कानपुर में गंगा के बेहाल  
प्रदूषण और जलगुणवत्ता

संदर्भ गंगा : कानपुर गंगा में औद्योगिक प्रदूषण (भाग 2)

कानपुर में दस औद्योगिक क्षेत्र हैं, जहां 280 उद्योग हैं जो प्रदूषण फैलाते हैं, इनमें लगभग 125 चमड़ा कारखाने शामिल हैं। पनकी, अरमापुर, गोविन्दनगर समेत अन्य क्षेत्रों का कचड़ा पांडव नदी में और शहर के उत्तर से सीवेज एवं अन्य उद्योगों का कचड़ा गंगा में जाता है।

Author : रामदत्त त्रिपाठी

गंगा को प्रदूषित करने में उत्तर प्रदेश का 33 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल का 27 प्रतिशत तथा बिहार का 20 प्रतिशत योगदान है।

गंगा में मुख्यतः छ: प्रकार का प्रदूषण है:-

  • 1. गंगा तट पर बसे नगरों का सीवेज, स्लज।

  • 2. गंगा के किनारे लगे उद्योगों का दूषित उत्प्रवाह।

  • 3. गंगा के प्रदूषण जलग्रहण क्षेत्र में वायु प्रदूषण।

  • 4. गंगा के मैदान में डाली जाने वाली कीड़ेमार दवाएं तथा रासायनिक उर्वरक।

  • 5. गंगा में शवों का फेंका जाना अथवा किनारे स्थित श्मशान घाट।

  • 6. पहाड़ों में पेड़ों की कटान।

चूंकि शहरी सीवेज एक प्रकार से औद्योगिक सभ्यता एवं गतिविधियों का हिस्सा है। इसी तरह कीड़ेमार दवाएं एवं रासायनिक उर्वरक औद्योगीकरण का ही परिणाम हैं। इसलिए इन्हें भी औद्योगिक जल-प्रदूषण की परिधि में रखकर देखा जाना चाहिए। वैसे तो गंगा में प्रदूषण गोमुख से ही शुरू हो जाता है पर ऋषिकेश और हरिद्वार तक अब गंगा आम तौर पर साफ है। 

एक हद तक गढ़मुक्तेश्वर के ब्रज घाट तक गंगा साफ है, पर वालावाल की कांच मिल, कुमाऊं रुहेलखण्ड की चीनी मिलों, मुरादाबाद, बरेली, शाहजहांपुर, हरदोई का गंदा जल, बरेली के कृत्रिम रबर कारखानों तथा चीनी मिलों का पानी, रुड़की, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलंदशहर, फर्रुखाबाद, कानपुर, इलाहाबाद (फूलपुर एवं नैनी) के कारखानों एवं नगर का गंदा पानी सीधे अथवा सहायक नदियों से गिराया गया है। 

यमुना के माध्यम से हरियाणा, दिल्ली, आगरा और मथुरा, सरयू से अवध तथा गोमती से पीलीभीत, खीरी, लखनऊ, सीतापुर जौनपुर आदि शहरों की गंदगी गंगा में गिरायी जाती है। सिंचाई के लिए अनेक नहरें निकाल लेने के कारण गंगा में पानी बहुत कम हो जाने से प्रदूषण की स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है। उत्तर प्रदेश में 54 बड़े उद्योगों की सूची बनायी गयी है, जो गंगा को गंभीर रूप से प्रदूषित करते हैं।

इनके प्रभाव का आंकलन करने से पहले यहां औद्योगिक तथा नगरीय गतिविधियों के लिए पहाड़ों में पेड़ों की कटान का जिक्र करना जरूरी है। हिमालय के जंगलों की अंधाधुंध कटाई से न केवल पर्वतीय क्षेत्रों में बाढ़ आया करती है, वरन् पहाड़ों की मिट्टी तथा पेड़ों का मलवा बहकर नदी की तलहटी में जमा होने से उसकी स्वाभाविक गति में बाधा डालकर प्रदूषण का कारण बनती हैं। तलहटी में पर्याप्त बालू होने से जल की गंदगी साफ होती रहती थी, किन्तु अनेक नहरें निकलने से पानी कम हो जाने के कारण अब गंदगी तलहटी में जमा होकर प्राकृतिक छनन क्रिया में बाधा बन जाती है।

गंगा में औद्योगिक प्रदूषण का प्रत्यक्ष प्रभाव नरोरा से दिखने लगता है। अलीगढ़ विवि० के डा. मो. अजमल की रिपोर्ट 1983 में बताया गया है कि गंगा के पानी में सर्वाधिक भारी धातुएं नरोरा, कानपुर और इलाहाबाद में मिलीं। जिंक धातु सबसे ज्यादा नरोरा में, ताबां, शीशा, लोहा और मैगनीज सबसे अधिक इलाहाबाद में और क्रोमियम, कैडमियम, तथा कोबाल्ट धातुएं कानपुर के पानी में मिली थीं।

तीन साल बाद वर्ष 1986 में आई.टी.आर.सी. लखनऊ के एक अध्ययन में बताया गया कि गढ़मुक्तेश्वर से आगे गंगा के पानी में क्रोमियम और आयरन 3.742 तथा 1.026 मि.ग्रा. प्रति ली. से काफी अधिक पाया गया। कन्नौज से लेकर त्रिघाट तक आयरन और मैगनीज धातुएं काफी ज्यादा पायी गयीं।

नरोरा से ऊपर गंगा में प्रदूषणकारी प्रमुख उद्योग एचएएल. की हरिद्वार इकाई है, जबकि कानपुर तथा इलाहाबाद में तमाम हैं। कानपुर से पहले कन्नौज के पास काली और रामगंगा मेरठ, आगरा तथा मुरादाबाद, बरेली मंडलों का बहुत अधिक मात्रा में शहरी और औद्योगिक कचरा लेकर गंगा में मिलती हैं।

जहां तक नरोरा परमाणु ऊर्जा केंद्र का सवाल है उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किर्लोस्कर कंसल्टेंट लि. से कराये गये अध्ययन में कहा गया है कि 30 साल पहले यहां भूकंप आ चुका है। यद्यपि नरौरा परमाणु केन्द्र के ढांचे में उपयुक्त सुधार किये गये हैं पर भूकंप से भयावह विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।

कानपुर में गंगा प्रदूषण

कन्नौज से चलकर कानपुर पहुंचते-पहुंचते गंगा अपने आपको कुछ साफ (भारी धातुओं, रसायनों को छोड़कर) कर लेती है। कन्हैयापुर (श्रीकृष्ण के नाम पर) का अप्रभंश होते-होते बना कानपुर देश के सबसे पुराने औद्योगिक नगरों में से एक है। शहर के उत्तरी किनारे गंगा बहती है तो दक्षिण में पांडव और सन। 1778 में ब्रिटिश सेना ने यहां कैंटोनमेंट बनाया। उसके बाद यह उद्योग और वाणिज्य के प्रमुख केन्द्र के रूप में उभरता गया। गंगा इस केन्द्र के लिए यातायात का प्रमुख साधन बनी। यहां पहला प्रमुख उद्योग हामेंस और सैडलरी 1860 में स्थापित हुआ। 

मयूर मिल 1874 में, कानपुर बूलेन मिल्स 1876 में और विक्टोरिया मिल्स 1885 में। इस तरह 20वीं सदीं जाते-जाते कानपुर कपड़ा, चमड़ा और जूट आदि उद्योगों का प्रमुख केन्द्र बन गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यहां रक्षा उपकरण कारखाने लगे। उसके बाद रेयान मिल्स, हवाई जहाज, इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग, उर्वरक, स्कूटर तथा रासायनिक उद्योग भी।

औद्योगीकरण की इस तेज रफ्तार के साथ यहां आबादी भी बढ़ी। 1901 में यहां की आबादी 2.02 लाख थी जो 1981 में 16.85 हो गयी, तथा अब 20 लाख हो चुकी है, लेकिन इस बढ़ते शहरीकरण तथा औद्योगीकरण के अनुपात से पानी, सीवरेज, बिजली, आवास, चिकित्सा और शिक्षा आदि की सुविधाएं नहीं बढ़ी, जिसका दुष्परिणाम पर्यावरण संकट के रूप में है।

गंगा से एक तो ऊपर सिंचाई के लिए काफी पानी निकाल लिया जाता है। दूसरे भैरोघाट पंपिंग स्टेशन से शहर की सप्लाई के लिए गंगा से 20 करोड़ लीटर पानी प्रतिदिन निकाल लिया जाता है। इसके अतिरिक्त लगभग 24 करोड़ ली. पानी रोज पावर हाउस के लिए चाहिए। पिछले लगभग तीन दशक से गंगा कानपुर से दूर हटती जा रही है और बहुप्रचारित नागरिक अभियान के बावजूद वह घाटों पर वापस नहीं लायी जा सकी है। इस समय गंगा भैरोघाट से सात किलोमीटर दूर चली गयी है और पंपिंग स्टेशन तक एक कच्ची नहर से पानी लाया जाता है। अब कानपुर के पुराने घाटों पर पवित्र गंगा जल के बजाय सीवेज और औद्योगिक उत्प्रवाह युक्त गंदा, बदबूदार और काला पानी नाले की तरह बहता है। इनमें भी सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि पुराने नवाबगंज शहर का नाला पंपिंग स्टेशन से पहले ही गंगा में गिरकर पेयजल सप्लाई को प्रदूषित करता है। पंपिंग स्टेशन से नीचे श्मशान घाट है। बरसात में श्मशान घाट की गंदगी भी पंपिंग स्टेशन की चैनल में आ जाती है।

कानपुर शहर में कुल दस औद्योगिक क्षेत्र हैं। छोटे-बड़े और मझोले कुल मिलाकर यहां 280 उद्योग ऐसे पाये गये है जो प्रदूषण फैलाते हैं। इनमें से लगभग 125 चमड़ा कारखाने हैं। शहर की बनावट ऐसी है कि जहां पनकी, अरमापुर, फजलगंज, गोविन्दनगर, किदवई नगर, विजय नगर, सी.ओ.डी., दादानगर आदि औद्योगिक क्षेत्रों का दूषित कचड़ा पांडव नदी में आता है, वहीं शहर के उत्तरी क्षेत्र का सारा सीवेज, स्लज, जाजमऊ स्थित चमड़ा उद्योग, एच.ए.एल., टेफकों, एलगिन मिल्स, लाल इमली, म्योर मिल, केमिकल्स आदि अनेक कारखानों का कचड़ा नालों के जरिये गंगा में आता है।

इसका कारण शहर के बीचों-बीच स्थित जी.टी. रोड है। रोड से उत्तर की गंदगी सीधे गंगा में आती है और दक्षिण की पांडव नदी में होकर फतेहपुर के पास गंगा में गिरती है।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने गंगा शुद्धि अभियान के अंतर्गत जिन 34 बड़े उद्योगों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की है उनमें से 21 कानपुर में स्थित हैं।

ये हैं- मेसर्स जे.के. रेयान, कानपुर केमिकल वर्क्स, एच.ए.एल., म्योर मिल्स, जे.के. काटन मिल्स, मोतीलाल पदमपत उद्योग, न्यू विक्टोरिया मिल्स, मेसर्स टैनरी ऐंड फुटवियर कार्पोरेशन आफ इंडिया, आडिनेंस इक्विपमेंट फैक्ट्री, आई.ई.एल. पनकी, एलगिन मिल नं. 1 और 2, कानपुर बुलेन मिल्स, हिन्दुस्तान वेजीटेबुल आयल कारपोरेशन, स्माल आर्म्स फैक्ट्री, कानपुर टेक्सटाइल मिल, अर्थर्टन क्लाथ मिल्स, लक्ष्मी रतन काटन मिल्स, स्वदेशी काटन मिल्स और पनकी थर्मल पावर हाउस, इनमें से कुछ का पानी सीधे गंगा में न आकर पांडव के जरिये आता है। इनमें से अनेक ने ट्रीटमेंट प्लांट लगाये हैं, लेकिन व पूरी तरह कारगर नहीं हैं।

कानपुर के ये उद्योग कारखाने जल को सीधे प्रदूषित करने के साथ ही समूचे वायुमंडल को भी धुंए और जहरीली गैसों से भर रहे हैं जो अंततः बरसात में नीचे ही आता है।

इन कारखानों और शहर के दक्षिणी हिस्से की गंदगी जिन नालों से होकर सीधे गंगा में आती है वे हैं-

रानीघाट नाला, नवाबगंज नाला, भैरोघाट, पुलिस लाइन नाला, एलगिन मिल नाला, परमन घाट नाला, पुलिस लाइन नाला, सुरसैया घाट नाला, गुप्तार घाट नाला, सरैया घाट नाला, हॉस्पिटल नाला, गोलाघाट नाला, गोल्फ क्लब नाला, बंगाली घाट नाला, बेरिया घाट नाला, वाजिदपुर नाला तथा जाजमऊ में सीवरेज बाई पास चैनल।

इस तरह कानपुर में 22 करोड़ लीटर औद्योगिक तथा शहरी गंदगी गिरती है। कानपुर से पहले बिठुर घाट में पानी अपेक्षाकृत साफ है, किन्तु शहर से नीचे शेखपुरा पहुंचते-पहुंचते अत्यधिक प्रदूषित हो जाता है। घुलित आक्सीजन में कमी, अधिक बी.ओ.डी., नाइट्रोजन एवं वैक्ट्रीरिया की अधिकता के कारण यह मानव उपयोग के लिए खतरनाक है। यह प्रदूषण पानी की कमी से गर्मी में और भी बढ़ जाता है।

नया पुल पार करके उन्नाव से कानपुर में प्रवेश करते ही जो भयंकर दुर्गंध नाक में रुमाल लगाने को विवश करती है, वह जाजमऊ के चमड़ा उद्योग की देन है। कानपुर में छोटे-बड़े सब मिलाकर 120 चमड़ा कारखाने हैं। वायुमंडल और गंगा को प्रदूषित कर जनजीवन प्रदूषित करने वाले इन कारखानों को सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश से तब तक बंद करवा दिया था, जब तक ये प्राथमिक शुद्धिकरण संयंत्र नहीं लगा लेते। इनमें से 80 की गंदगी सीधे गंगा में जाती है। जो नाले यह गंदगी गंगा में ले जाते हैं वे हैं डबका नाला, सात टैनरी नाला, सुपर टैनरी नाला। सुप्रीम कोर्ट फैसले के बाद अब अनेक चमड़ा कारखानों की गंदगी सीधे नालों के बजाय जाजमऊ सीवेज बाई पास चैनल के जरिये गिरायी जाती है।

जाजमऊ सीवेज पंपिंग स्टेशन पर 90 इंच व्यास की कवर्ड सीवर लाइन अनेक क्षेत्रों की गंदगी लाती है। यहां स्थित पुराना सीवेज पंपिंग स्टेशन अब बेकार हो गया है और अब उसकी जगह एक नया पंपिंग स्टेशन बन रहा है। इस सीवेज पंपिंग स्टेशन से पहले खेतों को सिंचाई के लिए सीवेज का पानी दिया जाता था। लेकिन एक तो पुराना पंपिंग स्टेशन खराब हो चुका है, दूसरे मुख्य सीवर लाइन में चमड़ा कारखानों का उत्प्रवाह आ जाने से यह सीवेज खेतों की फसल जला देता है। इसलिए अब 90 इंच मोटे व्यास की सीवर लाइन की गंदगी सीधे नाले से गिरायी जा रही है। 

पंपिंग स्टेशन के पास बने तेल डिपो में आने वाला मैला भी यहीं सीवर लाइन में घोलकर गंगा में बहा दिया जाता है। पिछले साल नदी की धारा पंपिंग स्टेशन के पास थी, अब दूर चली गयी है, इसलिए यह सारी गंदगी किनारे-किनारे नाले के रूप में जाकर कटरी में गंगा में गिरती है।

प्रदूषण नियंत्रण कार्य में लगे अधिकारी स्वीकार करते हैं कि यहां गंगा को शुद्ध करने के अभियान का अभी तक कोई खास असर नहीं पड़ा। बल्कि अब सीवेज और चमड़े कारखानों का पानी एक साथ मिलाकर निचली धारा में छोड़ने से आगे के गांव वालों की अपनी तथा उनके जानवरों, फसल, पक्षियों आदि के लिए खतरा और बढ़ गया है।

पंपिंग स्टेशन के पास जमीन के एक टुकड़े में फसल बोने के लिए फावड़े से खुदाई कर रहे जवाहर ने बताया कि गंदगी की वजह से अब गंगा के पानी में मछलियां नहीं टिकती। गंदगी और जहरीले पानी के कारण कानपुर शहर से काफी दूर तक मछलियां समाप्त प्रायः हैं। कानपुर में गंगा का पानी अत्यधिक प्रदूषित हो जाने के कारण निचली धारा से आने वाली मछलियां ऊपर की धारा में कानपुर से आगे नहीं जा पातीं। जबकि कुछ मछलियां अंडा देने के लिए ऊपर पहाड़ी क्षेत्रों तक जाती थीं।

मछलियों पर आया यह संकट जानेगांव, किशुनपुर, मदारपुर, गोलाघाट और पुराना पुल के मछुवारों को भी झेलना पड़ता है। अन्य स्थानों की तरह कानपुर के मछुवारे भी अब अपनी रोजी के लिए गंगा और पांडव जैसी नदियों का सहारा छोड़कर तालाबों की ओर भाग रहे हैं। नालों के प्रदूषण के कारण गंगा के किनारे होने वाली खरबूज, तरबूज तथा करेला और तरोई की खेती प्रभावित हुई है। अनेक स्थानों पर भूमिगत जल प्रदूषित हो चुका है।

गंगा प्रदूषण मुक्ति अभियान के अंतर्गत कानपुर में जल-अनगम के कई कार्य प्रस्तावित हैं। इनके अंतर्गत एक सीवेज तथा औद्योगिक उत्प्रवाह शुद्धिकरण संयंत्र लगाया जाएगा। चकेरी एयरफोर्स स्टेशन ने आपत्ति की थी कि यह संयंत्र लग जाने से आसपास मंडराने वाले पक्षियों के कारण वायुयानों की सुरक्षा को खतरा होगा। इनके अलावा कुछ ठेकेदारों ने मुकदमे कर दिये थे। इन सबके कारण ट्रीटमेंट प्लांट जाजमऊ में लगाना तय हुआ है। लेकिन इस प्लांट में अनुमानतः 16 करोड़ लीटर सीवेज शुद्धिकरण की क्षमता होगी और शेष लगभग छः करोड़ लीटर फिर भी सीधे गंगा में जायेगा। शहर के 13 बड़े नाले टेप करके इस ट्रीटमेंट प्लांट से जोड़े जा रहे हैं। इनके लिए नवाबगंज, भैरोंघाट और गुप्तार घाट में पंपिंग स्टेशन बनाये जा रहे हैं। नीदरलैण्डस, भारत सरकार तथा जे.के. सिंथेटिक्स के सहयोग से यहां पर्यावरण शुद्धि का एक पायलट प्रोजेक्ट भी निर्माणाधीन है।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी एस.एल. गोयल ने बताया कि नगर के छः उद्योगों ने पूर्ण शुद्धिकरण संयंत्र लगा लिये हैं। इनमें जे.के. सिंथेटिक्स, एच.ए.एल. और म्योर मिल्स उल्लेखनीय हैं। 120 चमड़ा कारखानों में से 84 ने प्राथमिक शुद्धिकरण संयंत्र लगाये हैं। श्री गोयल ने स्वीकार किया कि ट्रीटमेंट में प्लांट लगाने के बावजूद उद्योगपति कंजूसी में इन्हें नहीं चलाते हैं। श्री गोयल का कहना है कि अभी तक हमारे उद्योगपतियों में पर्यावरण संरक्षण का संस्कार ही नहीं पड़ा है। बोर्ड के कानपुर नगर महापालिका समेत 28 उद्योगों के खिलाफ अदालत में मुकदमे दायर किये हैं।

पाडंव नदी में मछलियों की खालें और गंगा में उनके काफी कम हो जाने के बावजूद मत्स्य विभाग उसकी तरफ से आंख मूंदे रहता है। स्थानीय अधिकारियों का कहना है नदियां हमारे विभाग के नियंत्रण में नहीं हैं।

पुर्व कांग्रेसी सांसद जगदीश अवस्थी ने कानपुर महानगर में रासायनिक उद्योगों द्वारा नदी तथा भूमिगत जल के प्रदूषण का मामला तीन साल पहले संसद में उठाकर अपना क्षोभ व्यक्त किया था। लेकिन उससे कोई विशेष असर अभी तक नहीं पड़ा है।

गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कालेज कानपुर में सोशल प्रिवेंटिव ऐंड मेडिसिन डिपार्टमेंट के डा० गोपालकृष्ण और सुरेश चंद्र ने अपने अध्ययन 1984 में बताया है कि गंगा में चमड़ा कारखानों की वजह से बहुत अधिक मात्रा में क्रोमियम है, जो ट्रीटमेंट प्लांट लगाने से भी साफ नहीं हो सकेगी। इसकी वजह से गंगा में नहाने वाले लोगों में कंजक्टिवाइरिस, बोंकाइटिस तथा कैंसर जैसे रोग का खतरा रहता है। इनकी जांच में बंगालघाट के पास क्रोमियम प्रति लीटर 8.65 से 12.66 मि.ग्रा. की खतरनाक सीमा तक पाया गया।

एच.बी.टी.आई. के चमड़ा विभाग के डा. डी.के. निगम ने अपने अध्ययन में कहा है कि क्रोमियम का मानव शरीर पर अत्यधिक घातक प्रभाव पड़ता है और इससे हैजा, पीलिया, कैंसर, बच्चों में जलगत मानसिक गड़बड़ियां उत्पन्न हो सकती हैं।

यहां एक बात स्पष्ट करना और जरूरी है कि यह प्रदूषण पानी के लिए गंगा का पूरी तरह से निर्भर मनुष्यों, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों को सीधे तो हानि पहुंचाता ही है। किन्तु इनमें से अनेक विषैली धातुएं नदी की मछलियों में जमा होती रहती है। जो मछलियां ऐसे प्रदूषित पानी में रहती हैं। उन्हें खाने पर ये घातक धातुएं मानव शरीर में और उग्र रूप में पहुंचती हैं।

इस समय केंद्रीय मंत्री दिनेश सिंह ने सासंद के रूप में अपने कस्बे कालाकांकर में गंगा के इस प्रदूषण से उत्पन्न खतरे के बारे में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था, लेकिन प्रदूषण बोर्ड ने उन्हें जवाब दिया कि कालाकांकर में गंगा के पानी में इस तरह का खतरा नहीं है। यह जवाब सही प्रतीत नहीं होता, क्योंकि कानपुर से कालाकांकर के बीच में गंगा देखने में साफ लग सकती है, बी.ओ.डी. और सी.ओ.डी. तथा पी.एच. घट सकता है। पर विषैली धातुओं और रसायनों का प्रदूषित समाप्त होना असंभव लगता है।

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