“खुदी को कर बुलन्द इतना कि खुदा बन्दे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है?”
हो सकता है, इसीलिये उसने अपनी समस्याओं का निराकरण करते समय विभागों, संस्थाओं, औद्योगिक घरानों, जन प्रतिनिधियों, तकनीकी क्षमता, धन, अनुभव और समय से जुड़े सवाल नहीं उठाए और अपने मजबूत इरादों पर विश्वास जताया। इन सारे उदाहरणों से केवल एक ही बात उभरती है कि जल संकट से उबरने के लिये अभी भी संभावनाओं के आसमान में उम्मीद का सूरज मौजूद है। समाज का साथ मिल जाये तो वह अभी भी रोशनी बिखेर सकता है। लोगों के मिलने नहीं अपितु जुड़ने से समाज बनता है। तभी एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। इस कारण पहले बात आम जन के योगदान की।
नाप्सु मूत्रं पुरीषं वा ष्ठोवनं समुत्सृजेत्।
अमेध्यलिप्तमन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा।।
अर्थात पानी में मल, मूत्र, थूक अन्य दूषित पदार्थ रक्त या विष का विसर्जन न करें।
उपर्युक्त वर्जना पुराने जमाने की है। पुराने जमाने अर्थात औद्योगीकरण के पहले, जलस्रोतों में एकत्रित होने वाली गंदगी मुख्यतः आर्गेनिक होती थी। आर्गेनिक गंदगी के सड़ने की गति बहुत तेज होती है इसलिये वह बहुत जल्दी समाप्त हो जाती थी। बची-खुची गंदगी को जलचर खा जाते थे। औद्योगीकरण और जीवनशैली बदलने के कारण अब गंदगी की किस्म बदल गई है।
आधुनिक युग की गंदगी विविध आयामी है। उसके हजारों स्रोत हैं। पानी की गुणवत्ता मुख्यतः घरेलू कचरे, मानव मल, औद्योगिक अपशिष्ट और खेती में काम आने वाले कृषि रसायनों के कारण खराब होती है। खनन गतिविधियों के कारण भी पानी की गुणवत्ता बिगड़ती है। व्यक्तिगत स्तर पर हमारा फर्ज है हम जलस्रोतों में घरेलू गंदगी नहीं डालें। घरेलू गंदगी डालने वाले व्यक्तियों से बातचीत करें। उनको समझाएँ उनका सहयोग हासिल करें। उनकी मदद से समस्या को हल करायें। यह बहुत छोटा प्रयास है। लोग कहते हैं कि बूँद-बूँद से घड़ा भरता है इसलिये उनको वर्गीकृत करने के स्थान पर योगदान मानें। उन योगदानों को जीवनशैली का हिस्सा बनाएँ।
कई बार लोग पेयजल स्रोतों (हैंडपम्प, कुआँ इत्यादि) के आस-पास गंदा पानी जमा होता है। यह पानी जमीन में रिसकर भूजल की गुणवत्ता खराब करता है। हमारा फर्ज है कि हम गंदा पानी के जमा होने को रोकने के लिये जलस्रोत के मालिक और गंदा करने वालों से चर्चा करें। उन्हीं से गंदे पानी के निपटान के लिये व्यवस्था तय करायें। उनकी मदद से, प्रदूषण की समस्या हल कराये।
सब जानते हैं कि बरसाती पानी की मदद से ही नदियों ने भारत के भूगोल को गढ़ा है। जलवायु तथा स्थानीय भूविज्ञान ने उसे संवारा है। वह नदियों की करोड़ों सालों की मेहनत का परिणाम है। नदियों को जोड़ने का काम कुदरत और उसकी ताकतें करती है। वही ताकतें उनके मिलने तथा बिछड़ने के नियम तय करती हैं। उसे बदलने का अर्थ है कुदरत के साथ छेड़-छाड़ करना तथा भारत के भूगोल को बदलना।कुछ लोग सलाह देते हैं कि नगरीय इलाकों के छोटे-मोटे नदी-नालों के गंदे पानी को बिना उपचार या सामान्य उपचार के बाद सिंचाई करने के काम में लाया जा सकता है। यह बात आपसी चर्चा में भी उठ सकती है। हमें चाहिए कि सबसे पहले उस पानी का सूक्ष्म रासायनिक परीक्षण कराने पर जोर दें। सूक्ष्म रासायनिक परीक्षण के परिणामों को सार्वजनिक करायें। उसके हानि-लाभ तथा उपयुक्तता-अनुपयुक्तता की जानकारी प्राप्त करना चाहिए। जानकारी के आधार पर उपचारित पानी का उपयोग तय करायें। तय उपयोग के अनुसार पानी का उपयोग सुनिश्चित हो। उल्लेखनीय है कि नगरीय इलाकों के नदी-नालों के गंदे पानी में अनेक बार अत्यंत हानिकारक भारी धातुओं के अंश पाये जाते हैं। वे जलचरों तथा मनुष्यों की सेहत के लिये बेहद हानिकारक होते हैं।
हमारी जानकारी में है कि जल प्रदूषण का एक बहुत बड़ा कारण बड़ी आवासीय बस्तियों से निकला मल-जल है। उसमें आर्गेनिक गंदगी के अलावा अनेक हानिकारक रसायन भी मौजूद होते हैं। मनुष्यों तथा जलचरों की सेहत पर उनका प्रभाव खतरनाक है। उसे साफ करना किसी एक व्यक्ति के बूते का काम नहीं है। उसे सौ प्रतिशत साफ करने के लिये नगरीय निकायों से लगातार बात करनी होगी। यही बात बड़े कल-कारखानों तथा उद्योगों से निकले पानी पर भी लागू है। एक बात और, कई बार कल-कारखानों तथा उद्योगों का प्रदूषित जल नदी, तालाब या जलस्रोत तक नहीं पहुँच पाता। मार्ग में ही रुक जाता है। वह जमीन में रिस कर भूजल को प्रदूषित करता है। यह प्रदूषित भूजल, नीचे-नीचे प्रवाहित हो कालान्तर में बड़ी नदी में मिल जाता है। नदी को प्रदूषित करता है। कुओं तथा नलकूपों के पानी को हानिकारक बनाता है। हमारा फर्ज है कि हम जलस्रोतों में गंदगी डालने वाले कल-कारखानों/ उद्योगों के मालिकों से बात-चीत करें। उनका सहयोग हासिल करें। उनकी मदद से, उनके द्वारा ही प्रदूषण की समस्या हल करायें। सफलता मिलेगी। सही बात का प्रतिकार या अनदेखी संभव नहीं होती।
सिंचित इलाकों में रासायनिक खाद, कीटनाशकों तथा खरपतवार नाशकों का खूब उपयोग होता है। उनके उपयोग के कारण इन इलाकों के पानी, मिट्टी और अनाजों में हानिकारक रसायनों की उपस्थिति दर्ज होने लगी है। ग्रामीण स्तर पर होने वाली चर्चाओं में यह मुद्दा उठाया जाना चाहिए। उसके खतरों पर चर्चा होना चाहिए। कैंसर फैलने के प्रमुख कारणों में हानिकारक रसायनों की मदद से पैदा किए अनाज की बहुत बड़ी भूमिका है। कैंसर के अलावा ये रसायन और भी अनेक बीमारियों के लिये जिम्मेदार है। पंजाब का किसान इसे भोगने लगा है। रासायनिक खेती का संदेश बिल्कुल साफ है - किसानों को पारम्परिक खेती की ओर लौटना होगा। देश के अनेक इलाकों में आधुनिक खेती से होने वाले नुकसान नजर आने लगे हैं। समाज की सेहत की कीमत पर उसे बढ़ावा नहीं दिया जा सकता।
प्राकृतिक स्रोतों में मिलने वाले पानी में बहुत कम मात्रा में बहुत से रसायन मिले रहते हैं। यह मात्रा पानी को स्वाद देती है। सामान्यतः वह हानिकारक भी नहीं होती। पानी में अक्सर सोडियम, पोटैशियम, कैल्सियम, मैग्निशियम, क्लोराइड, कार्बोनेट, बाईकार्बोनेट और सल्फेट पाये जाते हैं। इनके अलावा पानी में, बहुत कम मात्रा में लोहा, मैन्गनीज, फ्लोराइड, नाईट्रेट, स्ट्रान्शियम, और बोरान भी मिलता है। इनके अलावा कुछ तत्व अत्यन्त ही कम मात्रा में पाये जाते हैं उनके नाम हैं आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम और क्रोमियम। इनके अलावा पानी में सामान्य तौर पर ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड एवं नाइट्रोजन तथा कहीं-कहीं मीथेन और हाइड्रोजन गैस भी मिलती है। खदानों के आस-पास के पानी में कतिपय खनिजों के घुलनशील अंश मिलते हैं।
जब किसी स्रोत के पानी में रसायनों की मात्रा, निरापद सीमा को लाँघ जाती है, तो वह पानी, प्रदूषित पानी कहलाता है।
उस पानी के इस्तेमाल से अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। इस मामले में फ्लोराइड और आर्सेनिक सबसे अधिक खतरनाक हैं। फ्लोराइड हड्डियों, दाँतों, मांसपेशियों और शरीर के अनेक भागों को प्रभावित करता है। उससे होने वाली बीमारियों का कोई इलाज नहीं है। इन बातों से समाज को अवगत कराना आवश्यक है। जानकारी के बाद ही सुरक्षात्मक कदम उठाए जाते हैं।
मध्यप्रदेश के रतलाम शहर में अल्कोहल का प्लांट लगा है। बरसों से इसके असर से आस-पास के इलाकों के लोग पानी और हवा के प्रदूषण तथा दुर्गंध से त्रस्त हैं। रतलाम के प्लांट से निकले जहरीले पानी के कारण इलाके की खेती और जलस्रोत बर्बाद हो गये हैं। इन्दौर की खान नदी, भोपाल के पातरा नाले और जबलपुर के ओमती नाले में इतनी गंदगी और खतरनाक रसायन हैं कि उस पानी का उपयोग खतरे से खाली नहीं है। खान नदी में इन्दौर का पूरा अपशिष्ट और कूड़ा कचरा मिलता है जिसके कारण लगभग पूरी नदी रोगाणुओं से पटी पड़ी हैं। देश सहित, मध्यप्रदेश में इस प्रकार के हजारों उदाहरण और हैं। इन नालों के पानी से अनेक लोग सब्जियाँ और खाद्यान्न उगाते हैं। उनमें हानिकारक रसायन पाये जाते हैं। समाज को इस विषय पर अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। जिम्मेदारी के अन्तर्गत पहला काम समझाइश, दूसरा काम उपचार के लिये सम्बन्धितों से सतत अनुरोध और तीसरा काम प्रदूषित सब्जियों और खाद्यान्नों का बहिष्कार है। इन कदमों से नालों के प्रदूषित पानी के उपचार का मार्ग प्रशस्त होगा। उसके उपयोग की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। बीमारियों का खतरा कम होगा।
बैठकों में भूमिगत जल के प्रदूषण और उस पर आधारित स्रोतों (नदी, तालाब, कुएँ तथा नलकूप) में पानी की घटती मात्रा एवं उनके असमय सूखने की चर्चा होनी चाहिए। भूजल का प्रदूषण अदृश्य होता है। प्रदूषण के दिखाई नहीं देने के कारण दूषित पानी उपयोग में आता रहता है। नुकसान पहुँचाता रहता है। इसी कारण वैज्ञानिकों ने भूजल के प्रदूषण को सबसे अधिक जटिल तथा घातक माना है। औद्योगिक क्षेत्रों और नगरीय क्षेत्रों के कचरे के आधे-अधूरे उपचार के कारण प्रदूषण का जन्म होता है। सीवर, सेप्टिक टैंकों और घरेलू नालियों से निकले गंदे पानी में अनेक धातुयें, अधात्विक पदार्थ, आर्गेनिक पदार्थ, दुर्गंध पैदा करने वाले यौगिक और रोग पैदा करने वाले जीवाणु पाये जाते हैं। नगरीय इलाकों का प्रदूषित भूजल बीमारियाँ फैलाने में अहम भूमिका निभाता है। उल्लेखनीय है कि प्रदूषण की मात्रा को कम करने में नदी-नालों का प्रवाह किसी हद तक सहायक होता है। इस बिन्दु पर सभी सम्बन्धितों का ध्यान केन्द्रित करने तथा नदियों का प्रवाह बढ़ाने की मुहिम चलाने की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि स्थानीय समाज को अपने आस-पास की समस्याओं को सबसे बेहतर समझ होती है। इस कारण, उसे ठीक कराने में स्थानीय समाज की भागीदारी तथा उनका आगे आना आवश्यक है। गौरतलब है कि प्रजातांत्रिक परिवेश में, बहुत समय तक, समाज के सुझावों की अनदेखी संभव नहीं होती इसलिये लोगों को एकजुट होना होगा। कृतसंकल्प समाज सुनामी की तरह होता है।
‘‘अच्छे लोग जब राज के नजदीक पहुँचते हैं तो उनको विकास का रोग लग जाता है, भूमंडलीकरण का रोग लग जाता है, उनको लगता है कि सारी नदियों को जोड़ दें, सारे पहाड़ों को समतल कर दें - बुलडोजर चला कर उनमें खेती कर लेंगे। मात्र यही ख्याल प्रकृति के विरुद्ध है। मैं बार-बार कह रहा हूँ कि यह प्रभु का काम है, सुरेश प्रभु सहित देश के प्रभु बनने के चक्कर में इसे नेता लोग न करें तो अच्छा है’’।
अनुपम मिश्र आगे कहते हैं
‘‘ जिनका दिल देश के लिये धड़कता है उन्हें नदीजोड़ परियोजना पर प्रेम पूर्वक बात करनी चाहिए। जरूर कहीं कोई-न-कोई सुनेगा। यह दौर बहुत विचित्र है और इस दौर में सब विचारधाराएँ और हर तरह का राजनीतिक नेतृत्व सर्वसम्मति रखता है सिर्फ विनाश के लिये, उन सब में रजामंदी है, विनाश के लिये। और किसी चीज में एक दो वोट से सरकार गिर सकती है, पलट सकती है, बन सकती है, बिगड़ सकती है। लेकिन इस विकास और विनाश वाले मामलें में सबकी गजब की सर्वसम्मति है’’।
नदी विज्ञान तथा पर्यावरण से जुड़े लोगों का मानना है कि बहती नदी का पानी मौसम, हवा, रोशनी, धरती, जीव-जन्तुओं और अनेक घटकों के सम्पर्क में आने और प्रकृति द्वारा उसे सौंपे दायित्वों को पूरा करने के कारण, पाइप या सुरंग से बहने वाले पानी से बहुत अलग है। नदी प्रबन्ध का अर्थ केवल जल प्रबन्ध नहीं होता। वह हकीकत में ईको-सिस्टम का कुशल प्रबन्ध होता है। वही जल प्रबन्ध निरापद होता है। वही समाज की सेवा करता है।
नदी-जोड़ परियोजना की अवधारणा का मूल आधार नदी घाटियों में बहता पानी है। यह अमीरी और गरीबी, बाढ़ के पानी की मात्रा पर आधारित है। इस सवाल का उत्तर पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता के आधार पर दिया जाना चाहिए। उसका उत्तर नदी घाटी में पानी की मूलभूत आवश्यकता के आधार पर दिया जाना चाहिए। उसका उत्तर पानी की निरापदता के आधार पर दिया जाना चाहिए। उसका उत्तर नदी घाटी की कुदरती जिम्मेदारियों के आधार पर दिया जाना चाहिए। इसका उत्तर इको-सिस्टम की निरन्तरता को ध्यान में रखकर दिया जाना चाहिए। उसका उत्तर सामान्य अंकगणितीय जलविज्ञान अर्थात बाढ़ की मात्रा के आधार पर नहीं दिया जा सकता। वह सामाजिक सरोकारों की अनदेखी होगा।
नदियों के किनारे मेले तथा महोत्सव मनाने की पुरानी भारतीय परम्परा है। इस परम्परा के अनुसार, समाज नदी के किनारे एकत्रित होता है। मेला लगता है, सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता है तथा समाज का अवचेतन मन, नदी के प्रति अपनी भक्ति, श्रद्धा तथा आस्था प्रकट कर घर लौट आता है।कुछ लोगों को लगता है कि नदी घाटियों की पानी की गरीबी, हकीकत में लालच, पानी के कुप्रबन्ध और गैर टिकाऊ मांग का परिणाम है। इस आधार पर नदियों के भूगोल को बदलने की आवश्यकता ही नहीं है। यदि भूगोल बदला भी गया तो भी लालच और कुप्रबन्ध के कारण पानी की मांग कभी भी खत्म नहीं होगी। आवश्यकता है घाटी के अन्दर ही टिकाऊ, विवेकी, लालचरहित, आर्थिक दृष्टि से उचित एवं सावधानी पूर्वक किये जलप्रबन्ध को सबसे पहले आजमाने की। इस प्रयास के बाद हो सकता है कि इधर नदी घाटी के पानी के ट्रांसफर का प्रश्न बेमानी हो जाए। समाज को मिल-बैठकर इन बिन्दुओं पर गंभीर चिन्तन करना चाहिए।
पिछले 20-25 सालों से भारत में विकास कार्यों में जन भागीदारी और समाज को अधिकार देने की बात चल रही है। अनेक इलाकों में इसे आजमाया भी गया है। अनेक जगह सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं।
सकारात्मक परिणामों के कारण, समाज को व्यवस्थाओं के केन्द्र में रखने के फायदों पर सहमति बन रही है। यह सहमति भारत तक सीमित नहीं है। दुनिया के अनेक देशों में इस प्रयोग को आजमाया जा रहा है। सारी दुनिया में जन भागीदारी के दायरे को बढ़ाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है इसलिये कैचमेंट और कमांड के लोगों की भागीदारी आवश्यक है। उन्हें अपने भाग्य का फैसला करने तथा अपने बुनियादी सरोकारों को सुलझाने के लिये संवाद का मार्ग अख्तियार करना होगा। संक्षेप में नदी के भूगोल से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा करते समय उपर्युक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए। यह बहुत जरूरी है।
समाज, प्रकृति और विज्ञान (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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लेखक परिचय | |
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