किसी भी तत्व के भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं में कोई ऐसा परिवर्तन जो मानव या अन्य प्राणी को हानिकारक हो प्रदूषण कहलाता है।
जल प्रदूषण की संकल्पना बहुत हद तक उसकी उपयोगिता से जुड़ी हुई है। पीने के लिये अनुपयुक्त जल, नहाने के लिये उपयुक्त हो सकता है। नहाने के लिये अनुपयुक्त जल सिंचाई के लिये और सिंचाई के लिये अनुपयुक्त जल मशीन ठंडा रखने के लिये उपयुक्त हो सकता है। अतः जल प्रदूषण की संकल्पना उपयोगिता सापेक्ष है।
स्वच्छता स्तर के अनुसार जल चार प्रकारों में बाँटा जा सकता है-
1. स्वच्छ 2. सुरक्षित 3. संदूषित (Contiminated) 4. प्रदूषित (Polluted)
अपद्रव्यों की उपस्थिति के अनुसार भी जल प्रदूषण को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है-
1. भौतिक प्रदूषण, 2. रासायनिक प्रदूषण, 3. जैविक प्रदूषण, 4. कायिक प्रदूषण (Physiological pollution)
1. भौतिक प्रदूषण-
रंग, गंध, स्वाद, कठोरता या भारीपन आदि बदल जाने पर जल की गुणवत्ता बदल जाती है। तापमान का भी इसमें महत्त्व होता है।
2. रासायनिक प्रदूषण-
शुद्ध जल का पीएच मान 7 से 8.5 के बीच होता है। यदि यह 6.5 से कम या 9.2 से अधिक हो जाये तो जल हानिकारक माना जाता है।
रासायनिक पदार्थों की मानक स्तर से अधिक उपस्थिति से भी जल प्रदूषित हो जाता है।
3. जैविक प्रदूषण-
सूक्ष्म बैक्टीरिया एवं विषाणु की उपस्थिति से जल प्रदूषित होता है। वेसिल्स कोलाई की अत्यल्प मात्रा भी हानिकारक है। कॉलीफार्म बैक्टीरिया 100 मि.ली. में 10 से कम रहने चाहिए।
4. कायिक प्रदूषण-
पशु, पक्षी, मनुष्यों के निष्कासित पदार्थों एवं अपद्रवों के निर्धारण सीमा से अधिक हो, जल का कायिक प्रदूषण कहलाता है।
इस अध्याय में जल के राष्ट्रीय मानक, भोज वेटलैंड (भोपाल ताल) की प्रमुख समस्यायें, समस्याओं के कारण एवं निराकरण दिए जा रहे हैं जो इस प्रकार हैं-
1. पेयजल के मानक, भोज वेटलैंड के जल की गुणवत्ता की जाँच रिपोर्ट।
2. नगरीय तटीय क्षेत्रों के वाहित मल का मिलना।
3. कचरा निस्तारण।
4. कृषि क्षेत्रों से बहिर्स्राव, कृषि उर्वरकों तथा कीटनाशकों का उपयोग।
5. जलाशय में गाद का जमाव।
6. जल संभरण क्षेत्र में भू-क्षरण, अनियोजित कृषि।
7. कैचमेंट क्षेत्र में भवन निर्माण।
8. जलाशय में खरपतवार की वृद्धि।
9. सिंघाड़ा खेती।
10. कैचमेंट क्षेत्र में अतिक्रमण।
11. वन विनाश।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार जल में यदि 50 से 150 मि.ग्रा. प्रतिलीटर CaCo3 की मात्रा तक हो तो उसे साधारण श्रेणी की कठोरता या भारीपन कहा जायेगा। यदि कठोरता उससे भी अधिक हो तो इसका निष्कासन अत्यधिक आवश्यक हो जाता है। जल की कठोरता दो प्रकार की होती है-
1. अस्थायी 2. स्थायी
1. अस्थायी कठोरता-
(जल में) कैल्शियम और मैग्नीशियम के बाइकार्बोनेट की अधिकता के कारण होती है। जल को उबालने से अस्थायी कठोरता का निवारण हो जाता है।
2. स्थायी कठोरता-
जल को उबालने के बाद भी जो कठोरता जल में शेष रह जाती है वह स्थायी कठोरता कहलाती है। यह कैल्शियम तथा मैग्नीशियम के सल्फेट्स तथा क्लोराइड के कारण होती है। इसे दूर करने की कई विधियाँ हैं।
2. ये मानक समय-समय पर संशोधित होते रहते हैं। अतः समय-समय पर आईएस : 10500 के संशोधित रूप का अवलोकन करते रहना चाहिए।
एमपीएन-
100 मि.ली. जल के नमूने में उपस्थित अधिकाधिक कॉलीफार्म जीवाणु की संख्या है।
आई.एस. 2296-1982 के आधार पर जल की श्रेणी निम्नानुसार है-
ए- रोगाणुरहित गैर-पारम्परिक उपचार के बिना पीने योग्य
बी- बाह्य स्नान योग्य (आउट डोर बाथिंग)
सी- रोगाणुरहित पारम्परिक उपचार के साथ पीने योग्य
डी- वन्य जीवन एवं मत्स्य पालन हेतु
ई- सिंचाई, औद्योगिक प्रशीतलन या नियंत्रित दूषित अपवहन
म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालय, भोपाल द्वारा निम्न स्थानों से बड़े तालाब के जल नमूने एकत्रित कर जल गुणवत्ता मॉनीटरिंग का कार्य किया जाता है-
बड़े तालाब की मॉनिटरिंग केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित योजना राष्ट्रीय जल गुणवत्ता प्रबोधन कार्यक्रम (मीनार्स) के तहत भी नियमित की जा रही है।
क्षेत्रीय कार्यालय, भोपाल द्वारा एकत्रित किये गये जल नमूनों के वर्ष 2009-2012 के विश्लेषण परिणामों के आधार पर जल गुणवत्ता श्रेणी निम्नानुसार है-
बड़ा तालाब, कमला पार्क के पास, जल में कॉलीफार्म की उपस्थिति (प्रति 100 मि.ली.)
सन | औसतउपस्थिति |
1991 | 470.73 |
1995 | 826.67 |
2000 | 2320.00 |
2005 | 1707.50 |
2010 | 495.50 |
2013 | 103.33 |
सौजन्य : एप्को |
22 जनवरी 2005 को पेयजल के सैंपल कई स्थानों पर लिये गए थे जिनकी जाँच, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कराई गई थी। इस जाँच में पाया गया कि मैग्नीशियम हार्डनेस सभी स्थानों के जल में स्टैंडर्ड से अधिक पाई गई तथा कॉलीफार्म एमपीएन भी स्टैंडर्ड से अधिक पाया गया। इससे जाहिर होता है कि अस्पतालों, रेल-यात्रियों, आदि को सभी जगह स्टैंडर्ड के अनुसार पीने का पानी नहीं मिल पाता। इस जाँच रिपोर्ट क आंकड़े इस प्रकार हैं-
ज्ञातव्य है कि निर्धारित मापदंड से अधिक मात्रा वाले पानी से दाँतों और बालों पर असर पड़ता है। इसी प्रकार कॉलीफार्म के सीमा से अधिक होने से पानी में गंदगी होती है और बदबू आने लगती है।
जल में ये कण आकार में व्यास में 1 माइक्रोमीटर से भी बड़े होते हैं। प्रकाश को अवशोषित कर लेते हैं। अतः जल धुंधला प्रतीत होता है।
जल के अंदर ये कण एक मिली माइक्रॉन अर्थात 0.000001 से लेकर एक माइक्रोन (0.001 मि.मी.) के बीच के व्यास के होते हैं। ये छन्नों में से होकर भी निकल जाते हैं। नदी तालाब तथा समुद्र के जल का प्राकृतिक नीला तथा लाल रंग इन्हीं के द्वारा प्रदत्त होता है।
ये कण विद्युतमय आवेशमय होते हैं तथा निरंतर गति करते रहते हैं। इनमें सिलिका, ग्लास, विभिन्न धातुओं के ऑक्साइड तथा जैव पदार्थों के कण शामिल हैं।
घुले पदार्थ बिल्कुल निःसादित नहीं होते और न छन्ने द्वारा छाने जा सकते हैं। ये पीपीएम में नापे जाते हैं।
4. बेसिलस कोलाई (बी.कोली) प्रति 100 मिली जल में एक भी नहीं होना चाहिए।
विभिन्न जल स्रोतों के जल नमूनों के आंकड़े प्रायः इस प्रकार होते हैं-
विभिन्न स्रोतों के जल की बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड इस प्रकार होती है-
मई 2003 में एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADP) की आर्थिक मदद से भोपाल एवं इंदौर (जल आपूर्ति फेस-3) को नर्मदा जल देने का मार्ग प्रशस्त हुआ। लगभग तीन सौ करोड़ की इस योजना में सीवर व्यवस्था को दुरुस्त करने का भी प्रावधान था।
मई 2003 में भोपाल के प्रिंटमीडिया ने यह मामला उठाया कि भोपाल के बड़े तालाब में नाइट्रेट एवं फास्फेट की मात्रा निरंतर बढ़ रही है। कॉलीफार्म जीवाणु 2500 के लगभग (प्रतिलीटर) पाया गया।
झील में 76000 मीट्रिक टन जल-मल तथा 350 मीट्रिक टन जानवरों का मल-मूत्र पहुँच रहा है।
छोटी झील में 18 गंदे नालों का पानी आ रहा था। छोटी झील में क्लोराइड की मात्रा 25 से 50 मि.ग्रा. प्रति लीटर थी।
नगर यंत्री ने बताया कि छोटी झील का पानी पीने के लिये नहीं लिया जाता। बड़ी झील का पानी भी साफ करके प्रदाय किया जाता है।
श्री ए.एच. भट्ट तथा श्री के.सी. शर्मा, सुश्री श्रीपर्णा सक्सेना (Department of Environment Science & Limnology, Barkatullah University Bhopal) द्वारा बड़े तालाब के जल की गुणवत्ता की जाँच की गई थी जिसके परिणाम इस प्रकार हैं :-
जल की जाँच हेतु 4 जगहों को चुना गया-
1. कमला पार्क क्षेत्र (Site-1)
2. बेटा गॉव क्षेत्र (Site-2)
3. वन विहार क्षेत्र (Site-3)
4. बोट क्लब (Site-4)
(Site-1) : इस क्षेत्र में नहाना, साबुन, तेल का उपयोग, कपड़े धोना अन्य मानवीय क्रियाकलापों की अधिकता है।
Site-2 : बेटागाँव (या भटगाँव) क्षेत्र में घरेलू मल-मूत्र तथा कृषि रसायनों के तत्व कैचमेंट क्षेत्र में से बहकर आते हैं और तालाब के जल में मिल जाते हैं। इससे जल प्रदूषित हो जाता है।
Site-3 : वन विहार के पास का यह क्षेत्र पूरा हरा-भरा है तथा यह कैचमेंट क्षेत्र जीव-जन्तुओं के आश्रय का स्थल है।
Site-4 : बोट क्लब का यह क्षेत्र मनोरंजन के साधनों से भरा पूरा है। पर्यटक तथा जल क्रीड़ा के शौकीन लोग इस स्थान पर भारी संख्या में आते हैं।
जल की गुणवत्ता की जाँच करते समय नीचे लिखे महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को ध्यान में रखा जाता है :-
तापक्रम :-
तालाब के पर्यातंत्र पर तापक्रम का प्रभाव पड़ता है। तापक्रम का कम या अधिक होने पर जल में ओषजन आदि गैसों और अन्य तत्वों के घुलने में तदनुसार फर्क पड़ता है।
TDS (Total Dessolved Solids)- अनेक रासायनिक तत्वों के पेयजल में घुलने पर यह जाहिर होता है कि किसी स्रोत से ठोस कण आ रहे हैं।
सुचालकता जल में आयनों का जमाव अधिक होने से सुचालकता बढ़ जाती है। इसका अर्थ यह है कि घुले ठोस पदार्थों की मात्रा पानी में अधिक है।
पी.एच PH- अच्छे पेयजल का PH मान 7 से 8.5 होता है। मछलियों के लिये आदर्श PH मान 6.5 से 9.0 तक माना जाता है।
जल की भौतिक-रासायनिक गुणवत्ता के मानकों में PH कन्डक्टिविटी, पारदर्शिता, टीडीएस, घुलित ओषजन (D.O) सकल क्षारीयता (Total Alkalinity) कैल्शियम कठोरता (Ca Hardness) कुल कठोरता, क्लोराइड आदि प्रमुख हैं।
सन 2010 में तालाब के विभिन्न क्षेत्र में जल की विश्लेषणात्मक जाँच की गई। इस जाँच में पाया कि-
शीत-ऋतु के बाद और मानसून के पहले तालाब का जल एक सी अवस्था में रहता है अतः जाँच के लिये नमूनों को मार्च से मई के महीने में जल की ऊपरी सतह से तथा नीचे की गहराई से लिया गया। श्री ए.एच. भट्ट, श्रीपर्णा सक्सेना तथा के.सी. शर्मा इस जाँच एवं अध्ययन दल के मुख्य कार्यकर्ता थे। उनके अनुसार जल के नमूनों को लेने में रटनर वाटर सेंपलर (Ruttner Water Sampler) का उपयोग किया गया। ऊपर के चार स्थानों से सतह का और गहराई का जल इस हेतु लिया गया।
APHA (1998) तथा Adoni (1985) के मापदंडों के अनुसार तालाब में जल के भौतिक-रासायनिक गुणों की जाँच की गई। इस जाँच के परिणाम इस प्रकार हैं :-
सकल घुलित ठोस कण TDS (Total Dissolved Solids):-
जल में TDS की वृद्धि इस बात का संकेत देती है कि बाहरी तत्वों की मौजूदगी ही इसका कारण है।
ऊपरी सतह पर TDS की सीमा 110 से 150 पीपीएम पाई गई। तथा गहराई के जल में यह सीमा 120 से 160 पीपीएम मापी गई।
सबसे कम TDS की मात्रा Site No. 4 में मार्च के महीने में मापी गई जो 110 पीपीएम पाई गई तथा सबसे अधिक मात्रा Site No. 3 में मार्च के महीने में मापी गई जो 160 पीपीएम थी।
जल में घुले ऑर्गेनिक पदार्थों की मात्रा के अनुसार उसका रंग तथा पारदर्शिता निर्भर करती है। झील के जल की पारदर्शिता 50 से.मी. से 69 से. मी. तक मापी गई। सबसे अधिक पारदर्शिता Site No.1 में मई माह में 69 से.मी. आंकी गई और सबसे कम Site No.4 में अप्रैल माह में 50 से.मी. आंकी गई।
झील में लहर, हवा, आंधी आदि से पारदर्शिता प्रभावित होती है।
जल में रहने वाले जीवों एवं वनस्पतियों के द्वारा कार्बन द्वि ओषिद छोड़ी जाती है। जल का कूड़ा-कचरा आदि का विखंडन होने से भी कार्बन द्वि ओषिद के स्तर में वृद्धि होती है। बड़ी झील के जल में मुक्त कार्बन द्वि ओषिद की मात्रा सतह पर 0 से 4 मि.ग्रा. प्रति लीटर तथा गहराई में 0 से 12 मि.ग्रा. प्रति लीटर मापी गई। Site No.4 में मुक्त कार्बन द्वि औषिद की मात्रा सर्वाधिक 12 मि.ग्रा. प्रति लीटर दर्ज की गई।
घुलित जल में घुली ओषजन की मात्रा कई कारणों पर निर्भर करती है। जैसे जल का तापक्रम, काई का घनत्व, तथा अन्य पौधों की उपस्थिति आदि। इसका मानक स्तर 6 मि.ग्रा. प्रति लीटर (BIS 1991) है।
झील की ऊपरी सतह पर घुलित ओषजन की मात्रा 6.4 से 12.4 मि.ग्रा. प्रति लीटर दर्ज की गई तथा गहराई में 4.4 से 16.4 मि.ग्रा. प्रति लीटर।
झील की ऊपरी सतह के जल की क्षारीयता 12 से 44 मि.ग्रा. प्रति लीटर दर्ज की गई तथा गहराई में 8.2 से 52 मि.ग्रा. प्रति लीटर दर्ज की गई। ऑर्गेनिक पदार्थों के विघटन के कारण जल की क्षारीयता में कमी देखी गई।
बड़ी झील के ऊपरी सतह में 12.02 से 52.98 मि.ग्रा. प्रति लीटर दर्ज की गई तथा गहराई में 20.18 से 58.87 मि.ग्रा. प्रति लीटर।
कैल्शियम तथा मैग्नीशियम आयनों के घनत्व में वृद्धि होने अथवा आयनों के बढ़ने से कुल कठिनता प्रभावित होती है।
झील की ऊपरी सतह के जल की कुल कठिनता 70 से 114 मि.ग्रा. प्रति लीटर तथा गहराई में 62 से 118 मि.ग्रा. प्रति लीटर दर्ज की गई।
BIS (1991) के अनुसार इसका आदर्श मान या सीमा 300 मि.ग्रा. प्रति लीटर है।
इसकी मात्रा ऊपरी सतह के जल में 13.99 से 35.99 मि.ग्रा. प्रति लीटर तथा गहराई में 15.99 से 51.99 मि.ग्रा. प्रति लीटर दर्ज की गई।
रंजना तलवार (एक्सटोल फैकल्टी ऑफ लाइफ साइंस, अविनाश बाजपेयी (माखनलाल यूनिवर्सिटी, भोपाल) तथा सुमन मलिक (साधु वासवानी कॉलेज, भोपाल में हैड ऑफ डिपार्टमेंट, केमिस्ट्री) द्वारा किये गए संयुक्त अध्ययन के अनुसार सन 2012 में भोपाल की बड़ी झील में मानसून बारिश के पहले तथा बाद में लिये गए जल के नमूनों की भौतिक, रासायनिक गुणवत्ता इस प्रकार थी :
सन 2000 तक भोपल के तालाब में सजदा नगर की 500 झुग्गियों के परिवारों का ढालू भूमि पर दैनिक निस्तार होता था। निकटवर्ती दूध डेयरी से खानू गाँव की तरह यहाँ भी गोबर, मल-मूत्र, भूसा तालाब में छोड़ दिया जाता था। करवना में बड़ी मात्रा में पशुओं को नहलाया जाता था, मोटर वाहनों को धोया जाता था।
सिंघाड़े की कृषि में प्रयुक्त कीटाणु नाशक (कारोबार) से जल प्रदूषित होता है। सीहोर की ओर से खेती में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से नाइट्रेट एवं कीटाणु नशक दवाइयों से मिश्रित जल झील में आता था।
मोतिया तालाब जहाँगीराबाद, गुरुबख्श की तलैया, अच्छे मियां की तलैया।
इस झील के बारे में यह कहा गया है कि यह एक दिन दल-दल में बदल जायेगी।
1. धोबीघाट की तरफ से बहुत सा जल-मल इसमें आकर मिलता है। तलैया, बुधवारा का जल-मल कूड़ा-करकट भी रोज आकर मिल रहा है।
2. जलीय वनस्पति इसमें सड़ रही है जिससे दुर्गंध फैल रही है। जल नहाने योग्य नहीं रहा।
3. बानगंगा नाला अपने साथ प्रतिदिन गंदगी लाकर छोटी झील में डाल रहा है। बानगंगा नाले के किनारे टी.टी. नगर की बस्तियाँ बसी हुई हैं जिनका जल-मल और दूषित जल बानगंगा में जाता है और उससे बहकर छोटी झील में।
4. इस बालाब में जलीय वनस्पति, जलकुंभी, शैवाल आदि की पैदावार में बहुतायत हो गई है।
झीलों का निक्षेपण तीन प्रकार का होता है-
1. स्थल जात -
जो नाले-नदियों द्वारा लाये जाते हैं तथा तट के क्षरण अर्थात अपरदन से उत्पन्न होते हैं। जैसे- बालू, बजरी, मिट्टी। मोटे अवसाद किनारों पर तथा सूक्ष्म अवसाद झील के मध्य में अधिकतर पाये जाते हैं।
2. रासायनिक -
जो विभिन्न लवणों के अवक्षेपण से बनते हैं।
3. जैव अवसाद -
जो सरोवरों के जीवों के अवशेषों के जमाव से बनते हैं।
भू-क्षरण को प्राकृतिक क्रिया समझकर उसके प्रति उपेक्षा करना ठीक नहीं है।
जल निकास तथा अवसादन के फलस्वरूप झीलें छिछली होती जाती है। ये दल-दल का रूप लेने लगती हैं जिन्हें बाद में अनूप (Swamp) कहा जाने लगता है।
सन 1985, 23 मई, नई दुनिया में प्रकाशित समाचार में डॉ. जी.पी. भटनागर, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष सरोवर विज्ञान, बरकतुल्ला विश्व विद्यालय भोपाल ने चेताया है कि गाद भराव की गति को देखते हुए ऐसा लगता है कि एक दिन भोपाल की झीलें दल-दल में बदल जायेंगी।
लेकिन शासन ने जो पिछले 20 वर्षों में प्रयास किए हैं, उससे गाद भराव में बड़ी झील में अवश्य बहुत कमी आई होगी। छोटी झील में अवश्य स्थिति बदतर है।
केन्द्रीय जल आयोग ने बड़े तालाब की क्षमता बढ़ाने का विचार करते समय यह पाया कि इसमें गाद जमाव की दर 0.75 acre ft. per sqr mile catchment per year के हिसाब से होती है।
(Date by Shri PS Rathore, Superintending-Engineer, PHED, Bhopal)
अतः नये भदभदा के गेट के निर्माण के बाद गाद भराव इस प्रकार से होगाः-
0.75×43560×141×No of years
आगामी सौ वर्ष में लगभग 460Mcft की गाद भराव का अनुमान है।
ऐसा अनुमान है कि गाद को हटाना सहायक या लाभकारी नहीं होगा क्योंकि इससे झील की क्षमता ज्यादा नहीं बढ़ेगी। गाद निकालने और निकली हुई गाद को दूर ले जाने का खर्च भी अत्यधिक है।
अतः निर्णय लिये गए कि गाद भराव और आगे न हो इस हेतु मूर्ति विसर्जन रोकने के साथ ही कैचमेंट एरिया में वन रोपण, गलत तरीके से खेती का निषेध, निर्माण निषेध, गंदगी निषेध के साथ अन्य वैज्ञानिक प्रबंध किये जायें।
तालाब की गाद को निकालकर फेंकने की अपेक्षा बांध की ऊँचाई बढ़ाना ज्यादा उचित माना जाता है। क्योंकि एक क्यूबिक फुट गाद हटाने से केवल एक क्यूबिक फुट जल बढ़ेगा परन्तु एक क्यूबिक फुट मिट्टी से यदि बांध की ऊँचाई बढ़ाई जाती है तो हजारों क्यूबिक फुट जल भंडारण क्षमता बढ़ जाती है। जहाँ बांध की ऊँचाई बढ़ाना संभव न हो तभी गाद निकालने का उपाय शेष रह जाता है।
तलाब में गाद भरने की गति को कम करने के लिये कैचमेंट क्षेत्र में भू-क्षरण को रोका जाना चाहिए। कैचमेंट एरिया में भू-क्षरण कम करके तालाब में गाद जमने की समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
भू-क्षरण, क्षरण शीलता (Erosivity) और क्षरणीयता (Erodibility) की पारस्परिक क्रियाओं का फलन है, इसे निम्नलिखित समीकरण से अभिव्यक्त किया जा सकता है :-
E = f (Es×Ed)
यहाँ E = भू-क्षरण
Es = क्षरण शीलता
Ed = क्षरणीयता
f = फलन (Function) के सूचक हैं।
क्षरण शीलता-
यह क्षरण करने वाली शक्तियों जैसे वायु, जल, गुरुत्वाकर्षण आदि की वह कार्यक्षम योग्यता है जो भूमि का क्षरण करती है।
क्षरणीयता-
यह क्षरण के प्रति मिट्टी की रोधक क्षमता, भेद्यता (Vulnerability) है। यह मिट्टी के भौतिक रासायनिक गुण, स्थल की आकृति, खेत की जुताई का तरीका, वन, चारागाह, फसल का उत्पादन आदि पर निर्भर करती है। त्वरित क्षरण भी हो सकता है। त्वरित क्षरण के कारण हैं- वनों का विनाश, कुप्रबंध, अनियंत्रित चराई, दोषपूर्ण कृषि प्रणाली आदि।
ढलुआ भूमि में खेतों की जुताई जल बहाव की सीधी दिशा में नहीं करनी चाहिए अपितु कुछ गोलाई लिये हुए जल बहने की दिशा से 450 में करनी चाहिए। जिससे कि जल के वेग को कुछ कम करके मिट्टी के क्षरण को कम किया जा सके।
1. जंगलों की सुरक्षा की जाये।
2. नये वन विकसित किए जायें।
3. जल निकास के उचित प्रबंध किए जायें।
4. जल संग्रह के उचित प्रबंध किए जायें।
5. पानी का बहाव और गति कम करने के उपाय किए जायें।
6. खेतों में जोताई के उचित तरीके अपनाये जायें। जैसे- मेड़ बनाकर, चारागाह बनाकर, ढाल के विपरीत खाई देकर, सीढ़ी बनाकर, ढाल के विपरीत जुताई करके, बांध बनाकर, नालियों में पत्थर भरकर, अरहर, कपास जैसी फसलें लगाकर आदि।
नदी की परिवहन क्षमता-
नदी की परिवहन क्षमता उसके वेग के पंचम घात की आनुपातिक होती है। अर्थात नदी का वेग दो गुना होने पर उसकी परिवहन क्षमता 32 गुना बढ़ जाती है।
वेग के अलावा बहने वाले या वाहित पदार्थों का आकार, भार, साइज, घनत्व भी परिवहन में प्रभाव डालता है।
वाहित शैलकण का व्यास ∝V2 अ
उदाहरणार्थ :-
यदि नदी का वेग दो फर्लांग प्रति घंटा है तो परिविहित हो सकने वाले शैलकणों का व्यास 0.02 इंच होगा। यदि वेग दोगुना होकर चार फर्लांग प्रति घंटा हो जाये तो 0.08 इंच व्यास के शैलकण परिविहित हो सकते हैं। और यदि वेग बढ़कर एक मील प्रतिघंटा हो जाये तो 0.25 इंच व्यास के शैलकण भी परिविहित हो सकते हैं।
आयतन-
नदी के जल के आयतन में वृद्धि से भी परिवहन क्षमता बढ़ती है।
ढाल तथा जल की गहराई भी परिवहन क्षमता पर असर डालते हैं।
नदी में विभिन्न प्रकार का कचरा जाने पर यह जल की अलग-अलग सतह पर रुक जाता है, तब उन पर दो तरह के जीवाणुओं (बैक्टीरिया) का हमला होता है-
1. एरोबीज वायुजीवीय जीवाणु, जो ओषजन के बिना जी नहीं पाते इसलिये कचरे की अधिक ओषजन वाली ऊपरी सतह पर पाये जाते हैं।
2. एन एरोबीज वायुजीवीय जीवाणु, जो ऑक्सीजन से दूर भागता है, इसलिये गहराई में रहता है।
अलग-अलग तरह का कचरा नदी में पहुँचता है, जिसे यह जीवाणु खाते हैं। परिणाम स्वरूप मिश्रित पदार्थ, ऐसे निरेन्द्रिय और खनिज पदार्थों में बदल जाते हैं जो फिर से शुद्ध नहीं हो पाते। इस तरह पानी प्रदूषित होता जाता है। एक स्थिति ऐसी भी आती है जब नदी के जल में घुली ओषजन कम पड़ने लगती है। कम ओषजन के कारण एरोवीज वायु जीवाणु और प्रोटोजोआ मरने लगते हैं। इनका स्थान एन एरोबीज जीवाणु (अवायुजीव) लेने लगते हैं और हाइड्रोजन के सहारे ऊपर का कचरा खाने लगते हैं, जिससे दुर्गंध युक्त हाइड्रोजन सल्फाइड गैस (H2S) पैदा होती है। पानी और अधिक गंदा होने लगता है तथा सूर्य का प्रकाश भी पानी के अंदर प्रवेश नहीं कर पाता। अन्त में ऐसी स्थिति आ जाती है जब नदी के जल में सिर्फ एन एरोबीज जीवाणु ही बचे रह जाते हैं। यही वह क्षण है जब नदी मरने लगती है। ऐसी स्थिति में नदी की प्राकृतिक सफाई प्रणाली छिन्न-भिन्न हो जाती है। नदी का जल गन्दा, बदबूदार होकर हानिकारक जीवाणुओं से भर जाता है। यह प्रदूषित जलधारा अपने साथ करोड़ों रोगाणुओं का पोषण भी करती है और हमें जीवनदान देने की क्षमता खो देती है। इसी जलधारा को नदी की मृत देह कहा जा सकता है। यही नदी का मरना है।
भोजवेटलैंड के बड़े तालाब के कैचमेंट क्षेत्र में 86 गाँव हैं। कृषि ही यहाँ का मुख्य कार्य है। कुछ लोग पशु पालन का काम करते हैं।
कृषि से अधिक पैदावार के लिये शंकर नस्ल के उन्नत बीज के साथ अब उर्वरक रसायन एवं कीटनाशक, खरपतवार नाशक रसायनों का उपयोग किया जाता है।
उर्वरकों के रूप में जिस नाइट्रोजन को हम भूमि (मिट्टी) में देते हैं वह पूरी की पूरी पौधों द्वारा नहीं ली जाती। पौधे कुल मात्रा का केवल 50 प्रतिशत ही ग्रहण करते हैं, शेष घुलकर बह जाती है। ये नाइट्रेट जलाशयों में, भूजल में इकट्ठे होते रहते हैं। अतः समय-समय पर शासन द्वारा भूजल में एवं जलाशयों में नाइट्रेट की मात्रा का अध्ययन एवं उसके स्तर की जाँच करते रहना आवश्यक है। पेय जल में मानक स्तर (45 से 100 मि.ग्रा. प्रति लीटर) से अधिक होने पर इससे गर्भवती माताओं, गर्भ में पल रहे बच्चों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और ब्लूबेबी या मेथेमोग्लोबिनेमिया नामक बीमारी का खतरा बना रहता है। इस बीमारी में शिशु के नाखून, दांत हरे नीले पड़ जाते हैं। नाइट्रोजन से हृदय में भी छिद्र होने की संभावना हो सकती है।
भोपाल के आस-पास के कुछ क्षेत्रों में भूजल मापन (सर्वेक्षण) केन्द्र भोपाल द्वारा की गई जाँच में पाया गया है कि कुछ जगहों के भूमिगत जल में नाइट्रेट की मात्रा उसके स्वीकार्य स्तर से अधिक है। भोपाल के इन ग्रामीण क्षेत्रों के भूजल में नाइट्रेट के कारण गर्भस्थ शिशुओं में ‘ब्लूबेबी’ बीमारी की प्रबल संभावना हो सकती है। नाइट्रेट की अधिकता से (नाइट्रोजन के कारण इन गर्भस्थ शिशुओं के हृदयों में छेद होने की संभावना हो सकती है, शासन को इस ओर शीघ्र ध्यान देना चाहिए। भूमिगत जल में ये नाइट्रेट एवं अन्य रसायन, उर्वरकों आदि के उपयोग के कारण पाये जाते हैं। भूमिगत जल से जिस जलस्रोत का रिचार्जिंग होता है वहाँ तक ये रसायन पहुँच जाते हैं।
भोपाल के पास के कुछ गाँव, जहाँ के भूमिगत जल में नाइट्रेट की मात्रा अधिक है, इस प्रकार हैं-
रामगढ़, कुल्हार, हिनोती, हर्राखेड़ी, बरखेड़ी (वैरसिया), गोल खेड़ी, नवीनबाग, परवलिया, सूखी सेवनिया, फंदा ब्लॉक, निपानिया आदि।
ज्ञातव्य है कि नाइट्रेट की मात्रा जल में 45 से 100 मि.ग्रा. प्रति लीटर से अधिक नहीं होना चाहिए।
भोजवेटलैंड : भोपाल ताल, 2015
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