उच्च ढलान, आशिक भंगुरता तथा कृषि योग्य भूमि से कम उत्पादकता के कारण हिमालयी प्रदेश में भूमि प्रबंधन एक ज्वलत मुद्दा बना हुया है। इस शोध प्रपत्र का मुख्य उद्देश्य अलकनंदा बेसिन मे भूमि प्रबंधन एवं जीविकोपार्जन स्थिरता को कृषिगत विकास के माध्यम से जांच करना है। इस अध्ययन को पूर्ण करने के लिए गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरह के आकड़ो (प्राथमिक एवं द्वितीयक) के एक सेट इस्तेमाल किया गया है और आकड़ो को एकत्र किया गया है। अध्ययन क्षेत्र के कुल भौगोलिक क्षेत्र में से 61: भूमि वनाच्छादित है, 13: भूमि कृषि योग्य और शेष लगभग 26: अन्य भूमि उपयोग की श्रेणी में आते है। लगभग 70: आबादी के लिए फसलें ही मुख्य आजीविका का विकल्प हैं जबकि पारंपरिक रूप से उत्पादित फसल आवश्यकता से बहुत कम है। अलकनंदा बेसिन में कृषि के अंतर्गत बागाती कृषि विकास के लिए जलवायु परिस्थितियां ही उपयुक्त हैं। यह अध्ययन दर्शाता है कि कृषि विकास आजीविका स्थिरता को पुर्नस्थापित करेगा। बहुत
अलकनंदा घाटी पारिस्थितिक रूप से नाजुक, भूवैज्ञानिक रूप से संवेदनशील, विवर्तनिक और भूकंपीय रूप से अधिक सक्रिय, भौगोलिक रूप से दूरस्थ, सामाजिक रूप से पिछड़ा और आर्थिक रूप से अविकसित है (सती, 2014 ) । प्रमुख कारक जैसे भूभाग, ऊँचाई ढलान प्रवणता, भेद्यता, नाजुकता, जलवायु और मानवजनित गतिविधियाँ, भूमि प्रबंधन और आजीविका स्थिरता की विशेषता हैं। पारंपरिक रूप से की जाने वाली कृषि तथा कम उत्पादन के साथ अपने फसल उत्पादन पद्धति के कारण पिछड़ेपन का शिकार है। हालाँकि कृषि के साथ साथ फल और मौसमी सब्जियां संबंधी परिस्थितियाँ भी इसकी खेती के लिए अनुकूल हैं। अलकनंदा घाटी में तीन मुख्य उच्चावच हैं जैसे घाटियाँ, मध्य ऊँचाई और उच्चभूमि ।
उर्ध्वाधर परिदृश्य में अध्ययन क्षेत्र में भिन्न भिन्न कृषि पारिस्थितिकी हैं। पहला जोन विभिन्न बागवानी फसलों की खेती के लिए बहुत उपयुक्त हैं वही खट्टे फलों के लिए घाटिया और मध्य ऊंचाई में सेब की खेती विकसित होने की सभी अनुकूल परिस्थितियाँ है। ऊंचाई वाले क्षेत्र में बिना मौसम सब्जियां जैसे प्याज, टमाटर, आलू बीन्स और पत्तेदार हरी सब्जियों की उत्पादन क्षमता उच्च होती है। इसके अलावा मध्य ऊंचाई और हाइलैंड्स में औषधीय पौधे भी उगाये जाते है, जिसके विस्तार और विकास की संभावना बहुत अधिक है। यह सामान्य अनुभव है कि बेसिन की पारिस्थितिक और परिस्थितियाँ अनाज की खेती के बजाय फलों की खेती के लिए अधिक उपयुक्त हैं (एटकिंसन, 1882)। फलों की खेती के साथ साथ चाय बागान, बेमौसमी सब्जियों की कृषि क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था को और बढ़ावा दे सकती है (सती, 2004 ) ।
उत्तराखंड राज्य में स्थित अलकनंदा बेसिन न केवल उच्च ऊंचाई और ठंडी जलवायु के कारण, बल्कि क्षैतिज और उर्ध्वाधर विभिन्नताओ के कारण उत्कृष्ट है। घाटी क्षेत्रों से उत्तरी सीमा तक उपोष्णकटिबंधीय आर्द्र और जैव जलवायु परिस्थितियों में कदम दर कदम जोन (समशीतोष्ण, उपसमशीतोष्ण और अल्पाइन) परिवर्तन होता है ( एटकिंसन, 1882)। वर्तमान मे बेसिन पारिस्थितिक रूप से नाजुक और आर्थिक रूप से अविकसित है। भंगुर ढाल अधिक होने के कारण मिट्टी की कटान अधिक होती है जिस कारण यहा मिट्टी की उर्वर क्षमता कम हो जाती है। मिट्टी की उर्वरता कम और अपर्याप्त होने के कारण परंपरागत रूप से उगाए जाने वाले अनाज की उत्पादकता कम कर देता है, जो आवश्यक भोजन को पूरा करने के लिए अपर्याप्त हैं। यहा बागाती कृषि बागवानी विकास में न केवल मदद करेगा बल्कि आजीविका स्थिरता की समस्या का हल भी देगा। यह अध्ययन अलकनंदा बेसिन में बागवानी कृषि विकास की क्षमता का भी जांच करता है। बागवानी कृषि के विकास से आजीविका वृद्धि, स्थिरता और नाजुक परिदृश्य को पुर्नस्थापित करने में सहायता भी मिलती है।
हिमालय क्षेत्र में स्थित अलंकनन्दा बेसिन के भू-आकृतिक स्वरूप के संदर्भ में भौगोलिक विस्तार, भूगर्भिक संरचना, जलवायु, अपवाह तंत्र, मृदा आदि का पक्ष महत्वपूर्ण हैं। भू-आकृतिक दृष्टि से यहां के उच्चांश पहाड़ियों, उपजलागम क्षेत्रों, शिखरों, हिमानियों, स्थलाकृतियों व मुख्य स्थलों की स्थिति एवं वनस्पति का आवरण अत्यधिक महत्व रखता है। पर्यावरण, प्रकृति के द्वारा नियमित व नियन्त्रित होने वाला तंत्र है, भौतिक रूप से प्रकृति निराकार प्रतीत होती है।
अलकनन्दा बेसिन का विस्तार 30°05' से 31°00′ उत्तरी अक्षांश तथा 78° से 80°15' पूर्वी देशांतर तक है। इस अनियमित आयताकार बेसिन की औसत चौड़ाई पूर्व-पश्चिम 95.36 किलोमीटर तथा उत्तर-दक्षिण की औसत लम्बाई 85.58 किलोमीटर है। अलकनन्दा बेसिन का कुल क्षेत्रफल 11167.29 वर्ग किलोमीटर है। इसका विस्तार केन्द्रीय गढ़वाल से लेकर उत्तर पूर्व गढ़वाल होते हुए कुमाऊ के उत्तर पश्चिम के कुछ हिस्से को सम्मिलित किए हुए है। इसके उत्तर में चीन, उत्तर-पश्चिम में उत्तरकाशी, दक्षिण पश्चिम में टिहरी, दक्षिण में पौड़ी गढ़वाल तथा पिथौरागढ़ एवं बागेश्वर जनपद बेसिन के पूर्वी सीमा का निर्धारण करते हैं। किसी भी क्षेत्र के धरातल पर वहां की भू-गर्भिक संरचना का व्यापक प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी की आंतरिक शक्तियों के कारण उत्थान तथा भ्रंशन क्रिया से विभिन्न स्वरुपों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, जिससे उच्चावच के आधार पर पर्वत, पठार एवं मैदानों का निर्माण होता है। अलकनन्दा बेसिन ऊंचाई के साथ अत्यधिक विषम ढाल व जटिल भू-आकृतिकी का क्षेत्र है। धरातलीय बनावट की यह विषमता व जटिलता जहां इस क्षेत्र के भौगोलिक वातावरण को तथा यहां के निवासियों के सामान्य जनजीवन को जहाँ एक ओर कठोर बनाती हैं, वहीं दूसरी ओर इस राज्य को भौतिक विविधता से भरपूर तथा प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न भी बनाती है।
शोध विधितंत्र (Reserch methodology) प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए शोधार्थी ने. प्राथमिक आंकड़े (सर्वेक्षण) एवं द्वितीयक आंकड़े (प्रकाशित एक अप्रकाशित) को सर्वाधिक उपयुक्त पाया, क्योंकि सर्वेक्षण विधि के अन्तर्गत ही अलकनंदा बेसिन की पारिस्थितिक रूप से नाजुक वातावरण में वास्तविक परिस्थितियाँ एवं विकास की सम्भावनाओं को समझा जा सकता है। द्वितीयक आंकड़े प्रकाशित एवं अप्रकाशित दोनों प्रकार के स्रोतों पर आधारित हैं, जिसके अन्तर्गत जिला सांख्यकीय पत्रिका, सांख्यकीय डायरी, सांख्यकीय सार, पर्यटन विभाग, पर्यावरण विभाग, आपदा जोखिम प्रबन्धन विभाग, आर्थिक सर्वेक्षण विभाग, जल प्रबन्धन विभाग आदि द्वारा प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट, एवं अन्य स्रोतों जैसे- शोध संस्थान, नीति आयोग, मानव संसाधन मंत्रालय, ग्रामीण मंत्रालय, कृषिमंत्रालय आदि द्वारा प्रकाशित लेख, रिपोर्ट, समीक्षा आदि इसके अलावा पूर्व में सम्पन्न हुए शोध-प्रबन्ध एवं शोध-पत्र, जर्नल एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख आदि पर निर्भरता है।
ग्राम चयन हेतु अलकनंदा बेसिन क्षेत्र में आने वाले लगभग 18 विकास खण्ड जो कि पांच जनपद चमोली, बागेश्वर, रूद्र प्रयाग, टिहरी गढ़वाल, एवं पौढ़ी गढ़वाल) में स्थित हैं। सम्मिलित पांचों जनपद में चमोली जनपद से 3 विकास खण्ड तथा रूद्र प्रयाग, टिहरी गढ़वाल एवं पौढ़ी गढ़वाल जनपद से एक-एक विकास खण्ड को अध्ययन के लिए चयन किया गया है। चयनित कुल छ: (06) विकास खण्ड (जोशीमठ, कर्णप्रयाग, पोखरी, अगस्त्यमुनि, कोट एवं देवप्रयाग) को अध्ययन में सम्मिलित किया गया है। ग्रामों के चयन हेतु प्रत्येक चयनित विकास खण्डों से दो-दो (02) ग्रामों का चयन किया गया है, इस प्रकार कुल 12 गाँवों को शोध
अध्ययन हेतु चयन किया गया, उन चयनित गांव में कुल 1639 परिवार निवास करते है जिसमें कुल 160 परिवारों को अध्ययन में शामिल किया गया है। प्रस्तुत शोध अध्ययन में जनपद, विकास खण्ड, गाँव एवं परिवार का चयन 'उद्देश्यपूर्ण' प्रतिचयन विधि' द्वारा किया गया है। आगे डेटा का विश्लेषण के लिए वर्णनात्मक सांख्यिकी का उपयोग किया गया है।
अलकनंदा बेसिन के चयनित कुल गांवों में 437.63 हेक्टेयर कृषियोग्य भूमि है जिसमें 330.28 हेक्टेयर शुद्ध बोया गया क्षेत्रफल है। आंकड़ें बताते हैं कि कुल शुद्ध बोया गया क्षेत्रफल में खरीफ की 330.28 हेक्टेयर खेती होती है जबकि रवी के अन्तर्गत शुद्ध बोया गया क्षेत्रफल 235.26 हेक्टेयर है जो शुद्ध बोए गए क्षेत्रफल से बहुत कम है वहीं अन्य फसलों के अन्तर्गत शुद्ध बोया गया क्षेत्रफल 42.31 हेक्टेयर है। चयनित गाँवों में सिंचित भूमि का क्षेत्रफल 67.57 हेक्टेयर जबकि असिंचित भूमि का क्षेत्रफल 262.24 हेक्टेयर है। इस प्रकार विश्लेषण स्पष्ट करता है कि सभी चयनित गांवों में कुछ गांवों में कृषि भूमि की स्थिति अच्छी है। जबकि कुछ गांवों में ऐसा नहीं दिखाई देता है।
कृषि विकास के लिए सीमित कृषि योग्य भूमि लगभग (13:) व पारंपरिक कृषि खेती के तरीकों के साथ कम उत्पादन अलकनंदा घाटी की विशेषता है। यद्यपि भूमि की दो श्रेणियां हैं, 1-बंजर भूमि 16: और अनुपयोगी भूमि 3: है । इन भूमि के बाद सबसे बड़ा भौगोलिक क्षेत्र वन (61) का है जो अभी तक बड़े पैमाने पर अप्रयुक्त हैं। इन भूमि श्रेणियों की आर्थिक व्यवहार्यता बागाती कृषि के लिए अधिक है। अलकनंदा बेसिन समशीतोष्ण जलवायु क्षेत्र में स्थित हैं जहाँ, पानी की आपूर्ति पर्याप्त और जलवायु परिस्थितियां भी बहुत उपयुक्त है। इस विशाल और अप्रयुक्त भूमि का विकास फलों के पेटियों जैसे (सेब और साइट्स वाले फल) के लिए करसकते है जो स्थानीय लोगों को आजीविका स्थिरता प्रदान कर सकता है और आर्थिक परिदृश्य को एक नये आयाम के साथ पुर्नस्थापित कर सकता हैं। अलकनंदा बेसिन का संपूर्ण समशीतोष्ण क्षेत्रफल बेल्ट के रूप में सीमांकित है, लेकिन यह योजना विभिन्न सरकार और स्थानीय स्तर के कारणों से असफल रही। बागाती कृषि पर अधिक बल यहाँ के स्थानीय लोगों के लिए आर्थिक दृष्टिकोण से एक नया जीवन दे सकता है। अलकनंदा बेसिन का सीमांकन फलों की खेती के लिए हॉर्टिकल्चर विभाग द्वारा 2004 मे किया गया, जिसे सारणी संख्या 12 मे दर्शाया गया है।
कुल पाँच फलों की पेटियाँ को 103 किमी लंबाई के अंदर सीमांकित किया गया है। बागाती कृषि के अंतर्गत कुल 2777.57 एकड़ क्षेत्र आता है। बागाती कृषि की ये 5 पेटिया कुल मिलाकर 21 गांवों मे फैली हुई है। समशीतोष्ण जलवायु के तहत, ज्यादातर कृषि सेब कि की जाती है। इसी तरह की अन्य क्षेत्रनदी घाटियों और मध्य क्षेत्रों में मिलते है जिसे फल बेल्ट के रूप में सीमांकित किया जा सकता है। अलकनंदा बेसिन के चमोली में नकदी फसलों के लिए चार विकास खंडों थराली, देबल, नारायणबगड़ और कर्णप्रयाग ही मुख्य रूप से जाना जाता है।
यह शोध प्रपत्र यह प्रस्तुत करता है, की सबसे अधिक नकदी फसलों का क्षेत्र नारायणबगड़ विकासखण्ड (17.5:) के पास हैं, जिसका अनुकरण थराली विकासखण्ड (8.4:) करता है। उत्पादकता के दृष्टिकोण से थराली विकासखण्ड (15.4:) सर्वाधिक है, जबकि नारायणबगड़ द्वितीय स्थान पर आता है । कर्णप्रायग विकासखण्ड (5.2:) के उत्पादन के साथ तीसरे स्थान पर आता है। जबकि देबाल विकासखण्ड 2.4: का उत्पादन करता है । सारणी संख्या 3 में चुने गए 12 गांवों की अनाज और फलोत्पादन के लिए उतूंगता क्षेत्रफल, उत्पादकता और उत्पादकता का सांख्यिकीय विवरण दिया गया है। सभी 12 गांवों की उगता 550 मीटर से 2300 मीटर के मध्य है जिसका मध्य मान 1466 मीटर हैद्य
यह परिकल्पित है की उचाई के साथ साथ फल का उत्पादन भी उच्च ही रहता है, परंतु अध्ययन क्षेत्र मे उचाई बढ़ने के साथ फलों की उत्पादकता कम है। खाद्य फसलों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रफल का मध्यमान 428.8 हेक्टेयर है जबकि फलों के अंतर्गत माध्य क्षेत्रफल 114.3 हेक्टेयर ज्ञात किया गया है। जबकि मध्य उत्पादकता 1345 कुंतल (खाद्य) और फलों की माध्य उत्पादकता 1107 कुंतल है।
इस प्रपत्र में भूमि प्रबंधन आजीविका स्थिरता और बागवानी विकास का वर्णन किया गया है। इस अध्ययन से ज्ञात होता है कि अलकनंदा बेसिन में बागवानी के कृषि के लिए उच्च क्षमता है। जहा उत्पादन और उपज के दृष्टिकोण से बागवानी फसलें अनाज की फसलों से अधिक होती हैं। अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि बागवानी का विकास करके आजीविका स्थिरता के साथ उसे पुर्नस्थापित भी कर सकते हैं। कृषि योग्य भूमि बंजर भूमि व वन भूमि को उचित अनुपात में शामिल करके बागाती कृ षि के अंतर्गत भूमि प्रबंधन को और अधिक विकसित किया जा सकता है। अध्ययन क्षेत्र में नए फल क्षेत्रों का सीमांकन किया जा सकता है, जहा बागवानी विकास की क्षमता है। सीमांत किसानों को खेती के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। बागवानी फसलें और पर्याप्त मात्रा में अभ्यास करने के लिए किसानों को सब्सिडी दी जा सकती है।
स्रोत:- इंटरनेशनल जर्नल ऑफ जियोग्राफी एंड एनवायरनमेंट