Pollution 
रिसर्च

लखनऊ महानगर: सामाजिक प्रदूषण

Author : डॉ. आर.ए. चौरसिया

Lucknow Metro-City: Social Pollution



विकास प्रक्रिया में मानव ने प्रकृति के महत्त्व को अस्वीकार कर दिया परिणामत: मानव और प्रकृति के मध्य असंतुलन स्थापित हो गया। असंतुलन के परिणाम स्वरूप मानव की शारीरिक और मानसिक क्षमता का ह्रास हुआ, अत: उसके आचरण, विचार शैली और उत्तरदायित्व की भावना प्रदूषित हो गयी है। यह प्रदूषण समाज में निर्धनता, बेरोजगारी, जनसंख्या वृद्धि, अपराध, बाल अपराध, श्वेतवसन अपराध, मद्यपान एवं मादक द्रव्य व्यसन, छात्र असंतोष, वेश्यावृत्ति, आत्महत्या, भिक्षावृत्ति, आवासों की संकीर्णता, गंदीबस्तियों की समस्या, अशिक्षा, अस्वास्थ्यकर दशाएँ, श्रम समस्याएँ जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, आतंकवाद, भाषावाद, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार, दहेज-प्रथा, बालविवाह, विवाह विच्छेद, बढ़ती हुई अनैतिकता तथा राष्ट्रीय चरित्र का अभाव आदि समस्याओं के रूप में देखने में आता है।

समाजशास्त्रीय विचारकों ने ऐसी सामाजिक दशा को सामान्यतया जीवन मूल्यों की दृष्टि से खतरे के रूप में देखा है रोब तथा सेल्जनिक1 ने सामाजिक समस्या को मानवीय सम्बन्धों से सम्बन्धित एक समस्या माना है, जो समाज के लिये एक गम्भीर खतरा पैदा करती है अथवा व्यक्तियों की महत्त्वपूर्ण आकांक्षाओं की पूर्ति में बाधाएँ उत्पन्न करती है।

“It is a problem in human relationship which seriously threatens society or impedes the important aspirations of many people.”



सामाजिक प्रदूषण का कारण जनसंख्या विस्फोट और औद्योगीकरण के परिणाम स्वरूप नगरीकरण में अति गतिशीलता आयी। परिणाम स्वरूप आज नगर समस्याओं के केंद्र बनकर रह गए हैं। स्वेडन के प्रकृति वैज्ञानिक के. करी लिण्डाल2 (K. Curri Lindall) ने ठीक कहा है –

The human population explosion is, in fact, the worst and basic from of pollution. All the major environmental problems that threaten the future of mankind are caused basically by one factor i.e, too many people.

औद्योगीकरण तथा नगरीकरण की प्रवृत्तियों के कारण सामाजिक प्रदूषण एक गम्भीर समस्या है। डब्लू. वेलेस बीवर3 के अनुसार

‘‘सामाजिक समस्या एक ऐसी दशा है जो चिंता, तनाव संघर्ष या नैराश्य से उत्पन्न होती है और आवश्यकता पूर्ति में बाधा डालती है।’’

“A Social problem is any condition that causes strain, tension, conflict or frustration and interferes with the fulfillment of a need”



लारेन्स फ्रेंक4 के अनुसार -

‘‘सामाजिक समस्या समाज की अधिकतर या बहुत बड़ी संख्या में व्यक्तियों के जीवन से सम्बन्द्ध वे कठिनाइयाँ या बुरे व्यवहार हैं, जिन्हें हम दूर करना या सुधारना चाहते हैं।’’



उपर्युक्त टिप्पणियों से स्पष्ट है कि सामाजिक प्रदूषण के अनेक कारण है जनसंख्या विस्फोट नगरीकरण तथा औद्योगीकरण सामाजिक प्रदूषण को गम्भीरतर बनाने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण कारक रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से जीविका की तलाश में बड़े पैमाने पर जनसंख्या का नगरीय क्षेत्रों की ओर प्रव्रजन हुआ है इसलिये नगरीय क्षेत्रों में आवास की समस्या उत्पन्न हो गयी है, औद्योगिक क्षेत्रों में जनसंख्या का दबाव अधिक बढ़ गया है और सड़कों रेलवे लाइनों के किनारे गंदी बस्तियों तथा झुग्गी झोपड़ियों का विकास हुआ है। मूलत: मलिन बस्तियाँ औद्योगिक और महानगरों की उपज है। यहाँ व्यक्तियों को छोटा-बड़ा काम अवश्य मिल जाता है किन्तु रहने के लिये घर नहीं मिल पाता, इसलिये महानगरों में गरीबों को मलिन बस्तियों में शरण मिलती है। ये मलिन बस्तियाँ सामाजिक प्रदूषण की क्षेत्र बन जाती है। अत: लखनऊ महानगर की मलिन बस्तियों की समस्याओं का अध्ययन करना समीचीन होगा।

अ. मलिन बस्तियाँ (Slums)

‘‘आदमी-आदमी को इस रूप में कैसे देखता है।’’

इस प्रकार मलिन बस्तियों का सीधा सम्बन्ध बढ़ती हुई जनसंख्या और आवास व्यवस्था की कमी से है जो समय के साथ और गहरी होती जा रही है।

जिस्ट्स और हलबर्ट5 (Gists and Halbert) के अनुसार

‘‘एक गंदी बस्ती निर्धन लोगों तथा मकानों का क्षेत्र है। यह संक्रमण एवं गिरावट का क्षेत्र है। यह असंगठित क्षेत्र होता है, जो मानव अपशिष्ट से परिपूर्ण है। अपराधियों, सदोष, निम्न एवं व्यक्त लोगों के लिये सुविधा क्षेत्र होता है।’’

“A slum is an area of poor houses and poor people. It is an area of transition and decadence a disorganize area occupied by human derelicts, a catch all for criminals, for the defective, the down and out”



डिकिन्सन6 के अनुसार

‘‘गंदी बस्ती अत्यंत दयनीय दशा का द्योतक है जिसमें मकानों की दशा ऐसी अनुपयुक्त होती है, जो स्वास्थ्य एवं नैतिक मूल्यों के लिये खतरा उत्पन्न करती है।’’

“Slum connotes an extreme condition of blight in which the housing is so unfit as to constitute menace to the health and morals”


संयुक्त राष्ट्र संघ7 ने गंदी बस्ती की परिभाषा इस प्रकार दी है -

‘‘ऐसी इमारतों या इमारतों का समूह अथवा क्षेत्र जिनमें अतिव्यापित भीड़, गिरावट, गदी दशाएँ, सुविधाओं का अभाव जो वहाँ के निवासियों अथवा समुदायों के स्वास्थ्य, सुरक्षा अथवा नैतिक मूल्यों के लिये खतरा उत्पन्न करते हैं, गंदे क्षेत्र कहे जाते हैं।’’



Buildings group of buildings or area characterized by over crowding deterioration in sanitary conditions or absence of facilities or amenities which because of these conditions or any of them endanger the health safety or morals of its inhabitants or the community. (UNESCO 1956)

मलिन बस्तियों को पृथक-पृथक नगरों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इन्हें कोलकाता में बस्ती, मुंबई में चाल या झोपड़ पट्टी, दिल्ली में बस्ती, चेन्नई में चेरी और कानपुर में अहाता कहते हैं। महात्मा गांधी ने चेन्नई की चेरी का वर्णन इस रूप में किया है

‘‘एक चेरी जिसे मैं देखने गया था के चारों ओर पानी और गंदी नालियाँ थी वर्षाऋतु में यहाँ व्यक्तियों के रहने योग्य स्थान नहीं रहते होंगे। दूसरी बात यह है कि चेरियाँ सड़क की सतह से नीची हैं और वर्षाऋतु में इनमें पानी भर जाता है। इनमें सड़कों गलियों की कोई व्यवस्था नहीं होती और अधिकांश झोपड़ियों में नाम मात्र के भी रोशनदान नहीं होते। ये चेरियाँ इतनी नीची होती है कि बिना पूर्णतया झुके इनमें प्रवेश नहीं किया जा सकता है। सभी दृष्टि से यहाँ की सफाई न्यूनतम स्तर से भी गयी गुजरी होती है।’’

कानपुर की मलिन बस्तियों को देखकर नेहरू जी ने कहा था

‘‘ये मलिन बस्तियाँ मानवता के पतन की पराकाष्ठा की प्रतीक हैं। जो व्यक्ति इन मलिन बस्तियों के लिये उत्तरदायी हैं, उन्हें फाँसी दे दी जानी चाहिए।8’’



उपर्युक्त परिभाषों और विचारों से मलिन बस्तियों की विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता है। गंदी बस्तियों की समस्या मुख्य रूप से निर्धन लोगों की आवास समस्या है लेकिन अपने व्यापक संदर्भ में यह सामाजिक असंगठन और आर्थिक विपन्नता की समस्या है।

मलिन बस्तियों के अर्थ और उसके विविध रूप

लखनऊ महानगर में मलिन बस्तियों के कारण तथा वितरण

1. निर्धनता :

निर्धनता अभिशाप है। निर्धन, बेरोजगार, दैनिक वेतन भोगी, श्रमिक ये सब उस वर्ग के व्यक्ति हैं जो कठोर परिश्रम करने के पश्चात भी दो समय का भोजन अपने परिवार को नहीं दे पाते, न ही ये महँगे सुविधाओं वाले भवन किराये में ले पाने की स्थिति में होते हैं, न ये मकान बना सकने की स्थिति में होते हैं। लाखों श्रमिक जिनके साधन और आय सीमित हैं उसे विवश होकर मलिन बस्तियों में रहना पड़ता है। मकान कम हैं और रहने वाले व्यक्ति अधिक हैं। नगर की अधिकतर आबादी मलिन बस्ति में रहती है। एक अनुमान के अनुसार लखनऊ महानगर की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या मलिन बस्तियों में है। लखनऊ नगर में कुछ मलिन बस्तियों का सर्वेक्षण कराया, जिसमें पाया गया है कि 15 से 35 की आयु वर्ग 31 प्रतिशत पुरुष अकुशल श्रमिक हैं तथा 23 प्रतिशत बेरोजगार है। 35 से अधिक आयु वर्ग के 18 प्रतिशत अकुशल श्रमिक हैं और लगभग 18 प्रतिशत बेरोजगार है। 15-35 आयु वर्ग की 74 प्रतिशत महिलाएँ बेरोजगार है। 35 से अधिक आयु वर्ग में 92 प्रतिशत बेरोजगार हैं।9

सर्वेक्षण में यह तथ्य भी सामने आये कि कुल जनसंख्या के 16 प्रतिशत लोग जिनकी अवस्था 16 वर्ष से अधिक है बेरोजगार हैं। 53 प्रतिशत बच्चे 6-15 वर्ष के मध्य के हैं और अपने परिवार के कमाऊ सदस्य हैं। कुल आबादी के 63 प्रतिशत व्यस्क दैनिक मजदूरी वाले निर्माण कार्य में लगे हैं इस प्रकार रोजगार का प्रभाव भोजन, आवास तथा वस्त्रों पर तथा परिवार की शिक्षा पर पड़ता है। इनमें सबसे अधिक प्रभाव आवास समस्या के रूप में देखा जाता है।10

2. नगर में आवास समस्या -

नगरों में भूमि सीमित है किंतु मांग अधिक है, साथ ही मांग की अधिकता के कारण भूमि का मूल्य जनसाधारण के लिये अदेय हो गया है। अधिकांश लोग किराए के मकानों में रहने को मजबूर है। लाखों श्रमिक जिनके साधन और आय सीमित हैं, विवश होकर मलिन बस्तियों में रहना पड़ता है। मकान कम हैं तथा रहने वाले व्यक्ति अधिक है। जनसंख्या जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है यह समस्या गहराती जा रही है।

लखनऊ महानगर में 1971 में आवासीय मकानों की संख्या 122693 थी। परिवारों की संख्या 140576 थी। 1981 में मकानों की संख्या 159246 थी, जबकि परिवारों की संख्या 167194 थी। यह असंतुलन 1991 में अधिक बढ़ा इस समय परिवारों की संख्या 293130 थी जबकि मकान 270511 थे। इस प्रकार बड़ी संख्या में लोग किराए पर रहते हैं। किराये पर एक कमरा लेने वालों की संख्या अधिक रहती है। क्योंकि बेघर लोगों को आर्थिक स्तर प्राय: नीचा रहता है। मलिन बस्तियों की संख्या लागातार महानगर में बढ़ती चली गयी। जैसे ही जनसंख्या बढ़ी, नगर की सीमाएँ बढ़ी मलिन बस्तियों की संख्या भी बढ़ी। 1991 में मलिन बस्तियों की संख्या 97 आंकी गयी थी, 1996 में लखनऊ नगर निगम द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में लखनऊ महानगर की परिसीमा में 222 मलिन बस्तियों को चिह्नित किया गया। (परिशिष्ट - 44)

लखनऊ नगर के आधारभूत ढाँचे को मलिन बस्तियों ने बहुत प्रभावित किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय लगभग लखनऊ में 4.97 लाख लोग निवास करते थे 1991 के आंकड़ों के अनुसार लखनऊ महानगर में मलिन बस्तियों रहने वालों की संख्या 3.94 लाख थी जबकि 1981 में 0.19 लाख थी, इस प्रकार जहाँ मलिन बस्तियों की जनसंख्या की दशाब्दी वृद्धि अतिशय है, वहीं मलिन बस्तियों की संख्या में भी अतिशय वृद्धि हुई है। यह नगरीय आवासीय समस्या की ओर संकेत है। ‘मलिन बस्ती उन्मूलन कार्यक्रम’ के अंतर्गत नगर विकास मंत्री लालजी टंडन ने लखनऊ नगर की 700 मलिन बस्तियों को रखा है। लखनऊ विश्वविद्यालय के द्वारा कराए गए एक सवेक्षण से स्पष्ट हुआ कि मलिन बस्तियों में 46 प्रतिशत घर कच्चे, 8 प्रतिशत पक्के-कच्चे और बहुत कम मकान पक्के मिलते हैं। मुख्यत: 83 प्रतिशत घर एक कमरे वाले पाये गए, सफाई व्यवस्था के नाम पर 84 प्रतिशत घरों में जल निकासी की उचित व्यवस्था नहीं थी और 57 प्रतिशत घरों के लोग खुले मैदान में शौच जाते हैं। अत: नगर में आवास समस्या एक बड़ी समस्या के रूप में है। यहाँ के आवास भी आवश्यक सुविधाओं से वंचित है।

3. नगर में जनसंख्या का दबाव -

मलिन बस्तियाँ औद्योगिक नगरों की देन हैं लाखों ग्रामीण व्यक्ति काम की खोज में आते हैं और यहीं बस जाते हैं। उनकी आय इतनी सीमित होती है कि वह अच्छे मकानों में नहीं रह सकते। सीमित आय और साधनों का अभाव उन्हें मलिन बस्तियों में रहने को विवश करता है। नगर में जनसंख्या का प्रतिशत प्रति दशाब्दी में द्रुत गति से बढ़ा है। यह 1951 में 28.3 प्रतिशत, 1961 में 31.9 प्रतिशत, 1971 में 24.1 प्रतिशत, 1981 में 23.5 प्रतिशत तथा 1991 में 63 प्रतिशत था। नगर में यह दशाब्दी वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों से नगर में आने वाले व्यक्तियों के कारण हुई। ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले लोग नगर में रोजगार पाने के लिये आते हैं। अत: नगर में मलिन बस्तियाँ औद्योगिक केंद्रों के निकट अधिक है। जैसे राजाजीपुरम, तालकटोरा रोड, चौक, नादरगंज, वालागंज में तथा नये आवासी क्षेत्रों के निकट इंदिरा नगर, गोमतीनगर, विकास नगर, एलडीए कानपुर रोड नगर की मलिन बस्तियाँ नालों, रेल पटरियों, सड़कों, पार्कों तथा नदी के तट में बसी हुई है, क्योंकि इनमें रहने वाले लोगों की जीविका मजदूरी तथा सफाई कार्यों एवं कचरे के निस्तारण तथा कचरे से प्राप्त वस्तुओं के कारण होती है।

4. औद्योगिक विकास -

नगरीय क्षेत्रों में मलिन बस्तियों की उत्पत्ति का कारण उद्योग होते हैं। उद्योगों में रोजगार पाने के लिये अधिक से अधिक धन अर्जित करने की कल्पना संजोए ग्रामीण क्षेत्रों से लाखों लोग आते हैं। ये मिल, फैक्टरी, कारखाने में या किसी अन्य प्रकार से पेट भरते हैं और निर्धनता ही उनका स्थायी धन हो जाता है। इस औद्योगिक महानगरीय सभ्यता और संस्कृति में उसे तो मलिन बस्तियों में ही रहना पड़ता है।

लखनऊ नगर में चौक क्षेत्र में पाटा नाला के किनारे बसी हुई मलिन बस्ती, सोनिया गांधी नगर, कंचन मार्केट, कटरा, मेडिकल कॉलेज, सर्वेंट क्वाटर, ठाकुरगंज, भावरीनगर, चिदमा टोला, रईस नगर, हुसैनाबाद, तकिया कॉलोनी, कच्ची कॉलोनी, मोहिनी पुरवा, धवल, कैसरबाग मंडी, मजदूर कॉलोनी, भारवेली खुटपुर, वीरनगर, बल्दा कॉलोनी आदि सभी मलिन बस्तियाँ लखनऊ मेडिकल कॉलेज के अधीन भू-खंड में बसी हुई है। यहाँ निवास करने वाले अधिकांश लोग बाजार में मजदूरी के कार्य में लगे हैं इसी प्रकार नादरगंज के निकट की मलिन बस्तियों, चिल्लावां, बेहसा, मुंशी पुरवा, बदाली खेड़ा, आजाद नगर, गिंदन खेड़ा गड़ौरा, अमौसी, हिंदनगर के निवासी नादरगंज की फैक्ट्रियों में कारखानों में काम में लगे हुए हैं। इस प्रकार मलिन बस्तियों में निवास करने वाले लोग निकट के क्षेत्र में उपलब्ध कार्यों से जुड़े हुए हैं।

5. संसाधनों की समस्या -

नगरीय पर्यावरण की समस्याओं से मुक्ति पाने के लिये नगरों के पास न तो कोई योजनाएँ है और न ही योजनाओं की पूर्ति के लिये संसाधन सुलभ है। नगरों की मलिन बस्तियों में सुधार के लिये भारत सरकार द्वारा समय-समय पर योजनाएँ बनायी जाती है। इस प्रकार की योजनाओं में आवाज की योजनाएँ मुख्य रूप से सम्मिलित रहती है। लखनऊ नगर में गोमती बंधे, नालों के किनारे, रेलवे लाइन के किनारे तथा महत्त्वपूर्ण पार्कों में बसी मलिन बस्तियों को नयी जगह एक कमरे के मकान बनाकर स्थानान्तरित करने की योजनाएँ आज तक नगर निगम की निर्धनता के कारण पूरी नहीं हो सकी जबकि इस हेतु अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विदेशों से भी सहायता लेने की बात की गयी। मलिन बस्ती सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत, शौचालय निर्माण, सीवर निर्माण, पेयजल आपूर्ति, जल निकास, सड़क निर्माण, मार्ग प्रकाश की व्यवस्था आदि संसाधनों की कमी के कारण लागू नहीं हो पाती हैं। अत: लखनऊ नगर में मलिन बस्तियों की लगातार वृद्धि का कारण संसाधनों का अभाव है।

6. नगरों का अनियोजित विकास -

नगर में मलिन बस्तियों का विकास होना इस बात का बहुत बड़ा कारण है कि नगरों के सुनियोजित और योजनाबद्ध ढंग से विकास की योजनाएँ नहीं बनायी गयी। जिन नगरों के विकास में योजनाओं को ध्यान में रखा गया वहाँ यह समस्याएँ बहुत कम देखने को मिलती है। लखनऊ महानगर में आलमबाग क्षेत्र की जितनी भी मलिन बस्तियाँ हैं नगर योजना के अंतर्गत नहीं है। इनमें न तो जल निकास के लिये नालियों की व्यवस्था के लिये भूमि है और न ही समुचित चौड़े मार्गों के लिये ही भूमि है, विद्युत और पेयजल की पूर्ति में भी भारी समस्याएँ है नटखेड़ा, आजादनगर, मधुवन नगर, मरदनखेड़ा, सरदारी खेड़ा तथा अन्य दो दर्जन ऐसी बस्तियाँ है।

नगर में नियोजित विकास के क्षेत्रों में यदि दृष्टि डालें तो यह समस्या कम देखने को मिलती है। यहाँ नालों रेल पथ, सड़कों व पार्कों के पास ऐसी बस्तियाँ बसी है जो अस्थायी रूप से बसती और उजड़ती रहती है। इसमें राजाजीपुरम, एलडीए कानपुर रोड, इंदिरानगर, विकास नगर, गोमती नगर आदि नये नियोजित क्षेत्रों में है इनके लिये नियोजित क्षेत्रों में कुछ स्तर पर निर्माण कार्य भी कराए गए हैं। यद्यपि यह पर्याप्त नहीं है फिर भी समस्या को कम करने में एक प्रयास है।

लखनऊ नगर के प्रमुख वार्डों की मलिन बस्तियों की समस्यायें

1. नियोजित मलिन बस्तियाँ -

नगर में ऐसी मलिन बस्तियाँ जो कई दशकों से बसी है तथा इन्हें सरकारी विभागों ने भी मान्यता दी है, इन्हें निगम ने भी अनेक सुविधाएँ प्रदान की है। ऐसी बस्तियों में निवास करने वाले लोगों के स्थायी आवास कच्चे या पक्के दोनों प्रकार के हैं। विद्युत, मार्ग प्रकाश, जलापूर्ति, जल निकास, मार्ग, सुलभ शौचालय आदि की कुछ व्यवस्थाएँ की जा चुकी है। नगर निगम लखनऊ के अनुसार नगर में इस प्रकार की मलिन बस्तियों की संख्या 265 है, एक अन्य परियोजना के अंतर्गत नगर में ऐसी 222 बस्तियाँ है। अगस्त 2000 में नगर की सीमाओं में 700 मलिन बस्तियों की बात नगर विकास मंत्री लालजी टंडन ने कही। नगर में ऐसे क्षेत्रों में समय-समय पर स्वास्थ्य, शिक्षा तथा जन जागरूकता के कार्यक्रम चलाए जाते हैं।

2. अनियोजित मलिन बस्तियाँ -

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‘‘औद्योगिक केंद्रों की हजारों मलिन बस्तियों ने मनुष्यत्व को पशु बना दिया है। नारीत्व का अनादर होता है और बाल्यावस्था को आरंभ में ही विषाक्त बना दिया जाता है। ग्रामीण सामाजिक संहिता श्रमिकों को, औद्योगिक केंद्रों में अपनी पत्नियों के साथ रखने के लिये हतोत्साहित करती है। ऐसे देश जहाँ कम आयु में विवाह प्रचलित है वहाँ युवा श्रमिक, जिसने अपना वैवाहिक जीवन प्रारंभ ही किया हो नगर के आकर्षण से प्रभावित होता है।’’



इस प्रकार नगर की विभिन्न मलिन बस्तियों की समस्याएँ अलग-अलग भी हो सकती है किंतु परिणाम और परिणामों से बचने के लिये योजनाएँ एक जैसी हो सकती है। नगर के स्वस्थ पर्यावरण के लिये मलिन बस्तियों में सुधार के लिये जन सुविधाएँ तथा नीतियाँ लागू करना आवश्यक होगा।

नगर की मलिन बस्तियों का सुधार एवं नियोजन
आवास

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ब. अपराध (CRIME)

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‘‘अपराध एक ऐसी क्रिया है जिसको समूह पर्याप्त रूप से खतरनाक समझता हो तथा ऐसे कार्य के लिये अपराधी को दंडित करने और रोकथाम करने के लिये एक निश्चयात्मक सामूहिक प्रक्रिया की आवश्यकता हो।’’



इलियट और मैरिल15 के अनुसार

‘‘समाज विरोधी व्यवहार जो कि समूह द्वारा अस्वीकार किया जाता है। जिसके लिये समूह दंड निर्धारित करता है, अपराध के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।’’

“Crime may be defined as anti. Social behavior which the group rejects and to which it attaches penalties.”



डॉ. हैकरवाल16 ने अपराध के सामाजिक पक्ष को प्रस्तुत करते हुए लिखा है,

‘‘सामाजिक दृष्टिकोण से अपराध व्यक्ति का ऐसा व्यवहार है जो कि उन सम्बन्धों की व्यवस्था में बाधा डालता है जिन्हें समाज अपने अस्तित्व के लिये प्राथमिक दशा के रूप में स्वीकार करता है।’’



अपराध को कानूनी दृष्टि से भी परिभाषित किया गया है। इस व्याख्या के अनुसार वे सारे कार्य जो किसी समय विशेष में किसी संविधान अपराधी संहिता या राज्य के नियमों के विपरीत घोषित किए गए हो अपराध कहलाएँगे। अपराध की कानूनी व्याख्या अपराध के परिणाम और दंड पर अधिक जोर देती है। सेठना17 ने लिखा है

‘‘अपराध वह कार्य या त्रुटि है जिसके लिये कानून दंड देता है।’’

“Crime is an act or omission which the law thinks fit to punish.”



लैंडिस एंड लैंडिस18 के अनुसार

‘‘अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने सामूहिक कल्याण के लिये हानिकारक घोषित किया है और जिसके लिये दंड देने हेतु राज्य शक्ति रखता है।’’



रैमसे क्लार्क19 ने अपनी पुस्तक ‘क्राइम इन अमेरिका’ में अपराध की रोकथाम को महत्त्वपूर्ण माना और कहा-

‘‘हम तब तक अपराध को वास्तविक अर्थों में नियंत्रित नहीं कर पायेंगे, जब तक व्यक्ति गंदी बस्तियों, अज्ञान, हिंसा, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, अपौष्टिक भोजन तथा खराब रहन-सहन की अमानवीय दशाओं का शिकार बना रहेगा। जब लोगों का आत्मसम्मान सुरक्षित रह सकेगा, उनका स्वास्थ्य बना रहेगा, उन्हें शिक्षा प्राप्त हो सकेगी, उन्हें नौकरी मिल जायेगी, उनके रहन-सहन का स्तर अमानवीय नहीं रहेगा वे सामाजिक आर्थिक शोषण का शिकार नहीं होंगे, तब उनमें दूसरे के हितों और कल्याण का विचार उत्पन्न होगा और तभी उनमें समाज की व्यवस्था, कानून नैतिकता तथा सामाजिकता के प्रति आदर का भाव उत्पन्न हो सकेगा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि यदि हमें अपराध को रोकना है तो हमें उन समस्याओं को हल करना पड़ेगा जो अपराधों को जन्म देती है।’’



आगे कहा कि कोई भी समाज हिंसात्मक तथा अन्य प्रकार के असामाजिक कार्यों की घटनाओं को तब तक रोकने में असफल रहेगा जब तक कि वह उन व्यक्तियों के अपराधों को रोकने में असफल है जो लोग धनी शक्तिशाली तथा साधन संपन्न हो। अत: अपराध की रोकथाम के लिये आवश्यक है कि समाज के सभी वर्गों द्वारा किये जाने वाले अपराधों को रोकने के लिये बराबर का प्रयत्न किया जाए।

इस प्रकार परिभाषाओं में यह जोर दिया गया है कि केवल वे ही कार्य या व्यवहार अपराध माने जायेंगे जो किसी देश के प्रचलित कानूनों के विपरीत हों। अपराध की प्रवृत्ति मानव में कई कारणों से जागृत होती है। इसी प्रकार अपराध कई प्रकार के होते हैं यहाँ पर भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, आत्महत्याएँ, बाल अपराध, खाद्य सामग्री में मिलावट तथा सांप्रदायिक दंगे जैसे सामाजिक अपराधों पर विचार किया जाना समीचीन है।

खाद्य पदार्थों में मिलावट (Food Adultration)

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भिक्षावृत्ति (BEGGARY)

भिक्षावृत्ति का अर्थ एवं परिभाषा

‘‘भिक्षावृत्ति जीवन-यापन का एक ऐसा ढंग और व्यवसाय है जिसमें व्यक्ति काम करने की योग्यता होते हुए भी किसी प्रकार का कार्य नहीं करता बल्कि बिना किसी परिश्रम के भीख मांगकर अपना और अपने परिवार का जीवन-यापन करता है।’’



मुंबई भिक्षावृत्ति अधिनियम 194521 में भिक्षुक को इस प्रकार परिभाषित किया गया है।

‘‘जीवकोपार्जन के साधन के बिना सार्वजनिक स्थानों पर आत्म प्रदर्शन कर मांगने वाला कोई व्यक्ति भिक्षुक है।’’



भारतीय अपराध विधान संहिता की धारा 109 (ब)22 के अनुसार

‘‘एक भिक्षुक वह व्यक्ति है जो अपनी जीविका के साधनों से रहित है या जो स्वयं के साथ खाता नहीं है।’’



इंग्लैंड23 में भिक्षुक को इस प्रकार परिभाषित किया गया है

‘‘वे सब लोग भिखारी है जो इधर उधर घूमते हैं या जो सार्वजनिक स्थानों जैसे- सड़क, कचेहरी आदि के आस-पास रहते हैं या जो भीख मांगते हैं या किसी 16 वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं को भीख मांगने के लिये रख लेते हैं। इनमें वे लोग भी भिखारी हैं जो किसी झूठे उद्देश्य से दान या चंदा एकत्रित करते हैं।’’



मैसूर भिक्षावृत्ति अधिनियम24 के अनुसार

‘‘भिक्षावृत्ति के अंतर्गत भीख पाने के लिये दर-दर घूमना और दान देने वाले के मन में दया भाव जागृत करने के लिये फोड़ा, घाव, शारीरिक पीड़ा या वकृतियों को दिखाना तथा उनके सम्बन्ध में गलत बहाना बनाना आता है।’’

भिक्षावृत्ति के कारण

1. शारीरक कारण -

शरीर से अपाहित, लूले, लंगड़े जो किसी प्रकार का शारीरिक परिश्रम नहीं कर सकते भिक्षुक बनने के लिये मजबूर हो जाते हैं।

2. मानसिक कारण -

ऐसे व्यक्ति जो शरीर से स्वस्थ हैं, किंतु मानसिक रूप से पूर्णतया विक्षिप्त होते हैं, इन्हें उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहता करने, न करने उठने-बैठने, बोलने खाने पीने और पहनने जैसे जीवित रहने के लिये आवश्यक विचार भी समाप्त हो गए होते हैं भिक्षावृत्ति करने के लिये विवश हो जाते हैं।

3. धार्मिक कारण -

धार्मिक कर्मकांडों के वशीभूत होकर जीवन के आरंभ से लेकर मृत्यु के पश्चात तक दान देने की प्रथा है। अंध विश्वासी रूढ़िवादी और परंपरावादी देश में दान देने वाले की संख्या कम नहीं है। दान की भावना और मानसिकता को भिक्षुक और जजमान दोनों जानते हैं। इसी दुर्बलता का लाभ उठाकर भिक्षुक बनते जाते हैं, दान शीलता अनेक धार्मिक पर्वों स्थानों, दु:खादि से निवृत्ति लाभ आदि के अवसरो पर विशेष रूप से देखी जाती है। धर्म की इस परंपरा से बिना कार्य और परिश्रम किये हुए भी भिक्षुक हजारों रूपये प्रतिमाह अर्जित कर रहे हैं।

4. आर्थिक कारण -

भिक्षावृत्ति के लिये आर्थिक परिस्थितियाँ प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। इसमें निर्धनता एवं बेकारी प्रमुख हैं। व्यक्ति के पास जीवकोपार्जन के साधनों का पूर्णतया अभाव है। अस्तु बेकार दरिद्र व्यक्ति भिक्षावृत्ति पर पूर्णतया निर्भर हो जाता है।

5. प्राकृतिक कारण -

कई बार प्राकृतिक प्रकोप भी हजारों लोगों के जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है बाढ़, भूकम्प, भूचाल, महामारी अकाल आदि के अवसर पर लोग अपना मूल स्थान छोड़कर जीवन-यापक के लिये दूसरे स्थानों पर जाते हैं, और कई बार भिक्षा के लिये विवस होना पड़ता है।

6. परम्परागत व्यवसाय -

कुछ लोग भिक्षावृत्ति को अपना परम्परागत पेशा मानते हैं। उन्हें यह धंधा अपने पूर्वजों से विरासत में मिला है। अत: वे भी जीवन-यापन के लिये भिक्षावृत्ति को अपना लेते हैं। ऐसे परिवारों में परिवार के बड़े सदस्य छोटों को भीख मांगने की कला का प्रशिक्षण देते हैं।

7. आलस्य -

कई लोग जो आलसी होते हैं और किसी भी पकार का परिश्रम नहीं करना चाहते वे भी भिक्षावृत्ति अपना लेते हैं।

8. पूँजीवादी आर्थिक ढाँचा -

राजाओं, महाराजाओं, जमींदारों, तालुकेदारों और साम्राज्यवादियों का इस देश में अधिपत्य रहा है। करोड़ों भूमिहीन श्रमिक, बेकार कुंठित व्यक्ति, जिन्हें इस समाज में किसी प्रकार का कार्य नहीं मिलता इनका शोषण किया गया है, बेगार ली गयी है और जब शरीर से दुर्बल और बीमार हो गए तो कहीं काम नहीं मिलता अंतत: विवशता से भिक्षुक बनते हैं और भिक्षा पर पूर्णतया निर्भर रहते हैं।

9. विघटित परिवार -

ऐसे परिवार जिसके कार्यकर्ता का देहांत हो गया हो अथवा किसी अपराध में जेल हो गयी हो अथवा जुआड़ी, शराबी परिवार हो अथवा रोगग्रस्त परिवार हो जिसमें आय कोई साधन न हो। इस प्रकार के परिवार के बच्चे, विधवा स्त्रियाँ या विवाहित स्त्रियाँ भिक्षुक बनने के लिये विवश होती हैं। ये अपने और अपने परिवार का पालन पोषण भिक्षुक बनकर ही करते हैं।

10. सामाजिक दुर्बलता -

भारत में सामाजिक प्रथाएँ भी ऐसी हैं कि वे भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन देती हैं और कई जातियाँ जैसे- साधु, जोगी नाथ, बाबा, जंगम आदि भिक्षावृत्ति से ही जीवन-यापन करती हैं।

भिखारियों के प्रकार

भिक्षावृत्ति का दुष्प्रभाव

लखनऊ महानगर में भिक्षावृत्ति अध्ययन

भिक्षावृत्ति निवारण के प्रयत्न एवं सुझाव

सांप्रदायिकता (COMMUNALISM)

सांप्रदायिकता का अर्थ एवं परिभाषा

‘‘सांप्रदायिकता वह संकीर्ण मनोवृत्ति है जो एक वर्ग अथवा संप्रदाय के लोगों में अपने आर्थिक एवं राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये पायी जाती है और उसके परिणाम स्वरूप विभिन्न धार्मिक समूहों में तनाव एवं संघर्ष पैदा होते हैं।’’



रेंडम हाउस डिक्शनरी25 के अनुसार

‘‘सांप्रदायिकता अपने ही जातीय समूह के प्रति न कि समग्र के प्रति तीव्र निष्ठा की भावना है।’’



श्री कृष्ण दत्त भट्ट26 के अनुसार

‘‘संप्रदाय का अर्थ है मेरा संप्रदाय, मेरा पंथ, मेरा मत ही सबसे अच्छा है। उसी का महत्त्व सर्वोपरि होना चाहिए। मेरे संप्रदाय की ही तूती बोलनी चाहिए। उसी की सत्ता मानी जानी चाहिए, अन्य संप्रदाय हेय हैं। उन्हें या तो पूर्णत: समाप्त कर दिया जाना चाहिए या यदि वे रहें भी तो वे मेरे मातहत होकर रहें, मेरे आदेशों का सतत पालन करें। मेरी मर्जी पर आश्रित रहें वे पुन: लिखते हैं, ‘‘अपने धार्मिक संप्रदाय से भिन्न अन्य संप्रदाय अथवा संप्रदाय के प्रति उदासीनता, उपेक्षा दयादृष्टि, घृणा विरोध और आक्रमण की भावना, ‘सांप्रदायिकता’ है, जिसका आधार वह वास्तविकता या काल्पनिक भय की आशंका है कि उक्त संप्रदाय हमारे अपने समुदाय और संस्कृति को नष्ट कर देने या हमें जान-माल की क्षति पहुँचाने के लिये कटिबद्ध है।’’



स्मिथ27 के अनुसार

‘‘एक सांप्रदायिक व्यक्ति अथवा समूह वह है जो अपने धार्मिक या भाषा-भाषी समूह को एक ऐसी पृथक राजनीतिक तथा सामाजिक इकाई के रूप में देखता है जिसके हित अन्य समूह से पृथक होते हैं, और जो प्राय: उनके विरोधी भी हो सकते हैं।’’



इस प्रकार सांप्रदायिकता में अपना धर्म अपनी भाषा तथा अपनी संस्कृति को श्रेष्ठतम माना जाता है तथा दूसरे की भाषा, संस्कृति और धर्म के प्रति विरोधी भाव उत्पन्न होता है तथा सामाजिक एवं राजनैतिक अलगाव उत्पन्न हो जाता है। और एक दूसरे को हानि पहुँचाने के सामाजिक रूप में संगठित होते हैं।

सांप्रदायिकता के लिये उत्तरदायी कारक

1. ऐतिहासिक कारक -

हमारे देश में मुस्लिम बाहर से आये और इन्होंने भारत में अपने धर्म प्रचार के लिये तलवार और जोर जबरदस्ती का सहारा लिया। औरंगजेब तथा कुछ अन्य राजाओं ने कई हिंदू राजाओं को मुसलमान बनाया। इस कारण हिंदुओं के मन में उनके प्रति घृणा पैदा हुई और कई बार हिंदू मुस्लिम संघर्ष हुए हैं।

2. मनोवैज्ञानिक कारक -

हिंदू और मुसलमान दोनों में ही एक दूसरे के प्रति घृणा, द्वेष, प्रतिकार, विरोध एवं पृथक्करण के मनोभाव पाये जाते हैं, इस प्रकार की मनोवृत्ति के कारण सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला है।

3. सांस्कृतिक भिन्नता -

सांप्रदायिकता को जन्म देने में एक महत्त्वपूर्ण कारक हिंदू और मुसलमानों की सांस्कृतिक भिन्नता है। दोनों में रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, पहनावे, धर्म और विचार धारा में बहुत अंतर है। विवाह, पूजा-पद्धति, देवी-देवताओं की भिन्नता, सांस्कृतिक भेद, मनमुटाव एवं तनाव पैदा करते हैं।

4. भौगोलिक कारक -

भौगोलिक विशेषताओं के कारण, भोजन, आवास, पहनावे में भिन्नता है, एक भौगोलिक क्षेत्र के लोग दूसरे भौगोलिक क्षेत्र से भिन्न हैं। फलत: एक दूसरे के प्रति घृणा, द्वेष एवं विरोध के भाव पाये जाते हैं। जो कि सांप्रदायिक तनाओं को जन्म देते हैं।

5. धार्मिक असहिष्णुता -

धर्मगुरु, पादरी, पैगम्बर और मौलवी अपने अनुयायियों को धार्मिक कट्टरता की शिक्षा देते रहे हैं, दूसरे धर्म के लोगों को मारना, अपने धर्म का प्रचार करना वे पुण्य मानते हैं। धर्म गुरुओं द्वारा गलत दिशा-निर्देश करने के कारण भी सांप्रदायिक तनावों में वृद्धि हुई है।

6. राजनीतिक स्वार्थ -

राजनैतिक लाभ लेने के लिये राजनीतिज्ञों द्वारा चुनाव आदि के समय जिस क्षेत्र में जैसे संप्रदाय के लोगों का बाहूल्य होता है। वहाँ पर उसी संप्रदाय के व्यक्ति को खड़ा किया जाता है। और सांप्रदायिकता की आग भड़कायी जाती है।

7. सांप्रदायिक संगठन -

जैन, सिक्ख, हिंदू और मुसलमानों के कई संगठन पाये जाते हैं। ये सांप्रदायिक संगठन अपने-अपने मतावलम्बियों को संगठित करते हैं, और उन्हें दूसरों के प्रति भड़काते हैं जिससे संघर्ष एवं दंगे होते हैं।

8. असामाजिक तत्व एवं निहित स्वार्थ -


सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने में समाज विरोधी तत्वों एवं निहित स्वार्थ वालों का भी महत्त्वपूर्ण हाथ होता है, वे वर्ग संघर्ष और तनाव की स्थिति इस लिये पैदा करते हैं, जिससे कि उन्हें समाज विरोधी कार्य लूट-पाट करने एवं यौनव्यभिचार करने का अवसर प्राप्त हो सके तथा अपने व्यक्तिगत झगड़ों का बदला ले सकें। ऐसे लोग, होली, दिवाली, रामनवमी, मुहर्रम, ईद आदि के अवसर पर पत्थर फेंकने, रंग छिड़कने, आग लगा देने का कार्य करते हैं जिससे की उपद्रव पैदा हो।

9. धर्म निरपेक्षता का दुरूपयोग -

भारतीय संविधान भारत को धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित करता है। धर्म निरपेक्षता का अनुचित लाभ उठाकर कई बार एक धार्मिक समूह ने दूसरे पर अपने आप को थोपने की कोशिश की जिसके परिणामस्वरूप तनाव व संघर्ष पैदा हुए।

10. मंदिर-मस्जिद विवाद -

अयोध्या के प्राचीन राम जन्मभूमि मंदिर को तोड़कर बाबर के सेनापति मीरवाकी ने उसे मस्जिद का रूप दिया ऐसे ही कई धार्मिक स्थलों के उदाहरण हैं, जो प्राय: सांप्रदायिक झगड़ों का कारण बने।

उपर्युक्त सभी कारकों से स्पष्ट है कि भारत में सांप्रदायिकता अनेक सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक एवं राजनीतिक कारकों का मिश्रित फल है। आज की आवश्यकता हे कि इस समस्या को जड़ से उखाड़ फेंका जाए।

सांप्रदायिक तनाव के कारण

सांप्रदायिकता के दुष्परिणाम

1. राष्ट्र स्तरीय प्रभाव -

सांप्रदायिकता के दुष्परिणाम हमारे देश को कई बार बड़े पैमाने पर भुगतने पड़े। हमारे देश का विभाजन भी सांप्रदायिकता का ही परिणाम है। देश में अस्थिरता उत्पन्न करने के लिये भी सांप्रदायिकता की भावना उजागर की जाती है। मुस्लिम देशों का संगठन, ईसाईयों के संगठन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी एकता की बात रखते हैं जो आपसी राष्ट्रीय एकता की समस्या है।

2. तनाव एवं संघर्ष -

सांप्रदायिकता के कारण तनाव एवं संघर्ष की स्थितियाँ उत्पन्न होती है। भारत के अनेक नगरों में प्राय: यह समस्या उग्र रूप ले लेती है। लखनऊ नगर अभी तक ऐसी समस्याओं से बचा हुआ है।

3. जनधन की हानि -

सांप्रदायिक दंगों के कारण सार्वजनिक तथा निजी संपत्तियों की भारी हानि होती है। मकान, दुकान, कार्यालय, वाहन, विद्यालय, रेल, डाक-तार आदि की व्यवस्था को भारी हानि पहुँचती है।

4. राजनीतिक दुष्परिणाम -

सांप्रदायिक के कारण लोगों का सरकारों के प्रति विश्वास टूट जाता है। न्याय की समस्या उत्पन्न हो जाती है। लोगों का जीवन परिसंकट मय स्थितियों से ग्रस्त हो जाता है।

5. आर्थिक विकास में बाधक -

सांप्रदायिक दंगों के कारण कारखानों उद्योगों आदि में तोड़-फोड़ एवं आगजनी की समस्याएँ उत्पन्न होती है। लोग प्रगतिशील विकास कार्यों में पूँजी नहीं लगाना चाहते हैं। नये उद्योगों की स्थापना न होने के कारण बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न होती है।

6. असामाजिक तत्वों की वृद्धि -

असामाजिक तत्व अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सांप्रदायिकता की स्थितियाँ उत्पन्न करने का प्रयास करते रहते हैं। इन स्थितियों का लाभ उठाकर लूटपाट करते हैं तथा अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी का लाभ उठाते हैं।

7. सामाजिक सांस्कृतिक विघटन -

विभिन्न धर्मावलम्बी आपसी एकता स्थापित नहीं कर पाते हैं उनके मध्य दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। समाज में अविश्वास भय, शंका, घृणा आदि का वातावरण उत्पन्न हो जाता है।

इस प्रकार सांप्रदायिकता हमारी राष्ट्रीय एकता, आर्थिक विकास तथा सामाजिक ढाँचे को छिन्न भिन्न करती हैं। नगर में सिया-सुन्नी दोनों मुस्लिम संप्रदायों के मध्य यह स्थितियाँ कई बार विकृत रूप ले चुकी है। इनके निवारण के लिये उपाय खोजना आवश्यक हो गया है।

सांप्रदायिकता निवारण के उपाय

वेश्यावृत्ति (PROSTITUTION)

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‘‘वेश्यावृत्ति विश्व का सबसे पुराना व्यवसाय है और यह तभी से चला आ रहा है जब से कि समाज में लोगों की काम भावनाओं को विवाह और परिवार में सीमित किया जाता रहा है’’

भारत में ही नहीं वरन यूनान व जापान में भी ‘हीटरी’ और ‘गीशास’ के रूप में वेश्यावृत्ति का प्रचलन रहा है। वेश्यावृत्ति को यौन तृप्ति का एक विकृत एवं घृणित साधन माना गया है। इससे व्यक्ति का शारीरिक और नैतिक पतन होता है उसे आर्थिक हानि उठानी पड़ती है तथा यह मानव के पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में विष घोल देती है।

वेश्यावृत्ति की परिभाषा -

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‘‘वेश्यावृत्ति एक भेद-रहित और धन के लिये स्थापित किया गया अवैध यौन सम्बन्ध है जिसमें भावात्मक उदासीनता होती है।’’



जियोफ्रे30 के अनुसार

‘‘वेश्यावृत्ति आदतन या कभी-कभी बिना किसी भेद भाव के अन्य व्यक्ति के साथ धन के लिये किया गया लैंगिक सहवास है।’’



हेवलॉक एलिस31 के अनुसार, वेश्या वह है जो अपने शरीर को बिना किसी विकल्प के पैसों के लिये कई लोगों को मुक्त रूप से उपलब्ध कराये।

बोंगर32 का मत है कि

‘‘वे स्त्रियाँ वेश्याएँ हैं, जो अपने शरीर को यौन क्रियाओं के लिये बेचती है और इसे एक व्यवसाय बना लेती है।’’



उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वेश्यावृत्ति स्त्री अथवा पुरुष द्वारा आजीविका कमाने के लिये स्थापित किया जाने वाला अवैध यौन सम्बन्ध है। इसमें भावात्मक लगाव नहीं होता है तथा बिना किसी भेदभाव के शरीर को आर्थिक लाभ के लिये बेचा जाता है।

वेश्याओं के प्रकार

1. प्रकट समूह -

इनमें वे वेश्याएँ आती है जो रजिस्टर्ड होती है या जो स्पष्ट रूप से वेश्यालय चलाती है। शहरों में ऐसे क्षेत्र को जहाँ वेश्याएँ रहती हैं। ‘‘लाल रोशनी क्षेत्र’’ कहते हैं। इनमें वेश्याओं के कोठे बने होते हैं।

2. अप्रकट समूह -

इनमें वे वेश्याएँ आती हैं जो चोरी छिपे वेश्यावृत्ति करती हैं।

3. कॉल गर्ल्स -

इस प्रकार की वेश्याएँ शराब घरों, होटलों, कैबरे स्थलों, नाच घरों तथा क्लाबों में जाकर धंधा करती हैं।

4. होटल वेश्याएँ -

कई लड़कियाँ होटलों में वेश्यावृत्ति करती हैं। आजकल कई होटलों के मालिक इस व्यवसाय में लगे हुए हैं, वे आमदनी का एक बड़ा हिस्सा स्वयं ले लेते हैं।

5. रखेल वेश्याएँ -

कई विवाहित पुरुष पत्नी के अतिरिक्त भी किसी स्त्री से अपने अवैध यौन सम्बन्ध रखते हैं। बड़े-बड़े सेठ, उच्च अधिकारी, स्मगलर, डकैत आदि रखेल रखते हैं।

6. वंशानुगत वेश्याएँ -

कई वेश्याएँ वंशानुगत होती हैं। इस प्रकार की वेश्याएँ माँ से पुत्री को अपना धंधा हस्तांतरित करती हैं।

7. वासना पीड़ित वेश्याएँ -

इस श्रेणी में वे वेश्याएँ आती हैं जिनमें अन्य स्त्रियों की अपेक्षा यौन इच्छाएँ अधिक होती हैं। और वे अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिये अन्य पुरुषों से संपर्क स्थापित करती हैं।

8. परिस्थिति जन्य वेश्याएँ -

इस श्रेणी में वे वेश्याएँ आती हैं जो किसी परिस्थिति एवं कुसंगति में पड़ने के कारण वेश्यावृत्ति अपना लेती हैं। गरीबी, वैधव्य, बेकारी, बेमेल विवाह, बाल विवाह, बलात्कार, अनाथ होने, बहला-फुसलाकर भगा ले जाने या अपहरण करके जबरन समर्पण के लिये दबाव डालने आदि की परिस्थितियों में मजबूर होकर कई स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति अपना लेती हैं।

9. अपराधी एवं पिछड़ी जातियों व जनजातियों की वेश्याएँ -

कई जातियाँ एवं जनजातियाँ ऐसी हैं जिनमें स्त्रियों में लड़कियों से वेश्यावृत्ति करायी जाती है। कई घुमक्कड़ जनजातियों की स्त्रियाँ यह कार्य करती हैं, इनमें नट, बेड़िया, बसावाी, कंजर, सांसी आदि प्रमुख हैं।

10. धार्मिक वेश्याएँ -

प्राचीन काल से ही भारत में देवदासी प्रथा प्रचलित रही है जिनमें युवा लड़कियाँ मंदिरों को सौंप दी जाती थीं। ये लड़कियाँ मंदिर में गायन तथा नृत्य का कार्य करती थीं। देवदासी बनने वाली लड़की का विवाह किसी साधु के साथ औपचारिक रूप से कद दिया जाता था। इन्हें भगतनियों के नाम से भी जानते हैं। मंदिर से सम्बन्धित साधु संत इन देव दासियों का उपभोग करते थे। वेश्यावृत्ति के प्रकार वेश्यावृत्ति के कारणों की ओर संकेत करते हैं विभिन्न विद्वानों ने वेश्यावृत्ति के विभिन्न कारण गिनाएँ हैं।

वेश्यावृत्ति के कारण

1. आर्थिक कारण -

वेश्यावृत्ति के आर्थिक कारणों में निर्धनता प्रमुख है। कम आय एवं गरीबी, जीवन स्तर को ऊँचा उठाने की लालसा से भी वेश्यावृत्ति उत्पन्न हो जाती है। लीग ऑफ नेशन्स एडवाइजरी कमेटी33 का मत है कि ‘गरीबी’ कम स्थान और भीड़ तथा कम आय कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण औरतें वेश्यावृत्ति करती हैं। एम. लौण्ड्रेस34 का कहना है,

‘‘भूख वेश्यावृत्ति की आधार शिला है’’

लीग ऑफ नेशन के द्वारा विभिन्न देशों में की गयी जाँच से ज्ञात हुआ कि गरीबी वेश्यावृत्ति का प्रमुख कारण है श्री कंगा34 के द्वारा किये गये अध्ययन से ज्ञात हुआ कि 41 प्रतिशत वेश्याओं ने गरीबी एवं बेकारी के कारण यह व्यवसाय अपनाया था। नागपुर की 100 वेश्याओं के सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि 36 प्रतिशत स्त्रियों ने अभाव, बेकारी एवं जीवन-यापन के साधनों की कमी के कारण वेश्यावृत्ति अपनायी। पुनेकर35 ने अपने मुंबई सर्वेक्षण में 72 प्रतिशत मामलों में वेश्यावृत्ति के लिये गरीबी को उत्तरदायी पाया।

वर्तमान में स्त्रियों द्वारा नौकरी किये जाने के कारण कई बार वे ऑफिस में अपने बॉस के हाथों फँस जाती हैं। दुकानों, होटलों, कार्यालयों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों, क्लबों आदि सभी स्थानों पर बिक्री बढ़ाने, आकर्षण पैदा करने आदि की दृष्टि से सेल्समैन एवं रिसेप्सनिस्ट के रूप में नवयुवतियों को रखा जाता है। कई बार इन पदों के लिये अपने शरीर को भी बेचना पड़ता है।

स्त्रियों में भौतिक सुख सुविधा की विशेष अभिलाषा होती है उनके पास कार, फ्रीज, रेडियो, टेलीविजन, अच्छा मकान, कीमती वस्त्र, फर्नीचर, जेवर आदि हो इन सुख सुविधाओं की चाहत में भी कई स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति अपना लेती हैं।

स्त्रियों की परबसता भी कई बार यह स्थिति उत्पन्न करती हैं कि वह उससे मुक्ति पाने के अन्य उपाय न देखकर वेश्यावृत्ति तक अपना लेती हैं।

2. विवाह विच्छेद -

दुखी वैवाहित जीवन भी वेश्यावृत्ति के लिये उत्तरदायी है। जिन स्त्रियों का वैवाहित जीवन टूट जाता है वे अपनी यौन संतुष्टि के लिये वेश्यागमन करने के लिये विवश हो जाती है।

3. पारिवारिक परिस्थितियाँ -

जिन परिवारों में माता पिता की मृत्यु हो गयी हो, कोई संरक्षक नहीं है। माँ सौतेली हो, पिता शराबी एवं व्यभिचारी हो, माँ स्वयं हो और पिता दलाल हो तो वे अपनी लड़कियों को वेश्यावृत्ति के लिये मजबूर करते हैं। जिन परिवारों में वेश्यावृत्ति परम्परागत रूप में चली आ रही होती है उनमें लड़कियां मां के व्यवसाय को ग्रहण कर लेती है।

4. विधवा विवाह पर रोक -

भारत में विधवाओं को पुनर्विवाह की छूट नहीं है। विधवा होने पर स्त्री का जीवन-यापन कठिन हो जाता है। ऐसी दशा में भी स्त्रियों को वेश्यावृत्ति के लिये विवश होना पड़ता है।

5. दहेज प्रथा -

वेश्यावृत्ति के लिये दहेज प्रथा भी उत्तरदायी है। कई माता पिता अपनी पुत्रियों के लिये दहेज जुटाने में असमर्थ होते हैं और बड़ी आयु तक लड़कियों का विवाह न होने पर वे अनैतिक यौवन सम्बन्ध स्थापित करने पर मजबूर हो जाती हैं।

6. कुमार्ग पर पड़ी हुई लड़कियाँ -

कई बार किन्हीं कारणों से लड़कियाँ जब कुमार्ग में चली जाती हैं तो उन्हें विवश होकर वश्यावृत्ति अपना लेना पड़ता है।

7. मानसिक कमजोरी -

लीग ऑफ नेशन्स की एडवाइजरी कमेटी ने अपने अध्ययन में पाया कि वेश्यावृत्ति करने वाली एक तिहाई स्त्रियों का स्वभाव एवं मस्तिष्क असामान्य था।

8. अज्ञान -

कई बार लड़कियाँ अज्ञानतावश गुंडों एवं बदमाशों के प्रलोभन में आ जाती हैं जिनकी विवशता में वेश्यावृत्ति अपनानी पड़ती है।

9. औद्योगीकरण और नगरीकरण -

औद्योगीकरण के परिणाम स्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों के कुटीर उद्योग नष्ट हुए हैं लोग गाँव से व्यवसाय की खोज में नगरों में आते हैं। नगरों में मकानों की समस्या के कारण पुरुष गाँव में ही अपने परिवार, बच्चे व स्त्रियों को अकेला छोड़कर शहर में काम करने आता है। इससे नगरों में पुरुषों की संख्या स्त्रियों की अपेक्षा बढ़ जाती है। स्त्री-पुरुष का नगरों में यह असंतुलन वेश्यावृत्ति के लिये उत्तरदायी है। पत्नी की अनुपस्थित पुरुषों के लिये वेश्यागमन के लिये प्रेरित करती है। महँगाई, आवास समस्या, उच्च जीवन का मोह, अनैतिक वातावरण आदि स्त्रियों को वेश्यावृत्ति के लिये मजबूर करती हैं।

10. दु:खी वैवाहिक जीवन -

दु:खी वैवाहिक जीवन से मुक्ति पाने के लिये स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति अपना लेती हैं। सास-ससुर, देवर-जेठ, पति एवं अन्य सदस्यों का उनके प्रति अत्याचार पूर्ण व्यवहार उसे दु:खी बना देता है। प्रतिदिन के कष्टों से मुक्ति पाने के लिये वह घर छोड़कर भाग जाती है और वेश्यावृत्ति अपनाकर अपना जीवन यापन करती है। टाटा इंस्टीट्यूट द्वारा किये गये अध्ययन में 30 प्रतिशत एवं जोरदार के अध्ययन में 84 प्रतिशत स्त्रियों ने दु:खी वैवाहिक जीवन के कारण ही वेश्यावृत्ति अपनायी।

11. अनैतिक व्यापार -

विश्व के सभी देशों में स्त्रियों का अनैतिक व्यापार किया जाता है। स्त्रियों को धोखा देकर गुंडे एवं दलाल भगा ले जाते हैं और उन्हें नगरों में बेच दिया जाता है। वहाँ उनसे वेश्यावृत्ति कराकर धन कमाया जाता है।

12. पड़ोसी पर्यावरण -

गंदी बस्तियों, नाच घरों, जुआघरों, वेश्याओं के अड्डों, शराबखानों के निकट रहने वाले लोगों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे वातावरण के घरों में लड़कियों का सच्चरित्र बने रहना कठिन होता है।

13. अवैध मातृत्व -

वर्तमान के उत्तेजक वातावरण तथा यौन स्वच्छदंता के कारण कई बार लड़कियाँ विवाह से पूर्व ही गर्भ धारण कर लेती हैं। ऐसी स्थिति में प्रेमी भी किनारा कर लेता है वह सामाजिक आलोचना से प्रताड़ित होकर तथा प्रसव पीड़ा, मानसिक वेदना एवं आर्थिक संकटों से बचने के लिये वेश्यावृत्ति अपना लेती है।

14. धार्मिक कारण -

दक्षिण भारत की देवदासी जैसी प्रथाएँ समाज में धार्मिक रूप से वेश्याएँ उत्पन्न करने के कारण हैं। टाटा स्कूलऑफ सोशल साइंसेज36 द्वारा मुंबई के अध्ययन में 30.29 प्रतिशत वेश्याएँ देवदासियाँ थीं नैतिक और सामाजिक स्वास्थ्य कमेटी ने अपने प्रतिवेदन में बताया कि मुंबई के चकलों में अत्याधिक संख्या उन वेश्याओं की है जो कर्नाटक, खान देश तथा राज्य के अन्य भागों में यल्लामा, दुर्गा और मंगेश के मंदिरों में अर्पित की गयी थी। इसी प्रकार चेन्नई एवं मैसूर में भी देवदासी प्रथा का प्रचलन है।

15. जैविकीय कारक -

माता पिता के संस्कार संतानों में पड़ते हैं अनैतिक और व्यभिचारी आचरण वाले माता पिता के कुसंस्कार लड़कियों को वेश्यावृत्ति की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार कुछ स्त्रियों में अत्याधिक काम वासना पायी जाती है। पति से संतुष्ट न होने पर वे अन्य लोगों से सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं। अमेरिकन सामाजिक स्वास्थ्य संघ का मत है कि असामान्य कामुकता लड़कियों को वेश्यावृत्ति की ओर खींच ले जाती हैं37। पति के नपुंसक होने पर भी अपनी यौन इच्छाओं की तृप्ति के लिये स्त्रियाँ मर्यादा हीन होकर अन्य पुरुषों से सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं।

16. मनोवैज्ञानिक कारक -

मंद बुद्धि, मनोविकार एवं नवीन अनुभव की चाह, आदि मानसिक कारक भी वेश्यावृत्ति को जन्म देते हैं। अनेक शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि कई वेश्यायें मंद बुद्धि थीं। पारिवारिक प्रेम एवं स्रेह भावना में कमियों के कारण भी लड़कियों में मनोविकृति पैदा होती है। वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठती हैं और जुआ, मद्यपान एवं वेश्यावृत्ति के लिये उत्तरदायी है। डॉक्टर एडवर्ड ग्लोवर का मत है कि स्त्रियों में पुरुषों के प्रति पायी जाने वाली प्रतिशोध की भावना भी वेश्यावृत्ति के लिये जिम्मेदार है। एलिस एवं फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिक वेश्यावृत्ति के लिये काम वासना एवं नये अनुभव की इच्छा को उत्तरदायी मानते हैं। वर्तमान में अश्लील साहित्य शराबवृत्ति एवं सिनेमा के प्रभाव ने यौन उत्तेजना को भड़काने में मदद की है। विभिन्न प्रकार के यौन सुख, जिज्ञासा एवं अनुभवों के लिये भी स्त्रियाँ अपने को अनैतिक यौन व्यवहार में लगा लेती हैं।

17. पुरुषों की काम वासना -

वेश्यावृत्ति के लिये पुरुषों की काम वासना भी उत्तरदायी है। धनी एवं विलासी व्यक्ति अपनी काम-वासना की पूर्ति के लिये वेश्या की सृष्टि करते हैं। विभिन्न प्रकार का यौन सुख चाहने वाले पुरुष भी वेश्यागामी हो जाते हैं।

18. सामाजिक कुरीतियाँ -

भारतीय समाज में दहेज मृत्यु एवं विभिन्न प्रकार के उत्सव, आदि प्रचलित हैं इनकी पूर्ति के लिये लोगों को ऋण तक लेना पड़ता है। जब ऋण का भार इतना बढ़ जाता है कि उसे चुकाने में असमर्थ हो जाता है तो स्त्री या पुत्री द्वारा यौन व्यभिचार करवाता है और पैसा कमा कर कुरीतियों को निभाता है।

19. युद्ध -

युद्ध में पुरुष मारे जाते हैं इससे लड़कियाँ अनाथ एवं स्त्रियाँ विधवा हो जाती हैं। उनके पास जीवन-यापन का कोई साधन नहीं होता तो उन्हें वेश्यावृत्ति के लिये विवश होना पड़ता है।

लखनऊ नगर में वेश्यावृत्ति

भारत में वेश्यावृत्ति के अन्य महत्त्वपूर्ण अध्ययन

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वेश्यावृत्ति के दुष्प्रभाव

1. नारी जाति का अपमान -

वेश्यावृत्ति नारी जाति के लिये एक कलंक है। नारी की सबसे बड़ी संपत्ति उसका शील एवं सतीत्व है। वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्री अपने पवित्र गरिमामयी सतीत्व को धन की लालसा में बेच देती है। यह उसके लिये घृणास्पद एवं लज्जाजनक बात है।

2. वैयक्तिक विघटन -

वेश्यावृत्ति से समाज में फूटन पड़ जाती है। एक तरफ वह स्त्री, जिसने इस व्यवसाय को अपनाया है उसके पास चरित्र और आत्मसम्मान जैसा कुछ भी नहीं बचाता उसे अनुचित एवं वैधानिक कार्यों को करने में संकोच नहीं होता है। वेश्यावृत्ति में फंसी स्त्रियों का उत्तरदायित्व न तो समाज के प्रति कुछ है और न परिवार के प्रति ही, इनका संपूर्ण जीवन अंदर ही अंदर घुलता रहता है।

वेश्यागामी पुरुष समाज में शराब, जुआ, चोरी सब कुछ कर सकता है। इन्हें न तो अपनी चिंता होती है। और न अपने परिवार की। इनके जीवन की संपूर्ण आय वेश्यावृत्ति में ही व्यय हो जाती है। यह समाज की दृष्टि में और स्वयं अपनी दृष्टि में इतने गिर जाते हैं, कि ये किसी कार्य में रूचि नहीं लेते, और न ही अपने उत्तरदायित्व को ही निभाते हैं। अत: स्त्री और पुरुष दोनों ही इस वृत्ति में फँस जाते हैं। उनके जीवन में घृणा, उपेक्षा, स्नेह और प्रेम का अभाव रहता है इसकी पूर्ति वेश्यावृत्ति से पूरी नहीं होती इसके अभाव में वह सबकुछ समाज विरोधी और अपने विरूद्ध करते रहते हैं। ये उनके व्यक्तित्व को नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं।

3. पारिवारिक विघटन -

वेश्यावृत्ति पारिवारिक जीवन के लिये खतरा है। जब स्त्री यौन दृष्टि से अपवित्र एवं अविश्वसनीय होती है तो तालाक की समस्या उत्पन्न हो जाती है। पति पत्नी में संघर्ष, मारपीट होने लगती है। पुरुष घर की संपत्ति वेश्यावृत्ति में उड़ाने लगता है। इससे घर की संपत्ति समाप्त होती है। बच्चों की दशा दयनीय हो जाती है। गुप्तांगों की बीमारियाँ माता-पिता से परिवारों में बच्चों को हस्तांतरित होती हैं और इससे परिवार में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

4. सामाजिक विघटन -

वेश्यावृत्ति सामाजिक और सामुदायिक विघटन का कारण बनती है। इससे सामाजिक मूल्यों में गिरावट आती है। सामाजिक मूल्यों का संरक्षण करना कठिन हो जाता है। अपराधों में वृद्धि होती है।

5. नैतिक पतन -

वेश्यावृत्ति के कारण नैतिक मूल्यों का पतन होता है। वेश्यावृत्ति में लगे स्त्री पुरुष दोनों का पतन होता है।

6. अपराधों में वृद्धि -

वेश्यावृत्ति के साथ जुआ, चोरी, डकैती, अपहरण एवं हत्या आदि अपराध जुड़े हुए हैं। अपराधी वृत्ति के लोग भी वेश्यावृत्ति अपनाने वाली स्त्रियों के यहाँ शरण लेते हैं। कुछ वेश्याएँ भी इस प्रकार के अवैध व्यापारिक और अव्यावहारिक कार्यों से जुड़ी हुई है। इस प्रकार समाज में अपराधों की वृद्धि होती है।

7. आर्थिक हानि -

वेश्यावृत्ति के दीवाने अपने परिवार के भरण-पोषण से विमुख होकर वेश्याओं के पीछे घर फूंक तमाशा देखने के लिये विवश हो जाते हैं। इस प्रकार वेश्यावृत्ति से आर्थिक क्षति होती है। अपव्यय बढ़ता है।

8. यौन रोग -

वेश्यावृत्ति से स्त्री और पुरुष दोनों गुप्त यौन रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। भयंकर गुप्तांगों की बीमारियाँ जैसे प्रमेह, गोनोरिया, उपदंश सुजाक, गुप्तांगों का कैंसर तथा एड्स जैसे जान लेवा रोगों से ग्रसित होकर अपना तथा अपने समाज के लिये भार बनते हैं। इनके अतिरिक्त डिसूरिया, ग्लीट एवं अति स्राव जैसे संक्रामक रोग लग जाते हैं।

9. माद्यपान की लत -

वेश्यावृत्ति से प्रभावित व्यक्ति अपनी इच्छाओं की शांति के लिये तरह-तरह के मादक द्रव्य लेने लगते हैं। अपने परिवार के लिये कष्टदायक बनते हैं अपने स्वास्थ्य को खराब करते हैं। मद्यपान की आवश्यकता की पूर्ति के लिये अपराधों को बढ़ावा मिलने लगता है परिवार के लोगों का सुख चैन छिन जाता है।

वेश्यावृत्ति की रोकथाम

वेश्यावृत्ति उन्मूलन हेतु सुझाव

1. निरोधात्मक कार्य -


(i) स्त्रियों को रोजगार पाने की शिक्षा दी जाए।
(ii) औद्योगिक और नैतिक प्रशिक्षण दिया जाए।
(iii) दहेज प्रथा जैसी समाज विरोधी बुराई को कानूनी तौर पर समाप्त किया जाए।
(iv) विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन दिया जाए।
(v) समाज में स्त्री-पुरुषों के लिये दोहरे नैतिक मानदंडों को समाप्त किया जाए।
(vi) वेश्याओं के लिये रक्षाग्रहों की स्थापना की जाए तथा विधवा एवं अनाथ लड़कियों के लिये आश्रमों का प्रबंध किया जाए।
(vii) लोगों को यौन शिक्षा प्रदान की जाए तथा वेश्यावृत्ति से होने वाले जननेन्द्रिय रोगों का ज्ञान कराया जाए।
(viii) वेश्यावृत्ति से मुक्त होने के लिये वैचारिक परामर्श केंद्र स्थापित किये जाए।

2. निषेधात्मक कार्य


(i) वेश्याओं का चिकित्सकीय परीक्षण कराया जाए एवं रोग ग्रस्त वेश्याओं का उपचार कराया जाए तथा रोगी वेश्याओं को यौन सम्पर्क स्थापित करने से रोका जाए ताकि बीमारियां न फैल सकें

(ii) वेश्यालयों को धार्मिक शैक्षणिक एवं औद्योगिक स्थानों से दूर रखा जाए तथा क्रमश: बंद करने की दिशा में प्रयास किया जाए।

(iii) वेश्यावृत्ति करने वाले बीमार लोगों की चिकित्सा की जाए तथा उन्हें यौन रोगों से बचने के साधन प्रदान किए जाए।

3. वैधानिक कार्य -


वेश्यावृत्ति रोकने के लिये कानूनी कदम उठाए जाए एवं उन्हें लागू किया जाए, कानून को प्रभावी और सफल बनाने के लिये मध्यस्थों की भूमिका को समाप्त किया जाए।

4. अन्य सुझाव -


(i) जनता का सहयोग लिया जाए। इस बुराई को समाप्त करने के लिये जनता को सहयोग दिया जाए।

(ii) सामाजिक कार्यकर्त्ताओं का भी योगदान प्राप्त करना इस दिशा में महत्त्व का होगा।

(iii) वेश्याओं के पुनर्वास के लिये समाज कल्याण विभाग तथा धार्मिक एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं का सहयोग लिया जाए।

(iv) पारिवारिक संगठन बनाए रखने के लिये स्त्रियों के शोषण पर रोक लगायी जाए।

(v) मनोरंजन की उचित व्यवस्था की जाए।

(vi) यौन साहित्य एवं उत्तेजक फिल्मों पर रोक लगायी जाए।

(vii) नाचघरों में स्त्रियों की सदस्यता, एक निश्चित उम्र से कम की लड़कियों के क्लबों में प्रवेश, सार्वजनिक स्थलों पर अश्लील फैशन व तड़क-भड़क वाली वेशभूषा आदि पर नियंत्रण लगाया जाना चाहिए।

(viii) वेश्याओं और पुलिस के मध्य अनैतिक सम्बन्ध समाप्त किये जायें ताकि वेश्यालय चलाने वाले कानून की गिरफ्त से न बच सकें।

(ix) बाल शिक्षण का उचित प्रबंध किया जाए, उन्हें नैतिक शिक्षा देकर उचित-अनुचित का ज्ञान देकर वेश्यावृत्ति से बचाया जाए।

(x) माता-पिता या अध्यापक समिति का निर्माण किया जाए। यह समिति विद्यार्थियों की समस्याओं पर विचार करे तथा उसके निराकरण का उपाय सोंचे।

(xi) वेश्यावृत्ति से निकले हुए व्यक्तियों को समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त हो।

आत्महत्या (SUCIDE)

आत्महत्या की परिभाषा एवं प्रकृति

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‘‘आत्महत्या स्वेच्छा पूर्वक और जानबूझकर की जाने वाली आत्महनन की क्रिया है।’’



रूथ कैवन41 के अनुसार

‘‘आत्महत्या अपने आप स्वेच्छा से जीवन लीला समाप्त करने हेतु अथवा मृत्यु द्वारा आतंकित होने पर अपने जीवन को बचाने में असमर्थता की प्रक्रिया है।’’



दुर्खीम42 के अनुसार आत्महत्या ऐसी सकारात्मक अथवा नकारात्मक क्रिया है। जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक स्थिति में मृत्यु के रूप में प्रतिफलित होती है। इस क्रिया का कर्ता स्वयं ही इस क्रिया के परिणाम का भक्ष्य बनता है। और उसे इस परिणाम का पहले ही ज्ञान रहता है।

इलियेट व मैरिल43 का मत है कि आत्महत्या व्यक्ति के विघटन का दुखद तथा अपरिवर्तनशील अंतिम परिणाम है। यह व्यक्ति के दृष्टि कोणों में होने वाले उन क्रमिक परिवर्तनों का अंतिम परिणाम है। जिनमें व्यक्ति के मन में जीवन के प्रति अगाध प्रेम के स्थान पर जीवन के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है।

मावरर आत्महत्या को वैज्ञानिक विघटन के रूप में स्वीकार नहीं करते। उनका मत है कि आत्महत्या में व्यक्ति स्वयं को समाप्त करने की इच्छा रखता है। साथ ही दूसरों का ध्यान सहानुभूति तथा उन पर नियंत्रण भी प्राप्त करना चाहता है।

परिभाषाओं के विश्लेषण से यह निष्कर्ष आते हैं कि आत्महत्या एक ऐसी प्रक्रिया है। जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा से अपने विचारों के अनुरूप अपने आप को समाप्त करता है।

आत्महत्या के कारण सभी के लिये एक जैसे नहीं होते हैं। फ्रायड आत्महत्या के लिये हीन भावना, घृणा एवं निराशा को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। मार्टिन गोल्ड का मानना है कि जो बचपन से शारीरिक दंड एवं यातना अधिक भुगतते हैं, वे दूसरों पर क्रोध करते हैं और मानसिक रूप से कष्ट भुगतने वाले स्वयं पर अधिक क्रोध करते हैं। यही कारण है कि निम्न वर्ग के लोग अधिक आत्महत्याएँ करते हैं। हाबवाच का मत है कि नगरीय जीवन ही वैयक्तिक विघटन एवं आत्महत्या के लिये उत्तरदायी है। हेनरी और शार्ट का मत है कि आर्थिक कारण वैयक्तिक विक्षिप्तता उत्पन्न करते हैं। विक्षिप्त अवस्था व्यक्ति में आक्रामक व्यवहार उत्पन्न करती है और यही स्थितियाँ आगे चलकर आत्महत्या का कारण बन जाती है। जिलबुर्ग की मान्यता है कि जो व्यक्ति तीव्र आक्रमणकारी उत्तेजनाओं का शिकार होते हैं वे सामाजिक नियंत्रण एवं दबाव के कारण अपनी उत्तेजनाओं को अभिव्यक्त नहीं कर पाते और न ही उत्तेजना के प्रभाव से बच पाते हैं इस दशा में आत्महत्या कर बैठते हैं। फेलरेट का मत है कि व्यक्ति में अत्याधिक उद्वेग होने पर उनकी विचार शक्ति समाप्त हो जाती है। यही स्थिति आत्महत्या के लिये उत्तरदायी है। विलियम्स आत्महत्या के लिये भय, घृणा, वैमनस्य अपर्याप्तता एवं अत्याधिक अपराधी भावना को उत्तरदायी ठहराते हैं।44

आत्महत्या के कारण

(i) वैयक्तिक कारक -

1. शारीरिक दोष -

शारीरिक दृष्टि से पायी जाने वाली कमियाँ जैसे लंगड़ा अपाहिज होना, अपंग, बहरा या अंधा होना हकलाना या कुरूपता आदि व्यक्ति में हीन भावना पैदा करती है और व्यक्ति आत्महत्या कर बैठता है।

2. शारीरिक व्याधियाँ -

भयंकर शारीरिक व्याधियाँ जैसे कुष्ठ रोग, क्षय कैंसर, लंबी बीमारी, कष्टप्रद रोग एवं गुप्तांगों की बीमारियाँ आदि भी व्यक्ति को आत्महत्या करने को प्रेरित करती है।

3. मानसिक विकार -

कई प्रकार के मानसिक तनाव एवं विकार जैसे चिंता, अत्यधिक भय स्नायु तनाव, मानसिक अस्थिरता, हीनभावना, निराशा, भावुकता, क्रोध एवं समर्पण शीलता आदि भी व्यक्ति को आत्महत्या करने को प्रोत्साहित करते हैं।

4. पारिवारिक विसंगति -

जब व्यक्ति को पारिवारिक संघर्ष और तनाव से गुजरना पड़ता है तो उसका संतुलित जीवन बिगड़ जाता है और पुन: अनुकूल न कर पाने की स्थिति में वह आत्महत्या करके जीवन से मुक्ति पा लेता है अत्यधिक काम वासना होने, अपराधी क्रियाओं में लगे होने, अत्यधिक शराब पीने, अन्य मादक द्रव्यों का सेवन करने, जुआ खेलने एवं वेश्यावृत्ति करने वाले व्यक्ति इसी कारण से आत्महत्या कर बैठते हैं।

(ii) पारिवारिक कारक

1. टूटते परिवार -

माता पिता की मृत्यु होना, पति पत्नी का परित्याग एवं तलाक होने अथवा उनमें मेल न खाना आदि की स्थिति में व्यक्ति पर सामाजिक नियंत्रण शिथिल हो जाता है। व्यक्ति अकेलापन महसूस करता है और आत्महत्या कर बैठता है। यही कारण है कि विधवा या विधुर व्यक्ति, परित्यक्त एवं तलाक शुदा व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की तुलना में अधिक आत्महत्या करते हैं।

2. पारिवारिक कलह -

जिन परिवारों में लगातार संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती रहती है यथा पति-पत्नी, भाई, माता पिता, सास बहू आदि में कलह होने पर परिवार का नियंत्रण एवं अनुशासन समाप्त हो जाता है। ऐसे परिवार के सदस्य आत्महत्या अधिक करते हैं।

3. दाम्पत्य जीवन में असामंजस्य -

पति पत्नी में से कोई भी एक दूसरे से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाने की स्थिति में मानसिक तनाव, घृणा, क्रूरता, क्रोध आदि से ग्रस्त रहता है जिससे आत्महत्या करके छुटकारा प्राप्त किया जाता है।

4. रोमांस -

प्रेम एवं रोमांस में असफल होने अथवा जिस व्यक्ति को वह अत्यधिक प्यार करता है और किसी कारण से उससे विवाह करने में असफल हो जाता है या प्रेमी प्रेमिका में से कोई एक दूसरे से विश्वासघात कर देता है तब भी व्यक्ति आत्महत्या कर बैठता है। वर्तमान में आत्महत्या की अधिक घटनाएँ विशेषकर नगरीय क्षेत्रों में इसी रूप में होती है।

5. दुर्व्यवहार -

सौतेली माँ का बच्चों के प्रति भेदभाव पूर्ण व्यवहार, सास का बहु के प्रति दुर्व्यवहार पति द्वारा पत्नी के साथ मार पीट करने उसके भरण पोषण की व्यवस्था न करने तथा अमानवीय व्यवहार करने आदि की स्थितियाँ भी आत्महत्या के लिये उत्तरदायी है।

(iii) सामाजिक कारक


दुर्खीम आत्महत्या को एक सामाजिक घटना मानते हैं। और वे इसके लिये सामाजिक कारकों को ही उत्तरदायी मानते हैं। आत्महत्या के लिये उत्तरदायी प्रमुख सामाजिक कराक इस प्रकार है -

1. दोषपूर्ण समाजीकरण -

व्यक्ति का समाजीकरण करने वाली अनेक सामाजिक संस्थाएँ है जिनमें परिवार, पड़ोस, क्लब, मित्र मंडली, शिक्षण संस्थाएँ, मनोरंजन प्रदान करने वाली संस्थाएँ प्रमुख है। वर्तमान में इन संस्थाओं में अनेक विकार उत्पन्न हो गए हैं। परिणाम स्वरूप व्यक्ति में निराशा, असहिष्णुता, अत्यधिक भावुकता एवं क्रोध घर कर जाते हैं। यह अपर्याप्त सामाजीकरण की प्रवृत्ति व्यक्ति को आत्महत्या के लिये प्रेरित करता है।

2. सामाजिक कुरीतियाँ -

भारत संस्कारित संस्कृति वाला देश है। कुछ संस्कार आज इस रूप में समाज में प्रचलित है कि लोग उनका निर्वाह नहीं कर पाते और आत्महत्या कर बैठते हैं। दहेज, मृत्युभोज, विधवा विवाह का अभाव, जैसी कुरीतियाँ आत्महत्या के लिये विवश करती हैं। दहेज के कारण माता-पिता अपनी लड़कियों का विवाह नहीं कर पाते हैं, और मानसिक संतुलन खो देते है। इसी प्रकार लड़कियाँ माता पिता की दशा को देखकर चिंता ग्रस्त होती है। विधवा विवाह या पुनर्विवाह न हो पाने के कारण समाज में अपमानित या दोषों के लगाए जाने से भी आत्महत्या के लिये लोग विवश होते हैं।

3. पद की हानि -

किसी आर्थिक क्षति या व्यावहारिक कारणों से जब व्यक्ति की मान प्रतिष्ठा को ठेस लगती है, तब वह आत्मलानी एवं हीन भावना से ग्रस्त होकर आत्महत्या के लिये विवश हो जाते हैं।

4. सामाजिक विघटन -

सामाजिक समस्याओं की अधिकता के विशेषकर युद्ध आदि के समय सामाजिक एवं सामुदायिक विघटन उत्पन्न हो जाता है। और उसे पुन: अनुकूल स्थितियाँ नहीं मिल पाती है। ऐसी दशा में भी लोग आत्महत्या कर लेते हैं।

(iv) आर्थिक कारक


विभिन्न प्रकार की आर्थिक विषमताएँ एवं परिस्थितियाँ भी आत्महत्या को जन्म देती है -

1. निर्धनता -

गरीबी की स्थितियों में व्यक्ति अपने परिवार एवं आश्रितों की आवश्यकता पूरी नहीं कर पाता गरीबी के कारण उसे अनेक इच्छाओं का दमन करना पड़ता है। वह हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है। ये सभी स्थितियाँ जब व्यक्ति के लिये असह्य हो जाती है तो वह आत्महत्या कर लेता है।

2. बेकारी -

जब व्यक्ति जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता है। परिवार जनों का भरण पोषण न कर पाने में अपने आप को दोषी समझने लगता है, अपने आपको दूसरों का भार समझने लगता है तब वह इन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिये आत्महत्या कर लेता है।

3. धार्मिक स्वीकृति -

हिंदू इस्लाम व कैथोलिक धर्मों में आत्महत्या को पाप माना गया है और आत्महत्या से बचने का आदेश दिया गया है। दूसरी ओर प्रोटेस्टेण्ट धर्म में स्वतंत्रता अधिक है। वह समूहवाद के स्थान पर व्यक्तिवाद पर जोर देता है। इसलिये अन्य धर्मावलम्बियों की तुलना में प्रोटेस्टेण्ट धर्म के लोग अधिक आत्महत्या करते हैं।

(v) भौगोलिक कारक


यद्यपि भौगोलिक कारकों का आत्महत्या से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है किंतु ये व्यक्ति में संवेग, मानसिक तनाव आदि को जन्म देते हैं जो आत्महत्या के लिये उत्तरदायी हैं। बाढ़, भूकम्प, अकाल, अतिवृष्टि अनावृष्टि, भूमि की अनुत्पादकता एवं मौसम का दुष्प्रभाव लोगों के संगठित एवं सुव्यवस्थित जीवन को नष्ट कर देता है यह असंतुलन आत्महत्याओं को बढ़ाने में योग देता है।

(vi) नगरीकरण


सोरोकिन एवं जिमरमैन ने आत्महत्या के लिये नगरीकरण को उत्तरदायी माना है। नगरों में व्यक्तिवादी संस्कृति की अधिकता एवं सामुदायिक भावना का अभाव पाया जाता है। नगरों की गंदी बस्तियाँ, दूषित वातावरण एवं अकेलापन आत्महत्या के लिये उत्तरदायी है। दुर्खीम की मान्यता के अनुसार गाँवों की अपेक्षा नगरों में आत्महत्याएँ अधिक होती है।

(vii) मनोवैज्ञानिक कारक


आत्महत्या के लिये अनेक मनोवैज्ञानिक कारक जैसे अत्यधिक क्रोध, भावुकता मानसिक बीमारियाँ, चिंता उन्माद, मानसिक दुर्बलता, संवेगात्मकता, कुंठा निराशा एवं अत्यधिक संवेदनशीलता आदि उत्तरदायी है।

सभी कारकों के अतिरिक्त युद्ध, मद्यपान, परीक्षा में असफलता स्थान परिवर्तन आदि भी आत्महत्या को बढ़ावा देते हैं। युद्ध के समय सैनिकों एवं नागरिकों में साधारण दिनों की अपेक्षा अधिक आत्महत्या करने की प्रवृत्ति पायी गयी हैं। प्रेम में असफलता तथा परीक्षा में असफलता की दशा में आत्महत्या अधिक की जाती है। स्पष्ट है आत्महत्या एक जटिल तथ्य है, जिसके लिये कई परिस्थितियाँ उत्तरदायी हैं।

लखनऊ महानगर में आत्महत्याएँ

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आत्महत्या के निवारण के लिये प्रयास

बाल अपराध (JUVENILE DELINQUENCY)

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‘‘बाल अपराध के अंतर्गत किसी बालक या ऐसे तरुण व्यक्ति के गलत कार्य आते हैं जो सम्बन्धित स्थान के कानून (जो उस समय लागू हो) के द्वारा निर्दिष्ट आयु सीमा के अंतर्गत आते हैं।’’



न्यूमेयर47 के अनुसार,

‘‘एक बाल अपराधी निर्धारित आयु से कम आयु का वह व्यक्ति है जो समाज विरोधी कार्य करने का दोषी है और जिसका दुराचरण कानून का उल्लंघन है।’’



फ्राइडलैण्डर48 के अनुसार,

‘‘बाल अपराधी वह बच्चा है जिसकी मनोवृत्ति कानून को भंग करने वाली हो अथवा कानून को भंग करने का संकेत करती हो।’’



उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि राज्य द्वारा निर्धारित आयु समूह के बच्चे द्वारा किया गया कानून विरोधी कार्य बाल अपराध है। केंद्र ने 1986 में बाल न्याय अधिनियम, 1986 (Juvenile Justice Act 1986) पारित किया जिसमें 16 वर्ष तक की आयु के लड़के लड़कियों को अपराध करने पर बाल अपराधियों की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है।

बाल अपराध के कारण

1. पारिवारिक कारण -

परिवार की आर्थिक स्थितियों, शैक्षिक स्तर, नैतिकता आदि का बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला है परिवार के व्यवहार और गुणों का बच्चे पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। अत: अपराधी प्रवृत्ति भी बालक में पारिवारिक कारणों से उत्पन्न होती है। गोडार्ड, रिचार्ड, डुग्डेल एवं इस्टा ब्रूक ने अपने-अपने अध्ययन से स्पष्ट किया कि शारीरिक रूप से क्षत विक्षत परिवारों की सभी पीढ़ियाँ अपराधी थी, अत: अपराध वंशानुक्रमणजनित है। परिवार के सदस्य की मृत्यु हो जाना, बीमार रहना, तलाक, पृथक्करण, मनमुटाव, मानसिक संघर्ष में रहने वाले परिवार के अध्ययन में हंसा सेठ, कारसैंडर्स, बेजहाट, सुलेंज, मेंहीम, ग्लूक एवं कुमारी इलियेट ने पाया कि बाल अपराधियों की संख्या टूटे परिवारों से आती है। इसके अतिरिक्त पारिवारिक लोगों का अपराधी होना, सौतेले माता पिता, पक्षपात, दोषपूर्ण अनुशासन, गरीबी, बच्चों का तिरस्कार, भीड़युक्त परिवार बाल अपराधियों को जन्म देते हैं।

2. व्यक्तिगत कारण -

बाल अपराध की प्रवृत्ति शारीरिक विकारों, कमजोर दृष्टि, बहरापन, अशुद्ध उच्चारण, अस्थि विकलांगता कमजोरी, बीमारी आदि कारणों से बालक में उत्पन्न हो जाती है। मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों ने मानसिक असामान्यताओं को बाल अपराध के लिये दोषी माना है। अधिकांश बाल अपराधियों में अपराधी भावना के लिये स्कूल के प्रति अनिच्छा, भेदभाव की भावना तथा भाई बहनों एवं खेल प्रेमियों के प्रति असंतोष आदि उत्तरदायी थे।

3. सामुदायिक कारक -

बालक जिस समुदाय में रहता है यदि उसका वातावरण उपयुक्त नहीं है तो बालक अपराधी बन सकता है। गरीबी निम्न आर्थिक व सामाजिक दशा की सूचक है। पारिवारिक व सामुदायिक स्रोतों के अभाव में तथा खेल के मैदानों में घरों की अनुचित व्यवस्था के कारण अपराध पनपते हैं गंदी बस्तियों में अपराधी प्रवृत्ति के अधिक बालक पाये गए। उचित मनोरंजन के अभाव में बाल अपराध की दर बढ़ती है खाली समय में स्कूल जाने की तुलना में अधिक बाल अपराध की घटनाएँ घटित होती हैं। विद्यालय का अनुपयुक्त वातावरण, अध्यापकों का व्यवहार, अध्यापकों की प्रभाव हीनता, अध्यापक के घर का संघर्ष, असुरक्षा बीमारी, गृहकार्य की अधिकता, तनाव दबाव का वातावरण बालक के कोमल मस्तिष्क को प्रभावित करता है।

अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के मध्य निवास की स्थितियों में भी बालक का कोमल मन दूषित होता है। नगरों के केंद्रों एवं व्यापारिक क्षेत्र में अपराध अधिक होते हैं। जैसे-जैसे नगर से बाहर की ओर चलते हैं अपराध कम होते जाते हैं। आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की निकटता अपराध की प्रवृत्ति को सीखने में मदद करती है। युद्ध संघर्ष के वातावरण में बाल अपराध बढ़ते हैं। युद्ध की स्थितियों में भोजन, आवास, पालन पोषण की समस्याएँ बाल अपराध को बढ़ाती हैं। समाज विरोधी वातावरण, सांस्कृतिक भिन्नता, संघर्ष, जातीय व्यवस्था, नैतिक पतन, स्वच्छंदता की वृत्ति, आर्थिक मंदी, अवारागर्दी एवं भगोड़ापन जैसे आमाजिक कारण बालक को अपराधी बनाने में योग देते हैं। नगर के बाल अपराध की स्थितियों का प्रतीकात्मक अध्ययन करने का एक प्रयास यहाँ किया गया है।

लखनऊ महानगर में बाल अपराध की स्थितियाँ

बाल-अपराधिक वृत्ति पर नियंत्रण

1. हिरासत घर -

अपराधिक स्थितियों से बाल अपराधी को अलग रखा जाए क्योंकि युवा अपराधियों के सम्पर्क में आने पर उनके अधिक अपराधी बन जाने की संभावना रहती है। इनके माध्यम से बालक की मानसिकता, सामाजिक और शारीरिक दशाओं का अध्ययन निष्पक्ष रूप से करके पारिवारिक वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए।

2. प्रमाणित विद्यालयों की स्थापना -

अपराध की सजा पाये बाल अपराधी को न्यायालय की अनुमति पर ऐसे विद्यालयों में रखा जाता है जहाँ उसे शिक्षा तथा रोजगार परक जानकारी देकर भविष्य के लिये सामान्य जीवन जीने के योग्य बनाया जाता है। इन विद्यालयों के वातावरण में सामाजिकता और नैतिकता का वातावरण बनाने तथा बच्चे को पारिवारिक वातावरण में रहने का अभ्यस्त बनाया जाना चाहिए। खेलों तथा मनोरंजन का वातावरण पैदाकर चारित्रिक क्षमताओं का विकास किया जा सकता है।

3. परिवेक्षण गृह -

परिवेक्षण गृह में ऐसे अपराधियों को रखा जाता है जिन्हें दिन में नौकरी एवं काम करने की छूट होती है। रात्रि में ठीक समय पर पहुँचना अनिवार्य होता है। परिवेक्षण अधिकारी अपराधी की गतिविधियों पर नजर रखता है। यहाँ पर बाल अपराधी के प्रति विश्वास, सामाजिक मर्यादाओं का पालन, समय का पालन, जीविकोपार्जन, सभी से मिलने जुलने तथा व्यवहार में सभी से जुड़ने का अवसर प्रदान कर परिवेक्षण गृह बाल अपराध में सुधार को नयी दिशा दे सकते हैं।

4. किशोर बंदीगृह -

किशोर बंदीगृहों में बाल अपराधियों को रखा जाता है। यहाँ पर व्यवसाय का प्रशिक्षण, अध्ययन, आने जाने, भोजन आदि की व्यवस्था होती है। इनमें बाल अपराधियों की प्रगति का पूर्ण ब्यौरा रखा जाता है जिसके आधार पर उन्हें अपराध मुक्त होने की दशा पर सम्मानित जीवन जीने में मदद मिल सके।

5. सुधार गृह विद्यालय -

सजा पाये बाल अपराधी या आंशिक अपराध सिद्ध होने की दशा में बाल अपराधियों को सुधार गृह विद्यालयों में रखा जाता है। इसमें रोजगार के लिये कृषि, चमड़े का काम, खिलौने, दरी, निवार, रस्सी बनाने, बढ़ईगीरी, सिलाई आदि का काम सिखाया जाता है उन्हें अन्य रोजगार परक कार्यों का रूचि के अनुसार प्रशिक्षण देने की व्यवस्था होती है।

ऐसे विद्यालयों में आज विभिन्न प्रकार की समस्याएँ हैं। बालकों की मनो दशाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। इसलिये ये विद्यालय सुधार के स्थान पर बाल अपराधियों में असंतोष और असहिष्णुता की स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं। इनके वातावरण और शिक्षण दशाओं और रोजगार परक शिक्षा में नवीनता लाने और रूचिकर बनाने की आवश्यकता है। उनके प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

6. पोषण तथा सहायक गृहों में सुधार -

पोषण गृहों में 10 से कम आयुवर्ग के बाल अपराधियों को रखा जाता है। यहाँ पर पारिवारिक रूप से टूटे बच्चे अधिक होते हैं इसलिये अपराध के बोध कराने से ऊपर उठकर पोषण के साथ-साथ पारिवारिक वातावरण करने की आवश्यकता है। बालक, बाल अपराध में प्रवृत्त न हो इसके लिये आवश्यक है कि -

1. स्वस्थ मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

2. अश्लील साहित्य एवं दोषपूर्ण चलचित्रों पर नियंत्रण लगाना चाहिए।

3. पथभ्रष्ट बालकों के सुधार के लिये उनके माता पिता को मदद देने के लिये बाल सलाहकार केंद्र स्थापित होने चाहिए।

4. बच्चे कोरे कागद हैं अत: उन्हें दूषित सामाजिक वातावरण से बचाना चाहिए।

5. साधारण अपराध के लिये न्यायालय के अतिरिक्त प्रशासनिक अधिकारी के सम्मुख उपस्थित किया जाना चाहिए। ऐसे अधिकारी सुधार के लिये महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।

6. मलिन बस्तियों के सामाजिक पर्यावरण को बदलने के लिये धार्मिक संस्थाओं की सहायता ली जा सकती है।

7. बाल न्यायालयों की संख्या में वृद्धि की जानी चाहिए।

8. शिक्षा व्यवस्था में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य पाठयक्रम बनाना चाहिए।

9. गरीबी तथा बेकारी में जीविका चलाने वाले परिवारों के लिये शिक्षा नि:शुल्क तथा अनिवार्य होनी चाहिए।

10. बाल अपराधियों के सुधार में संलग्न संस्थाओं की आर्थिक दशा में सुधार किया जाना चाहिए।

11. बाल अपराध नियंत्रण के लिये सारे देश में कानून समान रूप से लागू किया जाना चाहिए।

12. बाल अधिनियम के अंतर्गत बनाये गए कानून की सन 1860 की धारा 399 व 562 में प्राविधान है कि बाल अपराधी को युवा अपराधियों से पृथक रखा जाए। इसका पालन किया जाना चाहिए।

13. समाज कल्याण मंत्रियों की 1987 की बैठक में लिये गए निर्णय कि बाल अपराधियों को जेल में नहीं रखा जायेगा का पालन किया जाना चाहिए।

14. 1960 के बाल अधिनियम के अंतर्गत स्थापित बाल न्यायलयों के लिये निर्देशित आचरण संहिता बाल अपराध सुधार की दिशा में महत्त्वपूर्ण है। इसके निर्देशों का पालन किया जाना चाहिए।

15. बाल अपराधियों को अच्छे आचरण से सम्बन्धित कहानी नाटकों, आदि के माध्यम से प्रेरित करना चाहिए।

16. विद्यालय के बालकों को अन्य बालकों के सम्पर्क में समय व्यतीत करने के अवसर उपलब्ध कराने चाहिए।

स. स्वयंसेवी संस्थाएँ एवं सामाजिक प्रदूषण नियंत्रण

संदर्भ (REFERENCE)

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