुपोषण और खाद्य असुरक्षा के कारण हो रहा आर्थिक विकास खोखला है।

1000 से ज्यादा संस्थाओं और जनसमूहों ने वर्ष 2009 से शुरू करके आखिर तक 50 से ज्यादा धरने किये, 100 सांसदों से 3-3 बार संवाद किये। जरा इस पर ध्यान दीजिए, संसद की स्थायी समिति को इस विधेयक पर डेढ़ लाख पत्र मिले, जिनमें यह कहा गया था कि पोषणयुक्त भोजन जीवन जीने के अधिकार का हिस्सा है, इसलिए यह अधिकार देश में रहने वाले हर व्यक्ति को मिलना चाहिए। फिर जिसे यह हक न लेना हो वह बाजार से अपनी पसंद का अनाज ले सकता है। पर सरकार ने तय किया कि वह 33 प्रतिशत जनसंख्या को इस कानून के दायरे से बाहर रखेगी। इससे गरीबों के चयन की विसंगतियां बरकरार रहेंगी। सभी राज्यों में एक समान 67 प्रतिशत जनसंख्या को ही गरीब माना जायेगा। फोर्टीफिकेशन के नाम पर बच्चों के भोजन में रसायन मिलाने के लिए भी प्रावधान किए गए हैं, जिसमें कुपोषण का संकट जटिल होता जाएगा। हम सब लोग कुछ भूल गए हैं।

यह कहना भी असंगत है कि कानून पर होने वाले व्यय से कोई रचनात्मक लाभ नहीं होगा। लोगों को देने के लिए अनाज तो किसानों से ही खरीदा जाएगा। इससे किसानों को साल भर में 80 हजार करोड़ रूपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। हमें इस तरह की कई सच्चाइयों को भी समझना होगा कि अभी जो न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को मिलता है, वह लागत से भी कम है। इससे किसानों को कोई सम्मानजनक आय नहीं होती है। खाद्य-सुरक्षा अब भी एक कानूनी हक है, संवैधानिक हक नहीं। मतलब यह कि इस हक के अस्तित्व पर राजनीतिक बेईमानी की तलवार हमेशा लटकती रहेगी।

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून का आधार

‘‘खाद्य-सुरक्षा कानून मानव जीवन चक्र पर आधारित है। इसका उद्देश्य लोगों को जीवन जीने के लिए उस कीमत पर, जो उनके सामर्थ्य में हो, पर्याप्त मात्रा में गुणवत्तापूर्ण भोजन व पोषण सुरक्षा देना है, ताकि लोग सम्मान एवं गरिमा के साथ जीवनयापन कर सकें।’’

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून 2013 के मुख्य प्रावधान

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून का दायरा

कानून के तहत ‘खुराक’ का मतलब


खुराक से तात्पर्य है- गरम पका भोजन या पहले से तैयार व पका हुआ भोजन, जिसे गरम कर परोसा जा सके, अथवा ऐसी सामग्री जो घर ले जाने वाली खुराक (टेक होम राशन) हो।

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून में दिए गए अधिकार

राशन दुकान से अनाज

आंगनबाड़ी से पूरक पोषाहार

स्कूलों में मध्यान्ह भोजन

मानक

भोजन मानक 01.12.2009 से लागू

क्रम

सामग्री

प्रति बच्चा मात्रा प्रतिदिन

प्राथमिक, उच्च प्राथमिक

1.

अनाज

100 ग्राम

150 ग्राम

2.

दालें

20 ग्राम

30 ग्राम

3.

सब्जियाँ (पत्तेदार भी)

50 ग्राम

75 ग्राम

4.

खाने का तेल और वसा

5 ग्राम

7.5 ग्राम

5.

नमक और मसाले

जरूरत के मुताबिक

जरूरत के मुताबिक

गर्भवती-धात्री महिलाओं को मातृत्व लाभ

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून के तहत बनी हुई व्यवस्थाएं

शिकायत निवारण व्यवस्था

पारदर्शिता और निगरानी का प्रावधान

खाद्य-सुरक्षा कानून को लागू करने की जिम्मेदारी

केन्द्र सरकार


1. हर राज्य सरकार विभिन्न मंत्रालयों व विभागों की खाद्य-सुरक्षा योजनाओं को तय दिशा-निर्देशों के अनुसार लागू करने और उनकी निगरानी करने का काम करेगी।

2. केन्द्र सरकार के गोदामों से अनाज उठाकर राशन दुकान तथा हितग्राही तक पहुंचाएगी।

3. यदि किसी कारण से हितग्राही को अनाज या पूरक पोषाहार नहीं मिल पाता है तो इसके एवज में उसे खाद्य-सुरक्षा भत्ता भी राज्य सरकार ही उपलब्ध करेगी।

4. राशन व्यवस्था को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए आवश्यकतानुसार राज्य, जिला, जनपद स्तर पर भण्डारण व्यवस्था की जाएगी। इसके साथ ही संबंधित संस्थानों की क्षमता का विकास एवं राशन दुकानों का लाइसेंस देने का काम भी राज्य सरकार पर होगा।

स्थानीय निकाय

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के प्रावधान

अनाज की कीमत

हक न मिलने पर क्या?

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून और अन्य कार्यक्रम-योजनाएं

मातृत्व लाभ (मातृत्व हक) का भुगतान की प्रक्रिया

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून के व्यवस्थागत पहलू

विशेष परिस्थितियों में कानून का क्रियान्वयन

कानून में खाद्य-सुरक्षा के व्यापक पहलुओं से संबंधित प्रावधान

उठाव, भंडारण और परिवहन

अन्य प्रावधान

कानून के तहत राज्यों के लिए अनाज का आवंटन

खाद्य-सुरक्षा कानून और नकद भुगतान

लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार के लिए प्रावधान

राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून के महत्वपूर्ण बिंदु

सामाजिक संपरीक्षा या जन निगरानी (सोशल ऑडिट) की व्यवस्था

हमारे लिए यह कानून दो नजरियों से महत्वपूर्ण है -

क.
ख.

इस कानून में सामाजिक संपरीक्षा (सोशल-आडिट) के सन्दर्भ में दो महत्वपूर्ण उल्लेख हैं-

सतर्कता समिति

‘राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून-2013

और सामुदायिक निगरानी मैदानी पहल के लिए पुस्तक


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम और अध्याय

पुस्तक परिचय : राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013

1

आधुनिक इतिहास में खाद्य असुरक्षा, भुखमरी और उसकी पृष्ठभूमि

2

खाद्य सुरक्षा का नजरिया क्या है?

3

अवधारणाएँ

4

खाद्य सुरक्षा और व्यवस्थागत दायित्व

5

न्यायिक संघर्ष से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून-2013 तक

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनने की पृष्ठभूमि

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का आधार

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून-2013 के मुख्य प्रावधान

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में दिए गए अधिकार

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत बनी हुई व्यवस्थाएँ

6

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून और सामाजिक अंकेक्षण

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