आदिवासियों को आज भी मनुष्य से एक दर्जा नीचे का जीव माना जाता है। वे तो शुरू से विकास की खाद बनते रहे हैं। अंग्रेजों ने यही किया। देशी हुक्मरानों ने यही किया और अलग राज्य बनने के बाद आदिवासी मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में चल रही सरकारें भी यही कर रही हैं। इसे ही समाजशास्त्री के नेतृत्व में चल रही सरकारें भी यही कर रही हैं। इसे ही समाजशास्त्री आंतरिक उपनिवेशवादी शोषण कहते हैं और इससे लगता है कि आदवासी जनता को अभी मुक्ति नहीं। पूर्वी सिंहभूम के हरे-भरे चांडिल क्षेत्र में स्पंज आयरन कारखानों की चिमनियों से निकलता खतरनाक धुआं वहां के जन-जीवन पर घने कोहरे की तरह छाता जा रहा है। स्पंज आयरन कारखानों की चिमनियों से निकलने वाली गैसों में सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड प्रमुख हैं।
इसके अलावा उन गैसों में केडियम, क्रोमियम, आर्सेनिक, मैगनीज, सीसा, पारा जैसे खतरनाक तत्वों के बारीक कण भी मौजूद होते हैं, जो हवा के साथ मिल कर जहरीली गैसों में बदल जाते और बहुत आसानी से सांस के साथ मानव शरीर में पहुंच जाते हैं। वे युद्ध में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक जहरीली गैसों से कम खतरनाक नहीं होते, फर्क सिर्फ इतना है कि उससे मौत तत्काल नहीं होती, लोग तिल-तिल कर मरते हैं। लेकिन इसकी चिंता न कारखाना मालिकों को है और न सरकार को।
झारखंड राज्य के गठन के पूर्व इस क्षेत्र में सिर्फ एक स्पंज आयरन कारखाना था- बिहार स्पंज आयरन कारखाना। झारखंड बनने के बाद एक दर्जन से अधिक स्पंज आयरन कारखाने लगे हैं। अब तो इस्पात उद्योग के बड़े खिलाड़ी भी स्पंज आयरन कारखाना लगाने के लिए जोर आजमाइश कर रहे हैं। यह समस्या सिर्फ झारखंड की नहीं, सभी आदिवासी बहुल जनजातीय क्षेत्रों की है, जिनमें झारखंड, ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ आते हैं।
सरकारी आकंड़ों के अनुसार अभी देश में 22.1 अरब टन लौह अयस्क भंडार है। इसमें से 11.42 अरब टन हेमेटाईट और 10.68 अरब टन मैग्नेटाईट का है। इस लौह भंडार का सिर्फ पैंतालीस फीसद मूल्यवान और उपयोगी है। फिलहाल लौह अयस्कों का निर्यात कर चार अरब डॉलर विदेशी मुद्रा देश को प्राप्त हो रही है। लेकिन इतने से देशी हुक्मरानों को संतोष नहीं। कुछ वर्ष पूर्व कोरिया और जापान से एक समझौता किया गया, जिसके तहत उन देशों को अगले पांच वर्षों में आठ करोड़ पैंतीस लाख टन लौह अयस्क का निर्यात किया जाएगा। देश के भीतर भी स्टील उत्पादन के क्षेत्र में लगातार वृद्धि हो रही है। हाल तक जहां चार करोड़ टन स्टील का उत्पादन हो रहा था, वहीं निकट भविष्य में पांच गुना अधिक उत्पादन होने की उम्मीद है। इसलिए यह मांग जोर पकड़ रही है कि लौह अयस्कों के निर्यात पर रोक लगे।
इस मामले में हुए विरोध के बाद थोड़ा अंकुश यह लगाया गया कि देश के भीतर कारखाना लगाने वाली कंपनियों को ही लौह अयस्क और कोयला खदानों के पट्टे आवंटित किए जाएं। ऐसे में विदेशी कंपनियों ने स्पंज आयरन कारखानों की आड़ में लौह अयस्क और कोयला खदानों के पट्टे हासिल करने की रणनीति बनाई है। इस तरह वे खनिज संपदा की लूट में तो कामयाब होंगी, लेकिन स्पंज आयरन, जिससे बाद में परिष्कृत स्टील बनता है, से होने वाले भीषण प्रदूषण की मार निरीह आदिवासी जनता को झेलनी पड़ेगी। आश्चर्य नहीं कि भारत स्पंज बनाने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है। फिलहाल यहां 70 लाख टन स्पंज आयरन का उत्पादन प्रति वर्ष हो रहा है और जितने समझौते हाल के वर्षों में हुए हैं, वे अगर जमीन पर उतर जाएं तो चंद वर्षों में यह पांच करोड़ टन पहुंच जाने वाला है।
झारखंड में लौह अयस्क का एक बड़ा क्षेत्र चिड़िया माइंस है। तमाम बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर इस खदान के लौह अयस्क पर है और यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि झारखंड में पिछली अर्जुन मुंडा सरकार ने जितने भी समझौते किए, उनमें से अधिकतर स्पंज आयरन को लेकर हैं। तमाम समझौते करने वाली कंपनियां चिड़िया माइंस से लौह अयस्क खदान का पट्टा आबंटन कराना चाहती हैं। जबकि अभी तक स्पंज आयरन का उत्पादन लघु उद्योग के दायरे में हो रहा था करीब साठ फीसद स्पंज आयरन का उत्पादन आज भी छोटे पैमाने के उद्योगों में हो रहा है।
निजी क्षेत्र और विदेशी निवेश के लिए दरवाजे पूरी तरह खोल दिए गए हैं। उद्योगीकरण को इन नवगठित राज्यों के आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने का एकमात्र रास्ता माना जा रहा है। उसी के अनुसार खनन आधारित उद्योगों के लिए अतिरिक्त सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही है। सरकार जमीन अधिग्रहीत कर उन्हें उपलब्ध करा रही है। अपने क्षेत्र की नदियों और भूमिगत जलस्रोतों के दोहन का उन्हें अवसर प्रदान कर रही है। कच्चे माल पर सीमा शुल्क कम किया गया है। सस्ता मानव श्रम उपलब्ध कराने के लिए तमाम श्रम कानूनों को तिलांजली दे दी गई है। इन स्पंज आयरन कारखानों से ग्रामीणों का जीवन दूभर होता जा रहा है। विकसीत देशों में एक तो स्पंज कारखाने लगते नहीं, दूसरे जो लगे भी हैं वे गैस आधारित हैं। लेकिन अपने यहां तो सस्ता है कोयला और उससे सस्ता है आदिवासियों का जीवन।
सौ टन क्षमता के एक स्पंज आयरन प्लांट के लिए प्रतिदिन एक सौ साठ टन लौह अयस्क, एस सौ पचीस टन कोयला, साढ़े तीन टन डोलोमाइट और डेढ़ सौ टन पानी की आवश्यकता होती है। यानी, साढ़े तीन सौ टन कच्चे माल से सौ टन स्पंज आयरन और ढाई सौ टन कचरा निकलता है। चांडिल क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक स्पंज कारखाने हैं और अनुमानतः न्यूनतम प्रतिदिन तीन हजार टन कचरा निकल रहा है। इसका एक बड़ा हिस्सा तो स्पंज आयरन कारखानों की चिमनियों से मिश्रित गैसों और काले धुएं के रप में निकलता है और उस क्षेत्र के जल, जंगल, जमीन पर धूल कण की मोटी परत के रूप में जमता जा रहा और गाद के रूप में निकला कचरा बह कर सुवर्णरेखा नदी या समीपवर्ती अन्य नदी-नालों में पहुंच रहा है। या फिर उसे समीपवर्ती गाँवों के आसपास खपाया जा रहा है।
कुछ स्पंज कारखाने सुवर्णरेखा नदी से सटे बनाए गए हैं और बेरहमी से सारा कचरा नदी में बहाया जा रहा है। कई कारखाना मालिक जला कोयला और छाई गांव के भीतर बिछा और गिरा दे रहे हैं। अज्ञानतावश या विवशता की वजह से गांव वाले इसका विरोध भी नहीं करते। यह क्रूरता की पराकाष्ठा है।
यह भी गौरतलब है कि अधिकतर स्पंज कारखाने आदिवासी क्षेत्रों में लगाए गए हैं, जहां पेसा अधिनियम 1996 लागू है। इस कानून के तहत जनजातीय क्षेत्रों में कारखाने के लिए जमीन अधिग्रहण के पूर्व ग्रम सभा की अनुमति जरूरी है। सामान्यतया किसी आदिवासी की जमीन गैर-आदिवासी को स्थानांतरित नहीं की जा सकती। लेकिन छत्तीसगढ़, ओड़ीशा और झारखंड में अधिकतर स्पंज आयरन कारखानों के लिए जमीन का अधिग्रहण बगैर ग्रामसभा की अनुमति के हुआ है।
इसी तरह 1980 के वन संरक्षण कानून के अनुसार केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बगैर किसी भी जंगल की जमीन को गैर-वानिकी कार्यों के लिए हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। वन संरक्षक अधिनियम के अनुसार ऐसी अनुमति मिलने के पहले ग्राम पंचायत का सहमति-पत्र अनिवार्य है। कारखाना लग जाने के बाद पर्यावरण प्रदूषण की जांच और रिकार्ड रखने की जिम्मेदारी राज्य के प्रदूषण नियंत्रण रोकने वाले यंत्रों की समय-समय पर जांच करनी है। लेकिन यह सब नहीं हो रहा है।
कुछ नियमों का तो खुल्लम खुल्ला उल्लंघन हो रहा है। मसलन, वन और वन भूमि संवेदनशील क्षेत्र माने जाते हैं, उनसे कम से कम ढाई किमी की दूरी पर स्पंज आयरन कारखाने लगने चाहिए। लेकिन चांडिल क्षेत्र में अधिकतर स्पंज कारखाने वनों के भीतर या करीब अवस्थित हैं। इसी तरह रिहायिशी इलाके और बस्तियां कम से कम एक किमी दूर होनी चाहिए। पांच किमी के दायरे में एक से अधिक स्पंज कारखाने नहीं होने चाहिए, लेकिन नीमडीह, गमहरिया और चांडिल क्षेत्र में पांच किमी. के दायरे में कई स्पंज कारखाने हैं। कारखानों तक लौह अयस्क, कोयला और अन्य कच्चा माल पहुंचाने वाले खुले ट्रकों से पूरे रास्ते धुल कण उड़ते रहते हैं। इन सबके सम्मिलित प्रकोप से चांडिल क्षेत्र के प्रभावित इलाकों में मनुष्य और पशुओं को अकाल मृत्यु की तरफ बढ़ते देखा जा सकता है। लोग दमा सहित कई तरह के पेट और हृदय के रोग हो रहे हैं प्रदूषित तालाबों नदियों में नहाने-धोने से आदमी और जानवर चर्म रोगों के शिकार हो रहे हैं।
भले झारखंड का मुख्यमंत्री आदिवासी बनता रहो हो, लेकिन आदिवासियों को आज भी मनुष्य से एक दर्जा नीचे का जीव माना जाता है। वे तो शुरू से विकास की खाद बनते रहे हैं। अंग्रेजों ने यही किया। देशी हुक्मरानों ने यही किया और अलग राज्य बनने के बाद आदिवासी मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में चल रही सरकारें भी यही कर रही हैं। इसे ही समाजशास्त्री के नेतृत्व में चल रही सरकारें भी यही कर रही हैं। इसे ही समाजशास्त्री आंतरिक उपनिवेशवादी शोषण कहते हैं और इससे लगता है कि आदवासी जनता को अभी मुक्ति नहीं।
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