रिसर्च

लखनऊ महानगर: मृदा प्रदूषण (Lucknow Metro-City: Soil Pollution)

Author : डॉ. आर.ए. चौरसिया


मृदा, भूमि या मिट्टी प्रकृति का सर्वाधिक मूल्यवान संसाधन है। उपजाऊ मृदा क्षेत्र सदैव से मानव के आकर्षण केंद्र रहे हैं। नदी घाटी के उपजाऊ मृदा क्षेत्रों में ही सभ्यताओं का उदय हुआ और आज भी सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्रों में ही सर्वाधिक जनसंख्या निवास करती है। मृदा का उपयोग मुख्यतः कृषि कार्य के लिये होता है। यह मिट्टी हमारे जीवन के भरण पोषण से जुड़ी हुई है। मिट्टी का महत्त्व हमारे और समस्त जीव-जगत के लिये बहुत अधिक है। इसी महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए अथर्ववेद में

‘‘माता पृथ्वी पुत्रोऽहं पृथिव्या:’’

कहकर हमारे और पृथ्वी के सम्बन्धों की व्याख्या की गयी है। इसी पृथ्वी की ऊपरी सतह मृदा या मिट्टी के नाम से जानी जाती है। मृदा का वैज्ञानिक अध्ययन लगभग 200 वर्ष पहले प्रारम्भ हुआ था और आज मृदा विज्ञान का अध्ययन स्वतंत्र विज्ञान की सत्ता को प्राप्त कर चुका है।

मृदा की संरचना विविध शैलों के अपक्षय से हुई है। अपक्षय चक्र में समय चक्र के साथ मृदा पदार्थ का स्वरूप बदलता रहता है। इस प्रकार मृदा विकास प्रक्रिया में मृदा की एक विशिष्ट रूपा-कृति तैयार हो जाती है जिसे मृदा परिच्छेदिका (Soil Profile) के नाम से जाना जाता है, जो किसी भी मिट्टी की स्वतंत्र पहचान एवं विलक्षणता है। मिट्टी विकास कालक्रमों के अनुसार कई संस्तरों में विभाजित हो जाती है। इन संस्तरों में मृदा का ऊपरी संस्तर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि यह उपजाऊ एवं कृषि कार्य में प्रयुक्त होता है। इस उपजाऊ पर्त के निर्माण में 3000 से 12000 वर्ष का समय लगता है1

JOFFe J.S2 के अनुसार ‘‘मिट्टियाँ, जंतु, खनिज एवं जैविक पदार्थों से निर्मित प्राकृतिक वस्तु होती है जिसमें विभिन्न मोटाई के विभिन्न मंडल होते हैं। मृदा के ये मंडल आकारकी, भौतिक एवं रासायनिक संगठन एवं जैविक विशेषताओं के दृष्टिकोण से निचले पदार्थों से अलग होते हैं।’’

विश्व का 71 प्रतिशत खाद्यान्न मिट्टी से ही उत्पन्न होता है। खाद्यान्न उत्पादन योग्य भू-क्षेत्र सम्पूर्ण ग्लोब के मात्र 2 प्रतिशत भाग में ही उपलब्ध है।

अति सीमित कृषि भू-क्षेत्र होने पर खाद्य पदार्थों की समुचित उपलब्धि के कारण इस परिसीमित संसाधन को प्रदूषण से बचाना आज की महती आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये हम सभी को सम्मिलित प्रयास करना होगा।

प्राकृतिक पर्यावरण में प्रथम परिवर्तनकारी मानव क्रिया कृषि रही है। कृषि पारिस्थितिकी का पर्यावरण में अपना एक स्थान है।

“Agricultural ecosystem has its own identity in the environment. It is normally a balanced system. It is self sufficient and need not exchange any matter by either giving or taking from the outside3

मानव ने अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये अनेकानेक उर्वरकों कीटनाशकों का उपयोग कर मिट्टी को प्रदूषित कर दिया है। प्रकृति के इस महत्त्वपूर्ण तत्व मिट्टी को 1940 में जर्मनी के महान रसायन वेत्ता लीबिंग4ने मिट्टी को एक विशाल कठोेर की संज्ञा दी है। किंतु इसे हम इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं कि

‘‘शैल तथा खनिज पदार्थ के साथ जैव पदार्थों का मिश्रण ही मृदा है।’’

अमेरिकी मृदा विज्ञानी हिलगार्ड4 ने मिट्टी की परिभाषा इस प्रकार दी है-

‘‘मृदा वास्तव में एक स्वतंत्र प्राकृतिक पिंड है जिसके कई अवयव हैं यथा, खनिज, जैव पदार्थ, जल तथा वायु’’।

मृदा विज्ञान के जन्मदाता रूसी वैज्ञानिक डाकुचायेव5 (Dokuyachev) ने मिट्टी को प्रकृति का ‘‘चौथा साम्राज्य’’ कहा है। आगे कहा -

‘‘मृदा मात्र शैलों, पर्यावरण, जीवों और समय की आपसी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का परिणाम है।’’



वास्तव में भूमि प्रकृति का साम्राज्य है यह कृषि उपयोग के साथ-साथ सम्पूर्ण जीवधारियों के अस्तित्व का कारण है। मिट्टी एक पिंड रूप है, इसमें अनेक सूक्ष्म जीव हैं, जो इसकी उत्पादकता का निर्धारण करते हैं, इनकी उपस्थिति मिट्टी में जल और वायु की उपलब्धता के साथ रहती है इसके किसी भी अवयव में या अवस्था में असंतुलन होने पर उसके गुणों में विपरीत प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता गया वैसे-वैसे मिट्टी का दोहन और शोषण होता गया। इतना ही नहीं इसमें रद्दी की टोकरी समझ कर सभी प्रकार का कूड़ा करकट, मलवा, औद्योगिक अपशिष्ट आदि भरा जाने लगा और पर्यावरण प्रदूषण के साथ अतुल सहाय क्षमता वाली यह मिट्टी भी प्रदूषित हो गयी इसमें विषैले तत्व मिल गए और विषाक्तता उत्पन्न हो गयी।

इस प्रकार मिट्टी में भौतिक या मानवीय कारणों से मृदा की गुणवत्ता घटने लगती है तो उसे मृदा का ह्रास कहा जाता है। यह ह्रास मृदा के कटाव, अधिक उपयोग, पोषक तत्वों की कमी, जल की अधिकता या कमी, तापमान का घट-बढ़, जैवांश का असंतुलित अनुपात और प्रदूषकों के मिश्रण से उत्पन्न होता है। स्पष्ट है कि मृदा की गुणवत्ता के ह्रास के लिये मानवीय क्रियाकलाप अधिक उत्तरदायी है। जब मृदा में प्रदूषित जल, रसायन युक्त कीचड़ अपशिष्ट, कीटनाशक दवा एवं उर्वरक अत्याधिक मात्रा में प्रवेश कर जाते हैं, तो उनसे मृदा की गुणवत्ता घट जाती है। इसे मृदा का प्रदूषण कहा जाता है। इस मृदा प्रदूषण को अतिशय अनियंत्रित करने वाले सभी जीवधारियों में मनुष्य सबसे आगे है।6

अ. मृदा प्रदूषण के स्रोत (Sources Of Soil Pollution)
मृदा प्रदूषण के कारकों या स्रोतों को 5 वर्गों में रखा जा सकता है।
(i) भौतिक स्रोत (ii) जैव स्रोत (iii) वायुजनित स्रोत (iv) जीवनाशी स्रोत (v) नगरीय एवं औद्योगिक स्रोत

भौतिक स्रोत का सम्बन्ध प्राकृतिक एवं मानव जनित स्रोतों के मृदा अपरदन से होता है। मृदा अपरदन के महत्त्वपूर्ण कारकों में वर्षा की मात्रा तथा तीव्रता, तापमान तथा हवा, शैलीय कारक, वनस्पति आवरण तथा मिट्टियों की सामान्य विशेषताएँ सम्मिलित हैं।

जैवीय कारकों में सूक्ष्मजीवों एवं आवांछित पौधों को सम्मिलित किया जाता है, यह मृदा की उर्वरता एवं गुणवत्ता को कम करते हैं। मृदा प्रदूषण के जैव प्रदूषकों में मानव द्वारा परित्यक्त रोग जनक सूक्ष्मजीव, पालतू पशुओं द्वारा परित्यक्त गोबर आदि के माध्यम से उत्पन्न रोग जनक जीव, मृदा में उपस्थित रोगजनक सूक्ष्म जीव, आंतों में रहने वाले बैक्टीरिया एवं प्रोटोजोवा प्रकार के जीव। यह सूक्ष्म जीव विभिन्न स्रोतों से मृदा में प्रवेश कर उसे प्रदूषित करते हैं और यह आहार श्रृंखला में प्रवेश कर मानव-शरीर में भी प्रवेश करते हैं।

वायु जनित स्रोतों वाले मृदा प्रदूषक वास्तव में वायु के प्रदूषक होते हैं जिसमें कारखानों की चिमनियाँ, स्वचालित वाहन, तापशक्ति सयंत्रों तथा घरेलू स्रोतों से वायुमंडल में उत्सर्जन होता है, इन प्रदूषकों का कुछ क्षण पश्चात धरातल में धीरे-धीरे पतन होता है, और मिट्टी में पहुँच कर उसे प्रदूषित कर देते हैं। वायुजनित प्रदूषकों की अधिकता से अम्ल वर्षा होती है, और मिट्टी में अम्ल की अधिकता होती है तथा p.H कम हो जाता है। यह कृषि फसलों तथा वनों के लिये हानिकारक है। कारखानों से उत्सर्जित क्लोरीन तथा नाइट्रोजन गैसें जल से संयुक्त होकर मिट्टी को प्रदूषित करती है। तथा उनके रासायनिक संगठन को परिवर्तित कर देती है। कारखानों, चूने के भट्ठों, कोयले की खानों, ट्रकों, मालगाड़ी में कोयले के भरने, उतारने, तापशक्ति सयंत्रों आदि से उत्सर्जित कणकीय ठोस पदार्थ मिट्टी में पहुँच कर प्रदूषित करते हैं, अभ्रक की खदानों के निकट मिट्टी में अभ्रक कणों के कारण मृदा की क्षारीयता में वृद्धि हो जाती है। धात्विक कणीय पदार्थ मिट्टी के भौतिक तथा रासायनिक गुणों में परिवर्तन कर देते हैं। (परिशिष्ट- 3)

रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशी रसायनों का प्रयोग आज कृषि के लिये आवश्यक सा हो गया है। यद्यपि उर्वरक फसलों के लिये पोषक तत्व प्रदान करते हैं किंतु इनके अत्यधिक प्रयोग के कारण मिट्टियों के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में भी भारी परिवर्तन हो जाते हैं। कीटनाशकों रोगनाशकों और खरपतवार नाशकों के प्रयोग से मिट्टियों के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में भारी परिवर्तन हो जाता है, इससे बैक्टीरिया सहित सूक्ष्म जीव विनिष्ट हो जाते हैं, और मिट्टी की गुणवत्ता में भारी गिरावट आ जाती है। जैवनाशी रसायन विषैले रूप में आहार श्रृंखला में प्रवेश करते हैं और मनुष्यों एवं जीव-जंतुओं में प्रवेश करते हैं, यह पहले तो लाभकारी प्रभाव प्रदान करते हैं किंतु इसके पश्चात जीव-जंतुओं और मनुष्यों के संकट का कारण बनते हैं। इनके घातक प्रभाव के कारण ही इन्हें रेंगती मृत्यु7 (Creeping Death) कहा जाता है। (परिशिष्ट- 4)

नगरीय अपशिष्टों के अंतर्गत अखबार, कागज, कांच की बोतलें, शीशियां, प्लास्टिक के सामान, डिब्बे, कनस्तर, एल्यूमीनियम की पट्टियाँ, चद्दरें, प्लास्टिक बैग, पैकिंग के डिब्बे, विभिन्न प्रकार के स्वचालित वाहन, इनके पहिए व अन्य कलपुर्जे, सब्जियों के कचरे, आवासीय क्षेत्रों से निकलने वाले कूड़े-करकट एवं कचरे को इसमें सम्मिलित किया जाता है।

औद्योगिक अपशिष्टों में औद्योगिक केंद्रों की भारी परित्यक्त सामग्री, चीनी मिलों की खोई, तांबा एवं एलुमिनियम के कारखानों के अपशिष्ट, औद्योगिक केंद्रों का जल मल तथा उनके उत्सर्जित उत्क्षिष्ट पदार्थ, बधशालाओं के अपशिष्ट, इस्पात कारखानों के अपशिष्ट, उर्वरक कारखानों के अपशिष्ट, परमाणु एवं रसायन कारखानों के अपशिष्ट आदि अधिक घातक स्तर में आते हैं।

उक्त स्रोतों से प्राप्त अपशिष्टों को हमें ठोस अपशिष्ट, कचरा, शीवर अपशिष्ट, नगरीय अवमल, रासायनिक उर्वरक, और कीटनाशी आदि वर्गों में विभक्त करके इनका विश्लेषण करना अधिक उपयुक्त होगा।

ठोस अपशिष्ट प्रदूषण और मृदा (SOLID WASTE POLLUTION AND SOIL)

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‘‘समुदाय की सामान्य रीतियों से उत्पन्न होने वाले अवांछित अथवा परित्यक्त ठोस पदार्थ जिनके अंतर्गत कूड़ा, करकट, निस्सार पदार्थ, सड़कों का कूड़ा, राख तथा अन्य औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों को, ठोस पदार्थों के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।’’

उपयोग के बाद परित्यक्त इन ठोस तत्वों या पदार्थों को विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे कि कचरा या उच्छिष्ट (Garbage or rubbish) ठोस अपशिष्ट (Solid Waste) आदि।

कूड़े या ठोस पदार्थ को फैफ्लिन9 ने इस प्रकार परिभाषित किया है

‘‘किसी भी प्रकार का ठोस पदार्थ जो लंबे समय तक आर्थिक दृष्टि से उपयोगी न होने के कारण छोड़ दिया गया हो, साथ ही जैविक या अजैविक रूप में हो, कूड़ा करकट कहलाता है।’’



इस प्रकार व्यर्थ पदार्थ जो ठोस आकार में होता है कूड़ा करकट कहलाता है। इसके अंतर्गत कूड़ा, करकट, मानव एवं पशु मल, गली कूचों की सफाई से निकला कूड़ा, करकट, राख तथा अन्य प्रकार के औद्योगिक पदार्थ सम्मिलित किये जाते हैं।

नगरीय क्षेत्रों में निकलने वाले ठोस अपशिष्ट में प्लास्टिक के थैले, बोतलें, धातु व टिन और प्लास्टिक तथा कागज के डिब्बे, चीनी मिट्टी के टूटे बर्तन, राख, कपड़ा, रसोई के अपशिष्ट, सड़े गले अनाज, फलों के छिलके, हड्डियाँ आदि पदार्थ मुख्य हैं। ठोस अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा एक नगर से दूसरे नगर में तथा एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में भिन्न-भिन्न होती है। इसी प्रकार जाति धर्म का भी प्रभाव पड़ता है। हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों में शाकाहारी प्रवृत्ति के कारण कार्बनिक पदार्थ तथा मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में हड्डियों की अधिकता पायी जाती है।

“As the refuse characteristics change with occupation and standard of living, different areas are classified as residential, commercial and industrial etc. the residential areas are sub divided into high income, middle income, low income and slum type groups.10

नगर की जनसंख्या के अनुसार अपशिष्ट मात्रा बढ़ती जाती है। नीरी कानपुर (1995) के सर्वेक्षण के अनुसार विभिन्न प्रकार के अपशिष्टों की मात्रा दिल्ली (4500 टन), मुंबई (4200 टन), चेन्नई (2800 टन), बंग्लुरु (2000 टन) तथा लखनऊ (1600 टन) है। (परिशिष्ट- 5)

किसी भी देश के लोगों के रहन-सहन के स्तर वहाँ से निकलने वाले कचरे की मात्रा निर्भर करती है। अमेरिका में यह ठोस निस्तारित पदार्थ 3.6 कि.ग्रा., ग्रेट ब्रिटेन 0.8 कि.ग्रा., आस्ट्रेलिया तथा भारत में 0.3 कि.ग्रा. प्रतिदिन प्रति व्यक्ति है11

कचरे की मात्रा एक देश से दूसरे देश में भिन्न है, जनसंख्या वृद्धि के साथ कचरे की मात्रा बढ़ती है भारत में 300000 टन कचरा प्रतिदिन उत्पन्न होता है, इसमें 1.5 प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष हो रही है, प्रतिवर्ष कचरे के निस्तारण में 320 मिलियन खर्च करना पड़ता है।12 (परिशिष्ट - 5)

लखनऊ महानगर में ठोस अपशिष्ट एवं मृदा प्रदूषण

“लखनऊ महानगर में प्रतिदिन 1600 टन कचरा उत्पन्न होता है जिसे हमारे वाहनों द्वारा कर्मचारी उठाते हैं। इसके अतिरिक्त 40 करोड़ लीटर सीवेज कचरा भी प्रतिदिन उत्पन्न होता है। कचरे को उठाने में 60 छोटे बड़े वाहन लगे हुए हैं जिनमें 10 कूड़ा उठाने वाले हैं। ढोने में 22 ट्रक तथा 17 ट्रैक्टर ट्रालियाँ कार्यरत हैं, 10 से अधिक वाहन कार्यशाला में है। इस कार्य को संपन्न कराने के लिये 296 कर्मचारी 8 से 10 घंटे तक कार्य करते हैं। इनमें 78 ड्राइवर तथा शेष लोडर हैं। यह संख्या 103 वर्ग कि.मी. परिक्षेत्र में लगे कर्मचारियों की संख्या है। बढ़े हुए 310 वर्ग किमी. परिक्षेत्र के लिये अतिरिक्त व्यवस्था अभी तक नहीं की जा सकी और न ही निगम में अतिरिक्त कर्मचारियों की व्यवस्था की जा सकी है।”



लखनऊ महानगर में उत्पादित कचरे की मात्रा का आकलन भिन्न-भिन्न संस्थाओं द्वारा किया गया, कुछ प्रमुख वार्डों का कचरा एकत्रीकरण स्थलों से प्रति दिन उठाए जाने वाले कचरे की मात्रा का अनुमान गोमती प्रदूषण नियंत्रण के संदर्भ में एक संस्था विशेष ‘तारू’ (TARU) के द्वारा किया गया जिसे ‘तालिका - 2.2’ में प्रस्तुत किया गया है।

लखनऊ महानगर के कुछ प्रमुख वार्डों में औसत रूप में प्रतिदिन 1485 कि.ग्रा. कचरे की मात्रा है या कि लखनऊ नगर के प्रत्येक कचरा गोदाम में 1500 कि.ग्रा. कचरे की मात्रा उत्पन्न होती है। और इस औसत के बड़े कचरा निस्तारक गोदामों की संख्या 109 से भी अधिक है। लघु स्तरीय कचरा गोदामों की गणना इसके अंतर्गत सम्मिलित नहीं है। प्रत्येक स्थल में 5000 कि.ग्रा. ठोस पदार्थ की मात्रा पायी जाती है। क्रमांक 8, 9, 10 में लखनऊ के सबसे बड़े विस्तृत क्षेत्र में लगाए गए उद्योगों का क्षेत्र है, अत: यहाँ पर उत्पादित कचरे की मात्रा सर्वाधिक है। यहाँ पर लकड़ी के कारखाने, आरा मशीनें तथा छोटी वस्तुओं के उत्पादन केंद्र हैं इसलिये कचरे की मात्रा अन्य स्थानों से अधिक रहती है। हुसैनगंज क्षेत्र एक व्यापारिक प्रतिष्ठानों का क्षेत्र है। इसी प्रकार चौक भी व्यापारिक प्रतिष्ठानों का केंद्र है। अशर्फाबाद में भी अनाज मंडी है अत: इन स्थानों में भी कचरे की मात्रा अधिक है। व्यापारिक क्षेत्रों की सबसे पृथक स्थिति यह भी रहती है कि यहाँ कचरा अपराह्न में उत्पन्न होता है। अपराह्न में गोदामों से कचरा उठाते समय बाजार में परिवहन वाहनों एवं लोडरों के आवागमन की समस्या के कारण पूरी तरह से कचरा उठाने में भी समस्या बनी रहती है। आवासीय क्षेत्रों जैसे- राजाजीपुरम, दौलतगंज, डालीगंज, मशकगंज, सीबी गुप्ता नगर आदि में अपेक्षाकृत कचरे की मात्रा कम रहती है। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापारिक प्रतिष्ठानों में पैकिंग डिब्बों, थैलों आदि के कारण कचरा अधिक उत्पादित होता है।

इसी प्रकार इन क्षेत्रों के कचरे का निस्तारण भी कठिन होता है और अधिकतर कचरा नालियों द्वारा बहा दिया जाता है। इसलिये यहाँ सीवरों के चोक होने तथा नालों का पानी रूकने जैसी समस्या उत्पन्न होती है।

निस्तारित किये जाने वाले कचरे में विभिन्न प्रकार की धातुएँ खनिज, कोयला, कपड़ा, हड्डियाँ, मिट्टी, प्लास्टिक तथा सीसा जैसे पुनर्प्रयोग में आने वाले पदार्थ पाये जाते हैं। इस कचरे की कुछ मात्रा कबाड़ बटोरने वालों के हाथ लग जाती है कुछ जल द्वारा बहा दी जाती है। इस प्रकार गोदामों में 20 से 22 प्रतिशत कूड़ा पहुँच पाता है। भारत के केंद्रीय विज्ञान संस्थान तथा ग्रामीण क्षेत्रों के लिये विज्ञान और तकनीकि प्रयोग संस्था ने बताया कि कचरे में बड़ी मात्रा में उपयोगी पदार्थ पाये जाते हैं। 3.8.96 को समाज शास्त्र विभाग लखनऊ विवि में

‘‘महिलाओं की पर्यावरण पर भूमिका’’

पर गोष्ठी में डॉ. माथुर ने कहा कि - लखनऊ नगर के कचरे में प्रति किलो उपयोगी पदार्थों की मात्रा किसी भी भारतीय नगर से अधिक है गोष्ठी में बताया गया कि 1.66 प्रतिशत पेपर, 0.20 प्रतिशत धातुएँ .60 प्रतिशत सीसा, 2.19 प्रतिशत चीथड़े, 4.09 प्रतिशत प्लास्टिक, .18 प्रतिशत हड्डी, 21.59 प्रतिशत कोयला तथा 7.8 मिट्टी की मात्रा पायी जाती है। अपशिष्ट की मात्रा में दैनिक, मासिक एवं ऋत्विक विशेषताएँ पायी जाती हैं। क्षेत्रीय भिन्नताओं, एवं उत्पादन इकाइयों का प्रभाव कचरे की मात्रा एवं प्रकार पर बहुत अधिक पड़ता है। लखनऊ महानगर के प्रमुख वार्डों में आवासीय, व्यापारिक एवं औद्योगिक क्षेत्रों के आधार पर उपस्थित पदार्थों की प्रतिशत मात्रा अलग-अलग रहती है।

तालिका- 2.3 में लखनऊ महानगर के प्रमुख 13 वार्डों के 47 कचरा गोदामों में एक बार में पहुँची कचरे की मात्रा का आकलन किया गया है। इसमें कचरे की ठोस मात्रा ही सम्मिलित है। कचरे की निस्तारित मात्रा का सर्वाधिक भार चौक वार्ड का था। चौक वार्ड व्यापारिक केंद्र है, राज्य स्तरीय सबसे बड़ा बाजार है। सबसे कम मात्रा घसियारी मंडी क्षेत्र का है। घसियारी मंडी बाजार लघु निर्माणी उद्योगों का केंद्र है, विशेष रूप से व्यापारिक रूप से कम आवासीय रूप में अधिक है। राजाजीपुरम और मशकगंज व्यापारिक एवं आवासीय रूप में विकसित है। आवासीय क्षेत्रों में सबसे अधिक ठोस कचरे की मात्रा 310 कि.ग्रा. तथा सबसे कम 45 कि.ग्रा. है। व्यावसायिक और व्यापारिक दोनों रूपों में विकसित वजीरगंज वार्ड में ठोस पदार्थों की निस्तारित मात्रा अधिक है। कार्बनिक पदार्थों की मात्रा पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि आवासीय क्षेत्रों में अधिक है। संयुक्त रूप में विकसित, व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्रों में कम है। ऐशबाग का क्षेत्र जिसमें की आरा मशीनों की अधिकता है कार्बन की मात्रा कम पायी जाती है। कार्बनिक पदार्थों की औसत मात्रा का 53 प्रतिशत है। सबसे कम मात्रा का 11 प्रतिशत है जो ऐशबाग वार्ड का है।

कचरे की मात्रा के अध्ययन में पाया गया कि आवासीय क्षेत्र के कचरे में अधिकतम कागज की मात्रा का प्रतिशत 9 है जो वशीरतगंज वार्ड का है। यह छोटी वस्तुओं की पैकिंग का केंद्र है। वजीरगंज वार्ड व्यापारिक और आवासीय दोनों रूपों में विकसित है। संयुक्त रूप से विकसित वार्ड के अनुभाग में कागज के प्रतिशत की मात्रा सर्वाधिक रहती है। यहाँ भी उत्पादन की छोटी इकाइयाँ कार्य करती हैं। आवासीय, संयुक्त और व्यापारिक तीनों प्रकार के परिक्षेत्र में व्यापारिक परिक्षेत्र में ही सर्वाधिक कचरे की मात्रा रहती है साथ ही कागज की मात्रा का प्रतिशत भी इसी क्षेत्र में सर्वाधिक रहता है। 14 प्रतिशत तक की सर्वाधिक मात्रा एवं 3 प्रतिशत तक की सबसे कम मात्रा है यह भी तीनों में सबसे अधिक है। व्यापारिक क्षेत्रों में हसनगंज में पैकिंग, डिब्बा बंदी से उत्पन्न कचरे के कारण कागज की मात्रा का प्रतिशत सर्वाधिक रहता है। कागज की मात्रा में रद्दी पेपर जो उपयोग के पश्चात सीधे फेंक दिये जाते हैं। समाचार पत्रों से तथा अन्य प्रकार के कागज से बने पैकिटों तथा पैकिंग से निस्तारित कागज के डिब्बों की मात्रा इसमें सम्मिलित है।

नगरीय क्षेत्रों में सर्वाधिक पर्यावरण संकट का कारण प्लास्टिक के थैले एवं उनसे बने डिब्बे तथा अन्य समान हैं यह देर से नष्ट होते हैं। किसान का मित्र कहा जाने वाला केचुआ भी इसे नष्ट नहीं कर पाता है। जला कर नष्ट करने में यह वायु मंडल में हाइड्रोक्लोरीन की मात्रा उत्पन्न करता है लखनऊ महानगर में प्लास्टिक की मात्रा का आंकलन प्रतिवेदन में किया गया है जिसमें कि 10 से 20 प्रतिशत तक प्लास्टिक की मात्रा की उपलब्धता है। नगर के ऐसे क्षेत्रों में जहाँ औद्योगिक, व्यापारिक तथा आवासीय क्षेत्र हैं प्लास्टिक की मात्रा 20 प्रतिशत तक है। मशकगंज क्षेत्र में प्लास्टिक की मात्रा सर्वाधिक है। यहाँ छोटी उत्पादन इकाइयाँ और उनकी पैकिंग का कार्य किया जाता है। नगर के किसी भी नाले, तालाबों एवं कचरा गोदामों में प्लास्टिक थैलों के ढेर देखे जा सकते हैं, नगर के आवारा जानवरों द्वारा निगलने के कारण जीवन का खतरा भी बना हुआ है। लखनऊ महानगरीय कचरे में 10 से 20 प्रतिशत प्लास्टिक की उपलब्धता पर्यावरण की अति खतरे को सूचित करता है। नगरीय सीवरों के जाम होने का प्रमुख कारण प्लास्टिक थैले हैं, नगर निगम के सफाई कर्मचारियों से सीवर लाइनों के जाम होने का कारण पूछा गया तो उसमें सबसे प्रमुख कारण प्लास्टिक के थैले बताए गए। तालिका- 2.3 के अवलोकन से पता चलता है कि नगर के सभी वार्डों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा का प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

नगरीय ठोस कचरे में अन्य प्रकार का कचरा जिसमें कि मिट्टी आदि सम्मिलित है। सबसे अधिक और कम मात्रा संयुक्त रूप के कचरा स्थलों में है। सर्वाधिक 81 प्रतिशत ऐशबाग के गोदामों में है इस प्रकार के कचरे का औसत 40 प्रतिशत है। न्यूनतम सीमा 18 और अधिकतम 81 प्रतिशत की है। किसी भी वार्ड में इस प्रकार का कचरा 50 प्रतिशत तक पाया जाता है। कचरे में विभिन्न हानिकारक रूपों में अपशिष्ट मिला होता है। अस्पतालों का कचरा सर्वाधिक हानिकारक होता है। इसमें प्रयोग किये गए इंजेक्शन डिब्बे, रोगी अंगों के टुकड़े, मांस, अपशिष्ट पदार्थ आदि सम्मिलित हैं। ऐशबाग, रहीमनगर, रामनगर सहित अनेक वार्डों के नागरिकों द्वारा बताया गया कि यहाँ अस्पतालों के कचरे के ढेर लगे हैं। कभी-कभी तो जानवारों की सड़ी लाशों के कारण सांस लेना मुश्किल हो जाता है। प्राय: गंदगी के ढेर के कारण जनता में असंतोष व्याप्त रहता है। एक ओर तो कर्मचारियों की कमी है दूसरे नागरिकों की लापरवाही भी प्रमुख रूप से रहती है। नालियों का क्षतिग्रस्त होना और जल भराव इस गंदगी की समस्या को और अधिक बढ़ा देता है।

नगर के कुछ आवासीय क्षेत्रों में झीलों और नालों के किनारे का कचरा उठाया ही नहीं जाता इससे आस-पास के आवासीय क्षेत्रों में कूड़े की सड़ांध और सड़ने वाले कूड़े में पैदा होने वाले मक्खी-मच्छरों से लोग परेशान रहते हैं, इसी प्रकार की स्थिति मोती झील के आस पास अधिक रहती है। इसी अनुपात में बड़ी शैक्षिक संस्थाओं की स्थिति रहती है, बड़ी शैक्षिक संस्थाओं में आवासीय सुविधाएँ रहती हैं। वयस्क छात्रों के द्वारा उपभोग सामग्री का खुले रूप में प्रयोग होता है, इसमें नगरीय संस्कृति का भी प्रभाव रहता है।

रेलवे स्टेशन में प्रति व्यक्ति भार अधिकता का प्रमुख कारण बड़ी मात्रा में माल का उतरना तथा यात्रियों द्वारा भारी सूटकेश तथा दैनिक उपभोग की वस्तुओं का लाना ले जाना है। राजधानी नगर होने के कारण संसाधन सम्पन्न और सुविधा भोगी यात्रियों का आना जाना अधिक रहता है। न्यूनतम भार प्रतिव्यक्ति 10 कि.ग्रा. है। अर्थात प्रत्येक व्यक्ति आवश्यक सामग्री लेकर चलता है। कार्बनिक पदार्थों की मात्रा 40 प्रतिशत है। 800 कि.ग्रा. की अधिकतम मात्रा में 20 प्रतिशत कचरे तथा 20 प्रतिशत प्लास्टिक की मात्रा रहती है। प्लेटफार्म की सफाई में भी प्लास्टिक तथा फलों के छिलके, कागज, पैकेट, पेपर आदि अधिक मात्रा में सम्मिलित रहते हैं।

रेलवे स्टेशन के पश्चात बड़े अस्पतालों में प्रति व्यक्ति भार अधिक रहता है। औसत मात्रा 50 कि.ग्रा. है। अधिकतम मात्रा 100 कि.ग्रा. है। न्यूनतम मात्रा 15 कि.ग्रा. है। यहाँ मेडिकल कॉलेज, मुखर्जी अस्पताल (सिविल अस्पताल) बलरामपुर चिकित्सालय, विवेकानंद चिकित्सालय, रेलवे चिकित्सायल तथा राष्ट्रीय स्तर का संजय गांधी परास्नातक चिकित्सालय तो है ही, इसके अलावा 500 से अधिक एलोपैथिक चिकित्सालय एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। 600 से अधिक आयुर्वेदिक चिकित्सालय, 750 यूनानी औषधालय, 620 होम्योपैथी चिकित्सालय नगरीय क्षेत्र में है।13 इस प्रकार नगरीय क्षेत्रों में चिकित्सालयों की संख्या की अधिकता है तथा छोटे चिकित्सकों के क्लीनिक हैं जिनकी संख्या का आकलन कठिन है। चिकित्सालयों से निकलने वाले कचरे की विविधता पर विचार किया जाए तो 40 प्रतिशत तक कार्बन की मात्रा तथा 20 प्रतिशत तक कागज और अन्य पदार्थ 20 प्रतिशत तक रहते हैं। चिकित्सालयों की त्याज्य सामग्री भी घातक होती है और इनको नष्ट करना भी आसान नहीं है। नगरीय चिकित्सालयों के कचरे के नियंत्रण और निस्तारण का कोई उपयुक्त उपाय नहीं हो सका है। इस प्रकार इनका घातक प्रभाव भी नागरिकों में पड़ता रहता है।

धार्मिक स्थलों में भी कचरे की मात्रा अधिक रहती है। अधिकतम 10 कि.ग्रा. तथा औसत मात्रा 5.5 कि.ग्रा. है। नगर के प्रत्येक स्थान पर धार्मिक स्थल है और नगरीय सभ्यता होने पर भी धार्मिक आस्था कम नहीं है। यह समय-समय पर आयोजित होने वाले धार्मिक आयोजनों में देखी जा सकती है। धर्म और जाति के नाम पर प्रत्येक व्यक्ति सक्रिय दिखायी देता है। उपहार और भेंट की वस्तुओं में 60 प्रतिशत तक कार्बन की मात्रा वाले पदार्थ उपयोग में आ जाते हैं।

कपड़े की मात्रा से प्लास्टिक उपयोग की मात्रा अधिक रहती है। पैकिंग थैले वस्तुएँ लाने ले जाने में अधिक प्रयोग किये जाने का परिणाम दिखायी देता है। 25 प्रतिशत तक मिश्रित पदार्थ भी इन स्थलों में प्रयोग में आ जाते हैं। यह प्रदूषण की चिंताजनक स्थिति का द्योतक है। जहाँ कभी धार्मिक पर्व एवं मेलों के आयोजन सामाजिक प्रदूषण को कम करते थे तथा पर्यावरण को निर्मल करने की दिशा में जलाशयों, वृक्षों, नदियों में आस्था थी, उन्हें गंदा नहीं किया जाता था। आज ठीक इसका विपरीत हुआ है। सबसे अधिक जलस्रोतों नदियों और वनों में कहर टूटा है।

बस स्टॉप, होटल, लॉज, मंडी एवं बाजार मध्यम स्तरीय क्लीनिक आदि ऐसी इकाइयाँ हैं जहाँ प्रतिव्यक्ति औसत कचरे का भार 10 कि.ग्रा. है। अधिकतम 15-20 कि.ग्रा. तक है। ऐसी स्थिति की इकाइयों में मनोरंजन स्थल एवं भोजनालय है। जिनमें नियमित रूप से सुविधा भोगी संस्कृति का समाज संलग्न रहता है। बस स्टॉप तथा मंडी बाजार का उपभोग समाज के सभी वर्गों के लोग करते हैं, तथा आवश्यकताओं की पूर्ति भी करते हैं। नगरीय क्षेत्र में तीन बस वर्कशॉप कैसरबाग, कानपुर रोड में नादरगंज तथा गोमती नगर में है। इसी प्रकार राज्य सरकार के बस स्टॉप चारबाग, कैसरबाग और गोमतीनगर में है। साथ ही स्थानीय पूर्ति करने वाले बस स्टॉप भी अलग-अलग भागों में स्थित हैं। उ.प्र. परिवहन विभाग के प्रमुख के अनुसार प्रतिदिन 1.5 लाख व्यक्ति लखनऊ महानगर में आते हैं। इनसे प्रति व्यक्ति 500-600 ग्राम कचरे के उत्सर्जन का अनुमान किया जाता है। होटल, बार और भोजनालय में 90 प्रतिशत तक कार्बनिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है जो मांस तथा डेरी फार्मों के बाद द्वितीय स्थान पर है। बाजार में 60 प्रतिशत तक कार्बनिक पदार्थों का उत्सर्जन होता है। किंतु यहाँ कपड़े तथा प्लास्टिक की उत्सर्जन स्थिति 10 प्रतिशत तक रहती है। बाजार में वस्तुओं की पैकिंग में प्लास्टिक, कपड़े, टाट और कागज का उपयोग किया जाता है। इसलिये ऐसे पदार्थों का प्रतिशत यहाँ अधिक रहता है। भार की अधिकता कारण बड़े बाजार का होना है। होटल, बार तथा भोजनालय में इनका प्रतिशत केवल 5 रहता है। मिश्रित कचरे का प्रतिशत भी केवल 5 रहता है। इसी वर्ग में लॉज और टैक्सी स्टैण्ड आते हैं जो कि अति सुविधा भोगी और उच्चवर्ग के लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाते हैं। यहाँ मिश्रित पदार्थों का प्रतिशत 60 तक रहता है। कागज, कपड़ा और प्लास्टिक का उपयोग 10 से 30 प्रतिशत तक रहता है क्योंकि वाहनों के लिये सफाई में पेपर और कपड़े का उपयोग अधिक किया जाता है।

छोटी सुधार इकाइयाँ, पेट्रोलपम्प, फुटकर दुकानें, कार्यालय, छोटे ऑफिस, छोटे क्लीनिक, नाई एवं धोबी की दुकानों, चिकन, मिट्टी के बर्तन, आरा मिले, चमड़ा एवं जूता निर्माण इकाइयों का औसत भार 1 कि.ग्रा. से कम है। कपड़े और कागज के निस्तारण का प्रतिशत ब्यूटी पार्लर केंद्रों में 50 तक रहता है। इसके पश्चात छोटे क्लीनिक, टैक्सी, विक्रम स्टैण्डों में 30 प्रतिशत तक रहता है। लखनऊ महानगर में 6 हजार से अधिक विक्रम वाहन नगरवासियों को सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त नगर की सड़कों में 18 हजार से अधिक वाहन दौड़ रहे हैं। प्रतिदिन औसत 8 लाख लोगों को सेवाएँ प्रदान करते हैं। टैक्सी स्टैंडों में मिश्रित अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा 50 प्रतिशत तक रहती है। तथा 20 प्रतिशत कचरे की मात्रा रहती है। धोबियों तथा धुलाई की दुकानों में 90 प्रतिशत मिश्रित कचरे का निस्तारण किया जाता है। कपड़े और प्लास्टिक की मात्रा 5.5 प्रतिशत रहती है। धुलाई में प्रयुक्त होने वाले रसायनों से मृदा और जल प्रदूषण अधिक होता है। आईटीआरसी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. प्रमोद ने बताया कि प्रतिव्यक्ति डिटर्जेंट का उपभोग 500 ग्राम प्रतिव्यक्ति मासिक का है डिटर्जेंट सीवर तथा नालियों द्वारा गोमती में पहुँचता है, जो नदी तट तथा जल को क्षतिग्रसत करता है। इसका दुष्प्रभाव नगर के नालों के जल भराव के क्षेत्र में देखा जा सकता है। इन क्षेत्रों में वनस्पतियाँ पेड़-पौधे झुलसने लगते हैं। जल से तीव्र गंध आने लगती है। चमड़ा तथा जूता निर्माण इकाइयों में 75 प्रतिशत तक प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है जो अधिकतम प्लास्टिक उपयोग की सीमा के निकट है। 25 प्रतिशत अन्य मिश्रित पदार्थों का उपयोग किया जाता है। यद्यपि चमड़ा पकाने की इकाइयाँ नगर में छोटे स्तर की है फिर भी जूता निर्माण इकाइयाँ पैकिंग के लिये प्लास्टिक का उपभोग करती है। मिट्टी के बर्तन निर्माण करने वाली इकाइयों से 95 प्रतिशत अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन होता है। इन इकाइयों में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ अधिक घातक नहीं है। फिर भी पकी मिट्टी के बर्तन निस्तारण के पश्चात कृषि जनित भूमि के उत्पादन में बाधक बनते हैं। आरा मिलों में 100 प्रतिशत तक मिश्रित पदार्थों का निस्तारण किया जाता है। इस समय नगर में छोटी बड़ी आरा मिलों की संख्या जनपद उद्योग विभाग के अनुसार 300 से अधिक है। इन आरा मिलों में सर्वाधिक मिलें ऐशबाग क्षेत्र में स्थित हैं। बड़ी मिलों में लकड़ी की चिराई-कटाई का कार्य होता है। छोटे स्तर वाली मिलों में खराद तथा निर्माण और प्लाई बनाने का कार्य किया जाता है। चिकेन तथा जरी का निर्माण लखनऊ का एक प्रसिद्ध कुटीर उद्योग है जिसका प्रमुख केंद्र चौक तथा उसके आस-पास के क्षेत्र हैं। इसमें अधिकतर महिलाएँ एवं बच्चे कार्यरत हैं। इनमें 20 प्रतिशत कागज और कपड़ा निस्तारित किया जाता है तथा 80 प्रतिशत तक मिश्रित पदार्थों का निस्तारण किया जाता है।

डेरी फार्म, तेल मिलें, औद्योगिक इकाइयाँ, सामुदायिक केंद्र, मनोरंजन केंद्र, छोटे भोजनालय थोक वस्तुओं और मांस मछली की दुकानों में प्रति व्यक्ति औसत भार 2 से तीन कि.ग्रा. तक रहता है। डेरी फार्मों में निस्तारित होने वाले पदार्थों में 100 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ ही है। लखनऊ नगर में ‘‘पराग’’ सबसे बड़ा डेरी प्रतिष्ठान है। इसी के तुल्य ‘‘ज्ञान’’ और ‘‘गोकुल’’ डेरी फार्म है। पराग की उत्पादन क्षमता सबसे अधिक है। इसके अतिरिक्त लघु और मध्यम स्तरीय डेरी फार्म नगर में लगभग सभी क्षेत्रों में हैं। जहाँ क्रीम और पैकेट बंद दूध की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। तेल मिलों में 50 प्रतिशत कार्बनिक और 50 प्रतिशत मिश्रित रूप से निस्तारित पदार्थ है। चाय की दुकानों और सामुदायिक मनोरंजन स्थलों में 90 से 45 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थों का और 20 से 40 प्रतिशत तक मिश्रित पदार्थों का निस्तारण किया जाता है। अगर इस आधार पर देखा जाए तो उत्पादन इकाइयों के आकार पर और व्यक्तियों की उपभोग क्षमता पर उनके निस्तारण की मात्रा निर्भर करती है। इस प्रकार तालिका- 2.4 से स्पष्ट है कि आवासीय जनसंख्या और संरचना पर कार्बनिक पदार्थों का प्रतिशत निर्भर करता है।

उपर्युक्त अध्ययन में नगरीय ठोस अपशिष्ट का क्षेत्रीय स्तर पर विश्लेषण किया गया है जो नगरीय मृदा प्रदूषण के लिये उत्तरदायी कारक है। मृदा प्रदूषण के लिये नगर का मल-जल भी प्रमुख समस्या है। परिशिष्ट-7 में रासायनिक तथा परिशिष्ट-8 में नगर के मल-जल का भौतिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है इसमें गोमती की प्रमुख सहायक नदियों तथा उसमें नगर के गिरने वाले नालों एवं सीवर जल को लिया गया है। इसके अध्ययन से नगरीय मृदा पर पड़ने वाले घातक प्रभाव को रेखाकिंत किया जा सकेगा।

अपशिष्ट मलजल और मृदा प्रदूषण

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नगरीय अवमल एवं मृदा प्रदूषण

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रासायनिक उर्वरक एवं मृदा-प्रदूषण

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कीटनाशक और मृदा प्रदूषण

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ब. मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव

नगरीय ठोस अपशिष्ट के दुष्प्रभाव

‘‘आप हमें देख रहे हैं? आप नाक मुँह खुला रखे हैं और हमें बंद रखना पड़ रहा है। पूरे 4-5 घंटे काम करते-करते सिरदर्द करने लगता है। आये दिन पेट की बीमारियाँ उत्पन्न होती है। बिना दवा लिये तो काम करते ही नहीं बनता है।’’

यद्यपि इस समस्या के अतिरिक्त भी इन कर्मचारियों की समस्याएँ थी किंतु स्वास्थ्य की समस्या पर अधिक ध्यान दिलाया जो कि लगातार दुर्गंध युक्त क्षेत्र में कार्य करने का परिणाम है।

ऐशबाग में मोती झील के आस-पास रहने वालों की हालत बुरी है। कूड़े की सड़ांध और उस सड़ने वाले कूड़े में पैदा होने वाले मक्खी, मच्छरों से लोग परेशान रहते हैं। ऐशबाग में लकड़ी का सर्वाधिक कार्य होता है। इसलिये आरा मशीनों का बुरादा जमा होता रहता है बुरादे में आग लगने की घटनाएँ भी कई बार हो चुकी है जिस पर नियंत्रण पाने के लिये फायर ब्रिगेड को अपनी शक्ति का प्रयोग करना पड़ा। सड़ते कचरे से यहाँ की घनी आबादी में बीमारी फैलने का भय बना रहता है। झील के परित: बने भवनों में खिड़कियाँ और रोशनदान लगे हैं फिर भी दुर्गंध और विषैली गैसों के कारण यहाँ के निवासी खिड़कियाँ बंद रखने को विवश हैं। ऐसी स्थिति नगर के प्रत्येक कचरा निस्तारण स्थलों में देखने को मिलती है।

अप्रैल 1995 से अप्रैल 1998 के मध्य भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा पोषित तीन वर्षीय परियोजना ‘‘इन्वेस्टीगेशन ऑफ मीथेन इन्फ्लक्स फ्रॉम वाटर बॉडीज’’ के अंतर्गत लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान ने लखनऊ के 10 मॉनीटरिंग स्थलों पर जाड़ा, गर्मी और बरसात के तीनों मौसमों में मीथेन उत्सर्जन के दर की माप जोख की जिसके अध्ययन किए गए तथ्यों के सम्बन्ध में संस्थान के पर्यावरणीय प्रयोगशाला के प्रभारी डॉ. एसएन सिंह बताते हैं कि जिन जलस्रोतों में सीवेज व औद्योगिक कचरे अथवा घरेलू कचरे से जनित कार्बनिक पदार्थ अधिक होते हैं। वहाँ मीथेन गैसें अधिक निकलती है। अध्ययन से पता चलता है कि मोती झील जहाँ पर 600 से 700 टन कचरा प्रतिदिन डाला जाता है, गोमती नदी जिसमें प्रतिदिन 18 करोड़ लीटर सीवेज उत्प्रवाह नदी में गिरता है, में बायो-केमिकल आॅक्सीजन डिमांड अधिक होने से मीथेन गैसों का उत्सर्जन भी अधिक होता है स्थिर जलस्रोतों से विशेषकर ग्रीष्मकाल में कार्बनिक पदार्थों का घनत्व बढ़ जाता है। तो मीथेन भी अधिक निकलती है। अध्ययन के अनुसार विश्व के वायुमंडल में मीथेन गैस 1.1 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। उल्लेखनीय है कि गोमती से तीनों मौसम में सर्वाधिक मीथेन उत्सर्जित होने का मुख्य कारण जल में प्रदूषण और जल प्रवाह कम होना है। अध्ययन में पाया गया कि 1997 से ग्रीष्मकाल में गोमती नदी से 80.9 मिलीग्राम प्रतिवर्ग मी. प्रतिघंटा की दर से मीथेन गैस वायुमंडल में पहुँच रही है। इसी प्रकार मोतीझील से 49.3 मिग्रा./प्रतिवर्ग मी./प्रतिघंटा रही। यही स्थिति गोमती सहित कई तालाबों और झीलों की है।

परिशिष्ट- 7 व 8 में नगर के प्रमुख नालों को दर्शाया गया है। नगर के प्रमुख 25 नालों के उत्सर्जित मल-जल की मात्रा 230 mld है। जिसमें सीवर मल-जल भी सम्मिलित है। मल-जल भूमि प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानव पर नहीं दिखाई देता है। किंतु इसके सम्पर्क से मच्छर, मक्खियाँ विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं जो स्वास्थ्य के लिये घातक स्थिति उत्पन्न करते हैं। अपशिष्ट पदार्थों से मक्खियाँ एवं मच्छर उत्पन्न होकर टाइफाइड, डिप्थीरिया, डायरिया, हैजा आदि की बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं। ये मक्खियाँ और मच्छर अपशिष्ट में उत्पन्न होने वाले जीवाणुओं के वाहक होते हैं। संक्रामक रोगों की स्थिति पर नगर के महत्त्वपूर्ण चिकित्सालयों से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार स्थिति इस प्रकार रही है -

रोगों की लगातार वृद्धि और बढ़ते प्रभाव के लिये अन्य कारण भी उत्तरदायी है। नगरीय कचरे और सीवर जल के भूमि में एकत्र रहने और प्रवाहित होने से भू-जल भी प्रदूषित होता है। मिट्टी के दो महत्त्वपूर्ण गुण हैं- जल का सोखना और उसका छानना। मिट्टी के इन गुणों के कारण ऊपरी सतह पर उपस्थित किसी भी गुण धर्म के जल को भूमि द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जल में उपस्थित हानिकारक रसायन और खनिज भू-जल तक पहुँच जाते हैं जो मानव द्वारा पेय जल के रूप में और सिंचाई के लिये प्रयोग किया जाता है। नगर के विभिन्न क्षेत्रों से लिये गए जल नमूनों का परीक्षण किया गया। इस परीक्षण में जल की संवाहकता, पीएच, क्लोराइड, कैल्शियम, मैग्नीशियम तथा जल की कठोरता की जाँच की गयी पीएच मान 6.90 से लेकर 8.2 तक पाया गया, संवाहकता .41 से लेकर .58 तक पाया गया। क्लोराइड की मात्रा भी 12 मिग्रा./ली. से 48 मिग्रा./ली. तक रहीं कैल्शियम की मात्रा 44 से 70 मिग्रा./ली. रही जो निर्धारित सीमा से अधिक है। मैग्नीशियम की मात्रा 17.76 मिग्रा./ली. से 38 मिग्रा./ली. तक रही जो निर्धारित मानक से अधिक रही। जल की कठोरता 204 मिग्रा./ली. से 272 मिग्रा./ली. पायी गयी जो राष्ट्रीय मानक संस्थान के 150 मिग्रा./ली. की तुलना में दोगुने के निकट रही।18

नगरीय मल निस्तारण के कारण निकटस्थ नदियाँ झीलें व अन्य जलाशय इतना अधिक प्रदूषित हो चुके हैं कि जल पीने योग्य तो हैं ही नहीं, स्नान करना भी खतरे से खाली नहीं है। दूषित जल को पीने, उसमें तैरने तथा स्नान करने से व्यक्ति को अतिसार, आंत्रशोथ, पेचिश मियादी बुखार, मस्तिष्क ज्वर, पीलिया, पोलियो, कृमि व परजीवी रोग तथा कभी त्वचा, नाक, कान, आँख, गले व परजीवी रोगों से संक्रामित हो सकते हैं। लखनऊ महानगर की निरंतर बढ़ती हुई संक्रामक व्याधियों एवं लोगों में प्रतिरक्षण क्षमता में ह्रास के कारण आहार नाल और पाचन क्षमता प्रभावित होती जा रही है इस पर विगत वर्षों में आईटीआरसी लखनऊ ने अनुसंधान किया और पाया कि लखनऊ नगर क्षेत्र में गोमती नदी जल में मल प्रदूषण के फलस्वरूप रोगजनक जीवाणुओं की विभिन्न प्रजातियाँ नामत: इस्चरेशिया कोलाई, क्लब सिएला, सिट्रोबैक्टर, इंटरोबैक्टर, विब्रीयो कॉलरी तथा एरोमोनस आदि मिली जो मुख्यतया एम्पीसिलीन, क्लोरम फेनीकाल, स्ट्रेप्टोमायसिन, टेट्रोस्ट्रेप्टो-सायक्लीन तथा नैलीडिक्सिक अम्ल जैसे बहुप्रचलित प्रति जैविकियों के प्रति विभिन्न प्रतिशत व अनुपात में प्रतिरोध प्रदर्शित करती है। देश विदेश के विभिन्न वैज्ञानिकों ने भी इसकी पुष्टि की तथा गंगा-यमुना नदियों के जल में भी प्रति जैविकी एवं विषाक्त भारी धातु प्रतिरोधी रोगजनक जीवाणु महत्त्वपूर्ण अनुपात में पाये गए। इस केंद्र के अनुसंधानों द्वारा यह भी ज्ञात हुआ कि भोज्य मछलियाँ एवं लखनऊ नगर का पेय जल भी प्रतिजैविकी प्रतिरोधी एवं आत्र विष उत्पादक जीवाणुओं से प्रदूषित है। यह नगरीय जलमल गम्भीर समस्या बनता जा रहा है और चिकित्सीय प्रयोग हमारी बाध्यता बनती जा रही है जिसका निदान और नियंत्रण आवश्यक हो गया है।19

केंद्रीय भू-गर्भ जल प्रदूषण बोर्ड की लखनऊ इकाई द्वारा लखनऊ के सिटी स्टेशन के निकट 12 जल नमूने लिये जिनके परीक्षण पर स्थिति स्पष्ट होती है कि इस क्षेत्र के जल में क्षार की मात्रा अधिक है। इसके अतिरिक्त कठोर खनिज भी अधिक मात्रा में पाये गए। कैल्शियम, मैगनीज और कलोरीन जैसे पदार्थ भी अधिक मात्रा में पाए गए। अधिक और कम गहरे जल के नमूनों में नाइट्रेट की मात्रा आवश्यकता से अधिक थी। विश्लेषण के अनुसार नलकूपों के जल में इसकी मात्रा 25 से 590 मिग्रा./ली. थी। खोदे गए कुओं और हैंडपंपों में 650 मिली./ली. पाई गयी जबकि आईएसआई ने 1983 में पेयजल में नाइट्रेट की मात्रा 45 मिग्रा./ली. निर्धारित किया था। गहराई बढ़ने के साथ नाइट्रेट की मात्रा घटती जाती है। नमूनों में कार्बोनेट, क्लोरीन, सल्फेड, मैगनीज और पोटाश की भी यही स्थिति है।

रिपोर्ट में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण चौंकाने वाली स्थिति सामने आयी कि सिटी स्टेशन से जैसे-जैसे हम गोमती नदी की ओर बढ़ते हैं। भू-जल अधिक और अधिक प्रदूषित होता जाता है। नाइट्रेट सामान्यतया भूमि द्वारा अवशोषित मानव एवं पशुमल से पहुँचता है। इस प्रकार नालों और सीवरों के अतिरिक्त शौचालयों का मल एकत्र करने वाले सुरक्षित टैंक भी भू-गर्भ जल प्रदूषण का महत्त्वपूर्ण कारण बने हुए हैं। अध्ययन में यह बात स्पष्ट की गयी कि नगरीय भू-गर्भ जल प्रदूषण का कारण शौचालयों के गड्ढे, सीवर और नाले हैं।20

नगरीय भूमि के प्रदूषण के सम्बन्ध में एक अध्ययन में पाया गया कि वाहनों औद्योगिक संस्थानों, निस्तारित मल जल तथा उच्छिष्ट पदार्थों से और कृषि जन्य पदार्थों से नगरीय भूमि ग्रामीण भूमि के अपेक्षा 17 गुना सीसे से दुष्प्रभावित है। कीटनाशकों के प्रभाव से सेब, अमरूद के बगीचों की भूमि में 0.15 सेमी ऊपर तक की भूमि सीसे से बुरी तरह प्रभावित पायी गयी है। सब्जियों, गाजर, सेम, आलू, दूसरी दानेदार फसलों एवं फलों में ‘फल एवं कृषि संगठन के मानक से अधिक भूमि सीसे से प्रभावित है। यह पेंट, खिलौनों, घरेलू कचरों आदि के माध्यम से भूमि में पहुँचता है। सीसे की उपस्थिति भूमि के ऊपरी भाग में पाई जाती है जो वर्षा के जल के साथ रिस कर भूमि की निचली सतह में पहुँचता है और भूजल को प्रदूषित करता है। तथा कार्बनिक तत्वों के साथ सीसा पौधों की जड़ों तक पहुँचता है। जड़े उसे अवशोषित करती हैं परीक्षणों में पाया गया कि मिट्टी की गहराई में उपस्थित सीसा उसकी पत्तियों तक पहुँच जाता है। मैटो ने (Matto 1970) सूचित किया की फलों, फूलों तथा सब्जियों में सीसा पाया जाता है। लखनऊ नगर की सब्जियों के परीक्षण में पाया गया कि फूलगोभी, पत्तागोभी, टमाटर तथा बैगन में सीसा काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाता है। चौड़ी पत्ती वाली पालक में यह मात्रा अधिक पायी गयी। Schuck and lock 1970 अपने परीक्षण में पाया कि रोगग्रस्त पौधों में सीसे की मात्रा अधिक है। Sward ने घासों के संदर्भ में बताया कि सर्दियों में सीसे की सांद्रता अधिक रहती है। Hkin 1976 में लिखा की वृक्षों की ऊपरी छाल में सीसे की सबसे अधिक सांद्रता पायी गयी। Ostroleck 1985 के अनुसार सीसे की उपस्थिति 4.5 गुना पत्तियों में .22 गुना बीजों में 1.2 गुना परागकणों में और 1.1 गुना मादा प्रजाति के पुष्पों में प्रभाव डालती है। सीसा दलहनी फसलों को अधिक प्रभावित करता है। इसी प्रकार नगरीय भूमि के राजमार्गों के किनारे सीसे की अधिक मात्रा पायी गयी।21

सीवर जल और मृदा प्रदूषण के दुष्प्रभाव

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रासायनिक उर्वरकों एवं कीट नाशकों का मृदा पर प्रभाव

कीटनाशकों का दुष्प्रभाव

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स. मृदा प्रदूषण का निस्तारण एवं उपचार

‘आज हम वास्तव में प्रदूषण और कूड़े की जिंदगी में जी रहे हैं’

किंतु दूसरी ओर सम्भावनाएँ दृष्टि में आयी हैं और उन्होंने कहा कि आज का निस्तारित पदार्थ भी एक प्रकार का निवेश है क्योंकि

‘आज का निस्तारित पदार्थ कल के लिये कच्चा माल हो सकता है।’

ऐसा 1982 में Brown And Shaw - 198231 ने कहा था। एक निस्तारित पदार्थ जब अनुप्रयोजित स्थल में पहुँच जाता है। तभी वह प्रदूषण का कारण बनता है अन्यथा यह बहुत अधिक हानिकारक भी नहीं है और न प्रदूषक ही है। इसे आज कच्चे माल के रूप में ही देखना होगा और उचित विधि से व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। ऐसा करके ऊर्जा, धातु, लुग्दी कागज, रबड़ इत्यादि का उत्पादन किया जा सकता है। किंतु तकनीकि किसी समस्या का हल नहीं है। इस दिशा की समस्या में महानगरों में भूमि अभाव, निस्तारण स्थल का अभाव, बढ़ती मलिन बस्तियाँ, नगरीयकरण, रासायनिक और खतरनाक इकाईयों के द्वारा भी यह समस्या बढ़ती जाती है। इसके लिये स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकार दोनों को प्रेरणा की आवश्यकता है।

नीरी द्वारा अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण के सम्बन्ध में कुछ परामर्श दिये गये हैं। जिसको क्रमश: रखने का प्रयास किया गया है।

1. सभी प्रकार के निस्तारित पदार्थों का एकत्रीकरण किया जाए तो पारिस्थितिकी संतुलन में सुविधा होगी और प्रदूषण भी नहीं होगा। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि निस्तारित पदार्थ की मात्रा में ही कमी हो जो कि उपभोक्ता की जागरूकता से संभव हो सकेगा। ठोस निस्तारित पदार्थ एक प्रकार के प्रदूषक हैं। किसी भी देश के ठोस पदार्थ की मात्रा संस्कृति और रहन-सहन के स्तर से प्रभावित होती है। इनसे अनुप्रयोग और निस्तारण की सुविधा होगी।

2. कूड़ा पात्र सही रूप में सड़कों के किनारे जिनसे की आसानी से कचरा उठाया जा सके उचित आकार प्रकार में आवश्यकता के अनुसार स्थापित किए जाए। नगर की बढ़ती जनसंख्या के साथ इनकी संख्या और आकार में वृद्धि और विस्तार किया जाए।

3. कंपोस्ट विधि जो आगे चलकर जैव विधि में परिवर्तित हो जाती है इस विधि से भी प्रदूषण भार को कम किया जा सकता है।

4. निस्तारित जैव पदार्थ का एकत्रीकरण, सुअर या घरेलू पशुओं के उत्सर्जित पदार्थ जैव प्रोटीन उत्पादन में सहायक होंगे।

5. जैव उर्वरक से युक्त कंपोस्ट की खाद भूमि की उत्पादकता को बढ़ाती है। कृषि विज्ञान विवि बंगलुरु ने कई ऐसी केचुए की जातियों का पता लगाया जो विपरीत जलवायु में भी कूड़ा युक्त कंपोस्ट की खाद के सहारे जीवित रहते हैं बंगलुरु के नगरीय क्षेत्र में भी इस प्रकार के गड्ढे बनाए गये हैं।

6. Bhawalker’s Earthworm Institute Pune के केचुआ शोध संस्थान ने केचुआ की ऐसी प्रजाति को खोजा है। जो घरेलू नालियों से निकलने वाले पदार्थ पर जीवित रहते हैं। यह विष रहित ठोस एवं तरल पदार्थ का भोजन करते हैं। वास्तव में इस पद्धति का प्रयोग पौधों की भोजन प्रक्रिया में कंकाल का काम करेगी।31

7. घरेलू कचरे में विभिन्न प्रकार की धातुएँ प्लास्टिक कार्ड, बोर्ड, कागज तथा कपड़े के टुकड़े सम्मिलित होते हैं प्रत्येक नगर की जनसंख्या और प्रकृति के अनुसार इसमें अंतर आ जाता है। इस कचरे के उचित निस्तारण के लिये निम्नलिखित बिंदु महत्त्व के हैं :-

(i) इसे उद्योगों के र्इंधन के रूप में प्रयोग करना।
(ii) वाष्प उत्पन्न करने के लिये जलाया जाना।
(iii) पारम्परिक र्इंधन कोयले आदि की तरह जलाकर उपयोग करना।
(iv) उद्योगों में परिवर्धित र्इंधन के रूप में प्रयोग करना।

अपशिष्ट निस्तारण के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयासों की विस्तृत विवेचना भी प्रस्तुत की गयी है। जिससे नगरीय कचरे का निस्तारण किया जा सकेगा और उत्तम उचित प्रयोग हो सकेगा।

मिट्टी द्वारा पटाई : (गर्त आभरण)

पुनर्चक्रण तथा पुनर्प्रयोग

पॉली कचरा निस्तारण

‘‘इस मूल्यवान पदार्थ को बनाने के लिये हम बहुत सारा पेट्रोलियम पदार्थ तथा बिजली खपाते हैं। आप लोगों को इसके उपयोग तथा उपयोग के उपरांत इसके संग्रहण पर ध्यान देना होगा अन्यथा आने वाले समय में आपको भयंकर पर्यावरण त्रासदी से गुजरना होगा।’’

महान वैज्ञानिक के शब्दों में प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की ओर संकेत किया गया है। प्लास्टिक पुनर्चक्रण की स्थिति में अपनी गुणवत्ता को खोता जाता है। प्रथम बार में 8-14 प्रतिशत दूसरी बार 15-20 प्रतिशत और तीसरी बार 20-30 प्रतिशत तक गुणवत्ता घट जाती है। पॉलीकचरे से निपटने के लिये निम्न बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

1. अमेरिका की कोका कोला तथा पेप्सी कंपनी रसायनों के प्रयोग द्वारा प्लास्टिक की बोतलों को टरथैलिक अम्ल तथा एथिलीन ग्लाइकॉल में बदल रही है।

2. जापान में बेकार प्लास्टिक को तेल में बदलने के लिये पेट्रोल फैक्शन तकनीकी पर अनुसंधान किये जा रहे हैं। कोयले के प्रयोग के स्थान पर इसके प्रयोग पर शोध किया जा रहा है। होकाइंडो औद्योगिक संस्थान ने प्राकृतिक जियोलाइट से बेकार प्लास्टिक को भारी तेल में बदलने में सफलता अर्जित की तथा कैरोसिन व गैसोलीन का उत्पादन आरम्भ किया।

3. फ्यूजी रिसाइकिल, चाऊ कागाकू ने प्लास्टिक से 85 प्रतिशत नेप्था और 10 प्रतिशत रसोई गैस प्राप्त किया। इस प्रकार प्राप्त नेप्था को गैसोलीन, कैरोसीन तथा हल्के तेल में भी परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त हो चुकी है। विद्युत उत्पादन के लिये 121 से 162 लाख डॉलर की लागत से संयंत्र स्थापित किया जा रहा है। इससे कोयले और खनिज तेल भंडार सुरक्षित रह सकेंगे।32

4. प्लास्टिक पुनर्चक्रण के लिये सबसे उत्तम होगा कि इसका संग्रह केंद्र खोला जाए संग्रह के लिये उचित पात्रों को प्रशिक्षित किया जाए। उनके परिश्रम का उचित मूल्य दिया जाए।

5. ‘‘सेंटर ट्यूबर कॉप रिसर्च सेंटर’’ तिरूवंतपुरम संस्थान के वैज्ञानिक एसके नंदा ने जैविक क्रिया से नष्ट होने वाली प्लास्टिक बनायी है ऐसी प्लास्टिक के उत्पादन की व्यवस्था की जाय।

चिकित्सालयों के अपशिष्ट का निस्तारण

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0
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कंपोस्ट खाद बनाना

अपशिष्ट पदार्थों से विद्युत उत्पादन

सीवर जल का उपचार

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सक्रिय तल छट विधि

0
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नगरीय निस्तारित पदार्थों का उठाना

सड़क निर्माण में नगरीय अपशिष्ट का प्रयोग

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संदर्भ (REFERENCES)


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38. Ibidem, Mathur P.K., 1996
39. वार्षिक प्रतिवेदन केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान 1994-1995 पेज 15.

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