रोगकारक सूक्ष्म जीवों से संक्रमित कर मनुष्यों, फसलों, फलदायी वृक्षों व सब्जियों का विनाश करना जैविक प्रदूषण है। सन 1846 में जीनीय एकरूपता के कारण यूरोप में आलू की समस्त फसल नष्ट हो गयी, जिसके फलस्वरूप 10 लाख लोगों की मृत्यु हो गयी और 15 लाख लोग अन्यत्र पलायन कर गये। चूंकि समस्त आलू में एक ही प्रकार का जीन था अतः सब एक ही प्रकार के रोगाणुओं द्वारा संक्रमित होकर नष्ट हो गयी। 1984 में फ्लोरिडा में जीनीय एकरूपता के कारण खट्टे फलों की सारी फसलें एक ही प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा नष्ट हो गयी। अतः इस जीवीय प्रदूषण को दूर करने के लिए एक करोड़ अस्सी लाख पेड़ों को मजबूरन काट कर गिरा देना पड़ा। अब इस जैव प्रदूषण को जैव हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। जैव-प्रदूषण के माध्यम से फैलाए जा सकने वाले घातक रोगों में एंथ्रेक्स, प्लेग, चेचक, टुलारेमिया एवं विषाणुवी रक्तस्रावी ज्वर प्रमुख हैं। निम्नलिखित वर्षों में रोगाणुओं का प्रयोग जैव हथियार के रूप में किया गया-
वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी (डब्ल्यूसीएस) की रिपोर्ट में बताया गया कि बर्ड फ्लू, कोलेरा, इबोला, प्लेग, ट्यूबरक्लोसिस, जैसी बीमारियां जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत तेजी से फैलेंगी। इसकी भयावहता को दर्शाते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि यूरोप में 14वीं शताब्दी में ब्लैक डेथ' (प्लेग) के कारण एक तिहाई लोगों की मौत हो गई थी व फ्लू पैनडेमिक से 1918 ई. में वैश्विक स्तर पर 2 करोड़ से 4 करोड़ के बीच में लोगों की मौतें हुई थी। जिनमें अकेले अमेरिका के 5 लाख से 6 लाख 75 हजार से ज्यादा लोग मरे थे।
जलवायु परिवर्तन की यही रफ्तार रही तो इस तरह की बीमारियों से इससे भी अधिक मौत होने की आशंका है। एक तरह से देखा जाए तो शरीर में होने वाली तमाम तरह की व्याधियों का प्रत्यक्ष जुड़ाव ग्लोबल वार्मिंग से है, जलवायु परिवर्तन व मानवीय स्वास्थ्य पर उपरोक्त चर्चा में इन बीमारियों से इतर भी बहुत सी बीमारियों का जिक्र आया है।
जलवायु परिवर्तन से किस तरह बीमारियां जानलेवा हो जाएंगी, इसका अंदाजा इनकी वर्तमान स्थिति से लगाया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन से होने वाली कुछ प्रमुख बीमारियों की वर्तमान वैश्विक स्थिति-
पूरी दुनिया के सामने मलेरिया ने बहुत बड़ी चुनौती पेश की है। विश्व के 97 देशों के 3.2 अरब लोग मलेरिया से प्रभावित क्षेत्र में रह रहें हैं। जिसमें 1.2 अरब लोगों को मलेरिया होने की आशंका ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी विश्व मलेरिया रिपोर्ट-2014 के अनुसार सन् 2013 में 19 करोड़ 80 लाख लोगों में मलेरिया के लक्षण पाए गए। इस बीमारी से 5 लाख 84 हजार लोगों की मृत्यु हुई। मलेरिया से हुई मौतों में 90 फीसदी मौत अफ्रीकी देशों में हुई। वहीं भारत की बात करें तो डब्ल्यूएचओ की मलेरिया रिपोर्ट-2014 के अनुसार मलेरिया संक्रमित होने की अधिकतम आशंका वाले क्षेत्रों में 22 फीसदी यानी 27 करोड़ 55 लाख लोग हैं। जबकि मलेरिया प्रभावित न्यूनतम आशंका वाले क्षेत्रों में 67 फीसदी अर्थात 83 करोड़ 89 लाख लोग रह रहे हैं। मलेरिया मुक्त क्षेत्रों का प्रतिशत महज 11 है। इससे यह तात्पर्य है कि भारत के 89 फीसदी लोग मलेरिया प्रभावित क्षेत्र में रहते हैं। वैज्ञानिक तथ्यों के अधार पर बहुत ही मजबूती के साथ यह कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। डेंगू, मलेरिया जैसे रोगों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ जाता है। डब्ल्यूएचओ के अनुमान के मुताबिक प्रत्येक वर्ष 150,000 लोगों की मौत जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही है।
लिशमैनियासिस बीमारियों का समूह है। मादा फिलोबोटोमाइन सेंडलाई के काटने से मानव में इसका संक्रमण फैलता है। लीशमनियासिस के मुख्य रूप से तीन प्रकार हैं- (1) विससेरल (बीएल) जिसे हम कालाजार के रूप में जानते हैं। यह इस बीमारी का सबसे गंभीर रूप है। (2) कुटानियस (सीएल), यह बहुत कॉमन है। (3) मोको कुटानियस ।
यह बीमारी मुख्य रूप से अफ्रीका, एशिया व लैटिन अमेरिका की आबादी को प्रभावित करती है। साथ ही इसका प्रत्यक्ष संबंध कुपोषण, विस्थापन, कमजोर आवासीय व्यवस्था, कमजोर पाचन शक्ति व संसाधनों की अनुपलब्धता से है। नए आंकड़े बताते हैं कि 98 देशों में यह बीमारी पाई जा रही है। प्रत्येक वर्ष 2 लाख से 4 लाख नए मामले गंभीर रूप से लेशमैनियासिस (वीएल) से पीड़ितों के पाए गए हैं। जबकि सीएल श्रेणी से पीड़ितों की संख्या 7 लाख से 12 लाख के आसपास है। जिसमें 90 फीसदी वीएस श्रेणी यानी कालाजार के मामले महज 6 देशों बांग्लादेश, ब्राजील, इथोपिया, भारत, दक्षिण सूडान और सूडान में हैं।
इस बीमारी से विश्व के 73 देश प्रभावित हैं और पूरे विश्व में 1 अरब 23 लाख 30 हजार लोगों को इस रोग से बचाव इस रोग से बचाव के लिए सुरक्षा-इलाज कराने की जरूरत है। डब्ल्यूएचओ के अफ्रीकी व दक्षिण एशिया के समुद्र तटीय क्षेत्रों के 94 फीसद लोग इस बीमारी के परिक्षेत्र में हैं। जिन लोगों को इस रोग से बचने के लिए कीमोथेरेपी दिया जाना अति आवश्यक है उनकी संख्या 70 करोड़ 1 लाख है अर्थात 57 फीसदी लोग दक्षिण पूर्व एशिया (9) प्रभावित देशों) में 47 करोड़ 2 लाख अफ्रीकन क्षेत्र के 35 देशों में हैं। जलवायु परिवर्तन होने की स्थिति में जलीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में इस रोग के फैलाव की आशंका और बढ़ती जा रही है।
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार 2012 में वैश्विक स्तर के टीबी के 86 लाख मामले दर्ज किए गए और 13 लाख लोगों की टीबी से मौतें हुई। टीबी से होने वाली मौतों में से 95 प्रतिशत से अधिक मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि 15-44 आयु वर्ग के महिलाओं की मौत के शीर्ष तीन कारणों में से एक टीबी भी है। इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में लगभग 20-30 लाख लोग प्रत्येक साल टीवी से ग्रसित होते हैं। जो कि वैश्विक टीबी मरीजों का 26 फीसद है। इस रोग से भारत में तकरीबन 3 लाख लोग प्रत्येक साल काल के गाल में समा रहे हैं। वायु प्रदूषण जनित बीमारियों का फैलाव भी निरंतर हो रहा है। जिनका जलवायु परिवर्तन से प्रत्यक्ष संबंध है।
डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों की मानें तो 2012 में 37 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण से हुई जिसमें 88 फीसद लोग कम व मध्य आय वाले देशों के थे। वहीं 43 लाख लोगों की मौत हाउसहोल्ड वायु प्रदूषण यानी घर के अंदर के वायु प्रदूषण से हुई है। इस तरह से देखा जाए तो विश्व में आठ मौतों में एक मौत वायु प्रदूषण के कारण है। पब्लिक हेल्थ इन्वॉयरमेंट जिनेवा 2009 की रिपोर्ट में भारत में पर्यावरणीय कारणों से होने वाली बीमारियों की जानकारी मिलती है। डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी इन्वॉयरमेंट-बर्डन बीमारियों की श्रेणी के अंतर्गत जारी भारतीय प्रोफाइल में बताया गया है कि इनडोर वायु प्रदूषण से 4 लाख 88 हजार 200 मौतें व बाह्य वायु प्रदूषण से 1 लाख 19 हजार 900 लोगों की जानें गई हैं। इतना ही नहीं, वातावरण में सल्फर आक्साइड की मात्रा बढ़ने से दिल के दौरे (हार्ट अटैक) की आशंका बढ़ जाती है।
जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है। पहले से ही खाद्य व आवास की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए बदलती जलवायु व इसका प्रभाव त्रासदी पूर्ण है। वैसे समाजशास्त्रियों की मानें तो गरीबी अपने आप बीमारियों का समुच्चय है। डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार दक्षिण पूर्व एशिया परिक्षेत्र में पूरे विश्व की 26 फीसद जनसंख्या रहती है। जहां विश्व के 30 फीसद गरीब हैं। जनसंख्या में अधिकता के कारण इस परिक्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का असर बहुत ही आपदाकारी हो सकता है। यह परिक्षेत्र पहले से संक्रामक बीमारियों के भार के तले दबा हुआ है। इस क्षेत्र में 1करोड़ 40 लाख लोगों की मौत का कारण जलवायु परिवर्तन बनेगा। जिसमें 40 फीसद मौतों के लिए संक्रामक बीमारियां जिम्मेदार रहेंगी। 2015 के डब्ल्यूएचओ आंकड़ों के अनुसार 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में 83 फीसद बच्चों की मौत संक्रामक बीमारी व पोषण के अभाव में हो रही हैं। मौसम में बड़े पैमाने पर होने वाले बदलाव, जैसे चक्रवात व बाढ़ के आने की स्थिति, डायरिया व कोलेरा जैसी बीमारियों के लिए अनुकूल हो जाते हैं।
जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत हमेशा से सचेत रहा है। यह बात भारत के प्रधानमंत्री द्वारा पृथ्वी दिवस पर दिए उस बयान से स्पष्ट होती है, जिसमें उन्होंने कहा था-भारत विश्व को जलवायु परिवर्तन से निपटने के रास्ते दिखा सकता है। क्योंकि पर्यावरण की देखभाल करना देश की मान्यताओं का अभिन्न अंग है। हमारा नाता ऐसी संस्कृति से हैं जो इस मंत्र में विश्वास करती है कि धरती हमारी माँ है और हम उसकी संतानें हैं। अपनी वात को दुहराते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि विश्व के सामने अभी वर्तमान में दो प्रमुख समस्याएं हैं। एक आतंकवाद और दूसरा जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत विश्व को बहुत कुछ दे सकता है। अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत द्वारा सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने पर बल देते हुए उन्होंने आह्वान किया कि भारत दुनिया के 102 सूर्य पुत्रों (जहां पर सूर्य की रोशनी ज्यादा है) को एक मंच पर लाने की पहल कर रहा है। प्रधानमंत्री की यह सोच भारत की दूरदृष्टि को स्पष्ट कर रही है। निश्चित ही इससे ऊर्जा जरूरतों के लिए उपयोग में लाए जाने वाले ईधनों (जिनसे कार्बन उत्सर्जन होता है) की खपत में कमी आएगी।
जलवायु परिवर्तन एक जटिल समस्या है जो पृथ्वी पर मानवीय स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है। यह समस्या वर्तमान में कई वैश्विक मुद्दों से जुड़ी हुई है जैसे गरीबी, आर्थिक विकास, जनसंख्या, संपोष्य विकास एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण। जलवायु परिवर्तन की समस्या के लिए कई अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सामूहिक प्रयास करने चाहिए ताकि जलवायु परिवर्तन को लेकर इन वैश्विक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। या फिर इन मुद्दों पर विचार विमर्श के जरिए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सके। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए निम्नलिखित कार्य किए जाने चाहिए-
आज के जलवायु परिवर्तन के दौर में भारतीय तकाजा यह है कि सरकार और समाज मिलकर एक ओर शिक्षा, कौशल, जैविक कृषि, कुटीर, ग्रामोद्योग, सार्वजनिक वाहन, बिना ईंधन वाहन आदि के बेहतर संरक्षण में लगे, तो दूसरी और धन का अपव्यय रोकें, कचरा कम करें, पलायन व जनसंख्या नियंत्रित करें, फसल उत्पादन के पश्चात उत्पाद की बर्बादी न्यूनतम करें। नदियां बचाएं, भू-जल भंडार बढाएं।