तालाब, पोखर, कुएं गांव के लोगों के लिए महज़ जलस्रोत नहीं, बल्कि सामाजिकता के अड्डे और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करते थे। यहां सजा करती थीं सखियों के हास-परिहास की महफिलें। हंसी-ठिठोली के साथ ही बांटे जाते थे जिंदगी के सुख-दुख, दर्द-ग़म सभी कुछ। नहाने, पानी भरने से लेकर, जल-क्रीड़ा तैराकी का मज़ा लेने तक, ये तालाब गांव की बहू-बेटियों की कामकाज के बोझ में दबी ज़िंदगियों को राहत, सुकून और शरारतों के कुछ खुले लमहे दे जाते थे।
गांव के लड़कों की शैतानियां और प्रेम कहानियां भी इन्हीं तालाबों के इर्द-गिर्द जवान हुआ करती थीं। दोपहर बाद गांव के बूढ़े-बुजुर्गों की बैठकी भी गांव के कुओं, तालाबों के किनारे ही जमा करती थीं, जिनमें खेती-किसानी की चिंताओं से लेकर लड़के-बच्चों की शादियों तक बातें तय हो जाया करती थीं।
गांवों के तालाबों, पोखरों, कुओं के सूखकर खंडहर में तब्दील होने के बाद पसरा सन्नाटा यहां के जल-संकट के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों की बानगी भी पेश करता है।
क्या कहते हैं आंकड़े
स्टेट ऑफ ग्राउंड वाटर इन उत्तर प्रदेश शीर्षक से प्रकाशित सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (CGWB) की 2021 की रिपोर्ट राज्य में तेज़ी से गिरते भूजल स्तर की चिंताजनक तस्वीर पेश करते हुए बताती है कि 2009–2018 के बीच प्रदेश के कुल 820 विकास खंडों (ब्लॉक) में से लगभग 70% में भूजल की निकासी उसके पुनर्भरण से अधिक (Over-exploited) रही है, जिससे जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है।
विशेष रूप से पश्चिमी यूपी और बुंदेलखंड क्षेत्र के ब्लॉक सबसे अधिक प्रभावित हैं। इनमें कई ब्लॉकों में भूजल स्तर में 8 मीटर से ज्यादा की गिरावट दर्ज़ की गई है। कई क्षेत्रों में तो हर साल 20 सेमी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है। पश्चिमी यूपी के मेरठ, अलीगढ़, आगरा, गाजियाबाद ज़िलों की स्थिति सबसे खराब है। जबकि, बुंदेलखण्ड के सात ज़िले- चित्रकूट, बांदा, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी और हमीरपुर सबसे ज़्यादा प्रभावित पाए गए। इसके अलावा, लखनऊ, कानपुर और प्रयागराज में भी स्थिति चिंताजनक है।
सतही जल की चिंताजनक स्थिति एक आरटीआई जवाब से सामने आती है। आरटीआई कार्यकर्ता आशीष सागर ने नवंबर 2012 में उत्तर प्रदेश राज्य में, खासकर बुंदेलखण्ड के सात जिलों - चित्रकूट, बांदा, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी और हमीरपुर में तालाबों का विवरण मांगा था। जवाब के मुताबिक बुन्देलखण्ड से कुल 4,020 जलस्रोत लुप्त हो गए हैं। चित्रकूट में 151, बांदा में 869, हमीरपुर में 541 और झाँसी में 2,459 जलस्रोत लुप्त हो चुके हैं। इन जलस्रोतों में कुएं, तालाब सब शामिल हैं।
अब तो कुआं खोदने वाले मजदूर भी नहीं मिलते
कानपुर देहात के ही राजपुर ब्लॉक में नैनपुर गांव के 85 वर्षीय सुदामा प्रसाद सेवानिवृत्त शिक्षक और लोकगीतकार हैं। उन्होंने पानी की बर्बादी और घटते जलस्तर पर कई लोकगीत लिखे हैं। सुदामा प्रसाद के मुताबिक कुएं और तालाब सिर्फ भौतिक संरचनाएं नहीं, बल्कि जीवन के अभिन्न अंग थे। इनसे लोगों का गहरा रिश्ता था। वह बताते हैं कि गांवों में अब कुआं खोदने वाले मजदूर भी नहीं मिलते, जिससे सूखे कुओं को फिर से चालू करना काफी मुश्किल हो चला है।
कुओं के सूखने के साथ ही इनसे पानी भरने का चलन और यहां लगने वाली “बैठकी” भी खत्म हो चुकी है। लोगों ने घरों में ही बोरिंग करवा ली है, जिससे पानी लेने के लिए महिलाओं का घरों से बाहर आना बंद हो चुका है। प्रसाद बताते हैं कि उनके छोटे से गांव में सात कुएं और दो तालाब थे, जो अब सुख चुके हैं। यूं तो इनके सूखने का सिलसिला पैंतीस-चालीस साल पहले ही शुरू हो गया था, लेकिन हाल के वर्षों में यह काफी तेज़ हो गया।
मवेशियों को नहलाना-धुलाना हुआ बंद
कुएं और तालाब पीने और घरेलू उपयोग के लिए पानी उपलब्ध कराने के साथ ही मवेशियों की प्यास बुझाने, उन्हें नहलाने-धुलाने का साधन भी हुआ करते थे। इस तरह ये ग्रामीण अर्थव्यवस्था से लेकर स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
डाढापुर गांव के 58 वर्षीय प्रमोद कुमार कटियार जानवरों के लिए जल के संकट की बढ़ती समस्या पर चिंता व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं, “पहले गर्मियों की दोपहर में रोज़ जानवरों को नहलाने के लिए तालाब में ले जाते थे। अब यह सब बंद हो गया है। अब तो जानवरों को दो-तीन महीने में बमुश्किल एकाध बार ही नहलाया जाता है। वह भी ज्यादातर तीज-त्योहारों पर। लोग पीने और घरेलू कामों के लिए तो जैसे-तैसे पानी का जुगाड़ कर लेते हैं, लेकिन जानवरों के लिए पानी का इंतज़ाम कर पाना एक विकराल चुनौती बन गया है।”
विश्व भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन के इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस के एक शोधपत्र के मुताबिक तालाबों को छोटा स्रोत मानकर पारिस्थितिकीय संतुलन में उनकी भूमिका पर बहुत काम नहीं हुआ है। पर वे जल सुरक्षा सुनिश्चित करने से लेकर, जलीय जैवविविधता को बनाए रखने, वायुमंडल से कार्बन को सोखने से लेकर तापमान और आद्रता को नियंत्रित करने जैसे कई महत्वपूर्ण काम करते हैं।
रीति-रिवाज़ से लेकर लोकगीतों तक की यादें
ग्रामीण जीवन में महिलाओं का कुओं-तालाबों से खास जुड़ाव रहा है। तमाम रीति-रिवाज़, परंपराएं और लोकगीत इन्हीं जलस्रोतों से जुड़े हुए हैं। “गिर्रा पर डोरी डाल आई गुहियाँ..” एक लोकगीत को याद करते हुए 65 वर्षीय शिवप्यारी देवी पुरानी यादों में खो जाती हैं।
वे बताती हैं, “पहले बच्चों के जन्म के एक महीने बाद जच्चा (मां बनी औरत) गांव की महिलाओं के साथ कुएं पर पूजा करने जाती थीं, तो इसी तरह के गीत गाए जाते थे।” ये रस्में तो हालांकि आज भी निभाई जाती हैं, पर सूखे कुओं के कारण अब ये महज़ एक औपचारिकता बनकर रह गई हैं।
शिवप्यारी के मुताबिक कुआं नई बहुओं के लिए घर से बाहर निकल कर गांव के सामाजिक परिवेश में घुलने-मिलने और नई सहेलियां बनाने का ठिकाना हुआ करता था। शिवप्यारी की बात से सहमति जताते हुए 60 वर्षीय कान्ति कटियार बताती हैं कि किस तरह कुएं पर पानी भरने के दौरान ही उनकी सबसे गहरी सहेलियां बनी थीं। हालांकि, वे यह बात भी स्वीकार करती हैं कि पहले कुओं पर जातिगत छुआछूत भी देखने को मिलती थी। “बड़ी जाति के लोगों के पानी भरने तक छोटी जाति के लोगों को इंतजार करना पड़ता था। कुएं नहीं हैं तो अब ये चीजें भी देखने को नहीं मिलतीं।”
कान्ति बताती हैं कि इस सबके बावजूद कुओं के चलते समाज में एक संपर्क तो जुड़ा ही रहता था। वे मानती हैं कि अगर कुएं जीवित होते तो समय के बदलाव के साथ सामाजिक जुड़ाव बना रहता। हालांकि, पड़ोस के बांदा ज़िले की एक हालिया खबर इसे लेकर मन में शंका पैदा करती है। अगस्त 2024 की इस खबर के मुताबिक एक किसान और उसके बेटे ने एक दलित महिला को इसीलिए मारा, क्योंकि उसने उनके ट्यूबवेल से पानी भरा था। ऐसी घटनाएं आज भी खत्म नहीं हुई हैं।
तालाब की मिट्टी से रिश्ता
कानपुर देहात जैसे इलाकों में, जहां कोई नदी नहीं बहती वहां पानी का प्रमुख स्रोत तालाब और कुएं हुआ करते थे। पीने के पानी के लिए कुएं और बाकी खर्च के लिए तालाब। हर उत्सव में तालाब के पानी और मिट्टी का प्रयोग होता था। जब किसी के यहाँ शादी तय हो जाती थी तो ग्रामीण महिलाएं गीत गाते हुए तालाब की चिकनी मिट्टी लेकर आती थीं। उत्सव के लिए उसी मिट्टी का चूल्हा और बरसिया बनती थी।
इसी तरह, लड़के की शादी में दीवार पर कतार से तालाब की मिट्टी की बनी सात देलियाँ (बड़े सैल का दीपक) लगा दी जाती थी और लड़की की शादी में पांच देलियाँ बनती थीं। आने वाली पीढ़ी इन्हें देखकर जान जाती थी कि कितने लड़के-लड़कियों की शादी इस घर से हो चुकी है.
सुदामा प्रसाद बताते हैं, “पहले कच्चे मकान हुआ करते थे। गर्मियों में जब तालाब का पानी कम हो जाता था तो लोग तालाब से चिकनी मिट्टी लाकर अपने घरों की छ्तों को मजबूत कर लेते थे। कुम्हार इसी तालाब की मिट्टी से झोंझी और टेसू बनाते थे।” यह बच्चों का त्यौहार होता है जिसके बाद शादी के सहालग की शुरुआत होती है। “बच्चे 7,8 दिन यह खेल खेलते थे और आखिरी दिन सभी रिवाज़ों के साथ झोंझी यानि लड़की और टेसू यानि लड़के की शादी कराकर उन्हें तालाब में बहा दिया जाता था। ऐसा माना जाता था कि तालाब की मिट्टी तालाब को वापस कर दी,” सुदामा प्रसाद बताते हैं।
तालाबों और कुओं से और भी परंपराएं जुड़ी हैं। विवाह के समय घाट की परंपरा अब भी निभाई जाती है, भले ही अब इसे गांवों में सूख चुके या प्रदूषित हो चुके तालाबों के बजाय विवाहस्थल पर ही निभाया जाने लगा है। परंपरा के मुताबिक विवाह पूरा होने के बाद दूल्हा जब पत्नी को लेकर वापस आता था, तो घर पहुंचने से पहले तालाब के किनारे दोनों को स्नान करना होता था। नहाने के बाद दुल्हन मायके के कपड़े छोड़कर ससुराल से लाए कपड़े पहनती थी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले के गांव नगला केशों के निवासी डॉ. नरेंद्र सारस्वत बताते हैं कि इस परंपरा से दो चीज़ें जुड़ी थीं। एक तो नवविवाहिता को यह बताया जाता था कि अब पिछले जीवन की परंपराएं छूट गई हैं, और यहां से नए जीवन के तौर-तरीके शुरू होते हैं। दूसरे, सबसे पहले जल स्रोत से परिचय कराकर उसका महत्व भी बताया जाता था। “अब जलस्रोत तो पहले जैसे रहे नहीं, बस लीक पीटी जा रही है,” वे कहते हैं।
नई तकनीकों का गैर-ज़िम्मेदाराना इस्तेमाल
गांवों में पानी के दोहन की नई तकनीकों के गैरज़िम्मेदाराना इस्तेमाल के अलावा सामहूकिता का लोप भी परंपरागत जल स्रोतों के खत्म होने का बड़ा कारण है। सुदामा प्रसाद बताते हैं, "अब पानी 100 फीट से ज़्यादा नीचे चला गया है।" पहले हैंडपंप और फिर सबमर्सिबल पंपों के बेतहाशा इस्तेमाल ने भूजल स्तर को बड़ी तेज़ी से गिराया है।
सबमर्सिबल पंपों के बढ़ते चलन को लेकर डाढापुर के 62 वर्षीय शिव सागर लाल कटिहार का कहना है कि लोग अब अपने बारे में सोचते है, पानी बचाने के बारे में नहीं। अपने गांव का हाल सुनाते हुए वे बताते हैं, "तालाब और कुएं सूखे तो लोगों ने उन्हें बचाने के बजाय उनमें कचरा भरना शुरू कर दिया। गांव के एक-दो तालाबों में थोड़ा-बहुत पानी बचा भी है वे बुरी तरह दूषित हो चुके हैं। समाज के लोग साथ मिलकर रखरखाव पर ध्यान नहीं देते, इसलिए समस्य और बड़ी हो गई है।"
ट्यूबवैल, बोरवैल और सबमर्सिबल पंपों ने हमारे देश में भूजल को कितनी तेज़ी से घटाया है, इसकी बानगी वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ की इस रिपोर्ट से मिलती है। इसके मुताबिक साल 1951 में भारत में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 5177 घन मीटर थी, जो 2025 तक गिरकर केवल 1341 घन मीटर रह गई है। बीते 75 सालों में भूजल के स्तर में भी 70% से भी ज़्यादा की गिरावट आई है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित साल 2019 की रिपोर्ट अनुसार बीते दशक में उत्तर प्रदेश के 70% इलाके में भूजल का अत्यधिक दोहन (over extraction) हुआ है।
जन-भागीदारी से तालाबों को किया ज़िंदा
बांदा के पूर्व जिलाधिकारी डॉ. हीरालाल पटेल ने एक ऐसी ही मुहिम 'कुओं-तालाबों में पानी लाएंगे, बांदा को खुशहाल बनाएंगे' के नारे के साथ शुरू की थी। उनके कार्यकाल में सरकारी स्कीमों, स्थानीय लोगों के सहयोग और तकनीकी सहायता के ज़रिये 1200 तालाब और 2200 कुएं पुनर्जीवित किए गए।
डॉ. पटेल बताते हैं, “मैं ज़मीन के साथ-साथ लोगों के दिलो-दिमाग में भी कुएं और तालाब खोदना चाहता था। इसका मकसद था कि लोग कुओं और तालाबों का महत्व समझें और वे अपने गांव में अनुपयोगी पड़े तालाबों और कुओं को फिर से जिलाने के लिए आगे आएं।” उनके इस अभियान के चलते बांदा में भूजल स्तर 1.34 मीटर तक बढ़ा और फसल उत्पादकता में 18% की वृद्धि दर्ज की गई। इससे किसानों की आय में भी सुधार हुआ। उन्होंने लोगों को दीपावली से एक दिन पहले हर कुएं पर दीप जलाने और पूजन करने के लिए प्रेरित किया, ताकि कुओं के साथ लोगों का भावनात्मक जुड़ाव मज़बूत हो सके।
बांदा में ही जखनी गांव के निवासी उमाशंकर पाण्डेय ने भी भूजल संरक्षण की एक प्रेरणादायक मिसाल पेश की है।
इसके लिए उन्हें पद्मश्री और जल शक्ति मंत्रालय से 'राष्ट्रीय जल योद्धा सम्मान' से सम्मानित किया जा चुका है। पाण्डेय की इन कोशिशों के चलते ही आज उनके गांव जखनी को देश भर में जल संरक्षण की एक मिसाल के तौर पर देखा जाता है।
पांडेय की प्रेरणा से गाँव के लोगों ने मिलकर सभी कुओं और तालाबों की साफ़-सफाई शुरू की। पूरे गाँव में नालियों से तालाबों को जोड़ा गया, ताकि बरसात का पानी इकट्ठा हो सके। तालाबों में मिट्टी न जमा हो इसके लिए खेतों की मेड़बंदी करके यह सुनिश्चित किया गया कि खेतों की मिट्टी बरसात के पानी के साथ न बहे। जखनी की चर्चित पहल ‘खेत पर मेड़, मेड़ पर पेड़’ भी चर्चा में रही।
अब गाँव के लोग हर साल मई-जून में तालाबों की सफाई करते हैं, जिससे सिल्ट नहीं जमा हो पाती। कुएं में भी नीचे उतरकर बाल्टियों से कचरे को बाहर निकाला जाता है।
उमाशंकर बताते हैं कि उनका मॉडल बांदा की 470 ग्राम पंचायतों में लागू किया गया। उनके गांव के 40 कुओं, 6 तालाबों और दो बड़े नालों में भरपूर पानी है। वे कहते हैं, "पानी बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ प्रधान की नहीं है। हर आदमी को पानी बचाने के बारे में सोचना चाहिए।”
गाज़ियाबाद ज़िले के रामवीर तंवर ने भी नौ राज्यों में 40 से अधिक तालाबों को पुनर्जीवित किया। इसके चलते इन्हें 'पॉन्डमैन' के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने अपने राज्य यूपी के अलावा उत्तराखंड, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, उड़ीसा जैसे राज्यों में भी अपने प्रयासों से भूजल संरक्षण के कई बड़े अभियानों को अंजाम दिया है।
इसके लिए वे सबसे पहले तालाबों को चिह्नित करते हैं। इसके बाद बेसलाइन सर्वे किया जाता है और फिर स्थानीय लोगों के सहयोग से उन्हें ठीक किया जाता है। इस कार्य के लिए पैसों का इंतज़ाम करने के लिए उन्होंने "सेल्फी विद पॉन्ड" अभियान शुरू किया, जिससे सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों ने दान देना शुरू किया।
“तालाब में बरसात का पानी इकट्ठा होने से भूजल एक से डेढ़ मीटर रिचार्ज हो जाता है और साफ-सुथरा तालाब मछली पालन व सिंघाड़े जैसी फसलों के लिए भी बेहतर होता है। इससे लोगों को अतिरिक्त आय भी होती है,” रामवीर बताते है।
पारंपरिक जलस्रोतों को फिर से जीवित करने के लिए डॉ. हीरालाल, उमाशंकर पाण्डेय और रामवीर तंवर जैसे लोग व्यक्तिगत प्रयास कर रहे हैं। इन्हें व्यापक स्तर पर ले जाने के लिए लोगों में सामुदायिक चेतना जगाना और सरकारी योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन ज़रूरी है। यह जागरूकता ज़रूरी है कि कुओं और तालाबों का खत्म होना सिर्फ पानी का संकट नहीं, बल्कि एक पूरी जीवनशैली, एक समृद्ध संस्कृति और लोक परंपराओं के एक पूरे अध्याय का मिट जाना है।