सुपौल (बिहार): धानी रंग की साड़ी पहने चालीस वर्षीय बुलंदी देवी पीठ पर झोला और हाथ में चप्पल पकड़े कोसी नदी पार करके गेहूं की पिसाई कराने जा रही थीं। बुलंदी देवी करीब एक घंटे पैदल चलकर सिकरहट्टा पलार गाँव से आ रही थीं। पहले एक घंटे पैदल, फिर नाव से कोसी नदी पार की। अब आधा किलोमीटर और पैदल चलकर वो सड़क पर पहुँचेंगी फिर वहां से बाजार जायेंगी।
नाव से उतरते ही वो तेज़ कदमों से मुख्य सड़क की तरफ बढ़ी जा रही थीं। हमने भी अपनी रफ़्तार बढ़ाई और उनसे तेज़ कदमों से चलने की वजह पूछी। जवाब मिला, “जल्दी नहीं जायेंगे तो वापसी में देरी हो जायेगी। एक घंटे झाड़-जंगल के रास्ते गाँव पैदल जाना पड़ता है। सुनसान रास्ता है, देर होने पर डर लगता है। पहले गेहूं पिसाएंगे फिर बाजार से साग सब्जी खरीदेंगे।”
चलते-चलते बुलंदी देवी बोलीं, “हम लोगों के लिए 10-12 किलोमीटर चलना रोज की बात है। अब कोसी में जन्म लिया है तो इतना तो चलना ही पड़ेगा।” यह कहते हुए वो आगे बढ़ गईं। जिस नाव से वो आयी थीं उसमें उनके साथ चार पांच महिलाऍं और थीं। सुनसान रास्ते की वजह से महिलाऍं और लड़कियॉं अकेले बाजार नहीं जातीं। इनके गाँव सिकरहट्टा की दूरी सुपौल जिला मुख्यालय से करीब 100 किलोमीटर है। गाँव की दूसरी महिलाओं और लड़कियों से मिलने के लिए हम भी नाव पर बैठ गये।
नाव खे रहे 60 वर्षीय शंकर सदा थोड़ा उंचा सुनते हैं। हमें मिलाकर उनकी नाव में अब सात लोग बैठे थे। महिलाओं को रोज नदी पार कराने वाले बुजुर्ग केवट से बात करना तो बनता था। बस फिर क्या था बातों का आगे का सिलसिला खेवनहार से ही शुरू हुआ।
“कबसे नाव चला रहे हैं?” कुछ देर में जब वो हमारी बात समझ पाए तो बोले, “उम्र का नहीं पता लेकिन जबसे होश संभाला है तबसे नाव चला रहा हूँ। कोसी के किनारे इसी गाँव में पैदा हुआ और यहीं रहता हूँ। जब भी लोगों को नदी पार करनी होती है, और मैं खाली रहता हूँ तो पार करा देता हूँ।”
नाव पर हमारे साथ खुशबू और प्रियंका नाम की दो लड़कियां बैठी थीं। जो दोनों बहनें थीं। उनमें प्रियंका शादी-शुदा थीं। प्रियंका ने हमें बताया कि वह नदी के उस पार अपनी माँ से मिलने जा रही हैं। उनके चेहरे पर माँ से मिलने की ख़ुशी के साथ-साथ वह कष्ट भी साफ़ झलक रहा था जो वो रोज़ाना झेलती हैं।
हमारे सवालों के जवाब में प्रियंका बोलीं, “हम बंधा के बाहरी हिस्से में रहते हैं वहॉं बाढ़ की दिक्कत नहीं है। माँ यहाँ खेत और जानवरों की वजह से रहती हैं। जब नदी में पानी ज्यादा हो जाता है, तो माँ-पापा एक तरफ और हम लोग दूसरी तरफ, ऐसे ही रहते हैं।”
नाव से उतरकर प्रियंका मुझे अपना घर दिखाने ले गयीं, जो एक कमरे का था। उन्होंने जल्दी से चूल्हा जलाकर चाय बनाई। उस छप्परनुमा घर में जरूरत का बहुत थोड़ा सामान था। ज़रूरत के कुछ बर्तन और दो तीन दिन का राशन। कुछ ऊँचाई पर लकड़ियों की टट्टर नुमा एक जगह थी, जहाँ एक प्लेट में कुछ रोटियॉं, करीब आधा किलो प्याज, बाल्टी में थोड़ा सा आटा और चावल, थोड़ा सा नमक और बमुश्किल 50 ग्राम सरसों का तेल था। यही थी उनकी गृहस्थी।
सच पूछिए तो केवल अनीता देवी और प्रियंका ही ये कष्ट नहीं झेल रही हैं। कोसी के तटबंधों के बीच प्रमुख रूप से मुसहर और मल्लाह समुदाय के लोग रहते हैं, और हर समुदायों की महिलाऍं तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करती हैं। बाढ़, ज़मीन कटाव, बालू जमाव, फसल की बर्बादी, जान-माल का नुकसान, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, साथ ही समाज में फैली पितृसत्तात्मक सोच और परंपराएँ उनकी परेशानियों को और बढ़ा देती हैं।
अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) बैंगलोर के डॉ. सिद्धार्थ कृष्णन के निर्देशन में रणजीत कुमार साहनी द्वारा किये गए शोध के अनुसार यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों का असर बेटियों की शादी तक पर पड़ता है। लोग अपनी बेटी का विवाह दूर इलाकों में नहीं करते क्योंकि साल के अधिकतर महीनों में वो बाकी इलाकों से कट जाते हैं, अब चाहे इसके लिए उनको अधिक दहेज़ ही क्यों न देना पड़े।
अनीता के घर से हम आगे बढ़कर उसके गाँव की तरफ चल दिए। अब हमें करीब एक घंटे पैदल चलकर जाना था। आगे कुछ खेत थे और ज्यादातर जगह पर लम्बी-लम्बी घास खड़ी थी। उसी कच्चे रास्ते से होकर हमें ऐसे गाँव तक पहुंचना था, जहाँ के लोग बाजार और बच्चे स्कूल पढ़ने के लिए रोजाना इतनी दूर चलकर आते थे। यहाँ के ज्यादातर बच्चे छठवीं के बाद साल में तीन से चार महीने स्कूल नहीं जा पाते हैं।
इस बात की गंभीरता सेज जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र में भी झलकती है। सुभेंदु कुमार आचार्य, जयश्री पारिदा और ब्रज किशोर नारायण सिंह द्वारा कोसी क्षेत्र में किये गए अध्ययन के अनुसार कोसी बाढ़ का प्रभाव मुस्लिम परिवारों में अधिक स्पष्ट पाया गया, जहाँ दहेज प्रथा प्रमुख है, और भूमिहीन परिवारों में, जो सबसे अधिक प्रभावित हुए होंगे। आर्थिक संकट से मुक्ति पाने के लिए, जिन परिवारों के छोटे बेटे हैं, वे अपने बेटों की शादी जल्दी कर सकते हैं, ताकि उन्हें दहेज और कठिन समय में जीविका प्राप्त हो सके। यही नहीं, प्राकृतिक आपदाओं से जुड़े आर्थिक नुकसान से निपटने के लिए लोग बाल विवाह तक के कदम उठाने लगे हैं।
दहेज की इस उच्च व्यापकता के कारण, अध्ययन किए गए क्षेत्र में बेटों को प्राथमिकता दी जाती है। लोग बेटियों की तुलना में बेटे पैदा करने की इच्छा अधिक रखते हैं, क्योंकि बेटों को परिवार का कमाने वाला माना जाता है और वे अपने परिवार की देखभाल करेंगे। परिवारों में ऐसा माना जाता है कि ईश्वर की इच्छा से उन्हें बेटे होंगे, जो स्पष्ट रूप से महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित निर्णय लेने की क्षमता में धर्म के प्रभाव को दर्शाता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कोसी के तटबंधों के बीच बसे गाँवों का विकास से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। बिहार के इन इलाकों में विकास कार्यों में लगभग हर साल विभिन्न प्रकार की बाधाएं आती हैं, जिनमें बाढ़ एक प्रमुख बाधा है। नीचे दिए गए आकड़ों से आप बाढ़ रूपी बाधा की व्यापकता का अंदाजा लगा सकते हैं। हर साल हज़ारों वर्ग किलोमीटर की भूमि जलमग्न हो जाती है और उसकी वजह से इन इलाकों को जो सुविधाएँ मिलनी चाहिए वो पहुँच नहीं पाती।
2015 से लेकर 2020 तक बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में जबरदस्त बढ़ौतरी देखी गई। 2020 के बाद के आंकड़े सरकारी पोर्टल पर अब तक उपलब्ध नहीं हैं, हालाकि यहाँ की स्थिति में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ है।
विकास का अभाव तब और दिखा जब हम आगे बढ़े। रास्ते में चलते हुए हमें झोपड़ीनुमा एक घर और दिखा जिसमें सोलर पैनल लगा था। इस घर के मुखिया का नाम सीताराम था। ये सोलर पैनल कब लगा? इस सवाल के जवाब में उनकी पत्नी बोलीं, “तीन चार साल पहले लगा था। लेकिन अब काम नहीं करता। पिछले साल बाढ़ में सब डूब गया। तबसे ये भी काम नहीं कर रहा। इतनी दूर पैदल चलकर मिस्त्री नहीं आते इसलिए हम लोग अँधेरे में ही रहते हैं।”
यहाँ के रास्ते पर चलते हुए हमने यह महसूस किया कि रोजाना इतना पैदल चलकर मुख्य सड़क तक पहुंचना इनके लिए आसान तो नहीं होगा पर इसका कोई समाधान भी नहीं है। हमें इनके घर से कुछ दूर चलने पर एक और नाली मिली जिसमें पानी भरा था। उसे पार करने के बाद हम करीब 20-25 मिनट और चले, तब कहीं जाकर सिकरहट्टा पलार गाँव पहुंचे। गाँव के बाहर कभी 50-60 पैनल का एक पावर हाउस लगा है जिसे यहाँ के लोगों के लिए सरकार द्वारा दिया गया था। इस गाँव में इसी सोलर पैनल से रोशनी होती है।
ज़रा सोचिये जहाँ बिजली का ये हाल हो वहां टूबवेल से पानी निकालना एक सपने जैसा ही होगा। इसलिए यहाँ सभी को पीने के पानी के लिए हैंडपंप पर निर्भर रहना पड़ता है। और हैंडपंप हर साल बाढ़ की भेंट चढ़ जाते हैं।
वेबसाइट मोंगाबे में प्रकाशित लेख के अनुसार इस क्षेत्र में बाढ़ ने पीने के पानी का बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। हैंडपंप पानी में डूब जाते हैं, जिससे पानी निकालना मुश्किल हो जाता है। जो पानी निकल भी रहा है, वह ज़्यादातर गंदा और कीचड़ भरा होता है, जिसे पीना सुरक्षित नहीं है। कई महिलाओं ने बताया कि बाढ़ के बाद उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ता है।
यह तो सिकरहट्टा गॉंव की एक झलक मात्र थी। इस गाँव में ज़िंदगी से जंग कितनी कठिन है इस बात का अंदाजा हमें तब और गहराई से हुआ जब हमने सीता देवी के घर में प्रवेश किया। सीता देवी अँधेरे कमरे में चूल्हे पर खाना बना रही थीं। घास-फूस की दीवारों से हल्की-हल्की छन के रोशनी आ रही थी। जमीन पर नमी थी। छप्पर के ऊपरी हिस्से में मकड़ी के जाले लगे हुए थे। एक तख्त पर उनके सोने के बिस्तर, लकड़ी के एक बक्से में उनके कपड़े और जरूरत का सामान था। इस घास-फूस के घर पर उन्होंने काली पन्नी डाल रखी थी, ताकि बारिश के पानी से ये बच सकें। इसके बावजूद इनके घर का कोई ऐसा कोना नहीं था, जहाँ पानी की नमी न हो।
पचपन वर्षीय सीता देवी नीले रंग की सूती साड़ी पहने थीं। उनहोंने खाना बनाते हुए अपनी आपबीती बताई, “दिन की रोशनी रहते खाना बना लेते हैं। सूरज ढलते-ढलते अँधेरा हो जाता है। सोलर वाली रोशनी हमारे घर में नहीं है। रात में साँप-बिच्छू का बहुत डर रहता है। जब बाढ़ आती है तो गाँव के बाहर, ऊँचाई पर रहने चले जाते हैं। जब पानी नीचे उतर जाता तो फिर घर में आ जाते हैं। यहाँ शौक से कोई नहीं रहता, सब मजबूरी में रहते हैं, अब जायें भी तो कहाँ जायें?”
पिछले साल सीता देवी की गाभिन भैंस मर गई। वो यह बताते हुए रो पड़ीं और बोलीं, “पिछले साल बाढ़ में कमर तक हेलकर भैंस के लिए घास लाते थे। यहाँ पर 10-11 दिन 24 घंटे पानी रहा। बहुत कीचड़ हो गई थी। पता नहीं कैसे 50-60 हजार की भैंस मर गई। यहाँ कोई कमाई नहीं है। भैंस गोरु से खर्चा चलता है। थोड़ा बहुत कुछ पैदा हो जाता है। यहाँ हम लोग जिन्दगी जी नहीं रहे हैं, बस काट रहे हैं।”
सीता देवी जैसे सैकड़ों परिवार हैं जो हर साल बाढ़ में अपनी गाय-भैसों को खो देते हैं। 2008 में बाढ़ से करीब 25 लाख लोग और लगभग 10 लाख पशु प्रभावित हुए। करीब 1 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन डूब गई और लगभग 3 लाख घर बर्बाद हुए। बिहार के आपदा प्रबंधन मंत्री नीतीश मिश्रा ने 2008 की बाढ़ को पिछले 50 वर्षों में सबसे त्रासदी वाली बाढ़ बताया।
बाढ़ से मचने वाली तबाही बड़ी न हो इसके लिए यहाँ लोग घास के मकानों में रहते हैं। इस गाँव में करीब 300 घर हैं लेकिन कोई भी घर ईंट मिट्टी का नहीं बना है। यहाँ के सारे घर घास-फूस से छप्पर नुमा बने हैं। सभी घरों के ऊपर तिरपाल लगा है, ताकि बारिश का पानी इनके घरों में न जाये।
इस गाँव की सात-आठ लड़कियों से हम मिले जिनमें से कोई भी स्कूल नहीं जाती। मटमैले रंग का टॉप पहने निशु कुमारी तीन महीने से ज्यादा समय से स्कूल नहीं गई है। सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली निशु कहती है, “पूरे गाँव में मेरी दीदी ही 10 तक पढ़ी हैं। हम भी पढ़ना चाहते हैं पर क्या करें दूर की वजह से अकेले जाने में डर लगता है। नाव का भी समय फिक्स नहीं रहता। पता चले एक घंटे पैदल चलकर जाओ फिर उधर कोई नाव न मिले, तो वापस आना पड़ता है। इसी डर से हम लोग स्कूल नहीं जाते। मन करता है रोज स्कूल जाने का पर क्या करें?”
निशु की तरह बबिता, पूनम, रीता जैसी दर्जनों लड़कियां ढाई-तीन महीने से स्कूल ही नहीं गईं। रीता ने तो दो साल पहले ही स्कूल जाना बंद कर दिया था। पूछने पर रीता ने बताया, “चार महीने स्कूल जाओ, चार महीने घर बैठो, क्या ही फायदा ऐसी पढ़ाई से। सपना था पढ़ने का पर अधूरा रह गया।” बाढ़ सिर्फ जमीन नहीं डुबेती, बच्चों की पढ़ाई भी बहा ले जाती है।
“कोसी के अंदरूनी इलाकों में लड़कियों की पढ़ाई ज्यादातर छूट जाती है लड़कों को भी पढ़ाई के पर्याप्त मौके नहीं मिलते। रोजगार के साधन न होने की वजह से कम उम्र में लड़के पलायन कर जाते हैं। हमने इन इलाकों में कोशिश की है लोग श्रमदान करके अस्थाई बॉंस और तिरपाल की मदद से भवन निर्माण करें और वहां आकर यहाँ रहने वाले बच्चे तीन चार घंटे पढ़ाई करें। जो लोग श्रमदान करते हैं उन्हें हाईजीन किट और जरुरत का सामान उपलब्ध कराते हैं। सिकरहट्टा में 60 बच्चे अभी पढ़ाई कर रहे हैं। यहाँ की महिलाओं और लड़कियों को साफ़-सफाई के लिए जागरूक करते हैं जरुरत पड़ने पर सेनेटरी पेड और हाईजीन किट भी उपलब्ध कराते हैं। वापसी प्रोग्राम के तहत यहाँ की महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ा है ताकि जब पुरुष पलायन करके चले जाते हैं तो इनकी मुश्किलें थोड़ी आसान हो सकें।मनोज कुमार झा, गूँज संस्था जो बीते 17 वर्षों से कोसी बाढ़ प्रभावित इलाके में काम कर रही है।
आगे बढ़ते ही हम कुछ महिलाओं से मिले। उनका दर्द एक और जटिल समस्या को बयां कर रहा था। एक तरफ शिक्षा का अभाव और दूसरी तरफ स्वास्थ्य सेवाओं का यहाँ नहीं पहुँच पाना। दरअसल साल के अधिकाँश समय में बाढ़ के प्रभाव का असर बेटियों के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। यहॉं की महिलाओं के लिए न तो कोई डॉक्टर उपलब्ध है और न ही बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं।
यह क्षेत्र बिहार के सबसे प्रभावित क्षेत्रों में से एक है। अगर राज्य की तुलना देश के आंकड़ों से की जाये तो तस्वीर और भी गंभीर दिखाई देती है। पूरे भारत में, 60% किशोरियाँ (15-19 वर्ष) और 57% प्रजनन आयु की महिलाएँ (15-49वर्ष) एनीमिया से पीड़ित हैं। चिंताजनक बात यह है कि हर दो में से एक गर्भवती महिला भी एनीमिया से पीड़ित है, जिससे प्रसव के दौरान जटिलताओं और मातृ मृत्यु दर का खतरा बढ़ जाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) 5 के आंकड़ों के अनुसार, बिहार में प्रजनन आयु की 63.6% महिलाएँ और 63.1% गर्भवती महिलाएँ एनीमिया से प्रभावित हैं।
और तो और NFHS 2015-16 के अनुसार बिहार में 67% महिलाएँ एनीमिया से पीड़ित हैं। बिहार का मातृ मृत्यु दर (MMR) 267 है, जो पूरे देश में सबसे अधिक है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में केवल 17% प्रसव ही स्वास्थ्य संस्थानों में होते हैं। यही वजह है कि यहाँ नवजात और मातृ मृत्यु दर बहुत अधिक है।
बाढ़ के बाद महामारी और जलजनित बीमारियाँ तेजी से फैलती हैं, जो महिलाओं और बच्चों की मृत्यु का प्रमुख कारण बनती हैं। इसके अलावा, महिलाओं में शिक्षा का स्तर कम होना और स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता का अभाव भी इनके स्वास्थ्य पर गहरा असर डालता है।
NFHS-5 के अनुसार बिहार में शिशु मृत्यु दर (Infant Mortality Rate) 1,000 जीवित जन्मों पर 47 है। किशोर उम्र की माताओं (20 वर्ष से कम) में यह दर और भी अधिक, लगभग 64 प्रति 1,000 पाई गई। यह साफ संकेत देता है कि कम उम्र में गर्भधारण और आपदा-ग्रस्त इलाकों की कठिन परिस्थितियाँ नवजात शिशुओं के लिए गंभीर जोखिम पैदा करती हैं।
आपको बता दें कि बाढ़ का प्रभाव केवल कोसी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहता है, यह बिहार के विकास पैमाने को भी प्रभावित करती है। महिलाओं से जुड़े तमाम विकासात्मक संकेतकों पर बिहार देश के औसत से काफी पीछे है।
अगर आपको कोसी में रहने वाले लोगों के जीवन को करीब से जानना और समझना है, तो आपको एक बार इस गाँव में जरुर आना चाहिए। यहाँ आकर आपको लगेगा आप दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में आ गये हैं। इस गाँव के लोगों ने मुझसे कहा कि इतने सालों में पहली बार हमारे गाँव में कोई पत्रकार आया है।
टीशर्ट पहने गजेन्द्र मेहता ने अपनी खुशी जाहिर की और बोले, “इससे पहले हमारे गाँव में कोई मीडिया वाला नहीं आया। पता नहीं आप कैसे इतना कष्ट करके यहाँ आ गये। आपको धन्यवाद! हमारा सवाल सरकार तक सवाल पहुंचा दीजियेगा। यहाँ एक बांध बन जाए तो सबको आराम हो जाए। मीडिया वालों को तो महीने दो महीने में हमारे यहाँ रहना चाहिए, ताकि हम अपनी बात सरकार तक पहुंचा सकें।”
गजेंद्र मेहता के ये शब्द यह बताते हैं कि कैसे उनकी आवाज़ तक़दीर के फर्श पर दबी रह जाती है। आज वो अपनी बात हमारे साथ साझा करके इसलिए बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि ये आवाज़ हम जिम्मेदार अधिकारीयों और सरकार तक ज़रूर पहुँचायेंगे।
यहाँ रहने वाली महिलाओं और लड़कियों की समस्या यहाँ के पुरुष भी बखूबी समझते हैं। कमलेश्वर मेहता अपने गाँव की दुर्दशा कुछ इस तरह बताते हैं, “इलाज के लिए यहाँ कोई डॉक्टर नहीं है। सबसे ज्यादा परेशानी गर्भवती महिलाओं को होती है। वार्ड नम्बर 16, 17 में आंगनबाड़ी दिया है, लेकिन उसका कोई लाभ नहीं। अब ऐसे नाम तो नहीं पता लेकिन बीते 30-35 वर्षों में यहाँ कई गर्भवती महिलाओं की प्रेगनेंसी के दौरान मौत हुई है। अब आप ही सोचिये अगर बच्चा हुआ उस दौरान कोई दिक्कत हो गई तो यहाँ जंगल में कहाँ इलाज मिलेगा?”
आईएएनएस की एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार में बाढ़ गर्भवती महिलाओं के लिए बहुत बड़ा संकट रही है। कई महिलाएँ प्रसव के दौरान सही चिकित्सा सुविधा न मिलने की वजह से अपनी जान गवा बैठीं, और जिन महिलाओं ने बच्चे को जन्म दिया, उन्हें भी राहत शिविरों में कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्हें कई अन्य लोगों के साथ एक ही तंबू साझा करना पड़ता था।
2008 में आयी बाढ़ के बाद राज्य सरकार ने नवजात शिशुओं के लिए नकद मदद देने की घोषणा की थी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि राहत शिविरों में पैदा होने वाली प्रत्येक लड़की को 11,000 रुपये और प्रत्येक लड़के को 10,000 रुपये दिए जाएंगे। इंडिया वॉटर पोर्टल ने जिन परिवारों से बात की उनमें से किसी को इस योजना का लाभ नहीं मिला है।
रिपोर्ट के मुताबिक उस साल दर्जनों गर्भवती महिलाओं की प्रसव के दौरान मृत्यु हो गई और कई नवजात शिशु जीवित नहीं रह पाए, इसका मुख्य कारण डॉक्टरों और दवाओं की कमी रही। जिन माताओं और बच्चों ने जान बचाई, उन्हें भी दूध, भोजन और बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण बहुत परेशानी झेलनी पड़ी। कुछ महिलाओं में तो बाढ़ के तनाव की वजह से स्तनपान (दूध) भी बंद हो गया।
बाढ़ के बाद की अवधि में एक और बड़ा परिणाम स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच में समानता में कमी है। लोग ज़्यादातर भारी खर्च के डर और उस खर्च को वहन करने में असमर्थता के कारण आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की ओर रुख करने से डरते थे। इसलिए, यह स्थिति पारंपरिक या स्थानीय चिकित्सा प्रणाली को अपनाने और उस पर निर्भर होने की ओर ले जा रही थी। लेकिन हाल के दिनों में, ज़्यादातर मामलों में लोगों ने आधुनिक चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का उपयोग करना शुरू कर दिया है, हालाँकि अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है।
डाटा संग्रह के दौरान, यह देखा गया कि बाढ़ के बाद बाहरी प्रवास के कारण सूचना और नकदी के रूप में आय सृजन क्षमता में पर्याप्त वृद्धि हुई है और स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सेवा के संबंध में उनकी क्रय क्षमता में भी वृद्धि हुई है।
यहां पर हम एम्स पटना के कार्यकारी निदेशक डॉ. सौरभ वार्ष्णेय की बात का उल्लेख करना चाहेंगे। उन्होंने कहा, "एनीमिया एक बड़ी चिंता का विषय है क्योंकि प्रजनन आयु की लगभग 50% महिलाएं इससे प्रभावित हैं। बिहार और झारखंड सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में से हैं।"
महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर जब इंडिया वॉटर पोर्टल ने सुपौल के सिविल सर्जन डॉ. ललन कुमार ठाकुर से बात की तो उन्होंने से कहा, “बाढ़ के दौरान इलाके में जगह-जगह कैम्प लगाते हैं ताकि बाढ़ के दौरान किसी को किसी तरह की कोई असुविधा न हो। मच्छर भगाने के लिए छिड़काव करते हैं और जरुरत की दवाइयां उपलब्ध कराते हैं। जो गर्भवती महिलाएं होती हैं उन्हें नदी से बाहर सुरक्षित स्थान पर लाते हैं ताकि डिलीवरी में कोई परेशानी न आये। कोसी के अन्दर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी हैं जहाँ लोग सालभर जाकर इलाज करा सकते हैं।”
हालाँकि कोसी नव निर्माण मंच से जुड़े इंद्र नारायण सिंह इस बात को पूरी तरह से खारिज करते हैं। उनका कहना है, “कोसी के भीतरी तटबंध में कोई भी सरकारी अस्पताल नहीं है। यहाँ रहने वाले लोगों को इलाज के लिए दो तीन घंटे नाव से यात्रा करके सुपौल आना पड़ता है। गर्भवती महिलाओं को डिलीवरी असुरक्षित परिस्थितियों में होती है।”
सिकरहट्टा पलार गाँव की कहानी तब और दर्द भरी हो गई जब हम यहां की उन महिलाओं से मिले, जिन्होंने गॉंव के बाहर की दुनिया ही नहीं देखी। यहाँ की ज्यादातर महिलाएं चेहरे से उदास दिखीं। इनके चेहेरों को देखकर आप इनकी मुसीबत और तकलीफ का भलीभांति अंदाजा लगा सकते हैं। इस गाँव में जायदातर उम्रदराज पुरुष ही दिखे, जबकि यहाँ के युवा नौजवान कमाने के लिए पलायन कर गये। यहाँ के घरों में महिलाएं, लड़कियां और बच्चे थे कुछ बुजुर्ग भी।
अपनी तकलीफ बयां करते हुए बबिता देवी ने कहा, “आदमी तो कमाने के बहाने देश दुनिया देख लेते हैं लेकिन हम लोग कहाँ जायें? सिर्फ वोट मांगने एक बार नेता आते हैं और हम इस उम्मीद से वोट दे देते हैं कि शायद इस बार बदलाव होगा, लेकिन होता कुछ नहीं है। रात में चैन की नींद नहीं सो पाते। जंगल है तो जानवरों का भी डर लगा रहता है। जमीन में बैठ नहीं सकते क्योंकि एक इंच भी सूखी जमीन नहीं। मच्छर इतने कि पूछों मत। हम यहाँ छोटी-छोटी चीजों के लिए तरसते हैं। हफ्ता-पन्द्रह दिन रहकर कोई यहाँ देखे तब एहसास होगा कि यहाँ का जीवन कैसा है।”
अध्ययन के दौरान कई गाँवों में यह देखा गया कि अधिकतर पुरुष रोज़गार की तलाश में शहर चले जाते हैं, जिससे गाँवों में ज़्यादातर महिलाएँ, बच्चे और बुज़ुर्ग ही रह जाते हैं।
इनके खेत में धान की फसल लहला रही थी। मचान पर बहुत सारी सब्जियां बोई थीं। पर इन्हें ये उम्मीद बिलकुल नहीं थी कि इसमें कुछ पैदा भी होगा। क्योंकि जब तेज बाढ़ आती है तो इनकी पूरी फसल, साग-सब्जियां सब बहाकर ले जाती है। लेकिन इसके बाद भी यहाँ के लोग धान लगाते हैं, सब्जियां बोते हैं, यह सोचकर कि अगर कोसी में बाढ़ नहीं आयी तो बच जायेगी, जबकि बचने की संभावना न के बराबर रहती है।
बाढ़ इलाके में लड़कियों और महिलाओं को बाढ़ के दिनों में असुरक्षा का सामना करना पड़ता है। ये ट्रैफिकिंग का शिकार होती हैं। बिहार के सुपौल जिले में सबसे ज्यादा चाइल्ड मैरिज होती है। हरियाणा और यूपी के उम्रदराज लोग यहाँ के गरीब लोगों को कुछ पैसा देकर कम उम्र की लड़कियों से शादी करके चले जाते हैं। यहाँ के लोगों की मजबूरी है वो सुरक्षा की द्रष्टि से कम उम्र में शादी कर देते हैं। यहाँ की महिलाओं को गूँज के सहयोग से स्वरोजगार से जोड़ रहे हैं ताकि वो आत्मनिर्भर हो सकें साथ ही यहाँ के पलायन को कम किया जा सके।शेखर कुमार झा, समन्यवक, ज्ञान सेवा भारती संस्थान (यह संस्था सुपौल में करीब 30 साल से इस क्षेत्र में कार्यरत है।)
सन् 1954 में आई भीषण बाढ़ के बाद 1974, 1987, 1999, 2004 और फिर 2007-08 में लगातार बड़ी बाढ़ें आईं। इनमें 2007 की बाढ़ सबसे विनाशकारी साबित हुई। इस दौरान लगभग 30 करोड़ की फसलें बर्बाद हो गईं, आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1183 लोगों की जान चली गई, और अनगिनत घर व ज़मीन तबाह हो गए। हज़ारों लोग बेघर, भूखे और भूमि-विहीन हो गए। इस बाढ़ने सीधे तौर पर 2 करोड़ लोगों और 1.8 लाख हेक्टेयर भूमि को प्रभावित किया। (स्रोत: NIDM वार्षिक रिपोर्ट-2011, पृष्ठ-243)।
बिहार में बीते वर्षों में बाढ़ प्रवाह के कारण किस तरह तबाही मचाई उसका अंदाजा आपको ये आंकड़े देख कर लग जायेगा-
कोसी की बाढ़ के बाद आई रिपोर्ट्स और स्थानीय खबरों में अक्सर दस्त और दूसरे जलजनित रोगों के बढ़ने का ज़िक्र मिलता है। बाढ़ का पानी चढ़ जाने से हैंडपम्प और ट्यूबवेल दूषित हो जाते हैं। 2008 की बाढ़ के बाद बड़े पैमाने पर दस्त फैलने और खाने की कमी की खबरें आई थीं। हाल ही के 2024 अपडेट भी बताते हैं कि बाढ़ के बाद गाँवों में पेट, त्वचा और खून से जुड़े संक्रमण बढ़ जाते हैं। पहले तो गंदे पानी की वजह से त्वचा रोग और ऊपर से रोज़ाना कई किलोमीटर तक पैदल चलना। यहॉं की महिलाओं का दर्द उनके हाथ पैर पर घाव और ऑंखों में ऑंसू साफ बयां करते हैं।
कोसी के तटबंधों के बीच बसे गॉंवों में रह रही महिलाओं के दर्द को दर्शाने वाली सिकरहट्टा पलार गाँव की कहानी के अंत में आपको बबिता की कही वो बात बताते हैं जो साफ़ तौर पर सरकार की नाकामियों और लोगों की बेबसी को दर्शाती है।
बबिता कहती हैं, “जबसे हम शादी होकर आये हैं तबसे ऐसी ही मुसीबत देख रहे हैं। कुछ एक साल को छोड़कर कभी ऐसा नहीं हुआ कि धान की फसल न डूबी हो। जब बारिश होती है, नदी का बहाव तेज होता है, तब तो डर के मारे नींद नहीं आती। भागकर जाएँ तो कहाँ जायें, इतना पैसा भी नहीं कि बाहर रह सकें। अब जीना मरना सब कोसी मईया के हाथ में है।” निराशा, उम्मीद और भय के भाव समेटे बबिता अपनी बात खत्म करती हैं।