बिहार में स्तनपान कराने वाली मांओं के स्तन के दूध में यूरेनियम नामक भारी धातु की उपस्थिति चिंताजनक है। चित्र: विकीमीडिया कॉमन्स
स्वास्थ्य और स्वच्छता

बिहार में मांओं के दूध में पहुंचा यूरेनियम: नवजातों की सेहत ख़तरे में!

बिहार के गंगा मैदानी क्षेत्रों में स्तनपान कराने वाली मांओं के दूध में यूरेनियम जैसी खनिजों की उपस्थिति जल-गुणवत्ता और स्वास्थ्य के लिए एक चिंताजनक चेतावनी है। यह सेहत को कैंसर जैसी घातक बीमारी के ख़तरे के साथ ही जल-स्रोतों और समाज में फैली असमानताओं की चेतावनी भी है।

Author : डॉ. कुमारी रोहिणी

बिहार के गंगा-मैदानी इलाक़ों में स्तनपान कराने वाली मांओं के दूध में यूरेनियम मिलने का साइंटिफिक रिपोर्ट्स, 2025 का हालिया अध्ययन जल प्रदूषण के बढ़ते दायरे का चिंताजनक संकेत है। अक्टूबर 2021 से जुलाई 2024 के बीच किए गए इस अध्ययन में भोजपुर, समस्तीपुर, बेगूसराय, खगड़िया, कटिहार और नालन्दा में 17-35 वर्ष की उम्र की 40 माताओं के दूध के नमूने की जांच की गई। इनमें यूरेनियम के अंश पाए गए। यह बिहार जैसे घनी आबादी वाले राज्‍य में स्तनदूध (ब्रेस्‍ट मिल्‍क) में यूरेनियम पाए जाने की पहली वैज्ञानिक रिपोर्ट है। यह क्षेत्र पहले से ही पानी में आर्सेनिक, सीसा और पारा जैसी ज़हरीली भारी धातुओं (हैवी मैटल्‍स) के उच्च स्तर के लिए जाना जाता है। अब यूरेनियम जैसे रेडियो एक्टिव पदार्थ के प्रदूषण ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है, क्‍योंकि शरीर में यूरेनियम की मौज़ूदगी कैंसर जैसी घातक बीमारी की भी वज़ह बन सकती है।
इस ख़तरनाक प्रदूषण से जुड़ी एक चिंताजनक बात यह भी है कि गर्भावस्था और स्तनपान कराने के दौरान महिलाओं के शरीर में खनिजों का अवशोषण बढ़ जाता है। इससे दूषित जल में पाए जाने वाले प्रदूषक तत्‍वों का असर माताओं के साथ ही उनके दुधमुंहे बच्‍चों पर भी पड़ता है। चिंताजनक बात यह भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियोन्यूक्लाइड की नियमित जांच न होने के कारण असल प्रदूषण का स्तर अनुमान से कहीं अधिक हो सकता है। यह स्थिति न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौती प्रस्तुत करती है, बल्कि जल-स्रोतों, पोषण और पर्यावरणीय न्याय के क्षेत्र में मौजूदा असमानताओं की भी पुष्टि करती है।

किस तरह की गई सैंपलिंग और जांच

अध्ययन में शामिल हर स्तनपान कराने वाली मां से उनकी पूरी स्वेच्छा के साथ लगभग 5 मिलीलीटर स्तनदूध एकत्र किया गया। नमूने स्टरलाइज़्ड फाल्कन ट्यूबों में लिए गए और फिर तुरंत ही 2 से 6 डिग्री सेल्सियस के बीच ठंडे तापमान में सुरक्षित रखकर पटना के महावीर कैंसर संस्थान एवं अनुसंधान केंद्र (एमसीएसआरसी) भेजे गए, जहां इनकी जांच हुई।
स्तन दूध में यूरेनियम (U-238) की मात्रा जानने के लिए दूध के हर नमूने को सावधानीपूर्वक रासायनिक प्रक्रिया से गुज़ारा गया। पहले 0.5 मिलीलीटर दूध को एक कांच के फ्लास्क में 5 मिलीलीटर नाइट्रिक एसिड (HNO₃) के साथ मिलाकर पूरी रात प्रतिक्रिया के लिए छोड़ दिया गया। अगले दिन इस मिश्रण को हॉटप्लेट पर 90 से 120 डिग्री सेल्सियस तापमान पर धीरे-धीरे गर्म किया गया, जब तक यह सिमटकर लगभग 3 मिलीलीटर न रह जाए। इसके बाद इसमें नाइट्रिक एसिड और परक्लोरिक एसिड (HClO₄) का 6:1 अनुपात वाला मिश्रण मिलाया गया और तब तक गर्म किया गया जब तक कि लगभग 2 मिलीलीटर तरल न बच जाए। इस घोल को आगे 1 फ़ीसद HNO₃ से धोकर साफ किया गया और आसुत जल मिलाकर इसकी अंतिम मात्रा 10 मिलीलीटर कर दी गई। इसी प्रकार तैयार सभी 41 नमूनों को 20 मिलीलीटर की साफ कांच की शीशियों में सुरक्षित रखा गया।
इस विश्लेषण के लिए इंडक्टिवली कपल्ड प्लाज़्मा-मास स्पेक्ट्रोमेट्री (आईसीपी-एमएस) तकनीक का उपयोग किया गया, जो बेहद सूक्ष्म स्तर तक धातुओं की पहचान करने के लिए जानी जाती है। परिणाम की विश्वसनीयता और पूरी प्रक्रिया की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कड़े गुणवत्ता-नियंत्रण उपाय अपनाए गए।
क्रॉस-कंटेमिनेशन से बचने के लिए नमूनों को तैयार करने में प्रयुक्त सभी उपकरणों को पहले 6 फ़ीसद HNO₃ में 24 घंटे भिगोया गया, फिर उच्च-शुद्धता वाले विआयनीकृत मिलि-क्यू जल से तीन बार धोया गया। नमूना-पाचन के लिए उपयोग किए जाने वाले टेफ्लॉन कंटेनरों को भी 2 फ़ीसद HNO₃ में भिगोकर, अच्छे से धोने के बाद विशेष गर्म-हवा ओवन में पूरी तरह सुखाया गया।

जांच के नतीज़े

जांच के परिणामों से पता चला कि स्तन दूध के सभी 40 नमूनों में यूरेनियम की सांद्रता 0 से 6 मिलीग्राम प्रति लीटर (0-6 µg/L) के बीच थी। स्तन दूध के इन नमूनों में पाई गई अधिकतम यूरेनियम सांद्रता 5.25 µg/L थी। इससे मां के दूध में यूरेनियम मिलने की पुष्टि हुई। हालांकि, स्तन दूध में यूरेनियम सांद्रता के लिए अभी तक कोई अनुमेय सीमा निर्धारित नहीं है न ही अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर इसे लेकर कोई मानक तय किए गए हैं। ऐसे में सेहत के लिए यह कितना बड़ा ख़तरा है, यह कह फि़लहाल पाना मुश्किल है। लेकिन अब तक के कई वैज्ञानिक अध्‍ययनों में यह पता चल चुका है कि शरीर में यूरेनियम (U 238) जैसे रेडियो एक्टिव पदार्थ का पाया जाना कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी का कारण बन सकता है।

बिहार में भोजपुर, समस्तीपुर, बेगूसराय, खगड़िया, कटिहार और नालन्दा के 17-35 वर्ष की उम्र की 40 माताओं के स्तनदूध के नमूने शामिल थे, जिनमें यूरेनियम की मात्रा स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण स्तर पर पाई गई।

मां के दूध में खनिजों की मात्रा बढ़ने के मुख्य कारण

मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि स्तन-दूध में भारी धातुओं और हानिकारक खनिजों का बढ़ना मांओं के सीधे तौर पर प्रदूषित जल के इस्‍तेमाल से जुड़ा है। यह एक्सपोज़र मुख्यत: चार तरह से होता है:

भूजल में यूरेनियम और अन्य खनिजों का रिसाव: कुछ इलाकों की भूगर्भीय परतें यानी जलभृत (एक्‍वीफर) स्वाभाविक रूप से उन चट्टानों से बने हैं, जिनमें यूरेनियम तत्व पाया जाता है। गांवों में अक्सर बिना किसी जल-गुणवत्ता जांच के ही नए बोरवेलों की खुदाई कर दी जाती है। नतीजतन, जब बोरवेल की गहराई ज़्यादा होती है, तो पानी में खनिजों की सांद्रता बढ़ने लगती है। एक्‍वीफर में पानी की मात्रा कम होने पर भूजल में इन तत्‍वों की घुलनशीलता में बढ़ोतरी हो जाती है। इस तरह पानी में यूरेनियम जैसे रेडियोधर्मी तत्व पहुंच जाते हैं।
घरेलू स्तर पर शुद्धीकरण की सीमाएं: ज़्यादातर घरों में या तो कोई फिल्टर नहीं होता या फिर कम कीमत वाले कैंडल/यूएफ जैसे कमज़ोर फिल्टर इस्तेमाल होते हैं। ये साधारण फ़िल्टर यूरेनियम, फ्लोराइड या नाइट्रेट जैसे तत्वों को पानी से नहीं हटा पाते। इसके अलावा सब्जियों को धोने, खाना बनाने और बर्तन धोने जैसे कामों में अन फिल्‍टर्ड पानी के इस्‍तेमाल का प्रभाव भी पड़ता है। अध्ययन बताते हैं कि गर्भावस्था व स्तनपान कराने के दौरान महिलाओं का शरीर खनिजों को अधिक अवशोषित करता है। गर्भवती महिला या नवजात शिशुओं की मां पूरा दिन एक ही स्रोत से आने वाले पानी को पीती है और उसी से बना खाना भी खाती है। नतीजतन, यह तत्व बड़ी मात्रा में उनके दूध में पहुंच जाते हैं। यही वजह है कि पानी की गुणवत्ता खराब होने का पहला संकेत अक्सर मां के दूध पर दिखाई देता है।

महिलाओं का पानी से गहरा और अदृश्य रिश्ता: गांवों और कस्बों में घरों के लिए पानी के इंतज़ाम का बोझ महिलाओं पर ही होता है। पानी लाने, रखने (स्‍टोरेज) और पूरे परिवार के उपयोग के लिए उपलब्‍ध कराने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती है। लेकिन, सीमित संसाधनों और जानकारी की कमी के चलते अक्‍सर वे पानी की गुणवत्ता या बोरवेल की सुरक्षा सुनिश्चित करने की स्थिति में नहीं होतीं। इसलिए जल प्रदूषण का जोखिम सबसे पहले उन्हीं तक पहुंचता है और फिर उनके माध्यम से बच्चों तक।
भूजल में रेडियोन्यूक्लाइड की जांच न होना: ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियोन्यूक्लाइड की नियमित जांच लगभग नहीं के बराबर होती है। इसलिए पानी में यूरेनियम की समस्या अनुमान से कहीं बड़ी हो सकती है। रेडियोन्यूक्लाइड ऐसे तत्त्व या कण होते हैं, जो स्वाभाविक रूप से रेडियोधर्मी होते हैं, यानी वे धीरे-धीरे टूटते हैं और ऊर्जा यानी रेडिएशन छोड़ते हैं। इन तत्वों में यूरेनियम, थोरियम और रेडियम जैसे खनिज शामिल हैं, जो मिट्टी, चट्टानों और पानी, तीनों में पाए जा सकते हैं, विशेष रूप से उन इलाकों में जहां धरती की परतें पुरानी और खनिज-समृद्ध होती हैं।
ये तत्व जमीन की परतों से होते हुए भूजल में घुल जाते हैं और पीने के पानी के संग लोगों के शरीर में पहुंच जाते हैं। यह कण धीरे-धीरे शरीर में जमा होते जाते हैं। इसलिए रेडियोन्यूक्लाइड का असर तुरंत नहीं दिखता, लेकिन लंबे समय तक इनके शरीर में बने रहने से स्वास्थ्य जोखिम बढ़ने लगते हैं। गर्भवती महिलाओं और बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक होता है, क्योंकि उनका शरीर इन्‍हें अवशोषित करने के लिए अधिक सक्रिय होता है और इन तत्वों को आसानी से बाहर निकाल नहीं पाता।
इसलिए इन तत्‍वों की पानी में मौजूदगी की नियमित जांच बेहद ज़रूरी है। एक बार रेडियोन्यूक्लाइड भूजल में घुल जाएं, तो उन्हें हटाना मुश्किल हो जाता है और पानी को साफ़ करने के लिए रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) या आयन-एक्सचेंज जैसी उन्नत तकनीकों की आवश्यकता होती है, जो गांवों के साधारण व गरीब परिवारों में उपलब्ध ही नहीं होतीं। यही वजह है कि ग्रामीण इलाकों में जल-गुणवत्ता की वास्तविक स्थिति अक्सर हमारी कल्पना से कहीं ज्यादा गंभीर होती है।

रेडियोन्यूक्लाइड का असर तुरंत नहीं दिखता, लेकिन लंबे समय तक इनके शरीर में बने रहने से स्वास्थ्य जोखिम बढ़ने लगते हैं। गर्भवती महिलाओं और बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक होता है, क्योंकि उनका शरीर इन्‍हें अवशोषित करने के लिए अधिक सक्रिय होता है और इन तत्वों को आसानी से बाहर निकाल नहीं पाता।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ, क्या बताती है रिपोर्ट?

मां के दूध में यूरेनियम का मिलना इस बात का संकेत है कि भूजल में रेडियो एक्टिव प्रदूषण बहुत गहरा और व्यापक है। 'डिस्कवरी ऑफ यूरेनियम कंटेंट इन ब्रेस्टमिल्क एंड असेसमेंट इफ़ एसोसिएटेड हेल्थ रिस्क्स फॉर मदर्द एंड इंफ़ैंट्स इन बिहार, इंडिया’ नाम इस अध्ययन में स्तनपान कराने वाली 40 महिलाओं के दूध में यूरेनियम (यू- 238) पाया गया। इस अध्ययन के सह-लेखक और एआईएमएस दिल्ली के चिकिस्त्सक डॉक्टर अशोक शर्मा कहते हैं कि 70 फ़ीसद शिशुओं में ग़ैर-कैंसरजनित जोखिम दिखा। उन्होंने कहा है कि यूरेनियम का ज़रूरत से कम या ज़्यादा दोनों ही तरह का सेवन नवजात बच्चों की किडनी और हड्डियों के विकास पर असर डाल सकता है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि दूध में मिली मात्रा सुरक्षित सीमा से कम है, इसलिए वास्तविक नुक़सान की संभावना कम है।
हालांकि इसी अध्ययन में पाए गए संकेत स्थानीय भूगर्भीय परतों यानी जीयोजेनिक स्रोतों और भूजल की रासायनिकी (pH, ऑक्सीकरण-अवस्था, कुल घुलनशीलता) से मेल खाते दिखते हैं। यह केवल ताज़ा या छोटी अवधि में फैले प्रदूषण का नतीजा न होकर लंबे समय से चली आ रही प्रक्रिया का भी परिणाम हो सकता है। अध्ययन में ही इस बात की पुष्टि भी की गई है कि बिहार में लिए गए स्तनदूध के नमूनों में यूरेनियम मिला और शोधकर्ताओं ने इसकी वजह आसपास के दूषित भूजल को बताया। कई ज़िलों के भूजल और दूसरे जल-स्रोतों में फ्लोराइड, नाइट्रेट और आयरन पहले से ही गंभीर स्तर पर हैं। ऐसे में यूरेनियम की मात्रा भी बढ़ने से जल-गुणवत्ता की स्थिति और भी खराब हो जाती है।

यूरेनियम का ज़रूरत से कम या ज़्यादा दोनों ही तरह का सेवन नवजात बच्चों की किडनी और हड्डियों के विकास पर असर डाल सकता है।

भूजल पर निर्भरता और असमानता की जड़ें

उत्तर और पूर्वी बिहार के ग्रामीण इलाकों में पीने और खाना पकाने के लिए आज भी भूजल ही मुख्य स्रोत है। यहां सरकारी पाइप लाइनों के ज़रिये पानी सप्लाई सीमित है। लिहाज़ा ज्‍़यादातर कई घरों के पास बोरवेल के अलावा कोई विकल्प नहीं। यहां रहने वाले आर्थिक रूप से कमजोर परिवार पानी की जांच या आरओ (रिवर्स ऑस्‍मोसिस) वाटर प्‍यूरीफायर जैसी एडवांस क्लिनिंग तकनीक का खर्च नहीं उठा सकते। इसलिए वे भूजल का बिना किसी फिल्‍टरेशन के सीधे तौर पर इस्‍तेमाल करते हैं। नतीजतन, पेयजल और भोजन के ज़रिए पानी में उपस्थित दूषित तत्व मांओं के शरीर में पहुंच कर उनके दूध की गुणवत्ता को सीधे तौर पर प्रभावित कर रहे हैं। इसके बावज़ूद अपनी रोज़मर्रा की पानी की ज़रूरतों के लिए प्रदूषित भूजल पर इनकी निर्भरता इनकी मजबूरी है। मां के दूध में यूरेनियम मिलना किसी एक गांव या जिले की समस्या नहीं है। यह उस देशव्यापी जल-असमानता का प्रतिबिंब है जिसमें पानी तक तो पहुंच बराबर है, लेकिन सुरक्षित पानी तक पहुंच नहीं। जब जल-प्रदूषण की मार पड़ती है, तो सबसे पहले मांएं और नवजात शिशु प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि यह सिर्फ़ जल-गुणवत्ता का सवाल नहीं, बल्कि समानता, स्वास्थ्य और आने वाले समाज की सुरक्षा का मामला है।

जब जल-प्रदूषण की मार पड़ती है, तो सबसे पहले मांएं और नवजात शिशु प्रभावित होते हैं।

सरकार, संस्थाएं और ज़मीनी प्रयास: कहां है कमी है?

बिहार में सरकार और विभिन्न संस्थाओं द्वारा पाइपों से जलापूर्ति की योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन इन प्रयासों के बावज़ूद ग्रामीण स्‍तर पर गंभीर कमियां देखने को मिली हैं। कई इलाक़ों में हर घर नल योजना की पाइप्ड सप्लाई भी अभी तक भूजल पर ही निर्भर है, जिससे पानी की गुणवत्ता संबंधी जोखिम जस के तस बने रहते हैं। जल गुणवत्ता परीक्षण की क्षमता भी सीमित है, अधिकतर लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग (पीएचईडी) लैब पानी में मौजूद भारी धातुओं की जांच नहीं करते, जबकि कई ज़िलों में प्रदूषण का मुख्य स्रोत यही है। ज़मीनी स्तर पर ग्राम पंचायतों तक वैज्ञानिक जानकारी, परीक्षण परिणाम या जोखिम संबंधी चेतावनियां बहुत कम पहुंचती हैं, जिसके कारण स्थानीय समुदाय समय रहते आवश्यक कदम नहीं उठा पाते। ग़ैर-सरकारी संगठनों ने कुछ जगहों पर जागरूकता अभियान, वॉटर-सैंपल टेस्टिंग और क्षमता निर्माण के प्रयास ज़रूर किए हैं, लेकिन उनका दायरा बेहद छोटा है और बड़े पैमाने पर असर डालने के लिए अपर्याप्त साबित होता है। समग्र रूप से देखें तो राज्य में जल-सुरक्षा के लिए संस्थागत तंत्र तो मौजूद है, पर उसकी पहुंच, क्षमता और निरंतरता में अब भी बड़ी खामियां हैं।

क्या हैं समाधान?

जल-गुणवत्ता की नियमित और पारदर्शी जांच: जल-गुणवत्ता की नियमित और पारदर्शी जांच सुनिश्चित की जानी चाहिए, जिसमें ब्लॉक स्तर पर हर महीने भूजल का परीक्षण अनिवार्य हो। यूरेनियम, फ्लोराइड और नाइट्रेट जैसे प्रमुख तत्वों की जांच को मानक प्रक्रिया में शामिल किया जाए और सभी रिपोर्टें ऑनलाइन या पंचायत बोर्डों पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराई जाएं, ताकि लोग अपने पानी की स्थिति साफ़-साफ़ जान सकें।
सुरक्षित जल-स्रोतों की पहचान और प्राथमिकता: ऐसे कुंओं, बोरवेल और हैंडपंप से ही पानी निकाला जाए, जहां के भूजल में खनिज की मात्रा कम हो। इसके अलावा सतही जलस्रोतों के सुरक्षित उपचार की व्यवस्था भी की जानी ज़रूरी है, ताकि लोगों को पाइप लाइन के माध्यम से पानी को पहुंचाएं जाने से पहले ही उसे साफ़ और उपयोग लायक बनाया जा सके।
महिलाओं और परिवारों के लिए सामुदायिक जागरूकता: चूंकि ज़्यादातर घरों में पानी की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी महिलाओं के हिस्से ही होती है ऐसे में उन्हें पानी की गुणवत्ता को लेकर जागरूक करने से स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए “कौन सा फिल्टर किस प्रदूषक को रोकता है?” जैसी सरल जानकारी मुहैया करवाना और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं तक पहुंचाना कारगर होगा।
निजी-स्तर पर संभव उपाय: पेयजल की सफाई के लिए आरओ, एक्टीवेटेड कार्बन और आयन एक्सचेंज जैसे संयोजन प्रभावी हो सकते हैं। इसके साथ ही सामुदायिक स्तर पर मिनी-ट्रीटमेंट यूनिट्स को स्थापित करने से भी पानी को प्रदूषण मुक्‍त किया जा सकता है। लोगों को ऐसी जानकारियां भी दी जानी चाहिए कि पानी को उबालने से उसमें मौजूद जीवाणु और प्रदूषक तत्‍व काफ़ी तो हद तक खत्‍म हो जाते हैं, पर इससे पानी में मौज़ूद हानिकारक खनिजों की मात्रा कम नहीं होती है। इसलिए यह पानी को प्रदूषण मुक्‍त करने का पूरी तरह से कारगर उपाय नहीं है।
नीतिगत स्तर पर सुधार: हर घर नल योजना में सुरक्षित और पर्याप्त पेयजल की उपलब्धता, घरेलू उपयोग के लिए पानी की विश्वसनीय आपूर्ति, कृषि और आजीविका के लिए पानी, औद्योगिक और आर्थिक गतिविधियों के लिए पानी, नदियों, झीलों और भूजल का संरक्षण एवं पर्यावरणीय प्रवाह जैसे जल सुरक्षा पहलुओं को अनिवार्य किया जाए। पानी में भारी धातुओं की जांच को पीएचईडी की मानक प्रक्रियाओं का हिस्सा बनाया जाए। इसके लिए शोध संस्थानों और राज्य सरकारों के बीच आपसी सहयोग और तालमेल को बढ़ाने से भी स्थित बेहतर होगी।

मां के दूध में यूरेनियम मिलना किसी एक गांव या जिले की समस्या नहीं है। यह उस देशव्यापी जल-असमानता का प्रतिबिंब है जिसमें पानी तक तो पहुंच बराबर है, लेकिन सुरक्षित पानी तक पहुंच नहीं। जब जल-प्रदूषण की मार पड़ती है, तो सबसे पहले मांएं और नवजात शिशु प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि यह सिर्फ़ जल-गुणवत्ता का सवाल नहीं, बल्कि समानता, स्वास्थ्य और आने वाले समाज की सुरक्षा का मामला है।

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