भारत के लिए 26 अगस्त 2013 का दिन कुछ मायनों में महत्वपूर्ण लगता है। लोकसभा में राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा विधेयक इसी दिन पारित हुआ। कुछ दिन बाद यह राज्यसभा से भी पारित हो गया।
कानून बनने के बाद यह देश की 67 प्रतिशत जनसंख्या को अनाज की सीमित सुरक्षा प्रदान करेगा। इस कानून को प्रभावी बनाने के लिए 318 संशोधन प्रस्तुत किए गए थे। एक दिन में साढ़े नौ घंटे की बहस को देखें तो पता चलता है कि खाद्य-सुरक्षा के अन्तर्निहित पहलुओं को आर्थिक मजबूरियों का नाम देकर खारिज किया गया है।
यह दिन इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि आखिरकार यह साबित हो गया कि 22 साल तक अर्थव्यवस्था के कारपोरेटीकरण और संसाधनों की लूट की नीतियों ने बुनियादी रूप से देश का भला नहीं किया है और आज भी हमें भुखमरी से निपटने के लिए एक करूणामयी कानून बनाने की जरूरत महसूस हुई। नए कानून में एक हद तक राज्य सरकारें केन्द्र के अधीन होंगी, क्योंकि उन्हें केवल क्रियान्वयन का काम करना है। नीति और व्यवस्थागत निर्णय का अधिकार केन्द्र के पास रहेगा। 359 में से 250 सांसद राज्य सरकारों के अधिकार सीमित रखने के पक्ष में थे। राज्यसभा में तो विपक्ष ज्यादा ताकतवर था, परन्तु वहां भी उसने रणनीतिक विरोध ही दर्ज करवाया। यदि वह चाहता तो कानून का स्वरूप कुछ बेहतर हो सकता था। इसमें अभी बहुत सुधार की जरूरत है, इसके बावजूद इसे महज खारिज नहीं किया जा सकता है। यह जनसंघर्ष यानी भारत के लोगों की मांग पर बना कानून है, इसलिए इसे महज एक सतही राजनीतिक लाभ के लिए की गयी पहल मानना सही नहीं है।
भारत की संसद ने खाद्य-सुरक्षा को एक अधिकार के रूप में मान्यता देकर एक ऐतिहासिक काम किया है। राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून (2013) बनने का मतलब है सरकार का भुखमरी, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा की स्थिति में जवाबदेह बन जाना। हालांकि हमें यह स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि अब भी खाद्य-सुरक्षा या भुखमरी से मुक्ति भारतीय संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है। इसलिए दूर की ही सही पर यह आशंका बनी रहेगी कि इस कानून को कभी खत्म भी किया जा सकता है।
इस कानून पर चली बहसों में जो पक्ष उभरे उन्हें तीन वर्गों में रखा जा सकता है -
एक वर्ग जो यह मानता है कि सरकार ने बहुत लम्बे समय के बाद एक अच्छा कानून बना दिया है और इसमें अनाजों के अधिकार के जो प्रावधान किए गए हैं उनसे भुखमरी मिट जायेगी।
दूसरा वर्ग यह मानता है कि कानून बहुत जरूरी कदम था और है, परन्तु इसके किए प्रावधान भुखमरी और खाद्य असुरक्षा के मूल कारणों से लड़ने के मामले में कमजोर है। यानी किसानों, प्राकृतिक संसाधनों, उन आर्थिक नीतियों की आलोचनात्मक समीक्षा न होना, जो असमानता बढ़ा रही हैं, के बारे ईमानदार पहल नहीं करता है।वे यह भी मानते हैं कि इस कानून में जिस खाद्य-सुरक्षा की बात की गई है, उसमें पोषण की सुरक्षा का कोई स्थान नहीं है।
तीसरा वर्ग कहता है कि सरकार राजनीतिक लाभ के लिए 1.25 लाख करोड़ रूपए रियायत (सब्सिडी) के रूप में बर्बाद कर रही है। इस कदम से आर्थिक विकास के लिए जरूरी सुधार (जिसमें जनकल्याणकारी कार्यक्रमों पर सरकारी खर्चा और सब्सिडी कम करने के कदम उठाये जाते हैं) की प्रक्रिया को आघात पहुँचेगा। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि देश में मौजूदा कुपोषण और खाद्य असुरक्षा के कारण हो रहा आर्थिक विकास खोखला है।
1000 से ज्यादा संस्थाओं और जनसमूहों ने वर्ष 2009 से शुरू करके आखिर तक 50 से ज्यादा धरने किये, 100 सांसदों से 3-3 बार संवाद किये। जरा इस पर ध्यान दीजिए, संसद की स्थायी समिति को इस विधेयक पर डेढ़ लाख पत्र मिले, जिनमें यह कहा गया था कि पोषणयुक्त भोजन जीवन जीने के अधिकार का हिस्सा है, इसलिए यह अधिकार देश में रहने वाले हर व्यक्ति को मिलना चाहिए। फिर जिसे यह हक न लेना हो वह बाजार से अपनी पसंद का अनाज ले सकता है। पर सरकार ने तय किया कि वह 33 प्रतिशत जनसंख्या को इस कानून के दायरे से बाहर रखेगी। इससे गरीबों के चयन की विसंगतियां बरकरार रहेंगी। सभी राज्यों में एक समान 67 प्रतिशत जनसंख्या को ही गरीब माना जायेगा। फोर्टीफिकेशन के नाम पर बच्चों के भोजन में रसायन मिलाने के लिए भी प्रावधान किए गए हैं, जिसमें कुपोषण का संकट जटिल होता जाएगा। हम सब लोग कुछ भूल गए हैं।
यह कहना भी असंगत है कि कानून पर होने वाले व्यय से कोई रचनात्मक लाभ नहीं होगा। लोगों को देने के लिए अनाज तो किसानों से ही खरीदा जाएगा। इससे किसानों को साल भर में 80 हजार करोड़ रूपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। हमें इस तरह की कई सच्चाइयों को भी समझना होगा कि अभी जो न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को मिलता है, वह लागत से भी कम है। इससे किसानों को कोई सम्मानजनक आय नहीं होती है। खाद्य-सुरक्षा अब भी एक कानूनी हक है, संवैधानिक हक नहीं। मतलब यह कि इस हक के अस्तित्व पर राजनीतिक बेईमानी की तलवार हमेशा लटकती रहेगी।
कानून के तहत ‘खुराक’ का मतलब खुराक से तात्पर्य है- गरम पका भोजन या पहले से तैयार व पका हुआ भोजन, जिसे गरम कर परोसा जा सके, अथवा ऐसी सामग्री जो घर ले जाने वाली खुराक (टेक होम राशन) हो। |
भोजन मानक 01.12.2009 से लागू | |||
क्रम | सामग्री | प्रति बच्चा मात्रा प्रतिदिन | प्राथमिक, उच्च प्राथमिक |
1. | अनाज | 100 ग्राम | 150 ग्राम |
2. | दालें | 20 ग्राम | 30 ग्राम |
3. | सब्जियाँ (पत्तेदार भी) | 50 ग्राम | 75 ग्राम |
4. | खाने का तेल और वसा | 5 ग्राम | 7.5 ग्राम |
5. | नमक और मसाले | जरूरत के मुताबिक | जरूरत के मुताबिक |
‘राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून-2013 और सामुदायिक निगरानी मैदानी पहल के लिए पुस्तक (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम और अध्याय | |
पुस्तक परिचय : राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013 | |
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